पहली बार जब वे एक-दूसरे की राहों से गुज़रे तो कुछ भी नहीं हुआ। यह उन संघर्षमय दिनों की बात है, जब हर रोज़ हज़ारों नौजवानों को और कभी-कभी लड़कियों को भी भर्ती दफ़्तरों से निराश वापस लौटना पड़ता था, क्योंकि नवगठित देश की सुरक्षा के लिए हथियार उठाने बहुत अधिक लोग आ रहे थे।
दूसरी बार वे आवका के एक चेक-पॉइंट पर मिले। लड़ाई शुरू हो चुकी थी और दूर उत्तरी क्षेत्रों से धीरे-धीरे दक्षिण की ओर बढ़ रही थी। वह औनित्शा से ऐनूगू की ओर जा रहा था और जल्दी में था। हालाँकि बौद्धिक स्तर पर वह सड़क-अवरोधों पर अच्छी तरह तलाशी के हक़ में था, लेकिन जब भी उसे तलाशी देनी पड़ती थी, भावात्मक स्तर पर उसे हमेशा बुरा लगता था। हालाँकि वह स्वयं इस बात को मानने को तैयार नहीं था। लेकिन लोग मानते थे कि अगर आपकी तलाशी ली गई तो आप बड़े आदमी नहीं हैं। अक्सर वह अपनी गहरी, प्रभावशाली आवाज़ में यह कहकर—रेगिनाल्ड न्वानक्वो, न्याय मंत्रालय-तलाशी से बच जाता था। इसका असर तुरन्त होता था, लेकिन कई बार अज्ञानता के कारण या विशुद्ध हठीलेपन के कारण चेक-पॉइंट के लोग उसके इस कथन से प्रभावित होने से इंकार कर देते थे। जैसा कि अभी आवका पर हुआ था। मार्क 4 की भारी राईफ़लें उठाए हुए दो कांस्टेबल दूर सड़क के किनारे से नज़र रखे हुए थे और तलाशी का काम उन्होंने स्थानीय निगरानी करने वालों पर छोड़ दिया था।
“मुझे जल्दी है” —उसने लड़की से कहा, जो उसकी कार तक आ गई थी।
“मेरा नाम रेगिनाल्ड न्वानक्वो है, न्याय मंत्रालय।”
“नमस्ते सर, मैं आपकी कार का बूट देखना चाहती हूँ।’
“हे भगवान! तुम्हारे ख़याल से बूट में क्या है?”
“मैं नहीं जानती, सर।”
ग़ुस्सा दबाते हुए वह कार से बाहर निकला, पीछे गया, बूट खोला और बाएँ हाथ से ढक्कन उठाते हुए दाएँ से यूँ इशारा किया, जैसे कह रहा हो—आपके बाद!
“हो गई तसल्ली?” उसने पूछा।
“जी, सर। क्या मैं आपकी गाड़ी का पिजन-होल देख सकती हूँ?”
“ओह गॉड!”
“देरी के लिए माफ़ी, सर आप ही लोगों ने हमें यह काम सौंपा है।”
“कोई बात नहीं, तुम बिल्कुल ठीक कहती हो। यह रहा ग्लव-बॉक्स। देख लो कुछ भी नहीं है।
“ठीक है, सर! बंद कर दीजिए,” उसने पीछे का दरवाज़ा खोलकर सीटों के नीचे झाँका। तब उसने पहली बार लड़की को ध्यान से देखा—पीछे से। वह ख़ूबसूरत लड़की थी, जिसने उभारवाली नीली जर्सी, ख़ाकी जीन्स तथा कैनवेस के जूते पहन रखे थे और बालों को नए स्टाइल की प्लीटों में बाँध रखा था, जिससे लड़कियों के चेहरों पर विद्रोह का-सा भाव आ जाता था, जिसे लोगों ने-जाने क्यों—“एयरफोर्स बेस’ का नाम दे दिया था। वह कुछ-कुछ जानी-पहचानी सी लगती थी।
“मैं ठीक हूँ, सर,” उसने अंत में कहा जिसका मतलब था कि वह अपना काम ख़त्म कर चुकी थी। “आपने मुझे पहचाना नहीं?”
“नहीं, क्यों?”
“जब मैं स्कूल छोड़कर सेना में भर्ती होने जा रही थी तो आपने मुझे ऐनूगू तक लिफ़्ट दी थी।”
“ओ, हाँ, तुम्हीं वह लड़की हो। मैंने तुम्हें वापस स्कूल जाने को कहा था न क्योंकि फ़ौज में लड़कियों की ज़रूरत नहीं है, फिर क्या हुआ?”
उन्होंने मुझे वापस स्कूल जाने को कहा या रेडक्रॉस में भरती होने को कहा।”
“देखा, तुमने, मैंने ठीक कहा था न। तब तुम यहाँ क्या कर रही हो?”
“सिर्फ़ सिविल-डिफैंस के साथ थोड़ा-सा हाथ बँटा रही हूँ।”
“चलो ठीक है, यक़ीनन तुम बहुत ही अच्छी लड़की हो।” वही दिन था जिस दिन उसने सोचा कि क्रांति में आख़िर कुछ है। उसने पहले भी लड़कियों और औरतों को मार्चिंग तथा प्रदर्शन करते देखा था, लेकिन वह उनके बारे में ठीक-ठाक धारणा नहीं बना पाया था। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि औरतें और लड़कियाँ अपने बारे में गंभीरता से सोचती थीं, जो गलियों में छड़ियाँ उठाए और सिरों पर स्टील हैल्मेटों की जगह सूप के कटोरे रखे आगे-पीछे ड्रिल किया करती थीं। उन दिनों का सबसे मशहूर मज़ाक था वह बैनर जिसके पीछे-पीछे स्थानीय स्कूल की लड़कियाँ चलती थीं और जिस पर लिखा रहता था—वी० आर० इम्प्रैग्नेबल!”
लेकिन आवका चेक-पॉइंट पर उस लड़की के साथ उस मुलाक़ात के बाद वह दुबारा न तो लड़कियों का मज़ाक ही उड़ा सका और न ही क्रांति की बात का, क्योंकि उस लड़की की कार्य-कुशलता में सादगी और आत्म विश्वास ने उसे एकदम छिछोरेपन का अपराधी घोषित कर दिया था। क्या कहा था उसने—“हम वही काम कर रहे हैं, जो आप लोगों ने हमें सौंपा है।” वह उसका भी लिहाज़ नहीं करने जा रही थी, जिसने एक बार उस पर एहसान किया था। उसे यक़ीन था कि वह अपने पिता की तलाशी भी उसी सख़्ती से लेती।
जब वे तीसरी बार एक-दूसरे की राहों से गुज़रे तो अठारह महीने बीत चुके थे और हालात काफ़ी ख़राब थे। मौत और भुखमरी ने पहले दिनों के स्वाभिमान को भगा दिया था, जिसका स्थान ले लिया था विशुद्ध निराशा ने और कहीं-कहीं पत्थर-सी कठोर और कभी-कभी आत्म-घातक अवज्ञा ने। आश्चर्य की बात है कि ऐसे वक़्त में भी कुछ लोग ऐसे थे, जिनकी एकमात्र इच्छा वक़्त रहते जीवन की अच्छी वस्तुओं को हथियाना तथा चरम सीमा तक मौज़ उड़ाना थी। ऐसे लोगों के लिए दुनिया में एक अजीबो-ग़रीब तौर पर सामान्यता लौट आई थी। सभी चेक-पॉइंट ग़ायब हो गए। लड़कियाँ फिर लड़कियाँ बन गईं और लड़के, लड़के। जीवन बहुत ही संकुचित, घिरा हुआ तथा निराशाजनक हो गया था, जिसमें कुछ अच्छाइयाँ थीं, कुछ बुराइयाँ और ढेर-सी वीरता, जो इस कहानी के पात्रों से परे रिफ्यूजी कैंपों, चिथड़ों में लिपटे, गोली के निशाने के सामने डटे, भूखे-नंगे लेकिन साहसी लोगों में दिखाई देती थी।
रेगिनाल्ड न्वानक्वो उन दिनों औवैरी में रह रहा था तथा उस दिन वह राशन की तलाश में न्क्वैरी गया हुआ था। औवैरी में उसे कैरीटास में कुछ मछली, डिब्बाबंद माँस तथा घटिया अमेरिकी खाद्य, जिसे खाद्य फार्मूला दो कहते थे और जो किसी क़िस्म का पशुओं का चारा था, मिल गया था। उसे लगता था कि कैथोलिक न होने की वजह से उसे कैरीटास में नुक़सान होता था। इसीलिए वह न्क्वैरी में चावल, बींस तथा गेबन-गारी नामक एक बढ़िया अनाज की तलाश में अपने एक दोस्त के पास आया था, जो डब्ल्यू सी सी का एक डिपो चलाता था।
वह औवैरी से सुबह छह बजे ही निकल पड़ा था, ताकि अपने दोस्त को डिपो में ही पकड़ सके, जो हवाई हमले के डर से 8-30 के बाद वहाँ नहीं रुकता था। न्वानक्वो के लिए वह दिन भाग्यशाली था। कुछ दिन पहले कई जहाज़ों के अचानक एकसाथ आ जाने के कारण डिपो में एक दिन पहले ही रसद का बहुत बड़ा स्टॉक आया था। जब उसका ड्राइवर टिन, थैले और कार्टन उसकी गाड़ी में लाद रहा था तो भूखी भीड़ ने जो हमेशा रिलीफ़-सैंटरों के गिर्द जुटी रहती थी, कई फ़ब्तियाँ कसीं जैसे कि ‘वार कैन कन्टीन्यू’ जिसका आशय डब्ल्यू सी सी से था। कोई और चिल्लाया ‘इरेवोलू’, उसके दोस्तों ने उत्तर दिया ‘शम’। ‘इरेवोलू’ ‘शम’!
‘इसोफ़ेली’, ‘शम’! ‘इसोफ़ेली’, ‘म्बा’
न्वानक्वो को बहुत शर्म आई—चिथड़ों तथा नंगी पसलियों वाली भीड़ से नहीं, लेकिन उनके बीमार जिस्मों तथा दोष लगाती आँखों से। उसे ज़्यादा बुरा लगता अगर वे कुछ भी न कह कर चुपचाप उसकी गाड़ी के बूट में दूध, अंडे का पाउडर, दलिया, माँस और मछली के डिब्बों को लदता देखते रहते। सामान्यतया चारों ओर फैली मुसीबतों के बीच इस प्रकार की ख़ुशक़िस्मती पर शर्म आना अनिवार्य था, लेकिन कोई क्या कर सकता था? दूर ओग्बू गाँव में रह रही उसकी पत्नी और चार बच्चे पूरी तरह उस द्वारा भेजी गई राहत पर निर्भर थे। वह उन्हें क्वाशीख़ोर जैसी घातक बीमारी के मुँह में तो नहीं धकेल सकता था। वह सिर्फ़ इतना कर सकता था—और कर रहा था—कि जब भी उसे आज की तरह अच्छी रसद मिल जाती थी तो वह उसका कुछ हिस्सा अपने ड्राइवर जॉनसन को दे देता था, जिसकी पत्नी और छह बच्चे थे—या सात—और जिसकी तनख़्वाह दस पाउंड प्रति माह थी। बाज़ार में ‘गारी’ अन्न की कीमत एक पाउंड प्रति सिगरेट-टिन तक पहुँच गई थी। ऐसी हालत में वह भीड़ के लिए कुछ भी नहीं कर सकता था। ज़्यादा से ज़्यादा वह अपने पड़ोसी के लिए कुछ कर सकता था। बस, यही कुछ!
