रात की एक्सप्रेस गाड़ी से रोम से निकले यात्रियों को भोर तक फ़ैब्रियानो के छोटे स्टेशन पर रुकना पड़ा, क्योंकि वहाँ से उनका डिब्बा दूसरी रेल से जुड़ना था।
भोर के समय, सैकंड क्लास के उस घुटन और धुएँ से भरे डिब्बे में, जिसमें पाँच लोग पहले ही रात गुज़ार चुके थे, मातमी कपड़े पहने एक भारी-भरकम स्त्री घुसी। गहरी साँसें भरती, कराहती, बेडौल बंडल-सी स्त्री के पीछे-पीछे उसका पति आया, दुबला-नाटा, मुर्दे-सा सफ़ेद चेहरा, छोटी-छोटी चमकीली आँखें, शर्मीला और परेशान-सा।
आख़िर एक सीट पर टिक जाने के बाद उसने नरमी से अपने उन सहयात्रियों को धन्यवाद दिया, जिन्होंने उसकी पत्नी की गाड़ी में चढ़ने में मदद की थी और उसके लिए जगह बनाई थी; फिर अपने कोट का कॉलर नीचे खींचने की कोशिश करती अपनी पत्नी की तरफ़ मुड़कर उतनी हो नरमी से पूछा, “तुम ठीक तो हो न?”
पत्नी ने जवाब देने के बजाय फिर से कॉलर अपनी आँखों तक खींच लिया जिससे उसका चेहरा छिप गया। “बड़ी बुरी दुनिया है,” पति दुःखभरी मुस्कान के साथ बड़बड़ाया।
उसे लगा कि उसका कर्तव्य है कि वह अपने सहयात्रियों को बता दे कि इस बेचारी स्त्री पर दया की जानी चाहिए, क्योंकि युद्ध उससे उसका इकलौता बेटा छीने ले रहा था। बीस बरस का वह लड़का दोनों के जीवन का आधार था। उसी के कारण वे सल्मोना में अपना जमा-जमाया घर छोड़कर रोम चले आए थे जहाँ वह पढ़ने आया था। फिर कम से कम छह महीने तक उसे मोर्चे पर नहीं भेजे जाने की शर्त पर उन्होंने उसे सेना में भर्ती होने दिया था, और अब अचानक उन्हें तार मिला था कि तीन दिन बाद वह मोर्चे पर जा रहा है, वे आकर उससे मिल जाएँ...
अपने भारी कोट के नीचे कसमसाती स्त्री बीच-बीच में बनैले जानवर की तरह घुरघुरा रही थी। उसे पक्के तौर पर पता था कि इन तमाम बातों से उनके सहयात्रियों, जिनकी शायद ख़ुद भी यही हालत थी, के दिलों में कोई हमदर्दी नहीं जागने वाली। उनमें से एक उनकी बात जो ख़ास तौर पर ध्यान से सुन रहा था, बोला, “परमात्मा का शुक्र मनाओ, तुम्हारा बेटा मोर्चे पर अब जा रहा है। मेरे बेटे को तो जंग के पहले ही दिन वहाँ भेज दिया था। दो बार वह ज़ख़्मी होकर लौटा और दोनों बार उसे वापस भेज दिया।”
“और हमारी भी सुनो! मेरे तो दो बेटे और तीन भतीजे मोर्चे पर हैं, “एक और यात्री बोला।
“होंगे! लेकिन हमारा तो यह इकलौता बेटा है,” पति ने बात साफ़ की।
“उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? तुमने हद से ज़्यादा लाड़-प्यार करके अपने बेटे को बिगाड़ा होगा, पर तुमने उसे उससे बढ़कर तो प्यार नहीं किया होगा, जो तुम अपने उन कई बच्चों को, जो तुम्हारे होते, करते। बाप का प्यार कोई रोटी नहीं है जिसके टुकड़े औलादों में बराबर-बराबर बाँटे जाएँ। बाप बिना किसी भेदभाव के अपने सभी बच्चों को अपना प्यार पूरा-पूरा देता है, चाहे वे एक हों या दस। और अब जब मैं अपने दोनों बेटों के लिए दुखी हो रहा हूँ तो आधा-आधा दुखी नहीं हो रहा, दुगना दुखी हो रहा हूँ...”
