भारंगम में कॉमेडी, लव और वॉर के अंतराल से गुज़रे दर्शक
रहमान
07 फरवरी 2025
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भारत रंग महोत्सव की तीसरी संध्या को, एमआईटी-एडीटी विश्वविद्यालय, रंगमंच विभाग के प्रथम वर्ष के छात्रों द्वारा ‘कंजूस’ नाटक प्रस्तुत किया गया। कलाकारों ने कंजूसी से इस नाटक का प्रदर्शन किया। नाटक में अपार संभावनाएँ थी, कई जगहों पर हास्य उत्पन्न हो सकता था। लेकिन कलाकारों ने ये मौक़े अपनी कंजूसी की वजह से गँवा दिए। मंच पर अभिनय कर रहे कुछ एक अभिनेता को छोड़, सब नवांकुर अभिनेता लग रहे थे। वे अपनी ओर से बेहतर करने का पूरा प्रयास कर रहे थे और अंत तक उनका प्रयास सफल भी हुआ।
‘कंजूस’ के लेखक फ़्रांसीसी नाटककार मोलियर हैं। इसे पहली बार 9 सितंबर, 1668 को पेरिस के पैलेस रॉयल थिएटर में दिखाया गया था। ‘कंजूस’ मोलियर के प्रसिद्ध नाटक ‘द माइज़र’ का हिंदी रूपांतरण है। यह एक कॉमेडी नाटक है, जो मिर्ज़ा बेग के चरित्र के इर्द-गिर्द घूमता है, जो एक अमीर लेकिन कंजूस व्यक्ति है। वह अपने पैसे को जमा करने के लिए जुनूनी है। नाटक—लालच और व्यक्तिगत संबंधों एवं समाज, दोनों पर इसके विनाशकारी प्रभावों की आलोचना करता है। मिर्ज़ा की अत्यधिक कंजूसी उसे अपने परिवार की उपेक्षा करने के लिए प्रेरित करती है, जिसमें उसके बच्चे भी शामिल हैं। जो ऐसे लोगों से प्यार करते हैं, जिन्हें उनके पिता वित्तीय कारणों से नापसंद करते हैं।
धन के प्रति मिर्ज़ा का जुनून हास्यास्पद स्थितियों, ग़लतफ़हमियों और संघर्षों को जन्म देता है, क्योंकि वह अपनी बेटी की शादी एक अमीर प्रेमी से और अपने बेटे की शादी एक बड़ी उम्र की महिला से करने का प्रयास करता है, वह गुप्त रूप से अपने भाग्य की रक्षा करने की कोशिश करता है। नाटक में अत्यधिक लालच की बेतुकी बातों को उजागर करने के लिए प्रहसन और तमाशापूर्ण हास्य का उपयोग किया गया है, जिसमें मिर्ज़ा का चरित्र मानवीय मूर्खता के प्रतीक के रूप में उभरता है।
नाटक में कई जगहों पर गाने आते हैं, लेकिन मिर्ज़ा और फ़रजीना के संवाद सहित और कई दृश्यों में, जहाँ पार्श्व ध्वनि की आवश्यकता लगती है—उन्हें ख़ाली छोड़ दिया गया है। नाटक के निर्देशक अमोल देशमुख का ध्यान संभव है इस ओर नहीं गया हो, लेकिन पार्श्व ध्वनि नाटक की गति और दृश्य की रोचकता के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
बक़ौल सलीम ख़ान—कॉमेडी करना सबसे मुश्किल काम है, आप रोने अथवा गंभीरता का अभिनय निरंतर अभ्यास और सही दिशा-निर्देश मिलने पर कर सकते हैं। लेकिन कॉमेडी आपको स्वयं ही करनी होती है और उसके लिए सेंस ऑफ़ ह्यूमर तो होना ही चाहिए। लेकिन आप केवल सेंस ऑफ़ ह्यूमर से लोगों को नहीं हँसा सकते, उसके लिए सेंस ऑफ़ टाइमिंग का होना बहुत ज़रूरी है कि कब? कहाँ? कितनी मात्रा में? किस तरीक़े से? क्या बोलना है? इसकी समझ कॉमेडी करना आसान बना देता है। जो अभिनेता कॉमेडी नहीं कर सकता है उसे संपूर्ण अभिनेता नहीं माना जाता है।