औवैरी से वापस आते समय, सड़क के किनारे खड़ी एक ख़ूबसूरत लड़की ने लिफ़्ट माँगी। उसने ड्राइवर को रुकने को कहा। चारों ओर से बीसियों पैदल चलने वाले —धूल से सने और थके—जिनमें कुछ फ़ौजी थे और कुछ सिविलियन, गाड़ी की ओर झपटे।
“नहीं, नहीं, नहीं,” न्वानक्वो ने सख़्ती से कहा—“मैं तो उस सुंदरी के लिए रुका हूँ। मेरा टायर ख़राब है और मैं सिर्फ़ एक ही यात्री को ले सकता हूँ। सॉरी!”
“बेटे, प्लीज़”। हैंडल पकड़ते हुए एक निराश बुढ़िया ने कहा।
“बुढ़िया तू मरना चाहती है?” ड्राइवर ने उसे धकेलते हुए और गाड़ी बढ़ाते हुए कहा।
न्वानक्वो ने अब तक किताब खोल ली थी और नज़रें उसमें गड़ा दी थीं। लगभग एक मील तक उसने लड़की की तरफ़ देखा ही नहीं। आख़िर लड़की को चुप्पी बहुत भारी लगी और उसने कहा,
“आपने आज मुझे बचा लिया, शुक्रिया!”
“इसमें क्या बात है, कहाँ जा रही हो?”
“औवैरी, आपने मुझे पहचाना नहीं?”
“ओ, हाँ ज़रूर। मैं भी कितना बेवक़ूफ़ हूँ, तुम?”
“ग्लैडिस।”
“हाँ, हाँ, फ़ौजी लड़की। ग्लैडिस तुम बदल गई हो। ख़ूबसूरत तो तुम हमेशा ही थी, लेकिन अब तो तुम रूप की रानी लगती हो। क्या करती हो आजकल?”
“मैं आजकल फ़्यूल डायरेक्ट्रेट में हूँ।”
“बहुत अच्छी बात है।”
अच्छी बात तो है, उसने सोचा, लेकिन दुखद भी। वह एक गाढ़े रंग का विग पहने हुए थी, महँगी स्कर्ट और लो-कट का ब्लाउज़। उसके जूते ज़रूर गेबन से आए होंगे और काफ़ी महँगे होंगे। कुल मिला कर, न्वानक्वो ने सोचा, उसे किसी अमीर आदमी की रखैल होना चाहिए। ऐसा आदमी जो लड़ाई से पैसों के पहाड़ बना रहा होगा।
“मैंने आज तुम्हें लिफ़्ट देकर अपना एक उसूल तोड़ा है। आजकल मैं लिफ़्ट बिल्कुल भी नहीं देता।”
“क्यों?”
आख़िर आप कितने लोगों को ले जा सकते हैं? बेहतर है कि कोशिश ही मत करो। उस बुढ़िया को ही लो।”
“मैंने सोचा था कि आप उसे बिठा लेंगे।”
वह इस पर कुछ भी नहीं बोला। चुप्पी के एक और दौर के बाद ग्लैडिस को लगा कि वह बुरा मान गया है। इसीलिए उसने जोड़ा—
“मेरे लिए अपना उसूल तोड़ने का शुक्रिया।” वह उसके थोड़े परे मुड़े हुए चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। वह मुस्कुराया, मुड़ा, उसकी गोदी पर हल्के से हाथ मारा और पूछा,
“औवैरी में तुम क्या करने जा रही हो?”
“मैं अपनी सहेली से मिलने जा रही हूँ।”
“सहेली? पक्की बात?”
“क्यों नहीं...अगर आप मुझे उसके घर तक छोड़ें तो उससे मिल भी सकते हैं। बस एक ही डर है कि वह कहीं वीक-एण्ड पर निकल न गई हो। तब तो गड़बड़ हो जाएगी।”
“क्यों?”
“क्योंकि अगर वह घर पर न हुई तो सड़क पर सोना पड़ेगा।”
“मैं तो प्रार्थना कर रहा हूँ कि वह घर पर न ही हो।”
“क्यों?”
“क्योंकि अगर वह घर पर न हुई तो मैं तुम्हें रात के लिए और सुबह नाश्ते के लिए न्यौता दे सकूँगा।”
“क्या है?” उसने ड्राइवर से पूछा, जिसने एकाएक गाड़ी रोक दी थी। जवाब की ज़रूरत ही नहीं थी। सामने खड़ी भीड़ ऊपर देख रही थी। तीनों गाड़ी से निकलते ही झाड़ियों की ओर भागे, गर्दनें पीछे आसमान पर लगी थीं। लेकिन अलार्म ग़लत था।
आसमान साफ़ और बेआवाज़ था, सिर्फ़ दो गिद्ध ऊँची उड़ान भर रहे थे। भीड़ में से एक मसखरे ने उनको ‘फाइटर’ और बॉम्बर’ का नाम दे दिया और सभी राहत की हँसी हँस उठे। तीनों फिर गाड़ी में सवार हुए तथा यात्रा जारी रही।
“अभी रेड्स के लिए जल्दी है,” उसने ग्लैडिस से कहा, जो अभी भी अपने दोनों हाथ छातियों पर रखे हुए थी, मानों दिल की धक् धक् सुन रही हो। “वे दस बजे से पहले नहीं आते हैं।”
लेकिन ग्लैडिस डर के मारे बोल भी नहीं पा रही थी। न्वानक्वो को एक मौक़ा दिखाई दिया और उसने उसे तुरंत हथिया लिया—
“तुम्हारी सहेली कहाँ रहती है?”
“250, डग्लस रोड।”
“ओह, यह तो शहर के बीचो-बीच है। बहुत ही वाहियात जगह है। न खंदक और न कुछ और। मैं तुम्हें वहाँ शाम छह बजे से पहले जाने की सलाह नहीं दूँगा। सुरक्षित नहीं है। अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं तुम्हें अपने यहाँ लिए चलता हूँ। जैसे ही छह बजेंगे मैं तुम्हें तुम्हारी सहेली के यहाँ छोड़ आऊँगा। ठीक है?”
“ठीक है,” उसने बेजान-से स्वर में कहा। “मुझे इससे बहुत डर लगता है। इसीलिए मैंने औवैरी में काम करने से भी इन्कार कर दिया था। जाने किसने मुझे आज यहाँ आने की सलाह दी थी।”
“कोई बात नहीं, हमें तो आदत हो गई है।”
“लेकिन आप के साथ आपका परिवार तो नहीं है न?”
“नहीं,” उसने कहा, “किसी का भी परिवार यहाँ नहीं है। हम कहते हैं कि इसका कारण एयर-रेड्स है, लेकिन सच्चाई कुछ और है। औवैरी मौज-मस्ती का शहर है और हम लोग मस्त कुँवारों की तरह रहते हैं।”
“मैंने भी कुछ ऐसा ही सुना है।”
“सुना ही नहीं, तुम आज देखोगी भी। मैं तुम्हें आज एक बहुत ही मस्ती-भरी पार्टी में ले जाऊँगा। मेरे एक दोस्त का, जो लेफ़्टिनेंट कर्नल है, आज जन्मदिवस है। उसकी पार्टी है। उन्होंने साउंड स्मैशर्स बैंड किराये पर लिया है। मुझे विश्वास है तुम्हें मज़ा आएगा।”
लेकिन उसे इस बात पर शर्म आई। उसे पार्टियों तथा रास-रंग से बहुत चिढ़ थी, जबकि उसके दोस्त मक्खियों की तरह उससे चिपके रहते थे। और यह सब बात वह इसलिए कर रहा था, क्योंकि वह एक लड़की को घर ले जाना चाहता था। और लड़की भी वह जिसका एक समय जंग में अटूट विश्वास था और जिसे (उसे यक़ीन था) किसी रंगरलिए ने धोखा दिया था। क्षोभ में उसने सिर हिलाया।
“क्या हुआ?” ग्लैडिस ने पूछा।
“कुछ नहीं, यूँ ही कुछ सोचने लगा था।”
बाक़ी यात्रा लगभग चुप्पी में कटी।
वह इतनी तेज़ी से उसके घर में घुल-मिल गई, जैसे कि उसकी नियमित गर्ल-फ्रेंड हो। उसने घरेलू पोशाक पहनी और अपना भड़कीला विग उतार दिया।
“तुम्हारे बालों की सजावट बहुत अच्छी है। तुम इन्हें विग में क्यों छुपाए रखती हो?”
“शुक्रिया,” उसने कुछ देर तक उसके सवाल का जवाब दिया ही नहीं।
फिर कहा, “आदमी लोग भी मसखरे होते हैं।”
“क्यों?”
“तुम तो रूप की रानी लगती हो”, उसने उसकी नकल उतारी।
“ओह, वह बात। मैं तो उसे अक्षरश: सच मानता हूँ।” उसने उसे अपनी ओर खींचा और चूम लिया। न तो उसने ऐतराज ही किया और न ही पूरी तरह समर्पण। शुरुआत के लिए न्वानक्वो को यह अच्छा लगा। इन दिनों बहुत-सी लड़कियाँ आसानी से मान जाती थी। कुछ लोगों ने इसे ‘बीमारी-ए-जंग’ का नाम दे दिया था।
कुछ देर बाद वह अपने दफ़्तर हाज़िरी लगाने गया और वह रसोई में लंच के लिए नौकर की मदद करने लगी। उसने सिर्फ़ हाज़िरी ही लगाई होगी, क्योंकि वह आधे घंटे में ही लौट आया। हाथ मलते हुए बोला कि वह अपनी रूप की रानी से ज़्यादा देर दूर नहीं रह सकता था।
जब वे लंच कर रहे थे तो वह बोली, “तुम्हारे फ़्रिज में तो कुछ भी नहीं है!”
“जैसे?” उसने बुरा-सा मानते हुए पूछा।
“जैसे माँस” उसने बिना झिझक के उत्तर दिया।
“तुम अभी भी माँस खाती हो?” उसने सवाल किया।
“मैं भला कौन होती हूँ, लेकिन आप जैसे बड़े लोग खाते हैं।”
“मुझे पता नहीं, तुम किन बड़े लोगों की बात कर रही हो। लेकिन वे मेरे जैसे नहीं है। मैं न तो दुश्मन से कारोबार करके पैसा बनाता हूँ और न ही राहत का सामान बेचकर या...
“आगस्टा का ब्वॉय-फ्रेंड भी ये सब नहीं करता। उसे सिर्फ़ विदेशी मुद्रा मिलती है।”
“कैसे मिलती है? वह सरकार को धोखा देता है—ऐसे मिलती है उसे विदेशी मुद्रा।”
“चाहे वह कोई भी हो। वैसे यह आगस्टा कौन है?”