“ठीक बात है...ठीक कहते हो...” झेंपे हुए पति ने उसाँस भरी, “लेकिन मान लो (और हम सब मनाते हैं कि यह आपके साथ कभी न हो) एक पिता के दो बेटे मोर्चे पर हैं और वह एक को खो देता है तो भी दूसरे का मुँह देखकर वह जी लेगा...जबकि...”
“हाँ,” दूसरा आदमी नाराज़ होकर बोला, “उसके दिल को तसल्ली देने को एक बेटा बच गया, लेकिन उस बेटे के लिए उसे ज़िंदा भी तो रहना पड़ेगा, जबकि जिस बाप का इकलौता बेटा हो और वह मर जाए तो बाप भी मरकर अपने दुःख से छुटकारा तो पा लेगा। अब बताओ, किसकी हालत ज़्यादा बुरी है? तुम्हें दिख नहीं रहा कि मेरी हालत तुम से ज़्यादा बुरी होगी?”
“बकवास,” एक और यात्री बोला। इस मोटे, लाल चेहरे वाले आदमी की हल्की सुरमई आँखें लाल सुर्ख़ थीं।
वह हाँफ रहा था। उसकी फटी-फटी आँखों से एक ऐसी प्रबल, असंयमित आंतरिक हिंसा टपकती दिखती थी, जिसे उसकी कमज़ोर पड़ गई काठी मुश्किल से ही सँभाल पा रही थी।
“बकवास,” वह फिर बोला, उसने अपना हाथ मुँह के आगे रख लिया था ताकि आगे के दो टूटे दाँत न दिखें, “बेकार की बात, हम क्या अपने बच्चों को अपने फ़ायदे के लिए जीवन देते हैं?”
बाकी यात्रियों ने दुःख से भरी आँखों से उसे घूरा। युद्ध के पहले दिन से मोर्चे पर लड़ रहे बेटे के पिता ने आह भरी, “ठीक कहते हैं आप। हमारे बच्चे हमारे नहीं हैं, वे देश की अमानत हैं।”
“बकवास,” मोटा यात्री फट पड़ा, “अपने बच्चों को जीवन देते हुए हम क्या अपने देश की सोच रहे होते हैं? हमारे बेटे तो इसलिए पैदा होते हैं क्योंकि... ओह, क्योंकि उन्हें पैदा होना ही है और जब वे जीवन में आते हैं तो वे हमारा ख़ुद का जीवन भी ले लेते हैं। सच्चाई यही है। हम उनके होते हैं, पर वे कभी हमारे नहीं होते। और जब वे बीसवें साल में लगते हैं तो बिल्कुल वैसे ही होते हैं, जैसे उस उम्र में हम थे। हमारे भी माँ-बाप थे, लेकिन और भी बहुत-सी चीज़ें थीं... लड़कियाँ, सिगरेटें, भ्रम, नए बंधन... और हाँ, देश भी, जिसकी पुकार पर बीस बरस की उम्र में, माँ-बाप के मना करने पर भी—हम चल दिए होते। अब उम्र के इस दौर में, देश का प्यार तो अब भी बहुत बड़ा है लेकिन उससे कहीं मज़बूत हमारे बच्चों का प्यार है। यहाँ एक भी कोई है जो ख़ुशी-ख़ुशी मोर्चे पर अपने बेटे की जगह न ले लेगा?”