नाटक अपने मध्य में पहुँचता है तो प्रेक्षागृह में बैठा एक छोटा बच्चा एक दृश्य पर गुदगुदाता है। सारे दर्शक दृश्य पर नहीं बल्कि पहली बार उस बच्चे की वज़ह से हँसते हैं।
यदि संभव हो तो निर्देशक महोदय सहित सभी अभिनेता इकट्ठे बैठकर जॉनी वाकर, महमूद, कादर ख़ान, असरानी सहित और कई पुराने कमाल के हास्य अभिनेताओं को एक बार देख सकते हैं। नए समय में चाहें तो ज़ाकिर ख़ान, अनुभव सिंह बस्सी, रवि गुप्ता और भी कई अच्छी स्टैंडअप कॉमेडी करने वालों को देख सकते हैं। नाटक के कुछ एक दृश्य को देखकर मैं अपनी ओर से कहना चाहूँगा कि समय रैना और हर्ष गुजराल को भी चुपके से अकेले-अकेले देख ही लीजिएगा। ये वो लोग हैं जिनके पास सेंस ऑफ़ ह्यूमर और सेंस ऑफ़ टाइमिंग दोनों समान मात्रा में है।
नाटक कई कारणों से बेहतर प्रस्तुति बनकर नहीं उभर सका, लेकिन दो किरदारों ने बढ़िया काम किया। फ़रजीना और मिर्ज़ा की बेटी का किरदार निभा रही दोनों अभिनेत्री अपने चरित्र में ख़ूब सज रही थी।
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भारत रंग महोत्सव में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक छात्रों ने ‘द लास्ट प्रॉफ़ेट’ नाटक खेला। मंच को एक घने जंगल में तब्दील कर, एक घंटे तक भागते-दौड़ते अभिनेताओं के माध्यम से वहाँ नरसंहार की विभीषिका को दिखाने का प्रयास किया जा रहा था। ‘द लास्ट प्रॉफ़ेट’ नाम एक विशेष समुदाय के एक विशेष व्यक्तित्व से जुड़ाव रखता है, लेकिन नाटक का उसके नाम से कहीं कोई जुड़ाव नहीं।
लेखक और निर्देशक पस्की नाटक के माध्यम से क्या कहना चाहती हैं, यह स्पष्ट होता नहीं दिखता है। यह अस्पष्टता अभिनेताओं के किरदारों में भी दिखती है। उन्हें निर्देशक द्वारा यह बताने की आवश्यकता महसूस होती है।
एक दृश्य में नाटक फिलिस्तीन और इजराइल की बात करता हुआ नज़र आता है। अगले दृश्य में किस विषय में बात करता है? यह समझने की कोशिश में नाटक समाप्त हो जाता है। नाटक में पार्श्व ध्वनि और कुछ एक दृश्यों को छोड़ दें तो बहुत कुछ उत्साहित करने जैसा नहीं था। कम संवाद के नाटकों की अपनी चुनौती होती है। जिस चुनौती को भुनाने का आधा ज़िम्मा कहानी और बाक़ी अभिनेता, सेट, प्रकाश, म्यूजिक एवं वस्त्र के हिस्से आता है। नाटक में आख़िर की आधी ज़िम्मेदारी निभाने की कोशिश नज़र आ रही थी, लेकिन जब आपके पास स्पष्ट बात ही ना हो कहने के लिए तो आप चाहें जितना स्पष्ट बोल लें, कुछ भी स्पष्ट नहीं होता।
यह नाटक दो भाईचारे वाली जनजातियों के बीच के सांप्रदायिक संघर्ष के बारे में बताता है। नाटक उस संघर्ष की आख़िरी रात से शुरू होता है, जिसमें एक जनजाति अपने भाईचारे वाली दूसरी जनजाति से भिड़ती है। ये भिड़ंत एक जनजाति के द्वारा दूसरी जनजाति के देवता की मूर्ति को नष्ट कर, उसके शरीर के टुकड़ों से खेलते हुए ठहाके लगाते हुए ख़त्म होती है।