“मेरी सहेली।”
“ओह।”
“पिछली बार उसने मुझे तीन डॉलर दिए थे, जिन्हें मैंने पैंतालीस पाउंड में बदल लिया। उस आदमी ने आगस्टा को पचास डॉलर दिए थे।”
“ख़ैर मेरी प्यारी, मैं विदेशी मुद्रा की भी दलाली नहीं करता और मेरे फ़्रिज में माँस भी नहीं है। हम एक जंग लड़ रहे हैं और मुझे सिर्फ़ यह पता है कि फ्रंट पर हमारे कुछ नौजवान तीन-तीन दिन में एक बार जौ का पानी पीकर लड़ रहे हैं।”
“यह तो ठीक ही है। बदर लड़ी है, लगूर खाई है।”
“बात यह भी नहीं है—इससे भी बुरी है”, उसने कहा। ग़ुस्से से उसकी ज़ुबान लड़खड़ाने लगी थी। “लोग हर रोज़ मारे जा रहे हैं। इस वक़्त जब हम-तुम बात कर रहे हैं, उस वक़्त भी कोई मारा जा रहा है।”
“यह तो ठीक है” उसने फिर कहा।
“हवाई जहाज़!” लड़का रसोई से चिल्लाया।
“हाय माँ”—ग्लैडिस चिल्लाई। जैसे ही वे पास के पत्तों और लाल मिट्टी से बनी खंदक की ओर, सिर पर हाथ धरे, शरीर को झुकाये हुए भागे, आसमान जेट विमानों तथा घरेलू विमान-भेदी तोपों की गरजती आवाज़ से फट पड़ा।
खंदक में, विमानों के चले जाने के बाद और देर से शुरू हुई तोपों की घन गरज ख़त्म हो जाने के बाद भी वह उससे चिपकी रही।
“वह जहाज़ तो सिर्फ़ ऊपर से गुज़र रहा था” न्वानक्वो ने कहा। उसकी आवाज़ कुछ काँप-सी रही थी। “उसने, कुछ भी नहीं गिराया। उसकी दिशा से लग रहा था कि लड़ाई के मोर्चे पर जा रहा था। शायद हमारे सैनिक उन पर दबाव डाल रहे हैं, इसीलिए वे ऐसा करते हैं। जब भी हमारे सैनिक दबाव डालते हैं वे रूसियों और मिस्र को हवाई जहाजों के लिए एस ओ एस भेज देते हैं।” उसने लंबी साँस ली।
उसने कुछ भी नहीं कहा, सिर्फ़ उससे चिपकी रही। वे सुनते रहे। उनका नौकर साथ वाले घर के नौकर को बतला रहा था कि वे दो थे। एक ने यूँ डाइव मारी और दूसरे ने यूँ।
“हम भी अच्छी तरह देख रहे हैं”, दूसरे ने उतने ही उत्साह से कहा।
“कहना तो नहीं चाहिए। लेकिन इन मसीनों से लोगों का मरना देखने में सुंदर लगेगा न, भगवान क़सम।”
“सोचो!” आख़िरकार ग्लैडिस ने ज़ुबान का इस्तेमाल करते हुए कहा। न्वानक्वो ने सोचा कि वह चंद लफ़्ज़ों में ही या सिर्फ़ एक ही लफ़्ज़ से अर्थ की कई परतों को व्यक्त कर सकती थी। इस एक लफ़्ज़ में—सोचो—आश्चर्य, आलोचना तथा शायद इन लोगों के लिए एक तरह की प्रशंसा भी छिपी थी, जो मौत के हरकारों के बारे में भी मज़ाक कर सकते थे।
“डरो मत,” उसने कहा। वह उसके और नज़दीक आ गई और वह उसे चूमने लगा, उसकी छातियाँ दबाने लगा। वह धीरे-धीरे खुलने लगी और फिर पूरी तरह से खुल गई। खंदक में अंधेरा था, वहाँ झाड़ू भी नहीं लगी थी और उसमें कीड़े-पतंगे हो सकते थे। उसने घर में से चटाई लाने की सोची, फिर ख़याल छोड़ दिया। और कोई हवाई जहाज़ आ सकता था। पड़ोसी या आता-जाता कोई आकर उनके ऊपर पड़ सकता था। यह तो लगभग वैसी ही परिस्थिति होगी, जिसमें लोगों ने हवाई हमले के समय दिन-दहाड़े एक आदमी को नंग-धड़ंग अपने बेड रूम से निकलकर भागते देखा था और उसके पीछे-पीछे वैसी ही हालत में एक औरत भी थी।
जैसा कि ग्लैडिस को डर था, उसकी सहेली घर पर नहीं थी। लगता था कि उसके प्रभावशाली दोस्त ने लिवरविल में ख़रीदारी के लिए उसके पीछे हवाई-जहाज़ में एक सीट हासिल कर ली थी। कम-से-कम पड़ोसियों को तो यही अंदाज़ा था।
“कमाल है”, न्वानक्वो ने वापिसी पर कहा। “वह लड़ाकू विमान पर जूतों, विगों, पैंटो, ब्रा, कॉस्मैटिक्स और ऐसी चीज़ों से लदी-फँदी लौटेगी, जिन्हें फिर वह हज़ारों पाउंड की क़ीमत पर बेच देगी। तुम लड़कियाँ सचमुच जंग पर हो, नहीं!”
वह कुछ नहीं बोली और उसे लगा कि आख़िरकार वह उसे कचोटने में सफल हो गया है। लेकिन एकाएक वह बोली, “तुम मर्द लोग तो चाहते ही हो कि हम यही सब कुछ करें।”
“ख़ैर,” उसने कहा, “मैं एक ऐसा मर्द हूँ, जो नहीं चाहता कि तुम यह सब करो। तुम्हें ख़ाकी जीन्स में वह लड़की याद है, जिसने बेरहमी से चेक-पॉइंट पर मेरी तलाशी ली थी?”
वह हँसने लगी।
“मैं चाहता हूँ तुम फिर से वही लड़की बन जाओ। तुम्हें याद है?’’ कोई विग नहीं, और जहाँ तक मुझे याद है कोई इयरिंग तक नहीं...”
“देखो, झूठ नहीं...मैंने इयरिंग पहन रखे थे।”
“चलो ठीक है, लेकिन समझ आई कि मैं क्या कह रहा हूँ?”
“वो वक़्त गया। अब तो सब बचना चाहते हैं। इसे कहते हैं नंबर छह। तुम अपना नंबर छह निकालो; मैं अपना नम्बर छह निकालती हूँ। सब कुछ ठीक-ठाक।”
लेफ़्टिनेंट कर्नल की पार्टी में एक अजीब-सी बात हो गई। लेकिन उसके होने से पहले सब ठीक-ठाक चल रहा था। बकरे का माँस था, मुर्ग़ा और चावल तथा ढेर-सी देसी शराब, जिसमें से एक का नाम उन्होंने ट्रेसर रख छोड़ा था, क्योंकि वह हलक़ को जलाती हुई उतरती थी। मज़ाक की बात तो यह थी कि बोतल में देखने पर वह नारंगी के रस जैसी सीधी-सादी लगती थी। लेकिन सबसे ज़्यादा जिस चीज़ ने हंगामा खड़ा किया वह थी डबलरोटी। असली। बैंड भी अच्छा और लड़कियाँ भी बहुत-सी थीं। माहौल को और भी बेहतर बनाने के लिए दो गोरे आ निकले जो रेडक्रॉस में थे। साथ में लाए वे एक बोतल कूर्वेज़्यो की और एक स्कॉच की। पार्टी ने पहले तो खड़े होकर उनका अभिनंदन किया और फिर सभी भागे एक-एक घूँट पाने के लिए। कुछ देर बाद एक गोरे के व्यवहार से लगा कि उसने पहले से ही काफ़ी पी रखी थी, जिसका कारण शायद यह था कि गई रात एक पायलेट जिसे वह अच्छी तरह जानता था, ख़राब मौसम में राहत सामग्री लाते समय एयरपोर्ट पर हवाई दुर्घटना में मारा गया था।
पार्टी में उस समय तक कम लोगों ने ही इस दुर्घटना के बारे में सुना था। सो सारे वातावरण में तुरंत मुर्दनी-सी छा गई।
नाच रहे कुछ जोड़े तुंरत वापस अपनी सीटों पर चले गए तथा बैंड बजना बंद हो गया। तब एकाएक अकारण ही रेडक्रॉस वाला आदमी गरज पड़ा—“एक आदमी ने—शरीफ़ आदमी ने—क्यों अपनी जान दे दी, बेकार ही। चार्ली को मरने की ज़रूरत नहीं थी। इस सड़ियल जगह के लिए तो बिल्कुल नहीं। यहाँ हर चीज़ बू मारती है। ये लड़कियाँ भी जो बनी-ठनी, मुस्कराती यहाँ आई हैं, किसी काम की नहीं हैं, मछली का एक टुकड़ा—या एक अमेरिकी डॉलर—बस और ये साली हमबिस्तर होने को तैयार हैं।’
उबाल के बाद आई चुप्पी में एक नौजवान अफ़सर उसके पास गया और उसे तीन तमाचे जड़ दिए—दाएँ! बाएँ! उसे सीट से खींच कर उठा लिया (उसकी आँखों में आँसुओं जैसा कुछ था) और बाहर धकेल दिया। उसका दोस्त भी जिसने उसे चुप कराने की कोशिश की थी, पीछे-पीछे बाहर चला गया। निस्तब्ध पार्टी में उनकी कार के जाने की आवाज़ साफ़ सुनाई दी। अफ़सर जिसने तमाचे जड़े थे, हाथ झाड़ता हुआ अपनी सीट पर वापस आ गया।
“साला चूतिया!” उसने रोबीली आवाज़ में कहा। सभी लड़कियों ने अपनी नज़रों से उसे अहसास करा दिया कि वे उसे मर्द और हीरो समझती हैं।
“आप उसे जानते हैं?” ग्लैडिस ने न्वानक्वो से पूछा। उसने उत्तर नहीं दिया। बदले में सारी पार्टी को सम्बोधित करते हुए कहा—
“वह पिये हुए था,” उसने कहा।
“मुझे इस बात की परवाह नहीं,” अफ़सर ने कहा, “जब आदमी पिये होता है, तभी वह वही कहता है जो उसके मन में होता है।”
“तो तुमने उसे उस बात के लिए पीटा जो उसके मन में थी,” मेज़बान ने कहा।
“ऐसी ही भावना होनी चाहिए, जो”
“शुक्रिया जनाब,” जो ने सैल्यूट करते हुए कहा।
“तो उसका नाम जो है।” ग्लैडिस और उसके बाईं ओर बैठी लड़की ने एक दूसरे की तरफ़ मुड़ते हुए एकसाथ कहा।
उसी समय न्वानक्वो और दूसरी ओर बैठा एक और दोस्त एक-दूसरे से दबी ज़ुबान में, बहुत ही दबी ज़ुबान में कह रहे थे कि हालाँकि वह आदमी बददिमाग़ और बेहूदा था, लेकिन लड़कियों के बारे में उसने जो कुछ भी कहा था वह दुर्भाग्यवश कटु सत्य था, सिर्फ़ कहने वाला आदमी ग़लत था।
जब डांस दुबारा शुरू हुआ तो कैप्टन जो ग्लैडिस के पास आया और डांस के लिए कहा। उसके मुँह से लफ़्ज़ निकलने से पहले ही वह कूदकर खड़ी हो गई। तब उसे अचानक याद आया, वह मुड़ी और उसने न्वानक्वो से इजाज़त माँगी। साथ ही कैप्टन ने भी मुड़कर कहा,
“माफ़ कीजिए।”
“जाइए, जाइए,” न्वानक्वो ने दोनों के बीच कहीं देखते हुए कहा।
डांस देर तक चला और वह बिना जताए उन्हें देखता रहा। कभी-कभी ऊपर से रसद का हवाई जहाज़ गुज़रता तो कोई यह कह कर बत्ती बुझा देता कि कहीं दुश्मन का न हो। लेकिन असल में तो यह अंधेरे में डांस करने का तथा लड़कियों को गुदगुदाने का बहाना था, क्योंकि दुश्मन के हवाई जहाज़ों की आवाज़ तो ख़ूब पहचानी हुई थी। ग्लैडिस जब वापिस आई तो बहुत संकोच-भरी थी और उसने न्वानक्वो को अपने साथ नाचने को कहा। लेकिन उसने मना कर दिया। “मेरी परवाह मत करो”, उसने कहा, “मैं तो यहाँ बैठकर तुम लोगों को डांस करता देखकर मज़े ले रहा हूँ।”
“तब चलिए,” उसने कहा, “अगर आप डांस नहीं करेंगे।”
“लेकिन मैं तो कभी डांस नहीं करता। विश्वास करो। जाओ, मज़े करो।”
उसने अगला डांस लेफ़्टिनेंट कर्नल के साथ किया और फिर कैप्टन जो के साथ। इसके बाद न्वानक्वो उसे वापस घर ले चलने के लिए मान गया।
“मुझे दुख है कि मैं डांस नहीं करता”, उसने वापस कार में जाते समय कहा, “लेकिन मैंने क़सम खाई है जब तक यह लड़ाई चलेगी, मैं डांस नहीं करूँगा।”
वह कुछ नहीं बोली।
“मैं उस पायलेट जैसे आदमी के बारे में सोच रहा हूँ, जो कल रात मारा गया। उसका तो इस लड़ाई से कोई सम्बन्ध नहीं था। वह तो हमारे लिए रसद...”।
“मुझे उम्मीद है कि उसका दोस्त उस जैसा नहीं होगा”, ग्लैडिस ने कहा।
“वह तो अपने दोस्त के कारण उखड़ा हुआ था। लेकिन मैं तो यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि जब उस जैसे लोग मारे जा रहे हों, जब मोर्चे पर हमारे नौजवान मारे जा रहे हों तो हम लोगों को चुपचाप बैठे रहना या पार्टियाँ देना या डांस करना कितना उचित है?”