चारों तरफ़ चुप्पी थी, सबके सिर जैसे सहमति में हिल रहे थे ।
“मादर...”, “मोटा आदमी बोलता चला गया, “हम अपने बीस बरस के बच्चों की भावना की क़द्र क्यों न करें? अपनी उम्र में वे अपने देश के लिए अपने प्रेम को (मैं सिर्फ़ भले-शरीफ़ लड़कों की ही बात कर रहा हूँ) हमारे लिए अपने प्रेम से बढ़कर मानें, यह सहज नहीं है क्या? यही सहज है, क्योंकि आख़िर तो वे हमें ऐसे बूढ़े मानते होंगे, जो अब ज़्यादा घूम-फिर नहीं सकते और जिन्हें घर पर रहना चाहिए। अगर देश का अस्तित्व है, अगर देश एक प्राकृतिक ज़रूरत है, रोटी की तरह, जिसे खाना हर किसी के लिए ज़रूरी है ताकि हम भूख से मर न जाएँ, तो उसकी रक्षा के लिए किसी न किसी को तो जाना पड़ेगा! और हमारे बेटे जाते हैं, जब वे बीस बरस के होते हैं और वे आँसू नहीं चाहते, क्योंकि अगर वे मरते हैं तो वे प्रेम की ज्वाला में, ख़ुशी से मरते हैं। (मैं भले-शरीफ़ लड़कों की बात कर रहा हूँ) अब कोई जवान और ख़ुश मर जाए, जीवन के भोंडेपन को, उसकी ऊब, ओछेपन, भ्रम टूटने की कड़वाहट को झेले बिना... हम उसके लिए और क्या चाह सकते हैं? सबको रोना-धोना बंद कर देना चाहिए, सबको हँसना चाहिए, जैसे मैं हँसता हूँ... या कम से कम भगवान् का शुक्र है—जैसे मैं करता हूँ—क्योंकि मेरा बेटा... मरने से पहले मेरे बेटे ने मुझे संदेश भेजा था कि वह संतुष्ट होकर मर रहा है, क्योंकि उसने अपने जीवन का अंत सबसे बढ़िया तरीक़े से किया है, जैसे वह चाहता था। और इसीलिए आप लोग देख रहे हैं न, मैं मातमी कपड़े नहीं पहनता...”
उसने अपना हल्का भूरा कोट हिलाया ताकि सब देख सकें; टूटे दाँतों के ऊपर उसका नीला पड़ा होंठ काँप रहा था, उसकी आँखें पनियाई और स्थिर थीं, और फिर वह एक तीखी हँसी हँसा, जो एक सिसकी भी हो सकती थी।
“एकदम एकदम...,” बाक़ी लोगों ने हामी भरी। कोने में अपने कोट के नीचे गठरी बनी स्त्री बैठकर सुनती रही थी—पिछले तीन महीनों में—अपने पति और अपने हितैषी-मित्रों की बातों में कुछ ऐसा पाने की कोशिश करती रही थी, जो उसकी गहरी वेदना को सांत्वना दे, कुछ ऐसा दे, जो उसे दिखा दे कि एक माँ अपने बेटे को मृत्यु तो नहीं पर शायद एक ख़तरों से भरे जीवन में कैसे भेजे, लेकिन वह ऐसा एक भी शब्द नहीं पा सकी थी... और यह देखकर कि कोई भी—वह यही सोचती थी—उसकी भावना में साझीदार नहीं है, उसकी पीड़ा बढ़ी थी।
लेकिन अब इस यात्री के शब्दों ने उसे हैरान, क़रीब-क़रीब सन्न ही कर दिया। अचानक उसे समझ में आया कि ग़लत दूसरे नहीं थे, जो उसे समझ नहीं पा रहे थे, बल्कि वही ग़लत थी, जो उन माता-पिताओं की ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाई थी, जो बिना रोए अपने बेटों की विदाई, बल्कि मौत तक के लिए तैयार हो गए थे।
उसने अपना सिर उठाया, अपने कोने से झुककर वह बहुत ध्यान से मोटे आदमी की बात सुनने की कोशिश करने लगी, जो अपने सम्राट और अपने देश के लिए, ख़ुशी-ख़ुशी बिना किसी पछतावे के, वीरतापूर्वक प्राण देने वाले अपने नायक बेटे के अंतिम युद्ध की बात अपने सहयात्रियों को सुना रहा था। उसे लगा कि वह एक ऐसी दुनिया में पहुँच गई है जिसके बारे में वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी। एक ऐसी दुनिया, जो अब तक उसके लिए अपरिचित ही थी और सब लोगों को उस बहादुर पिता को, जो अपने बच्चे की मौत की बात, बिना माथे पर शिकन लाए कर पा रहा था, बधाई देते सुनकर वह बहुत ख़ुश थी।
फिर अचानक, बिल्कुल जैसे कि उसने कुछ सुना ही न हो और सपना देखते-देखते जगी हो, वह बूढ़े की तरफ़ मुड़कर पूछ बैठी—”तो फिर तुम्हारा बेटा सचमुच मर गया?”
