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इलाहाबाद यूनिवर्सिटी महिला छात्रावास का फ़ोन, कविता और प्रेम

दूसरी कड़ी से आगे...

टेलीफ़ोन का युग मध्यवर्गीय परिवार के लिए तब आया, जब मैं पंद्रह-सोलह साल का रहा होऊँगा। नब्बे का दशक अपने अंतिम सालों में था। मोहल्ले में बहुत कम लोगों के पास फ़ोन था। हम भी उनमें से एक थे। मुझे बात करने के लिए कोई लड़की चाहिए थी। नया-नया कविता लिखना शुरू किया था तो एक अलग तरह का पागलपन हुआ करता था। मुझे यूनिवर्सिटी के सारे महिला छात्रावासों के नंबर याद थे। कुल तीन छात्रावास थे। कुछ लिखा तो मिला दिया, जिसने उठाया आग्रह करते हुए कहा कि अगर समय हो कविता सुनिए। 

आज सोचता हूँ तो लगता है कि ग़लत किया। यह स्टॉकिंग है, हैरासमेंट है; लेकिन ऊपर वाला झूठ न बुलवाए, एक भी लड़की से कभी ज़बरदस्ती बात नहीं की। अगर उन्होंने कहा कि सुनाइए तो सुनाया और नहीं तो रखकर दूसरा नंबर... हालत यह हो गई कि पिता महीने में दो-दो हज़ार रुपये का फ़ोन-बिल चुकाने लगे तो उस फ़ोन में ताला जड़ दिया गया। 

बहरहाल, किसी ने पाँच सौ रुपये वाला पोस्ट पेड मोबाइल थमा दिया। फिर दिन-रात उसी पे कविताएँ चलने लगीं, कहानियाँ, बहसें। यह उस समय का इंस्टाग्राम था। मेरी अँग्रेज़ी-हिंदी दोनों ही बुरी नहीं हैं यानी अच्छी हैं, तो लड़कियाँ प्रभावित भी होती थीं। इसी क्रम में एक लड़की जो मेरठ में थी, उससे प्रेम हो गया। मैं पैसे-वैसे जोड़कर मिलने गया तो उसे मेरी मूँछ पसंद नहीं आई। कितनी मेहनत करके पिता से पैसे माँगकर एक महँगी शर्ट, एक मॉन्टी कार्लो का स्वेटर ख़रीदा था, सब पानी में मिल गया। कुल जमा बात यह कि फ़ोन ने हमें और हमारे जेनरेशन को ख़ुद को व्यक्त करने का शऊर सिखाया। उसने हमें कविता और साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया।

बाद में, जब उस ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में...’ वाले फ़ोन का बिल बहुत ज़्यादा हो गया तो मैंने फाफामऊ पुल से उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया और दूसरे ही दिन एक नया ख़रीद लिया। 

क़ायदे की बात यह है कि पहला गंभीर प्रेम मुझे फ़ोन के कारण ही हुआ। एक लड़की थी—दूर के रिश्तेदारी में। मैं एक दोस्त के साथ जो आजकल मेजर है, एक फ़िल्म देखने गया। उस फ़िल्म में एक कार थी। उसका नंबर UP62 था। उसने कहा आज़मगढ़ का नंबर है। मैंने कहा जौनपुर। शर्त लगी तो ताव में कह दिया कि मेरी प्रेमिका है—उस ज़िले में। 

अब उसने बात पकड़ ली। वह कहने लगा कि अगर बात करवा दोगे तो अगली दो फ़िल्में फ़्री दिखाएँगे। मुझे उसके घर का नंबर याद था। मैंने कहा कि अगर कोई लड़की उठाए तो कह देना फलाने बोल रहा हूँ। वह तुरंत काजल टॉकीज के बग़ल PCO में। 

दिक़्क़त यह हुई कि उसने फ़ोन किया और उसी लड़की ने उठा लिया। मैं जब दस साल का था, उससे मिला था। मेरा अंदाज़ा था कि वो मुझे पसंद करती होगी। अब मेजर साहेब आधा घंटा मेरे नाम से बतियाते रहे और जब निकले तो प्रेम का इज़हार करके निकले। बोले, तुमको बहुत प्रेम करती है यार, फ़ोन किया करो। 

मुझे काटो तो ख़ून नहीं। मैंने पूछा कि हुआ क्या? 

उसने कहा, मैंने इज़हार कर दिया और दीपावली (जो कि चार दिन बाद थी) को आठ बजे फ़ोन करूँगा।

उसकी उदारता यह थी कि पैसा मुझसे ले लेना, लेकिन फ़ोन ज़रूर करना। उस समय फ़ोन पर कॉल करने में बहुत पैसा लगता था और घर के फ़ोन में ताला... तो दीपावली के दिन मैंने फ़ोन किया तो प्रेम आगे बढ़ गया। हालाँकि इंजन मेजर ही था। 

पहली बार मुझे गंभीर प्रेम हुआ। ऐसा लगा कि रह नहीं पाऊँगा। उसके प्रेमपत्र आज भी इलाहबाद में हैं। वह हॉस्टल के एड्रेस पर भेजती थी। दो साल बाद उसकी शादी हो गई। 

मैं कुछ कर नहीं सका, क्योंकि मेरी उम्र बहुत नहीं थी और अवध में लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में होती है। हम कभी मिले भी नहीं पाए। एक बार बस बचपने में ही मिले थे। शबरी टाइप प्रेम हो गया। 

मैंने ईमानदारी से उनके लिए बहुत त्याग किया... अब इस उम्र में लगता है कि मैं मूर्ख रहा होऊँगा।  

ख़ैर, फ़ोन ने हमें जीवन जीना भी सिखाया। प्रेम, साहित्य, बहस... सब फ़ोन की देन है, माया है... 

अब यों भी लगता है कभी-कभी कि फ़ोन ना ही देखूँ; लेकिन आदमी तो आदमी, ईश्वर भी फ़ोन उठाता है आजकल।

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अगली बेला में जारी...

 

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