“लेकिन आप ही तो मुझे वहाँ ले गए थे,” अंत में उसने विरोध करते हुए कहा, “वो तो आप ही के दोस्त हैं। मैं तो उन्हें जानती भी नहीं थी।”
“देखो, मेरी प्यारी ग्लैडिस, मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा हूँ। मैं तो तुम्हे सिर्फ़ यह बतला रहा हूँ कि मैं डांस क्यों नहीं करता। ख़ैर छोड़ो कुछ और बात करें...तुम अभी भी कल ही वापिस जाने पर आमादा हो? मेरा ड्राइवर तुम्हें सोमवार सुबह-सुबह काम पर वक़्त से पहुँचा सकता है। नहीं? चलो, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। तुम मालिक हो।”
जिस आसानी से वह उसके बिस्तर पर चली आई और जिस भाषा का उसने इस्तेमाल किया, उससे उसे आश्चर्य हुआ।
“बमबारी करना चाहते हो?” उसने पूछा। और जवाब की परवाह किए बिना बोली, शुरू करो, लेकिन अपने सिपाही अंदर मत छोड़ना!”
एक बात तो एकदम साफ़ थी—वह किसी सैनिक अफ़सर की रखैल थी। दो सालों में कितना ज़बर्दस्त फ़र्क़ आ गया है। यही क्या कम कमाल था कि उसे अभी अपना पहला जीवन याद था, अपना नाम याद था? अगर शराबी रेडक्रॉस वाला क़िस्सा दुबारा हुआ, उसने सोचा, तो वह उसके साथ खड़ा होगा—सारी पार्टी को बतला देगा कि वह आदमी कितना सच्चा है। सारी-की-सारी पीढ़ी को क्या हो गया है? क्या यही हैं कल की माताएँ!
लेकिन सुबह होते-होते वह बेहतर महसूस करने लगा और उसकी राय में भी उदारता आ गई। उसने सोचा कि ग्लैडिस तो उस समाज का एक छोटा-सा प्रतिबिंब है, जो पूरी तरह सड़ चुका है और जिसमें कीड़े रेंग रहे हैं। लेकिन शीशा साबुत है, सिर्फ़ थोड़ी सी धूल जम गई है। ज़रूरत है तो एक साफ़, सफ़ेद कपड़े की। “इसके प्रति भी मेरा कुछ फ़र्ज़ है,” उसने स्वयं से कहा, “वह छोटी-सी लड़की जिसने एक दिन मुझे हमारे ख़तरे का अहसास कराया था, अब स्वयं ख़तरे में है। कुछ ख़तरनाक असर पड़ रहा है उस पर।”
वह इस घातक असर की जड़ में जाना चाहता था। वह असर सिर्फ़ उसकी अच्छे दिनों की दोस्त आगस्टा—या जो कुछ भी उसका नाम रहा हो—का नहीं था। इसकी तह में ज़रूर कोई आदमी होगा—शायद उन बेरहम व्यापारियों में से एक जो विदेशी मुद्रा की चोरी करते हैं और जो युवकों के जीवन को ख़तरे में डालकर उन्हें दुश्मनों की सीमा के पार भेजते हैं, ताकि तस्करी की चीज़ों को सिगरेटों में बदलकर करोड़ों कमा सकें। या फिर उन ठेकेदारों में से होगा जो सेना को भेजी जाने वाली रसद की चोरी करके पैसों के पहाड़ बना रहे थे। या शायद कोई घिनौना और बुज़दिल सैनिक अफ़सर जो बैरकों के गंदे फिकरे और बहादुरी के झूठे क़िस्सों से भरा हुआ था। उसने उसे ड्राइवर के साथ अकेले ही भेजने का फैसला किया था। लेकिन नहीं, वह ख़ुद जाएगा और देखेगा कि वह कहाँ रहती थी? कुछ-न-कुछ ज़रूर सामने आएगा। इसी पर वह ग्लैडिस को बचाने की योजना आधारित करेगा। जैसे-जैसे वह इस ट्रिप की तैयारी करने लगा, प्रति पल ग्लैडिस के प्रति उसकी भावनाएँ नर्म होती गईं। उसने एक दिन पहले रिलीफ़ सेंटर से मिले राशन का आधा भाग उसके लिए अलग कर दिया। हालाँकि हालात ख़राब थे, लेकिन उसने सोचा था कि जिस लड़की के पास खाने के लिए कुछ होगा, वह कम ललचाएगी। वह डब्ल्यू सी सी में अपने दोस्त से हर हफ़्ते उसके लिए कुछ-न-कुछ देने की बात करेगा। उपहार देखकर ग्लैडिस की आँखों में आँसू आ गए। न्वानक्वो के पास पैसे तो अधिक नहीं थे, लेकिन उसने जोड़-जाड़ कर बीस पाउंड भी उसे दे दिए।
“मेरे पास विदेशी मुद्रा तो नहीं है और मैं जानता हूँ कि ये ज़्यादा देर तक नहीं चल सकते, लेकिन...”
वह दौड़कर आई और उससे लिपटकर रोने लगी। उसने उसके ओंठ और आँखें चूम लीं और मुसीबत के मारों के बारे में कुछ बुदबुदाया, जिसे वह समझ नहीं पाई। न्वानक्वो ने सोचा कि मेरे कारण ही उसने अपना विग उतार कर बैग में रख लिया है।
“मैं चाहता हूँ कि तुम मुझसे एक वादा करो”, उसने कहा।
“क्या?”
“बमबारी वाली वह शब्दावली तुम कभी इस्तेमाल नहीं करोगी।”
आँसू-भरी आँखों से वह मुस्कराई। “तुम्हें पसंद नहीं है न? लेकिन सभी लड़कियाँ ऐसे ही कहती हैं।”
“ख़ैर, तुम दूसरी लड़कियों से अलग हो। वादा करोगी न?”
“अच्छा।”
उन्हें जाने में देर हो गई थी। जब वे गाड़ी में बैठे तो गाड़ी ने स्टार्ट होने से इंकार कर दिया। इंजन में इधर-उधर हाथ मारने के बाद ड्राइवर ने कहा कि बैटरी बैठ गई थी। न्वानक्वो हैरान हो उठा। उसी हफ़्ते उसने दो सैल बदलने में चौंतीस पाउंड ख़र्चे थे और बदलने वाले मैकेनिक ने कहा था कि यह छह महीने तक चलेगी। नई बैटरी ख़रीदने का तो सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि उसकी क़ीमत दो सौ पचास पाउंड तक जा पहुँची थी। ज़रूर ड्राइवर ने कोई लापरवाही दिखाई होगी, उसने सोचा।
“यह कल रात हुआ होगा,’’ ड्राइवर ने कहा।
“कल रात क्या हुआ था?’’ —न्वानक्वो ने ग़ुस्से से पूछा, यह सोचते हुए कि बदतमीज़ी की हद हो गई है। लेकिन ड्राइवर का ऐसा कोई आशय नहीं था।
“क्योंकि हम हेडलाइट्स इस्तेमाल करते रहे थे।”
“तो क्या हमसे उम्मीद की जाती है कि हम लाइटें न जलाएँ? जाओ, धक्का लगाने के लिए कुछ लोगों को लाओ।” वह ग्लैडिस के साथ बाहर निकलकर घर में वापस चला आया और ड्राइवर पड़ोस के घरों में दूसरे नौकरों को मदद के लिए ढूँढ़ने निकला।
सड़क पर आध-घंटा आगे-पीछे धक्का लगाने के बाद तथा धक्का लगाने वालों की ज़ोर-शोर से दी गई सलाहों के बाद गाड़ी में जान वापस आई और एग्ज़ॉस्ट से धुएँ के काले बादल निकलने लगे।
जब वे चले तो उसकी घड़ी में साढ़े आठ बजे थे। कुछ मील दूर एक अपाहिज़ सिपाही ने लिफ़्ट के लिए हाथ दिया।
“रोको!” न्वानक्वो चिल्लाया। ड्राइवर ने ब्रेक पर अपना पूरा पैर जाम कर दिया और फिर आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
“तुमने उस सिपाही को हाथ हिलाते नहीं देखा? वापिस चलो और उसे बिठाओ।”
“माफ़ कीजिए, सर”, ड्राइवर ने कहा, “मुझे पता नहीं था कि सा’ब लिफ़्ट देना माँगता।”
“अगर नहीं पता तो पूछो। वापिस लो।”
सिपाही जो छोटा-सा-लड़का-भर था, पसीने से लथपथ चीकट-सी ख़ाकी वर्दी पहने था और घुटने से नीचे उसकी टाँग ग़ायब थी। यह जानकर कि कार उसके लिए रुकी थी वह सिर्फ़ आभारी ही नहीं बल्कि चकित भी था। उसने पहले लकड़ी की, अपनी घटिया-सी बैसाखियाँ पकड़ाईं जिन्हें ड्राइवर ने आगे दोनों सीटों के बीच टिका दिया, फिर वह स्वयं अंदर बैठ गया।
“शुक्रिया, सर,” उसने गर्दन पीछे घुमाते हुए कहा। उसकी साँस बुरी तरह फूल रही थी।
“मैं आपका आभारी हूँ। मैडम, शुक्रिया!”