सब उसे ताकने लगे। बूढ़ा भी उसे देखने के लिए मुड़ा। अपनी बड़ी-बड़ी, उभरी, बुरी तरह पनियायी हलकी सुरमई आँखें उसने उसके चेहरे पर गड़ा दीं। कुछ देर वह जवाब देने की कोशिश करता रहा, पर उसके मुँह से शब्द नहीं निकले। वह उसे देखता ही रह गया, जैसे कि तभी उस बेतुके, असंगत सवाल से उसे आख़िर समझ आया हो कि उसका बेटा सचमुच मर गया है—हमेशा के लिए चला गया है—हमेशा के लिए। उसका चेहरा बुरी तरह विकृत हो आया, फिर उसने जल्दी से अपनी जेब से रुमाल निकाला और सबको हतप्रभ करते हुए, दर्दभरी, दिल चीरने वाली सुबकियों में डूब गया।
raat ki express gaDi se rom se nikle yatriyon ko bhor tak faibriyano ke chhote station par rukna paDa, kyonki vahan se unka Dibba dusri rail se juDna tha.
bhor ke samay, saikanD class ke us ghutan aur dhuen se bhare Dibbe mein, jismen paanch log pahle hi raat guzar chuke the, matami kapDe pahne ek bhari bharkam istri ghusi. gahri sansen bharti, karahti, beDaul banDal si istri ke pichhe pichhe uska pati aaya, dubla nata, murde sa safed chehra, chhoti chhoti chamkili ankhen, sharmila aur pareshan sa.
akhir ek seat par tik jane ke baad usne narmi se apne un sahyatriyon ko dhanyavad diya, jinhonne uski patni ki gaDi mein chaDhne mein madad ki thi aur uske liye jagah banai thee; phir apne coat ka collar niche khinchne ki koshish karti apni patni ki taraf muDkar utni ho narmi se puchha, “tum theek to ho n?”
patni ne javab dene ke bajay phir se collar apni ankhon tak kheench liya jisse uska chehra chhip gaya. “baDi buri duniya hai,” pati duःkhabhri muskan ke saath baDabDaya.
use laga ki uska kartavya hai ki wo apne sahyatriyon ko bata de ki is bechari istri par daya ki jani chahiye, kyonki yudh usse uska iklauta beta chhine le raha tha. bees baras ka wo laDka donon ke jivan ka adhar tha. usi ke karan ve salmona mein apna jama jamaya ghar chhoDkar rom chale aaye the jahan wo paDhne aaya tha. phir kam se kam chhah mahine tak use morche par nahin bheje jane ki shart par unhonne use sena mein bharti hone diya tha, aur ab achanak unhen taar mila tha ki teen din baad wo morche par ja raha hai, ve aakar usse mil jayen. . .
