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कनॉट प्लेस के एक रेस्तराँ में एक रोज़

उस दिन दुपहर निरुद्देश्य भटकते हुए, मैंने पाया कि मैं कनॉट प्लेस में हूँ और मुझे भूख लगी है। सामने एक नया बना रेस्तराँ था। मैं भीतर चलता गया और एक ख़ाली मेज़ पर बैठ गया। मैंने एक प्यारी-सी ख़ुशी महसूस की। बैरे ने मुझे मेन्यू थमा दिया। मेरे सामने एक नौजवान लड़की बैठी थी, जिसके बाल सफ़ेद थे और वह मेन्यू में आँखें गड़ाए थी। 

बाहर अक्टूबर की दिल्ली की जानी-पहचानी धुंध थी, जैसे सब तरफ़ आग लगी हो। साँस लेना और देखना मुश्किल हो रहा था। यह वह मौसम था जिसमें दिल्ली में सबसे ज़्यादा लोग बीमार पड़ते हैं। रेस्तराँ त्योहारों के लिए सज गया था। यह वह मौसम भी था, जब दिल्ली में सबसे ज़्यादा ख़रीदारी होती है और काम पड़ने वाले लोगों के घर बड़े-बड़े तोहफ़े पहुँचाए जाते हैं।

मैंने कल से कुछ नहीं खाया था, इसलिए हल्के-फुल्के ढंग से शुरुआत की। पहले मैंने गोल-गप्पे मँगाए। मगर उसका पानी ज़रूरत से ज़्यादा ठंडा था और उसमें कोई स्वाद भी नहीं था। मैंने चाट में पापड़ी-चाट भी ली। मगर मेरे जीभ की स्वाद-कलियाँ उससे भी अप्रभावित रहीं। हो सकता है उन्होंने स्वाद-कलियों को उत्तेजित करने वाले आर्टिफ़िशियल मसाले न डाले हों। 

फिर मैंने मसाला डोसा लिया, मगर उसे खाकर मुझे लगा कि रवा मसाला डोसा लेना चाहिए था। मैं तंदूरी प्लैटर का इंतज़ार कर रहा था, जिसमें देर हो रही थी। बैरे मेरी ओर ध्यान नहीं दे रहे थे। वे हँसी-मज़ाक़ कर रहे थे और दूसरे ग्राहकों को खाना सर्व करने में ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहे थे। आख़िरकार वह मेरे लिए तन्दूरी प्लैटर ले आए। उसमें धुँआ उठ रहा था और गर्म प्लेट से सिज़लिंग की चिर-चिर करती आवाज़ आ रही थी। प्लैटर में दाल-मखनी भी थी, रोटियाँ थोड़ी बाद में आईं।

मैंने पहले दाल-रोटी ली, जिससे तंदूरी प्लैटर को सिज़ल होने का वक़्त मिल सके। दाल में पानी ज़्यादा था और रोटियाँ तेज़ आँच में बनायी गई थीं, जिससे वो कहीं-कहीं जल गई थीं। 

फिर तंदूरी प्लैटर की बारी आई। पनीर के बड़े टुकड़े उन्होंने तंदूर में सेंक कर काट दिए थे। इससे भीतर का पनीर कच्चा ही दिख रहा था। मैंने उनसे कहा कि वह पनीर को सब तरफ़ से सेंक कर लाएँ। उन्होंने बहाना बनाया कि पनीर काला हो जाएगा। 

दुनिया में बहुत कम लोग अपनी ग़लती स्वीकार करते हैं और उसे सुधारते हैं। इसलिए मैंने कहा कि मुझे काला पनीर ही चाहिए। वे पूरी प्लेट उठाकर ले गए। बोर होने से बचने के लिए मैं दीवारों की ओर देखने लगा, जहाँ उन्होंने डेढ़ सौ साल पहले राजस्थान के एक गाँव में अपने पहले रेस्तराँ के खुलने से अब तक के अपने सफ़र को दिखाया था, जब उनकी दो सौ से ज़्यादा शाखाएँ खुल चुकी थीं। यूरोप, मध्य-पूर्व, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया हर जगह उनके रेस्तराँ थे।

तंदूरी प्लैटर ले आया गया। उसमें पनीर के साथ आलू, तरकारियों का सीक कबाब, मशरूम, टमाटर, शिमला मिर्च भी थे। सभी तंदूर में पके हुए। मुझे वे सब सादे-से लगे। या हो सकता है ये मेरे मन के बुझे होने की वजह से हुआ हो।  

बिल अच्छा-ख़ासा आया। रेस्तराँ धीरे-धीरे भर रहा था। मैंने सर्विस चार्ज बिल से हटवाया और बाहर आ गया, जहाँ फिर वही धूल-धक्कड़ मेरा इंतज़ार कर रहे थे।

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