प्रस्तुति के उपरांत निर्देशक ने बातचीत में स्वयं ही कहा कि वह अपने नाटक से संतुष्ट नहीं हैं। इसमें कई जगह बदलाव की गुंजाइश है।
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भारत रंग महोत्सव में एसआरसी प्रेक्षागृह में, स्वाति दुबे के निर्देशन में ‘भूमि’ नाटक का मंचन हुआ। समागम रंगमंडल जबलपुर, मध्यप्रदेश के कलाकार अपने रंग में नज़र आए। नाटक आरंभ से लेकर अंत तक आपको सीट पर तने रहने के लिए मजबूर करता है।
अर्जुन और चित्राँगदा की कहानी पर आधारित नाटक ‘भूमि’ कांगला के निःसंतान राजा प्रभंजन से शुरू होता है, जो एक बेटे के लिए परेशान है। जिसे वह अपना उत्तराधिकारी बना सके।
अर्जुन महाभारत से पहले मैत्री यात्रा पर निकलता है, नागलोक से होते हुए कांगला की भूमि तक जाता है। जहाँ उसकी भेंट चित्राँगदा से होती है। यह मिलन किसी नायक-नायिका की तरह नहीं, बल्कि दो योद्धाओं की भांति होता है। युद्ध की विजय आसानी से प्यार में हार स्वीकार कर लेती है, और इस तरह अर्जुन-चित्राँगदा की जीवन यात्रा शुरू होती है।
प्यार स्त्री-पुरुष के रिश्ते की शुरुआत भर है, लेकिन यह रिश्ता राजपरिवार के बीच हो तो और जटिल हो जाता है। अर्जुन-चित्राँगदा शादी कर लेते हैं, लेकिन महाभारत युद्ध के कारण अर्जुन चित्राँगदा के बिना अपने घर लौट आता है।
चित्राँगदा अर्जुन के निमंत्रण की प्रतीक्षा में एक पुत्र को जन्म देती है। अर्जुन 20 वर्ष बाद अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के साथ लौटता है, जिसे बब्रुवाहन पकड़ लेता है, जो अर्जुन को नहीं पहचानता। फिर तीनों योद्धा आमने-सामने होते हैं, अर्जुन, चित्राँगदा और उसका पुत्र बब्रुवाहन।
‘भूमि’ का विस्तार अतीत से वर्तमान तक को अपने परिधि में लेता है। चुप्पी टूटती है और सवालों में बदल जाती है, जो अर्जुन के साथ ही नहीं, बल्कि हर आधुनिक पुरुष के साथ है। पुरुष-स्त्री संबंधों के माध्यम से पूरी मानव जाति को छूते हुए नाटक धरातल पर समाप्त होता है।
साधारण मंच सज्जा और उत्कृष्ट वस्त्र विन्यास के साथ मात्रानुसार प्रकाश ने अभिनेताओं के अभिनय में घुलकर मंच पर एक जादू को लगातार घटित होने दिया। पार्श्व ध्वनि संचालक से बीच-बीच में इस तिलिस्म को तोड़ने की कोशिश हो रही थी। लेकिन भूमि का कथानक और अभिनेताओं की संवाद अदायगी इतनी प्रभावी थी कि उनकी कोशिशें नाकाम रही और दर्शक का ध्यान तनिक भी भंग नहीं हुआ।
नाटक दृश्य, संवाद और अभिनय के स्तर पर ही नहीं बल्कि एक ही समय में सांकेतिक रूप से भी दर्शकों के सामने प्रस्तुत हो रहा था। नाटक के विभिन्न आयाम दर्शकों को एक काव्यात्मक यात्रा पर लेकर जाता है। हालाँकि इसके लिए लेखक आशीष पाठक की सराहना होनी चाहिए। उन्होंने नाटक के संवाद सहज, स्पष्ट, काव्यात्मक और प्रभावशाली लिखे हैं। प्रत्येक संवाद एक अदृश्य लय में बंधा हुआ है।
