मेरे लखनऊ गमन का वृतांत निश्चय आप के पाठकगणों को मनोरंजक होगा। कानपुर से लखनऊ आने के हेतु एक कंपनी अलग है इसका नाम अ. रू. रे. कंपनी है इसका काम अभी नया है और इसके गार्ड इत्यादिक सत्र काम चलाने वाले हिंदूस्तानी है। स्टेशन कान्हपुर का तो दरिद्र सा है पर लखनऊ का अच्छा है। लखनऊ के पास पहुँचते ही मस्जिदों के ऊँचे 2 कंगूर दूर ही से दिखाते है, परंतु नगर में प्रवेश करते ही एक बड़ी विपत आ पड़ती है, वह यह है कि चुंगी के राक्षसों का मुख देखना होता हैं हम लोग ज्यों ही नगर में प्रवेश करने लगे जमदूतों ने रोका सब गठरियों को खोल-खोल के देखा जब कोई वस्तु न निकसी तब अगूठियों पर (जो हम लोगों के पास थी) आ झुके बोले इसका महसूल दे जाओ हम लोग उतर के चौकी गए वहाँ एक ठिंगना सा काला रुखा मनुष्य बैठा था नटखटपन उस के मुखरे से बरसता था मैंने पूछा क्यौं साहब बिना बिकरी की वस्तुओं पर भी महसूल लगता है, बोले हाँ। काग़ज़ देख लिजिए छपा हुआ हैं मैंने काग़ज़ देखा उसमें भी यही छापा था मुझे पढ़ के यहाँ की गवन्मेंट के इस अन्याय पर बड़ा दुख हुआ मैंने उन से पूछा कि कहिए कितना महसूल दूँ आप नाक और गाल फुला के होले कि मैं कुछ जवहिरी नहीं हूँ कि इन अगूठियों का दाम जानू मोहर कर के गोदाम को भेजूँगा वहाँ सुपरेडेंट साहब साँझ को आकर दाम लगावैंगे। मैंने कहा कि साँझ तक भूखों कौन मरैगा बोले इस से मुझे क्या कहाँ तक लिखूँ इस दुष्ट ने हम लोगों को बहुत छकाया अंत में मुझे क्रोध आय तब मैंने इस को नृसिंह रुप दिखाया और कहा कि मैं तेरी रिपोर्ट करुँगा पहिले तो आप भी बिगड़े, पीछे ढीले हुए, बोले अच्छा जो आप के धर्म में आवै दे दीजिए तीन रुपये देकर प्राण बचे तब उनके सिपाहयों ने इनाम माँगा मैंने पूछा क्या इसी घंटो दुख देने का इनाम चाहिए किसी प्रकार इस विपत से छूट कर नगर में आए। नगर पुराना तो नष्ट हो गया है जो बचा है वह नई सड़क से इतना नीचा है कि पाताल लोक का नमूना सा जान पड़ता है मस्जिद बहुत सी हैं गलियाँ सकरी और कीचड़ से भरी हुई बुरी गंदी दुर्गंधमय। सड़क के घर सुथरे बने हुए हैं नई सड़क बहुत चौड़ी और अच्छी है जहाँ पहिले जौहरी बाज़ार और मौनाबाज़ार था वहाँ गदहे चरते हैं और सब इमामबाड़ो में किसी में डाकघर कहीं अस्पताल कहीं छापाख़ाना हो रहा है रुमी दर्वाज़ा नवाब आसिफुदोला की मस्जिद और मच्छीभवन का सर्कारी किला बना है बेदमुश़्क के हौजों में गोरे मूतते हैं केवल दो स्थान देखने योग्य बचे हैं पहिला हुसैनाबाद और दूसरा केसर बाग़। हुसैनाबाद के फाटक बाहर एक षट्कोण तालाब सुंदर बना है और एक बारहदर भी उसके ऊपर है और हुसैनाबाद के फाटक के भीतर एक नहर बनी है और बाई ओर ताजगंज का सा एक कमरा बना हुआ है वह मकान जिस्में बादशाह गड़े है देखने योग्य है बड़े बड़े कई सुंदर झाड़ रखे हुए है और इस हुसैनाबाद के दीवारो में लोहे के गिलास लगाने के इतने अंकुड़े लगे है कि दीवार काली हो रही है केसर बाग भी देखने योग्य है सुनहरे शिखर धूप में चमकते है बीच में एक बारदार रामणीय बनी है और चारों ओर अनेक सुंदर 2 बंगले बने हैं जिसका नाम लंका है उसमे कचहरी होती है और औध के तअल्लुकेदारों को मिले हैं जहाँ मोती लुटते हैं घूल उड़ती है यहाँ एक पीपल का पेड़ श्वेत रंग का देखने योग्य है।
यहाँ के हिंदू रईस धनिक लोग असभ्य हैं और पुरानी बातैं उनके सिर में भरी हैं मुझ से जो मिला उस ने मेरी आमदनी गाँव रुपया पहिले पूछा और नाम पीछे बरन बहुत से आदमा संग में न लाने की निंदा सब ने किया पर जो लोग शिक्षित हैं वे सभ्य हैं परंतु रंडियों प्रायः सब के पास नौकर हैं और मुस्लमान सब बाह्य सभ्य हैं बोलने में बड़े चतुर हैं यादि कोई भीख माँगता है या फल बेंचता है तो वह भी एक अच्छी चाल से थोड़ी अवस्था के पुरुषों में भी स्त्रीपन झलकता हैं बातैं यहाँ की बड़ी लंबी चौड़ी बाहर से स्वचछ पर भीतर से मलीन स्त्रियाँ सुंदर तो ऐसी वहीं पर आँख लड़ाने में बड़ी चतुर यहाँ भंगोड़िने रंडियों के भी कानन काटती हैं हुक्के की भंग की दूकानों पर सज के बैठती हैं और नीचे चाहने वालो की भीड़ खड़ी रहती है पर सुंदर कोई नही।
और भी यहाँ अमीनाबाह हज़रतगंज सौदागरों की दूकाने, चौक, मुनशी नवलकिशोर का छापाख़ाना और नवाब मशकूरुद्दौला की चित्र की दूकान इत्यादि स्थान देखने योग्य हैं।
जैसा कुछ हैं फिर भी अच्छा है।
ईश्वर यहाँ के लोगों को विद्या का प्रकाश दें और पुरानी बातें ध्यान से निकालें।
आप का चिरानुगत
यात्री
- पुस्तक : भारतेंदु के निबंध (पृष्ठ 59)
- संपादक : केसरीनारायण शुक्ल
- रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र
- प्रकाशन : सरस्वती मंदिर जतनबर,बनारस
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