apne bhari coat ke niche kasmasati istri beech beech mein banaile janvar ki tarah ghurghura rahi thi. use pakke taur par pata tha ki in tamam baton se unke sahyatriyon, jinki shayad khu bhi yahi haalat thi, ke dilon mein koi hamdardi nahin jagne vali. unmen se ek unki baat jo khaas taur par dhyaan se sun raha tha, bola, “parmatma ka shukr manao, tumhara beta morche par ab ja raha hai. mere bete ko to jang ke pahle hi din vahan bhej diya tha. do baar wo zakhmi hokar lauta aur donon baar use vapas bhej diya. ”
“aur hamari bhi suno! mere to do bete aur teen bhatije morche par hain, “ek aur yatri bola.
“honge! lekin hamara to ye iklauta beta hai,” pati ne baat saaf ki.
“usse kya farq paDta hai? tumne had se zyada laaD pyaar karke apne bete ko bigaDa hoga, par tumne use usse baDhkar to pyaar nahin kiya hoga, jo tum apne un kai bachchon ko, jo tumhare hote, karte. baap ka pyaar koi roti nahin hai jiske tukDe auladon mein barabar barabar bante jayen. baap bina kisi bhedabhav ke apne sabhi bachchon ko apna pyaar pura pura deta hai, chahe ve ek hon ya das. aur ab jab main apne donon beton ke liye dukhi ho raha hoon to aadha aadha dukhi nahin ho raha, dugna dukhi ho raha hoon. . . ”
“theek baat hai. . . theek kahte ho. . . ” jhenpe hue pati ne usaans bhari, “lekin maan lo (aur hum sab manate hain ki ye aapke saath kabhi na ho) ek pita ke do bete morche par hain aur wo ek ko kho deta hai to bhi dusre ka munh dekhkar wo ji lega. . . jabki. . . ”
“haan,” dusra adami naraz hokar bola, “uske dil ko tasalli dene ko ek beta bach gaya, lekin us bete ke liye use zinda bhi to rahna paDega, jabki jis baap ka iklauta beta ho aur wo mar jaye to baap bhi markar apne duःkh se chhutkara to pa lega. ab batao, kiski haalat zyada buri hai? tumhein dikh nahin raha ki meri haalat tum se zyada buri hogi?”
“bakvas,” ek aur yatri bola. is mote, laal chehre vale adami ki halki suramii ankhen laal surkh theen.
wo haanph raha tha. uski phati phati ankhon se ek aisi prabal, asanymit antrik hinsa tapakti dikhti thi, jise uski kamzor paD gai kathi mushkil se hi sanbhal pa rahi thi.
“bakvas,” wo phir bola, usne apna haath munh ke aage rakh liya tha taki aage ke do tute daant na dikhen, “bekar ki baat, hum kya apne bachchon ko apne fayde ke liye jivan dete hain?”
baki yatriyon ne duःkh se bhari ankhon se use ghura. yudh ke pahle din se morche par laD rahe bete ke pita ne aah bhari, “theek kahte hain aap. hamare bachche hamare nahin hain, ve desh ki amanat hain. ”
“bakvas,” mota yatri phat paDa, “apne bachchon ko jivan dete hue hum kya apne desh ki soch rahe hote hain? hamare bete to isliye paida hote hain kyonki. . . oh, kyonki unhen paida hona hi hai aur jab ve jivan mein aate hain to ve hamara khu ka jivan bhi le lete hain. sachchai yahi hai. hum unke hote hain, par ve kabhi hamare nahin hote. aur jab ve bisven saal mein lagte hain to bilkul vaise hi hote hain, jaise us umr mein hum the. hamare bhi maan baap the, lekin aur bhi bahut si chizen theen. . . laDkiyan, cigaretten, bhram, nae bandhan. . . aur haan, desh bhi, jiski pukar par bees baras ki umr mein, maan baap ke mana karne par bhi—ham chal diye hote. ab umr ke is daur mein, desh ka pyaar to ab bhi bahut baDa hai lekin usse kahin mazbut hamare bachchon ka pyaar hai. yahan ek bhi koi hai jo khushi khushi morche par apne bete ki jagah na le lega?”
charon taraf chuppi thi, sabke sir jaise sahamti mein hil rahe the.
