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कामायनी के सर्गों को अनुक्रम

kamayani ke sargo ko anukram

कन्हैयालाल सहल

कन्हैयालाल सहल

कामायनी के सर्गों को अनुक्रम

कन्हैयालाल सहल

और अधिककन्हैयालाल सहल

    छायावादी युग प्रधानत: प्रगीत रचनाओं का युग था। प्रसाद को छोड़कर अन्य किसी छायावादी कवि ने प्रबंध काव्य की रचना नहीं की और प्रसाद ने जिस ‘कामायनी’ महाकाव्य की सृष्टि की, वह केवल कवि का कीर्ति-स्तंभ ही नहीं, भारतीय संस्कृति की अमर निधि भी है। काव्य के माध्यम से दर्शन और मनोविज्ञान ने भी ‘कामायनी’ में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। इस महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग का नामकरण दर्शनीय है। मानवीय वृत्तियों के विकास का संपूर्ण स्वरूप इसमें दिखाने की कवि ने चेष्टा की है। इसका आरंभ यौवन काल से होता है जब कि मनुष्य अपना उत्तरदायित्व समझने लगता है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि बालक का मूल व्यक्तित्व कुछ सप्ताह या अधिक से अधिक कुछ महीनों में प्रस्फुटित हो जाता है, उसी बीज का विकास आगे होता रहता है, किंतु भारतीय दार्शनिक कहते हैं कि प्राक्तन संस्कारों का ही यहाँ विकास होता है। इस संबंध मे कालिदास की निम्नलिखित दार्शनिक उक्ति पठनीय है—

    ‘रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्,

    पर्युत्सुकी भवति यत्सुखितोऽपि जन्तु:।

    तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वं,

    भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि॥‘

    अर्थात् सुखी मनुष्य भी रम्य स्थानों को देखकर या मधुर शब्द सुनकर जो बेचैन हो उठता है उसका कारण यह है कि वह अपने अचेतन मन में संस्कार के कारण स्थिर जन्म जन्मांतर के प्रेम-भावों का स्मरण करता है। बहुत से भारतीय दार्शनिकों की दृष्टि में मनुष्य के वर्तमान व्यक्तित्व-विकास का मूल जन्म-जन्मांतरों के संस्कारों में ढूँढ़ना चाहिए, निर्माणात्मक मनोविज्ञान से उनका उतना संबंध नहीं। कामायनी के प्रथम सर्ग ‘चिंता’ से मनु के पूर्व-काल का भी वर्णन है। देव सभ्यता का यहाँ उपहास किया गया है। प्रसाद मानव-जीवन को अधिक महत्त्व देते दिखलाई पड़ते हैं। यह नये युग की विशेषता है। मनु की चिंता प्रवृत्ति-मूलक है। प्रसाद जी की दार्शनिकता का भी यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है कि वे प्रवृत्ति को प्रधानता देते हैं, निवृत्ति को नहीं। किसी कार्य में प्रवृत्ति बिना आशा के नहीं हो सकती, इसलिए दूसरा सर्ग है ‘आशा’ इसमें प्रकृति की सुषमा का चित्रण हुआ है। प्रकृति का संदेश भी आशाप्रद ही है। बाह्य प्रकृति का इसमे सुंदर निरूपण हुआ है।

    आशा का ही व्यक्त रूप है ‘श्रद्धा’। श्रद्धा मनोवृत्ति भी है और कामायनी नारी भी है। वही आशा मानव जीवन से नारी के रूप में प्रकट होती है। इसीलिए कामायनी का दूसरा नाम श्रद्धा है। मनु और श्रद्धा का अब युगपत् विकास दिखाया गया है। यहाँ से केवल पुरुष की कथा नहीं है। सन्यासमूलक प्रवृत्तियों का परित्याग कर यहाँ से निश्चित प्रवृत्ति की तरफ़ यह काव्य उन्मुख होता है। दोनों के साक्षात्कार के पश्चात् ‘काम’ का प्रकरण है। प्रसादजी ने काम को कामायनी का पिता माना है। ‘काम’ का बहुत ही व्यापक अर्थ में प्रयोग यहाँ हुआ है। ‘काम’ इच्छा वाचक शब्द है। जितनी तरह की इच्छाएँ मनुष्य से हैं, वे सब ‘काम’ के अंतर्गत हैं, पर मनुष्य काम के यथार्थ स्वरूप को समझ प्राय: उसके विकृत पक्ष की तरफ़ खिंच जाता है। मनु का भी यही हाल हुआ था, इसलिए ‘काम’ ने फटकार सुनाई थी—