“ख़ुशी तो हमें है,” न्वानक्वो ने कहा। “यह घाव कहाँ लगा?”
“अजुमिनी पर, सर। दस जनवरी को।”
“कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा। हमें तुम नौजवानों पर गर्व है। सब ख़त्म हो जाने पर तुम लोगों को उचित पदक मिलेंगे, यह हम विश्वास दिलाते हैं।”
“मैं भगवान से आपके लिए प्रार्थना करूँगा, सर!”
अगले-घंटे तक वे चुपचाप रहे। जैसे ही गाड़ी एक पुल की तरफ़ उतराई से उतरी, कोई चिल्लाया—शायद ड्राईवर या सिपाही—“वे आ गए!” ब्रेक की आवाज़ चिल्लाहट और आसमान फटने की आवाज़ में घुल गई। गाड़ी रुकने से पहले ही दरवाज़े खुल गए और वे अंधाधुंध झाड़ियों की ओर भागने लगे। ग्लैडिस न्वानक्वो से आगे थी। तब उस शोर-शराबे में उन्होंने सिपाही के चिल्लाने की आवाज़ सुनी, “आकर, मेरे लिए दरवाज़ा खोलो!” उसे ग्लैडिस के रुकने का आभास हुआ और फिर वह उससे आगे निकल गया। उसने ग्लैडिस को भागते रहने को कहा। तभी उस अस्त-व्यस्त वातावरण में एक ऊँची सीटी की आवाज़ बरछे की तरह नीचे गिरी, ज़ोर की हलचल के साथ एक धमाका हुआ और सब कुछ तितर-बितर हो गया। जिस पेड़ से वह लगा खड़ा था, वह दूर झाड़ियों में जा गिरा। फिर एक और भयानक ऊँची सीटी की आवाज़ और आस-पास वही तोड़-फोड़ फिर एक और, और उसके बाद न्वानक्वो को कुछ सुनाई नहीं दिया।
वह उठा तो चारों ओर रोने की आवाज़ें थीं, धुआँ था, बदबू और चिराँयध का माहौल था। उसने ख़ुद को घसीटा तथा उन आवाजों की ओर चला।
दूर से उसने! आँसुओं और ख़ून से भरे ड्राइवर को अपनी ओर आते देखा। फिर उसकी नज़र गई—अपनी गाड़ी के चिथड़ों तथा लड़की और सिपाही की गड्डमड्ड, क्षत-विक्षत लाशों की ओर—और वह चिल्लाकर ढह पड़ा।
pahli baar jab ve ek dusre ki rahon se guzre to kuch bhi nahin hua. ye un sangharshmay dinon ki baat hai, jab har roz hazaron naujvanon ko aur kabhi kabhi laDakiyon ko bhi bharti daftron se nirash vapas lautna paDta tha, kyonki navagthit desh ki suraksha ke liye hathiyar uthane bahut adhik log aa rahe the.
dusri baar ve aavka ke ek chaik pauint par mile. laDai shuru ho chuki thi door uttari kshetron se dhire dhire dakshin ki or baDh rahi thi. wo aunitsha se ainugu ki or ja raha tha aur jaldi mein tha. halanki bauddhik star par wo saDak avrodhon par achchhi tarah talashi ke haq mein tha, lekin jab bhi use talashi deni paDti thi, bhavatmak star par use hamesha bura lagta tha. halanki wo svayan is baat ko manne ko taiyar nahin tha. lekin log mante the ki agar apaki talashi li gai to aap baDe adami nahin hain. aksar wo apni gahri, prabhavashali avaz mein ye kahkar—reginalD nvanakvo, ‘nyaay mantralay talashi se bach jata tha. iska asar turant hota tha, lekin kai baar agyanta ke karan ya vishuddh hathilepan ke karan chek pauint ke log uske is kathan se prabhavit hone se inkaar kar dete the. jaisa ki abhi aavka par hua tha. maark 4 ki bhari raiflen uthaye hue do kanstebal door saDak ke kinare se nazar rakhe hue the aur talashi ka kaam unhonne sthaniy nigrani karne valon par chhoD diya tha.
“mujhe jaldi hai” —usne laDki se kaha, jo uski kaar tak aa gai thi.
“mera naam reginalD nvanakvo hai, nyaay mantralay. ”
“namaste sar, main apaki kaar ka boot dekhana chahti hoon. ’
“he bhagvan! tumhare khayal se boot mein kya hai?”
“main nahin janti, sar. ”
ghussa dabate hue wo kaar se bahar nikla, pichhe gaya, boot khola aur bayen haath se Dhakkan uthate hue dayen se yoon ishara kiya, jaise kah raha ho—apke baad!
“ho gai tasalli?” usne puchha.
“ji, sar. kya main apaki gaDi ka pijan hol dekh sakti hoon?”
“oh gauD!”
“deri ke liye mafi, sar aap hi logon ne hamein ye kaam saumpa hai. ”
“koi baat nahin, tum bilkul theek kahti ho. ye raha glav bauks dekh lo kuch bhi nahin hai.
“theek hai, sar! band kar dijiye,” usne pichhe ka darvaza kholkar siton ke niche jhanka. tab usne pahli baar laDki ko dhyaan se dekha pichhe se. wo khubsurat laDki thi, jisne ubharvali nili jarsi, khaki jeens tatha kainves ke jute pahan rakhe the aur balon ko ne stail ki pliton mein baandh rakha tha, jisse laDakiyon ke chehron par vidroh ka sa bhaav aa jata tha, jise logon ne jane kyon—“eyarphors bes’ ka naam de diya tha. wo kuch kuch jani pahchani si lagti thi.
“main theek hoon, sar,” usne ant mein kaha jiska matlab tha ki wo apna kaam khatm kar chuki thi. “apne mujhe pahchana nahin?”
“nahin, kyon?”
“jab mein skool chhoDkar sena mein bharti hone ja rahi thi to aapne mujhe ainugu tak lift di thi. ”
“o, haan, tumhin wo laDki ho. mainne tumhein vapas skool jane ko kaha tha na kyonki fauj mein laDakiyon ki zarurat nahin hai, phir kya hua?”
unhonne mujhe vapas skool jane ko kaha ya reDakraus mein bharti hone ko kaha. ”
“dekha, tumne, mainne theek kaha tha na. tab tum yahan kya kar rahi ho?”
“sirf sivil Diphains ke saath thoDa sa haath banta rahi hoon. ”
“chalo theek hai, yaqinan tum bahut hi achchhi laDki ho. ” vahi din tha jis din usne socha ki kranti mein akhir kuch hai. usne pahle bhi laDakiyon aur aurton ko maching tatha pradarshan karte dekha tha, lekin wo unke bare mein theek thaak dharna nahin bana paya tha. ismen to koi sandeh nahin ki aurten aur laDkiyan apne bare mein gambhirta se sochti theen, jo galiyon mein chhaDiyan uthaye aur siron par steel hailmeton ki jagah soop ke katore rakhe aage pichhe Dril kiya karti theen. un dinon ka sabse mashhur mazak tha wo bainar jiske pichhe pichhe sthaniy skool ki laDkiyan chalti theen aur jis par likha rahta tha—vi० aar० impraignebal!”
lekin aavka chaik pauyant par us laDki ke saath us mulaqat ke baad wo dubara na to laDakiyon ka mazak hi uDa saka aur na hi kranti ki baat ka, kyonki us laDki ki karya kushalta mein sadgi aur aatm vishvas ne use ekdam chhichhorepan ka apradhi ghoshit kar diya tha. kya kaha tha usne—“ham vahi kaam kar rahe hain, jo aap logon ne hamein saumpa hai. ” wo uska bhi lihaz nahin karne ja rahi thi, jisne ek baar us par ehsaan kiya tha. use yaqin tha ki wo apne pita ki talashi bhi usi sakhti se leti.
jab ve tisri baar ek dusre ki rahon se guzre to atharah mahine beet chuke the aur halat kafi kharab the. maut aur bhukhamri ne pahle dinon ke svabhiman ko bhaga diya tha, jiska sthaan le liya tha vishuddh nirasha ne aur kahin kahin patthar si kathor aur kabhi kabhi aatm ghatak avagya ne. ashcharya ki baat hai ki aise vaqt mein bhi kuch log aise the, jinki ekmaatr ichchha vaqt rahte jivan ki achchhi vastuon ko hathiyana tatha charam sima tak mauz uDana thi. aise logon ke liye duniya mein ek ajibo gharib taur par samanyata laut aai thi. sabhi chek pauint ghayab ho ge. laDkiyan phir laDkiyan ban gain aur laDke, laDke. jivan bahut hi sankuchit, ghira hua tatha nirashajnak ho gaya tha, jismen kuch achchhaiyan theen, kuch buraiyan aur Dher si virata, jo is kahani ke patron se pare riphyuji kaimpon, chithDon mein lipte, goli ke nishane ke samne Date, bhukhe nange lekin sahasi logon mein dikhai deti thi.
reginalD nvanakvo un dinon auvairi mein rah raha tha tatha us din wo rashan ki talash mein nkvairi gaya hua tha. auvairi mein use kairitas mein Dibbaband maans tatha ghatiya ameriki khadya, jise khadya pharmula do kahte the aur kuch machhli, jo kisi qism ka pashuon ka chara tha, mil gaya tha. use lagta tha ki kaitholik na hone ki vajah se use kairitas mein nuksan hota tha. isiliye wo nkvairi mein chaval, beens tatha geban gari namak ek baDhiya anaj ki talash mein apne ek dost ke paas aaya tha, jo Dablyu si si ka ek Dipo chalata tha.
wo auvairi se subah chhah baje hi nikal paDa tha, taki apne dost ko Dipo mein hi pakaD sake, jo havai hamle ke Dar se 8 30 ke baad vahan nahin rukta tha. nvanakvo ke liye wo din bhagyashali tha. kuch din pahle kai jahazon ke achanak eksaath aa jane ke karan Dipo mein ek din pahle hi rasad ka bahut baDa stauk aaya tha. jab uska Draivar tin, thaile aur kartan uski gaDi mein laad raha tha to bhukhi bheeD ne jo hamesha rilif saintron ke gird juti rahti thi, kai fabtiyan kasin jaise ki ‘vaar kain kantinyu’ jiska ashay Dablyu si si se tha. koi aur chillaya ‘irevolu’, uske doston ne uttar diya ‘sham’. ‘irevolu’ ‘sham’!