“madar. . . ”, “mota adami bolta chala gaya, “ham apne bees baras ke bachchon ki bhavna ki qadr kyon na karen? apni umr mein ve apne desh ke liye apne prem ko (main sirf bhale sharif laDkon ki hi baat kar raha hoon) hamare liye apne prem se baDhkar manen, ye sahj nahin hai kyaa? yahi sahj hai, kyonki akhir to ve hamein aise buDhe mante honge, jo ab zyada ghoom phir nahin sakte aur jinhen ghar par rahna chahiye. agar desh ka astitv hai, agar desh ek prakritik zarurat hai, roti ki tarah, jise khana har kisi ke liye zaruri hai taki hum bhookh se mar na jayen, to uski rakhsha ke liye kisi na kisi ko to jana paDega! aur hamare bete jate hain, jab ve bees baras ke hote hain aur ve ansu nahin chahte, kyonki agar ve marte hain to ve prem ki jvala mein, khushi se marte hain. (main bhale sharif laDkon ki baat kar raha hoon) ab koi javan aur khush mar jaye, jivan ke bhonDepan ko, uski ub, ochhepan, bhram tutne ki kaDvahat ko jhele bina. . . hum uske liye aur kya chaah sakte hain? sabko rona dhona band kar dena chahiye, sabko hansna chahiye, jaise main hansta hoon. . . ya kam se kam bhagvan ka shukr hai—jaise main karta hun—kyonki mera beta. . . marne se pahle mere bete ne mujhe sandesh bheja tha ki wo santusht hokar mar raha hai, kyonki usne apne jivan ka ant sabse baDhiya tariqe se kiya hai, jaise wo chahta tha. aur isiliye aap log dekh rahe hain na, main matami kapDe nahin pahanta. . . ”
usne apna halka bhura coat hilaya taki sab dekh saken; tute danton ke upar uska nila paDa honth kaanp raha tha, uski ankhen paniyai aur sthir theen, aur phir wo ek tikhi hansi hansa, jo ek siski bhi ho sakti thi.
“ekdam ekdam. . .,” baqi logon ne hami bhari. kone mein apne coat ke niche gathri bani istri baithkar sunti rahi thi—pichhle teen mahinon men—apne pati aur apne hitaishai mitron ki baton mein kuch aisa pane ki koshish karti rahi thi, jo uski gahri vedna ko santvana de, kuch aisa de, jo use dikha de ki ek maan apne bete ko mirtyu to nahin par shayad ek khatron se bhare jivan mein kaise bheje, lekin wo aisa ek bhi shabd nahin pa saki thi. . . aur ye dekhkar ki koi bhi—vah yahi sochti thi—uski bhavna mein sajhidar nahin hai, uski piDa baDhi thi.
lekin ab is yatri ke shabdon ne use hairan, qarib qarib sann hi kar diya. achanak use samajh mein aaya ki ghalat dusre nahin the, jo use samajh nahin pa rahe the, balki vahi ghalat thi, jo un mata pitaon ki unchai tak nahin pahunch pai thi, jo bina roe apne beton ki vidai, balki maut tak ke liye taiyar ho gaye the.
usne apna sir uthaya, apne kone se jhukkar wo bahut dhyaan se mote adami ki baat sunne ki koshish karne lagi, jo apne samrat aur apne desh ke liye, khushi khushi bina kisi pachhtave ke, virtapurvak paran dene vale apne nayak bete ke antim yudh ki baat apne sahyatriyon ko suna raha tha. use laga ki wo ek aisi duniya mein pahunch gai hai jiske bare mein wo sapne mein bhi nahin soch sakti thi. ek aisi duniya, jo ab tak uske liye aprichit hi thi aur sab logon ko us bahadur pita ko, jo apne bachche ki maut ki baat, bina mathe par shikan laye kar pa raha tha, badhai dete sunkar wo bahut khush thi.