    ‘पर तुमने तो पाया सदैव,

    उसकी सुंदर जड़ देह मात्र।

    सौंदर्य-जलधि से भर लाए,

    केवल तुम अपना गरल-पात्र॥

    ***

    तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का,

    प्रणय-प्रकाश ग्रहण किया।

    हाँ जलन-वासना को जीवन,

    भ्रम-तम में पहला स्थान दिया॥‘

    काम का यह दुरुपयोग ‘वासना’ के रूप में प्रकट होता है जो काम का परवर्ती सर्ग है। ‘वासना’ में शारीरिक आकर्षण की प्रधानता दिखाई है। इसमें नारी पुरुष के प्रति आत्म-समर्पण को ही अपने जीवन का अपरिहार्य अंग समझती है। यहीं से कथा का दुखांत स्वरूप प्रकट होता है। नारी का आत्म-समर्पण ही मनु का उद्धार करेगा, नारी के इस आदर्शवाद का भी यहाँ संकेत है। तो क्या प्रत्येक पुरुष और नारी के जीवन में यह समय आता है? बाद में ‘लज्जा’ सर्ग है। पुरुष से प्रथम संसर्ग का परिणाम नारी में लज्जा का उदय है। ‘कर्म’ मे श्रद्धा की लज्जा का आवरण भी जाता रहता है, नारी और पुरुष प्रणय-व्यापार में प्रवृत्त हो जाते हैं। श्रद्धा पशुओं से भी प्रेम करती है, अपनी संतान के लिए बेंत का झूला भी बनाती है किंतु मनु श्रद्धा के समरत प्रेम का उपभोग एकाकी ही करना चाहते हैं, इसलिए उनके हृदय में श्रद्धा के प्रति ‘ईर्ष्या’ उत्पन्न हो जाती है और वे श्रद्धा को छोड़ ‘इड़ा’ की ओर चले जाते हैं। वासना हिंसात्मक कार्यों की ओर प्रवृत्त करती है, हिंसा ईर्ष्या की ओर ले जाती है और ईर्ष्या के मूल में असंतोष का भाव रहता है—ऐसी अवस्था में मन भौतिक बुद्धि की ओर बढ़ता है। श्रद्धा ही वह वृत्ति है जो चंचल मन को एकाग्रता देती है। श्रद्धा के अभाव में बुद्धि समन्वित मन का अवश्यंभावी परिणाम है ‘संघर्ष’, जो मन को अवसादपूर्ण बना देता है। ‘संघर्ष’ के पहले जो श्रद्धा का ‘स्वप्न’ दिखलाया गया है उसका कारण यह है कि ‘स्वप्न’ का ही प्रत्यक्ष रूप संघर्ष मे दिखलाया गया है और संघर्ष का परिणाम है ‘निर्वेद’। निर्विण्ण मन किस प्रकार श्रद्धा के सहयोग से आनंदपूर्ण हो जाता है, यही दिखलाने के लिए ‘दर्शन’ ‘रहस्य’ और ‘आनंद’ इन तीन सर्गों की आवतारण की गई है। ये सर्ग दार्शनिक हैं। यहीं पर शैवागम दर्शन की विशेष सहायता ली गई है। ‘दर्शन’ सर्ग में कथा का भी कुछ अंश है। मानस के निर्मल स्वरूप का यहाँ दर्शन है—यह भी प्रतीकात्मक है। हिमालय आदि मानव जीवन के प्रतिपादक हैं। ‘रहस्य’ में समरसता का सिद्धांत हैं। कर्म, भावना और ज्ञान के समन्वय के बिना जीवन में विशृंखलता अवश्यंभावी है। मानव जीवन का परम लक्ष्य है ‘आनंद’, जिसकी पूर्ति सामरस्य के बिना संभव नहीं। ‘कामायनी’ की अंतिम पंक्तियाँ इस संबंध में पठनीय हैं—

    “समरस ये जड़ या चेतन सुंदर साकार बना था,

    चेतनता एक विलसती आनंद अखंड घना था।”

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