‘isofeli’, ‘sham’! ‘isofeli’, ‘mbaa’
nvanakvo ko bahut sharm ai—chithDon tatha nangi pasaliyon vali bheeD se nahin, lekin unke bimar jismon tatha dosh lagati ankhon se. use zyada bura lagta agar ve kuch bhi na kah kar chupchap uski gaDi ke boot mein doodh, anDe ka pauDar, daliya, maans aur machhli ke Dibbon ko ladta dekhte rahte. samanyatya charon or phaili musibton ke beech is prakar ki khushqismti par sharm aana anivarya tha, lekin koi kya kar sakta tha? door ogbu gaanv mein rah rahi uski patni aur chaar bachche puri tarah us dvara bheji gai rahat par nirbhar the. wo unhen kvashikhor jaisi ghatak bimari ke munh mein to nahin dhakel sakta tha. wo sirf itna kar sakta tha—aur kar raha tha—ki jab bhi use aaj ki tarah achchhi rasad mil jati thi to wo uska kuch hissa apne Draivar jaunsan ko de deta tha, jiski patni aur chhah bachche the ya saat aur jiski tanakhvah das paunD prati maah thi. bazar mein ‘gari’ ann ki kimat ek paunD prati sigret tin tak pahunch gai thi. aisi haalat mein wo bheeD ke liye kuch bhi nahin kar sakta tha. zyada se zyada wo apne paDosi ke liye kuch kar sakta tha. bas, yahi kuchh!
auvairi se vapas aate samay, saDak ke kinare khaDi ek khubsurat laDki ne lift mangi. usne Draivar ko rukne ko kaha. charon or se bisiyon paidal chalne vale —dhool se sane aur thake—jinmen kuch fauji the aur kuch siviliyan, gaDi ki or jhapte.
“nahin, nahin, nahin,” nvanakvo ne sakhti se kaha—“main to us sundri ke liye ruka hoon. mera tayar kharab hai aur main sirf ek hi yatri ko le sakta hoon. sauri!”
“bete, pleej”. hainDal pakaDte hue ek nirash buDhiya ne kaha.
“buDhiya tu marna chahti hai?” Draivar ne use dhakelte hue aur gaDi baDhate hue kaha.
nvanakvo ne ab tak kitab khol li thi aur nazren usmen gaDa di theen. lagbhag ek meel tak usne laDki ki taraf dekha hi nahin. akhir laDki ko chuppi bahut bhari lagi aur usne kaha,
“apne aaj mujhe bacha liya, shukriya!”
“ismen kya baat hai, kahan ja rahi ho?”
“auvairi, aapne mujhe pahchana nahin?”
“o, haan zarur. main bhi kitna bevaquf hoon, tum?”
“glaiDis. ”
“haan, haan, fauji laDki. glaiDis tum badal gai ho. khubsurat to tum hamesha hi thi, lekin ab to tum roop ki rani lagti ho. kya karti ho ajkal?”
“main ajkal fyool Dayrektret mein hoon. ”
“bahut achchhi baat hai. ”
achchhi baat to hai, usne socha, lekin dukhad bhi. wo ek gaDhe rang ka vig pahne hue thi, mahngi skart aur lo kat ka blauz. uske jate zarur geban se aaye honge aur kafi mahnge honge. kul mila kar, nvanakvo ne socha, use kisi amir adami ki rakhail hona chahiye. aisa adami jo laDai se paison ke pahaD bana raha hoga.
“mainne aaj tumhein lift dekar apna ek usul toDa hai. ajkal main lift bilkul bhi nahin deta. ”
“kyon?”
akhir aap kitne logon ko le ja sakte hain? behtar hai ki koshish hi mat karo. us buDhiya ko hi lo. ”
“mainne socha tha ki aap use bitha lenge. ”
wo is par kuch bhi nahin bola. chuppi ke ek aur daur ke baad glaiDis ko laga ki wo bura maan gaya hai. isiliye usne joDa—
“mere liye apna usul toDne ka shukriya. ” wo uske thoDe pare muDe hue chehre ko paDhne ki koshish kar rahi thi. wo muskuraya, muDa, uski godi par halke se haath mara aur puchha,
“auvairi mein tum kya karne ja rahi ho?”
“main apni saheli se milne ja rahi hoon. ”
“saheli? pakki baat?”
“kyon nahin. . . agar aap mujhe uske ghar tak chhoDen to usse mil bhi sakte hain. bas ek hi Dar hai ki wo kahin veek enD par nikal na gai ho. tab to gaDbaD ho jayegi. ”
“kyon?”
“kyonki agar wo ghar par na hui to saDak par sona paDega. ”
“main to pararthna kar raha hoon ki wo ghar par na hi ho. ”
“kyon?”
“kyonki agar wo ghar par na hui to main tumhein raat ke liye aur subah nashte ke liye nyauta de sakunga. ”
“kya hai?” usne Draivar se puchha, jisne ekayek gaDi rok di thi. javab ki zarurat hi nahin thi. samne khaDi bheeD uupar dekh rahi thi. tinon gaDi se nikalte hi jhaDiyon ki or bhage, gardnen pichhe asman par lagi theen. lekin alarm ghalat tha.
asman saaf aur beavaz tha, sirf do giddh uunchi uDaan bhar rahe the. bheeD mein se ek masakhre ne unko ‘phaitar’ aur baumbar’ ka naam de diya aur sabhi rahat ki hansi hans uthe. tinon phir gaDi mein savar hue tatha yatra jari rahi.
“abhi reDs ke liye jaldi hai,” usne glaiDis se kaha, jo abhi bhi apne donon haath chhatiyon par rakhe hue thi, manon dil ki dhak dhak sun rahi ho. “ve das baje se pahle nahin aate hain. ”
lekin glaiDis Dar ke mare bol bhi nahin pa rahi mauqa dikhai diya aur usne use turant hathiya liya—
“tumhari saheli kahan rahti hai?”
“250, Daglas roD. ”
“oh, ye to shahr ke bicho beech hai. bahut hi vahiyat jagah hai. na khandak aur na kuch aur. main tumhein vahan shaam chhah baje se pahle jane ki salah nahin dunga. surakshit nahin hai. agar tumhein bura na lage to main tumhein apne yahan liye chalta hoon. jaise hi chhah bajenge main tumhein tumhari saheli ke yahan chhoD auunga. theek hai?”
“theek hai,” usne bejan se svar mein kaha. “mujhe isse bahut Dar lagta hai. isiliye mainne auvairi mein kaam karne se bhi inkaar kar diya tha. jane kisne mujhe aaj yahan aane ki salah di thi. ”
“koi baat nahin, hamein to aadat ho gai hai. ”
“lekin aap ke saath aapka parivar to nahin hai na?”
“nahin,” usne kaha, “kisi ka bhi parivar yahan nahin hai. kahte hum hain ki iska karan eyar reDs hai, lekin sachchai kuch aur hai. auvairi mauz masti ka shahr hai aur hum log mast kunvaron ki tarah rahte hain. ”
“mainne bhi kuch aisa hi suna hai. ”
“suna hi nahin, tum aaj dekhogi bhi. main tumhein aaj ek bahut hi masti bhari parti mein le jaunga. mere ek dost ka jo lephtinent karnal hai, aaj janmadivas hai. uski parti hai. unhonne saunD smaishars bainD kiraye par liya hai. mujhe vishvas hai tumhein maza ayega. ”
lekin use is baat par sharm aai. use partiyon tatha raas rang se bahut chiDh thi, jabki uske dost makkhiyon ki tarah usse chipke rahte the. aur ye sab baat wo isliye kar raha tha, kyonki wo ek laDki ko ghar le jana chahta tha. aur laDki bhi wo jiska ek samay jang mein atut vishvas tha aur jise (use yaqin tha) kisi rangreliye ne dhokha diya tha. kshobh mein usne sir hilaya.
“kya hua?” glaiDis ne puchha.
“kuchh nahin, yoon hi kuch sochne laga tha. ”
baqi yatra lagbhag chuppi mein kati.
wo itni tezi se uske ghar mein ghul mil gai, jaise ki uski niymit garl phrenD ho. usne gharelu poshak pahni aur apna bhaDkila vig utaar diya.
“tumhare balon ki sajavat bahut achchhi hai. tum inhen vig mein kyon chhupaye rakhti ho?”
“shukriya,” usne kuch der tak uske saval ka javab diya hi nahin.
phir kaha, “adami log bhi masakhre hote hain. ”
“kyon?”
“tum to roop ki rani lagti ho”, usne uski nakal utari.
“oh, wo baat. main to use aksharshah sach manata hoon. ” usne use apni or khincha aur choom liya. na to usne aitraj hi kiya aur na hi puri tarah samarpan. shuruat ke liye nvanakvo ko ye achchha laga. in dinon bahut si laDkiyan asani se maan jati thi. kuch logon ne ise ‘bimari e jang’ ka naam de diya tha.
kuch der baad wo apne daftar haziri lagane gaya aur wo rasoi mein lanch ke liye naukar ki madad karne lagi. usne sirf haziri hi lagai hogi, kyonki wo aadhe ghante mein hi laut aaya. haath malte hue bola ki wo apni roop ki rani se zyada der door nahin rah sakta tha.
jab ve lanch kar rahe the to wo boli, “tumhare frij mein to kuch bhi nahin hai!”
“jaise?” usne bura sa mante hue puchha.
“jaise maans” usne bina jhijhak ke uttar diya.
“tum abhi bhi maans khati ho?” usne saval kiya.
“main bhala kaun hoti hoon, lekin aap jaise baDe log khate hain. ”
“mujhe pata nahin, tum kin baDe logon ki baat kar rahi ho. lekin ve mere jaise nahin hai. main na to dushman se karobar karke paisa banata hoon aur na hi rahat ka saman bechkar ya. . .
“agasta ka bvauy phrenD bhi ye sab nahin karta. use sirf videshi mudra milti hai. ”
“kaise milti hai? wo sarkar ko dhokha deta hai aise milti hai use videshi mudra. ”
“chahe wo koi bhi ho. vaise ye agasta kaun hai?”
“meri saheli. ”
“oh. ”
“pichhli baar usne mujhe teen Daular diye the, jinhen mainne paintalis paunD mein badal liya. us adami ne agasta ko pachas Daular diye the. ”
“khair meri pyari, main videshi mudra ki bhi dalali nahin karta aur mere frij mein maans bhi nahin hai. hum ek jang laD rahe hain aur mujhe sirf ye pata hai ki phrant par hamare kuch naujavan teen teen din mein ek baar jau ka pani pikar laD rahe hain. ”
“yah to theek hi hai. badar laDi hai, lagur khai hai. ”
“baat ye bhi nahin hai—isse bhi buri hai”, usne kaha. ghusse se uski zuban laDkhaDane lagi thi. “log har roz mare ja rahe hain. is vaqt jab hum tum baat kar rahe hain, us vaqt bhi koi mara ja raha hai. ”
“yah to theek hai” usne phir kaha.
“havai jahaz!” laDka rasoi se chillaya.
“haay man”—glaiDis chillai. jaise hi ve paas ke patton aur laal mitti se bani khandak ki or, sir par haath dhare, sharir ko jhukaye hue bhage, asman jet vimanon tatha gharelu viman bhedi topon ki garajti avaz se phat paDa.
khandak mein, vimanon ke chale jane ke baad aur der se shuru hui topon ki ghan garaj khatm ho jane ke baad bhi wo usse chipki rahi.