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भारत रंग महोत्सव में अभिमंच सभागार में रजनीश मनी के निर्देशन में नाटक ‘रोमियो जूलियट और अँधेरा’ की प्रस्तुति हुई। 1960 में जान ओत्चेनाशेक द्वारा लिखित नाटक का मंचन 2025 में होता है और उसे देखते हुए यह महसूस होता है कि ये तो आज की अभी की कहानी है, इसके लिए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक छात्र विशेष बधाई के पात्र हैं।
मंच के मध्य में एक गिद्ध सबसे ऊँचे खड़ा है। जिसपर जब लाल प्रकाश पड़ता है तो वह और भयावह नज़र आता है। उसके साए में कई परिवार अपने घरों के तहख़ानों में किसी डरे हुए चूहे की तरह छिपकर जीने के लिए मजबूर हैं। प्रेम और कविता विपरीत परिस्थितियों में ही जन्म लेती है। रक्तपात की विभीषिका में ज़िंदा रहने की जुगत के बीच दो लोग एक दूसरे से चुपचाप प्रेम कर रहे होते हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्टभूमि में किशोर वय के प्रेमियों की कोमल करुण गाथा शुरू होती है, जिसमें ईसाई लड़का एक यहूदी को अपने पढ़ने की कोठरी में छिपा देता है, ताकि वह कंसंट्रेशन कैंप भेजे जाने से बच सके और नाज़ी सिपाहियों का शिकार न बने। धीरे-धीरे कोठरी से बाहर का जीवन कोठरी के भीतर के जीवन से इतना घुल मिल जाता है कि एक ही प्रश्न बचता है... स्वतंत्रता क्या है? जीवन का अर्थ क्या है? युद्ध क्यों ज़रूरी है? आख़िर कब एक युद्ध से दूसरे युद्ध का जन्म होना बंद होगा?
नाटक में दिखाए कंसंट्रेशन कैंप का दृश्य अभी भी मन मस्तिष्क पर छाया हुआ है। उस एक दृश्य के लिए निर्देशक रजनीश मनी को अधिक सराहना मिलनी चाहिए। गिद्ध पर सुर्ख़ लाल रोशनी दिल को दहलाने देनी वाली पार्श्व ध्वनि और मंच के मध्य में एक जाल में तड़पते लोग, उस भयावह स्थिति को मंच पर उतारती है, जो हिटलर और उसके नाज़ी सैनिकों के द्वारा यहूदियों की निर्मम हत्या से उत्पन्न हुई थी।
मनुष्य के मनुष्यतर होने का सार प्रेम में छिपा है। ये दुनिया भावनात्मक लोगों के भाव से बनी है। जिसे हर समय में निरंतर केवल भाव ही चाहिए होता है। इसके अतिरिक्त बाक़ी सारी चीज़ें माया है। प्रेम वह साहसिक काम है जिसे करने के लिए अत्यधिक साहस की आवश्यकता होती है। हत्या करना आसान है प्रेम करना मुश्किल! इसलिए वर्तमान समय में प्रेमियों से अधिक हत्यारें हैं। लेकिन सैकड़ों हत्यारों पर प्रेम से भरा एक दिल हमेशा भारी रहेगा। ‘रोमियो जूलियट और अँधेरा’ के नायक और नायिका के पास वही एक दिल है। जो प्रेम से फलीभूत हो रहे हैं। वे जब साथ में नृत्य करते हैं तो गिद्ध पर लाल रोशनी नहीं बल्कि उनके ऊपर गुलाबी और पीली रोशनी पड़ रही होती है। प्रेम जब अपना सिर उठाता है तो तोप से गोले नहीं पुष्प की वर्षा होती है। नाटक का ये दृश्य इतना खूबसूरत था कि क्षण भर के लिए हम भूल जाते हैं कि हम अभी भी गिद्ध के साए में छिपे चूहों की भांति इंसान की कहानी देख रहे हैं। व्यक्ति के दुखों पर मरहम लगाना प्रेम का नैसर्गिक गुण है।
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