phir achanak, bilkul jaise ki usne kuch suna hi na ho aur sapna dekhte dekhte jagi ho, wo buDhe ki taraf muDkar poochh baithi—”to phir tumhara beta sachmuch mar gaya?”
sab use takne lage. buDha bhi use dekhne ke liye muDa. apni baDi baDi, ubhri, buri tarah paniyayi halki suramii ankhen usne uske chehre par gaDa deen. kuch der wo javab dene ki koshish karta raha, par uske munh se shabd nahin nikle. wo use dekhta hi rah gaya, jaise ki tabhi us betuke, asangat saval se use akhir samajh aaya ho ki uska beta sachmuch mar gaya hai—hamesha ke liye chala gaya hai—hamesha ke liye. uska chehra buri tarah vikrt ho aaya, phir usne jaldi se apni jeb se rumal nikala aur sabko hataprabh karte hue, dardabhri, dil chirne vali subakiyon mein Doob gaya.
raat ki express gaDi se rom se nikle yatriyon ko bhor tak faibriyano ke chhote station par rukna paDa, kyonki vahan se unka Dibba dusri rail se juDna tha.
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baki yatriyon ne duःkh se bhari ankhon se use ghura. yudh ke pahle din se morche par laD rahe bete ke pita ne aah bhari, “theek kahte hain aap. hamare bachche hamare nahin hain, ve desh ki amanat hain. ”
“bakvas,” mota yatri phat paDa, “apne bachchon ko jivan dete hue hum kya apne desh ki soch rahe hote hain? hamare bete to isliye paida hote hain kyonki. . . oh, kyonki unhen paida hona hi hai aur jab ve jivan mein aate hain to ve hamara khu ka jivan bhi le lete hain. sachchai yahi hai. hum unke hote hain, par ve kabhi hamare nahin hote. aur jab ve bisven saal mein lagte hain to bilkul vaise hi hote hain, jaise us umr mein hum the. hamare bhi maan baap the, lekin aur bhi bahut si chizen theen. . . laDkiyan, cigaretten, bhram, nae bandhan. . . aur haan, desh bhi, jiski pukar par bees baras ki umr mein, maan baap ke mana karne par bhi—ham chal diye hote. ab umr ke is daur mein, desh ka pyaar to ab bhi bahut baDa hai lekin usse kahin mazbut hamare bachchon ka pyaar hai. yahan ek bhi koi hai jo khushi khushi morche par apne bete ki jagah na le lega?”
charon taraf chuppi thi, sabke sir jaise sahamti mein hil rahe the.