“vah jahaz to sirf uupar se guzar raha tha” nvanakvo ne kaha. uski avaz kuch kaanp si rahi thi. “usne, kuch bhi nahin giraya. uski disha se lag raha tha ki laDai ke morche par ja raha tha. shayad hamare sainik un par dabav Daal rahe hain, isiliye ve aisa karte hain. jab bhi hamare sainik dabav Dalte hain ve rusiyon aur misr ko havai jahajon ke liye es o es bhej dete hain. ” usne lambi saans li.
usne kuch bhi nahin kaha, sirf usse chipki rahi. ve sunte rahe. unka naukar saath vale ghar ke naukar ko batala raha tha ki ve do the. ek ne yoon Daiv mari aur dusre ne doon.
“ham bhi achchhi tarah dekh rahe hain”, dusre ne utne hi utsaah se kaha.
“kahna to nahin chahiye. lekin in masinon se logon ka marna dekhne mein sundar lagega na, bhagvan qasam. ”
“socho!” akhirkar glaiDis ne juban ka istemal karte hue kaha. nvanakvo ne socha ki wo chand lafzon mein hi ya sirf ek hi lafj se arth ki kai parton ko vyakt kar sakti thi. is ek lafj men—socho—ashcharya, alochana tatha shayad in logon ke liye ek tarah ki prshansa bhi chhipi thi, jo maut ke harkaron ke bare mein bhi mazak kar sakte the.
“Daro mat,” usne kaha. wo uske aur nazdik aa gai aur wo use chumne laga, uski chhatiyan dabane laga. wo dhire dhire khulne lagi aur phir puri tarah se khul gai. khandak mein andhera tha, vahan jhaaD bhi nahin lagi thi aur usmen kiDe patange ho sakte the. usne ghar mein se chatai lane ki sochi, phir khayal chhoD diya. aur koi havai jahaz aa sakta tha. paDosi ya aata jata koi aakar unke uupar paD sakta tha. ye to lagbhag vaisi hi paristhiti hogi, jismen logon ne havai hamle ke samay din dahaDe ek adami ko nang dhaDang apne beD room se nikalkar bhagte dekha tha aur uske pichhe pichhe vaisi hi haalat mein ek aurat bhi thi.
jaisa ki glaiDis ko Dar tha, uski saheli ghar par nahin thi. lagta tha ki uske prabhavashali dost ne livarvil mein kharidari ke liye uske pichhe havai jahaz mein ek seet hasil kar li thi. kam se kam paDosiyon ko to yahi andaz tha.
“kamal hai”, nvanakvo ne vapisi par kaha. “vah laDaku viman par juton, vigon, painto, bra, kausmaitiks aur aisi chizon se ladi phandi lautegi, jinhen phir wo hazaron paunD ki qimat par bech degi. tum laDkiyan sachmuch jang par ho, nahin!”
wo kuch nahin boli aur use laga ki akhirkar wo use kachotne mein saphal ho gaya hai. lekin ekayek wo boli, “tum mard log to chahte hi ho ki hum yahi sab kuch karen. ”
“khair,” usne kaha, “main ek aisa mard hoon, jo nahin chahta ki tum ye sab karo. tumhein khaki jeens mein wo laDki yaad hai, jisne berahmi se chek pauvant par meri talashi li thee?”
wo hansne lagi.
“main chahta hoon tum phir se vahi laDki ban jao. tumhein yaad hai?’’ koi vig nahin, aur jahan tak mujhe yaad hai koi iyring tak nahin. . . ”
“chalo theek hai, lekin samajh aai ki main kya kah raha hoon?”
“vo vaqt gaya. ab to sab bachna chahte hain. ise kahte hain nambar chhah. tum apna nambar chhah nikalo; main apna nambar chhah nikalti hoon. sab kuch theek thaak. ”
leftinent karnal ki parti mein ek ajib si baat ho gai. lekin uske hone se pahle sab theek thaak chal raha tha. bakre ka maans tha, murgha aur chaval tatha Dher si desi sharab, jismen se ek ka naam unhonne tresar rakh chhoDa tha, kyonki wo halaq ko jalati hui utarti thi. mazak ki baat to ye thi ki botal mein dekhne par wo narangi ke ras jaisi sidhi sadi lagti thi. lekin sabse zyada jis cheez ne hangama khaDa kiya wo thi Dabalroti. asli. bainD bhi achchha aur laDkiyan bhi bahut si theen. mahaul ko aur bhi behtar banane ke liye do gore aa nikle jo reDakraus mein the. saath mein laye ve ek botal kurvejyo ki aur ek skauch ki. parti ne pahle to khaDe hokar unka abhinandan kiya aur phir sabhi bhage ek ek ghoont pane ke liye. kuch der baad ek gore ke vyvahar se laga ki usne pahle se hi kafi pi rakhi thi, jiska karan shayad ye tha ki gai raat ek paylet jise wo achchhi tarah janta tha, kharab mausam mein rahat samagri late emay eyarport par havai durghatna mein mara gaya tha.
parti mein us samay tak kam logon ne hi is durghatna ke bare mein suna tha. so sare vatavran mein turant murdani si chha gai.
naach rahe kuch joDe tunrat vapas apni siton par chale ge tatha bainD bajna band ho gaya. tab ekayek akaran hi reDakraus vala adami garaj paDa—“ek adami ne—sharif adami ne—kyon apni jaan de di, bekar hi. charli ko marne ki zarurat nahin thi. is saDiyal jagah ke liye to bilkul nahin. yahan har cheez bu marti hai. ye laDkiyan bhi jo bani thani, muskurati yahan aai hain, kisi kaam ki nahin hain, machhli ka ek tukDa—ya ek ameriki Daular—bas aur ye sali hambistar hone ko taiyar hain. ’
ubaal ke baad aai chuppi mein ek naujavan afsar uske paas gaya aur use teen tamache jaD diye dayen! bayen! use seet se kheench kar utha liya (uski ankhon mein ansuon jaisa kuch tha) aur bahar dhakel diya. uska dost bhi jisne use chup karane ki koshish ki thi, pichhe pichhe bahar chala gaya. nistabdh parti mein unki kaar ke jane ki avaz saaf sunai di. afsar jisne tamache jaDe the, haath jhaDta hua apni seet par vapas aa gaya.
“sala chutiya!” usne robili avaz mein kaha. sabhi laDakiyon ne apni nazron se use ahsas kara diya ki ve use mard aur hiro samajhti hain.
“aap use jante hain?” glaiDis ne nvanakvo se puchha. usne uttar nahin diya. badle mein sari parti ko sambodhit karte hue kaha—
“vah piye hue tha,” usne kaha.
“mujhe is baat ki parvah nahin,” afsar ne kaha, “jab adami piye hota hai, tabhi wo vahi kahta hai jo uske man mein hota hai. ”
“to tumne use us baat ke liye pita jo uske man mein thi,” mezban ne kaha.
“aisi hi bhavna honi chahiye, jo”
“shukriya janab,” jo ne sailyut karte hue kaha.
“to uska naam jo hai. ” glaiDis aur uske bain or baithi laDki ne ek dusre ki taraf muDte hue eksaath kaha.
usi samay nvanakvo aur dusri or baitha ek aur dost ek dusre se dabi zuban mein, bahut hi dabi zuban mein kah rahe the ki halanki wo adami badadimagh aur behuda tha, lekin laDakiyon ke bare mein usne jo kuch bhi kaha tha wo durbhagyavash katu satya tha, sirf kahne vala adami ghalat tha.
jab Daans dubara shuru hua to kaiptan jo glaiDis ke paas aaya aur Daans ke liye kaha. uske munh se lafz nikalne se pahle hi wo kudkar khaDi ho gai. tab use achanak yaad aaya, wo muDi aur usne nvanakvo se ijazat mangi. saath hi kaiptan ne bhi muDkar kaha,
“maaph kijiye. ”
“jaiye, jaiye,” nvanakvo ne donon ke beech kahin dekhte hue kaha.
Daans der tak chala aur wo bina jataye unhen dekhta raha. kabhi kabhi uupar se rasad ka havai jahaz guzarta to koi ye kah kar batti bujha deta ki kahin dushman ka na ho. lekin asal mein to ye andhere mein Daans karne ka tatha laDakiyon ko gudgudane ka bahana tha, kyonki dushman ke havai jahazon ki avaz to khoob pahchani hui thi. glaiDis jab vapis aai to bahut sankoch bhari thi aur usne nvanakvo ko apne saath nachne ko kaha. lekin usne mana kar diya. “meri parvah mat karo”, usne kaha, “main to yahan baithkar tum logon ko Daans karta dekhkar maze le raha hoon. ”
“lekin main to kabhi Daans nahin karta. vishvas karo. jao, maze karo. ”
usne agla Daans lephtinent karnal ke saath kiya aur phir kaiptan jo ke saath. iske baad nvanakvo use vapas ghar le chalne ke liye maan gaya.
“mujhe dukh hai ki main Daans nahin karta”, usne vapas kaar mein jate samay kaha, “lekin mainne qasam khai hai jab tak ye laDai chalegi, main Daans nahin karunga. ”
wo kuch nahin boli.
“main us paylet jaise adami ke bare mein soch raha hoon, jo kal raat mara gaya. uska to is laDai se koi sambandh nahin tha. wo to hamare liye rasad. . . ”.
“mujhe ummid hai ki uska dost us jaisa nahin hoga’“, glaiDis ne kaha.
“vah to apne dost ke karan ukhDa hua tha. lekin main to ye kahne ki koshish kar raha hoon ki jab us jaise log mare ja rahe hon, jab morche par hamare naujavan mare ja rahe hon to hum logon ko chupchap baithe rahna ya partiyan dena ya Daans karna kitna uchit hai?”
“lekin aap hi to mujhe vahan le ge the,” ant mein usne virodh karte hue kaha, “vo to aap hi ke dost hain. main to unhen janti bhi nahin thi. ”
“dekho, meri pyari glaiDis, main tumhein dosh nahin de raha hoon. main to tumhe sirf ye batala raha hoon ki main Daans kyon nahin karta. khair chhoDo kuch aur baat karen. . . tum abhi bhi kal hi vapis jane par amada ho? mera Draivar tumhein somvar subah subah kaam par vaqt se pahuncha sakta hai. nahin? chalo, jaisi tumhari marzi. tum malik ho. ”
jis asani se wo uske bistar par chali aai aur jis bhasha ka usne istemal kiya, usse use ashcharya hua.