“madar. . . ”, “mota adami bolta chala gaya, “ham apne bees baras ke bachchon ki bhavna ki qadr kyon na karen? apni umr mein ve apne desh ke liye apne prem ko (main sirf bhale sharif laDkon ki hi baat kar raha hoon) hamare liye apne prem se baDhkar manen, ye sahj nahin hai kyaa? yahi sahj hai, kyonki akhir to ve hamein aise buDhe mante honge, jo ab zyada ghoom phir nahin sakte aur jinhen ghar par rahna chahiye. agar desh ka astitv hai, agar desh ek prakritik zarurat hai, roti ki tarah, jise khana har kisi ke liye zaruri hai taki hum bhookh se mar na jayen, to uski rakhsha ke liye kisi na kisi ko to jana paDega! aur hamare bete jate hain, jab ve bees baras ke hote hain aur ve ansu nahin chahte, kyonki agar ve marte hain to ve prem ki jvala mein, khushi se marte hain. (main bhale sharif laDkon ki baat kar raha hoon) ab koi javan aur khush mar jaye, jivan ke bhonDepan ko, uski ub, ochhepan, bhram tutne ki kaDvahat ko jhele bina. . . hum uske liye aur kya chaah sakte hain? sabko rona dhona band kar dena chahiye, sabko hansna chahiye, jaise main hansta hoon. . . ya kam se kam bhagvan ka shukr hai—jaise main karta hun—kyonki mera beta. . . marne se pahle mere bete ne mujhe sandesh bheja tha ki wo santusht hokar mar raha hai, kyonki usne apne jivan ka ant sabse baDhiya tariqe se kiya hai, jaise wo chahta tha. aur isiliye aap log dekh rahe hain na, main matami kapDe nahin pahanta. . . ”
usne apna halka bhura coat hilaya taki sab dekh saken; tute danton ke upar uska nila paDa honth kaanp raha tha, uski ankhen paniyai aur sthir theen, aur phir wo ek tikhi hansi hansa, jo ek siski bhi ho sakti thi.
“ekdam ekdam. . .,” baqi logon ne hami bhari. kone mein apne coat ke niche gathri bani istri baithkar sunti rahi thi—pichhle teen mahinon men—apne pati aur apne hitaishai mitron ki baton mein kuch aisa pane ki koshish karti rahi thi, jo uski gahri vedna ko santvana de, kuch aisa de, jo use dikha de ki ek maan apne bete ko mirtyu to nahin par shayad ek khatron se bhare jivan mein kaise bheje, lekin wo aisa ek bhi shabd nahin pa saki thi. . . aur ye dekhkar ki koi bhi—vah yahi sochti thi—uski bhavna mein sajhidar nahin hai, uski piDa baDhi thi.
lekin ab is yatri ke shabdon ne use hairan, qarib qarib sann hi kar diya. achanak use samajh mein aaya ki ghalat dusre nahin the, jo use samajh nahin pa rahe the, balki vahi ghalat thi, jo un mata pitaon ki unchai tak nahin pahunch pai thi, jo bina roe apne beton ki vidai, balki maut tak ke liye taiyar ho gaye the.
usne apna sir uthaya, apne kone se jhukkar wo bahut dhyaan se mote adami ki baat sunne ki koshish karne lagi, jo apne samrat aur apne desh ke liye, khushi khushi bina kisi pachhtave ke, virtapurvak paran dene vale apne nayak bete ke antim yudh ki baat apne sahyatriyon ko suna raha tha. use laga ki wo ek aisi duniya mein pahunch gai hai jiske bare mein wo sapne mein bhi nahin soch sakti thi. ek aisi duniya, jo ab tak uske liye aprichit hi thi aur sab logon ko us bahadur pita ko, jo apne bachche ki maut ki baat, bina mathe par shikan laye kar pa raha tha, badhai dete sunkar wo bahut khush thi.
phir achanak, bilkul jaise ki usne kuch suna hi na ho aur sapna dekhte dekhte jagi ho, wo buDhe ki taraf muDkar poochh baithi—”to phir tumhara beta sachmuch mar gaya?”
sab use takne lage. buDha bhi use dekhne ke liye muDa. apni baDi baDi, ubhri, buri tarah paniyayi halki suramii ankhen usne uske chehre par gaDa deen. kuch der wo javab dene ki koshish karta raha, par uske munh se shabd nahin nikle. wo use dekhta hi rah gaya, jaise ki tabhi us betuke, asangat saval se use akhir samajh aaya ho ki uska beta sachmuch mar gaya hai—hamesha ke liye chala gaya hai—hamesha ke liye. uska chehra buri tarah vikrt ho aaya, phir usne jaldi se apni jeb se rumal nikala aur sabko hataprabh karte hue, dardabhri, dil chirne vali subakiyon mein Doob gaya.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 125-129)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : लुइजी पिरण्डेलो
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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