“bambari karna chahte ho?” usne puchha. aur javab ki parvah kiye bina boli, shuru karo, lekin apne sipahi andar mat chhoDna!”
ek baat to eqdam saaf thi—vah kisi sainik afsar ki rakhail thi. do salon mein kitna zabardast farq aa gaya hai. yahi kya kam kamal tha ki use abhi apna pahla jivan yaad tha, apna naam yaad tha? agar sharabi reDakraus vala qissa dubara hua, usne socha, to wo uske saath khaDa hoga—sari parti ko batala dega ki wo adami kitna sachcha hai. sari ki sari piDhi ko kya ho gaya hai? kya yahi hai kal ki matayen!
lekin subah hote hote wo behtar mahsus karne laga aur uski raay mein bhi udarta aa gai. usne socha ki glaiDis to us samaj ka ek chhota sa pratibimb hai, jo puri tarah saD chuka hai aur jismen kiDe reng rahe hain. lekin shisha sabut hai, sirf thoDi si dhool jam gai hai. zarurat hai to ek saaf, safed kapDe ki. “iske prati bhi mera kuch farj hai,” usne svayan se kaha, “vah chhoti si laDki jisne ek din mujhe hamare khatre ka ahsas karaya tha, ab svayan khatre mein hai. kuch khatarnak asar paD raha hai us par. ”
wo is ghatak asar ki jaD mein jana chahta tha. wo asar sirf uski achchhe dinon ki dost agasta—ya jo kuch bhi uska naam raha ho—ka nahin tha. iski tah mein zarur koi adami hoga—shayad un beraham vyapariyon mein se ek jo videshi mudra ki chori karte hain aur jo yuvkon ke jivan ko khatre mein Dalkar unhen dushmnon ki sima ke paar bhejte hain, taki taskari ki chizon ko sigreton mein badalkar karoDon kama saken. ya phir un thekedaron mein se hoga jo sena ko bheji jane vali rasad ki chori karke paison ke pahaD bana rahe the. ya shayad koi ghinauna aur buzdil sainik afsar jo bairkon ke gande phikre aur bahaduri ke jhuthe qisson se bhara hua tha. usne use Draivar ke saath akele hi bhejne ka phaisla kiya tha. lekin nahin, wo khud jayega aur dekhega ki wo kahan rahti thee? kuch na kuch zarur samne ayega. isi par wo glaiDis ko bachane ki yojna adharit karega. jaise jaise wo is trip ki taiyari karne laga, prati pal glaiDis ke prati uski bhavnayen narm hoti gain. usne ek din pahle rilif sentar se mile rashan ka aadha bhaag uske liye alag kar diya. halanki halat kharab the, lekin usne socha tha ki jis laDki ke paas khane ke liye kuch hoga, wo kam lalchayegi. wo Dablyu si si mein apne dost se har hafte uske liye kuch na kuch dene ki baat karega. uphaar dekhkar glaiDis ki ankhon mein ansu aa ge. nvanakvo ke paas paise to adhik nahin the, lekin usne joD jaaD kar bees paunD bhi use de diye.
“mere paas videshi mudra to nahin hai aur main janta hoon ki ye zyada der tak nahin chal sakte, lekin. . . ”
wo dauDkar aai aur usse lipatkar rone lagi. usne uske onth aur ankhen choom leen aur musibat ke maron ke bare mein kuch budabudaya, jise wo samajh nahin pai. nvanakvo ne socha ki mere karan hi usne apna vig utaar kar baig mein rakh liya hai.
“main chahta hoon ki tum mujhse ek vada karo”, usne kaha.
“kyaa?”
“bambari vali wo shabdavali tum kabhi istemal nahin karogi. ”
ansu bhari ankhon se wo muskurai. “tumhen pasand nahin hai na? lekin sabhi laDkiyan aise hi kahti hain. ”
“khair, tum dusri laDakiyon se alag ho. vada karogi na?”
“achchha. ”
unhen jane mein der ho gai thi. jab ve gaDi mein baithe to gaDi ne staart hone se inkaar kar diya. injan mein idhar udhar haath marne ke baad Draivar ne kaha ki baitari baith gai thi. nvanakvo hairan ho utha. usi hafte usne do sail badalne mein chauntis paunD kharche the aur badalne vale maikenik ne kaha tha ki ye chhah mahine tak chalegi. nai baitari kharidne ka to saval hi nahin uthta tha, kyonki uski qimat do sau pachas paunD tak ja pahunchi thi. zarur Draivar ne koi laparvahi dikhai hogi, usne socha.
“yah kal raat hua hoga,’’ Draivar ne kaha.
“kal raat kya hua tha?’’ —nvanakvo ne ghusse se puchha, ye sochte hue ki badatmizi ki had ho gai hai. lekin Draivar ka aisa koi ashay nahin tha.
“kyonki hum heDlaits istemal karte rahe the. ”
“to kya hamse ummid ki jati hai ki hum laiten na jalayen? jao, dhakka lagane ke liye kuch logon ko lao. ” wo glaiDis ke saath bahar nikalkar ghar mein vapas chala aaya aur Draivar paDos ke gharon mein dusre naukron ko madad ke liye DhunDhane nikla.
saDak par aadh ghanta aage pichhe dhakka lagane ke baad tatha dhakka lagane valon ki zor shor se di gai salahon ke baad gaDi mein jaan vapas aai aur ekzaust se dhuen ke kale badal nikalne lage.
jab ve chale to uski ghaDi mein saDhe aath baje the. kuch meel door ek apahiz sipahi ne lift ke liye haath diya.
“roko!” nvanakvo chillaya. Draivar ne break par apna pura pair jaam kar diya aur phir ashcharya se uski or dekha.
“tumne us sipahi ko haath hilate nahin dekha? vapis chalo aur use bithao. ”
“maaf kijiye, sar”, Draivar ne kaha, “mujhe pata nahin tha ki sa’ba lift dena mangta. ”
“agar nahin pata to puchho. vapis lo. ”
sipahi jo chhota sa laDka bhar tha, pasine se lathpath chikat si khaki vardi pahne tha aur ghutne se niche uski taang ghayab thi. ye jankar ki kaar uske liye ruki thi wo sirf abhari hi nahin balki chakit bhi tha. usne pahle lakDi ki, apni ghatiya si baisakhiyan pakDain jinhen Draivar ne aage donon siton ke beech tika diya, phir wo svayan andar baith gaya.
“khushi to hamein hai,” nvanakvo ne kaha. “yah ghaav kahan laga?”
“ajumini par, sar. das janavri ko. ”
“koi baat nahin, sab theek ho jayega. hamein tum naujvanon par garv hai. sab khatm ho jane par tum logon ko uchit padak milenge, ye hum vishvas dilate hain. ”
“main bhagvan se aapke liye pararthna karunga, sar!”
agle ghante tak ve chupchap rahe. jaise hi gaDi ek pul ki taraf utrai se utri, koi chillaya—shayad Draivar ya sipahi—“ve aa ge!” break ki avaz chillahat aur asman phatne ki avaz mein ghul gai. gaDi rukne se pahle hi darvaze khul ge aur ve andhadhundh jhaDiyon ki or bhagne lage. glaiDis nvanakvo se aage thi. tab us shor sharabe mein unhonne sipahi ke chillane ki avaz suni, “akar, mere liye darvaza kholo!” use glaiDis ke rukne ka abhas hua aur phir wo usse aage nikal gaya. usne glaiDis ko bhagte rahne ko kaha. tabhi us ast vyast vatavran mein ek uunchi siti ki avaz barchhe ki tarah niche giri, zor ki halchal ke saath ek dhamaka hua aur sab kuch titar bitar ho gaya. jis peD se wo laga khaDa tha, wo door jhaDiyon mein ja gira. phir ek or bhayanak uunchi siti ki avaz aur aas paas vahi toD phoD phir ek aur, aur uske baad nvanakvo ko kuch sunai nahin diya.
wo utha to charon or rone ki avazen theen, dhuan tha, badbu aur chiranyadh ka mahaul tha. usne khud ko ghasita tatha un avajon ki or chala.
door se usne! ansuon aur khoon se bhare Draivar ko apni or aate dekha. phir uski nazar gai—apni gaDi ke chithDon tatha laDki aur sipahi ki gaDDmaDD, kshat vikshat lashon ki or—aur wo chillakar Dhah paDa.
pahli baar jab ve ek dusre ki rahon se guzre to kuch bhi nahin hua. ye un sangharshmay dinon ki baat hai, jab har roz hazaron naujvanon ko aur kabhi kabhi laDakiyon ko bhi bharti daftron se nirash vapas lautna paDta tha, kyonki navagthit desh ki suraksha ke liye hathiyar uthane bahut adhik log aa rahe the.
dusri baar ve aavka ke ek chaik pauint par mile. laDai shuru ho chuki thi door uttari kshetron se dhire dhire dakshin ki or baDh rahi thi. wo aunitsha se ainugu ki or ja raha tha aur jaldi mein tha. halanki bauddhik star par wo saDak avrodhon par achchhi tarah talashi ke haq mein tha, lekin jab bhi use talashi deni paDti thi, bhavatmak star par use hamesha bura lagta tha. halanki wo svayan is baat ko manne ko taiyar nahin tha. lekin log mante the ki agar apaki talashi li gai to aap baDe adami nahin hain. aksar wo apni gahri, prabhavashali avaz mein ye kahkar—reginalD nvanakvo, ‘nyaay mantralay talashi se bach jata tha. iska asar turant hota tha, lekin kai baar agyanta ke karan ya vishuddh hathilepan ke karan chek pauint ke log uske is kathan se prabhavit hone se inkaar kar dete the. jaisa ki abhi aavka par hua tha. maark 4 ki bhari raiflen uthaye hue do kanstebal door saDak ke kinare se nazar rakhe hue the aur talashi ka kaam unhonne sthaniy nigrani karne valon par chhoD diya tha.
“mujhe jaldi hai” —usne laDki se kaha, jo uski kaar tak aa gai thi.
“mera naam reginalD nvanakvo hai, nyaay mantralay. ”
“namaste sar, main apaki kaar ka boot dekhana chahti hoon. ’
“he bhagvan! tumhare khayal se boot mein kya hai?”
“main nahin janti, sar. ”
ghussa dabate hue wo kaar se bahar nikla, pichhe gaya, boot khola aur bayen haath se Dhakkan uthate hue dayen se yoon ishara kiya, jaise kah raha ho—apke baad!
“ho gai tasalli?” usne puchha.
“ji, sar. kya main apaki gaDi ka pijan hol dekh sakti hoon?”
“oh gauD!”
“deri ke liye mafi, sar aap hi logon ne hamein ye kaam saumpa hai. ”
“koi baat nahin, tum bilkul theek kahti ho. ye raha glav bauks dekh lo kuch bhi nahin hai.
“theek hai, sar! band kar dijiye,” usne pichhe ka darvaza kholkar siton ke niche jhanka. tab usne pahli baar laDki ko dhyaan se dekha pichhe se. wo khubsurat laDki thi, jisne ubharvali nili jarsi, khaki jeens tatha kainves ke jute pahan rakhe the aur balon ko ne stail ki pliton mein baandh rakha tha, jisse laDakiyon ke chehron par vidroh ka sa bhaav aa jata tha, jise logon ne jane kyon—“eyarphors bes’ ka naam de diya tha. wo kuch kuch jani pahchani si lagti thi.
“main theek hoon, sar,” usne ant mein kaha jiska matlab tha ki wo apna kaam khatm kar chuki thi. “apne mujhe pahchana nahin?”
“nahin, kyon?”
“jab mein skool chhoDkar sena mein bharti hone ja rahi thi to aapne mujhe ainugu tak lift di thi. ”
“o, haan, tumhin wo laDki ho. mainne tumhein vapas skool jane ko kaha tha na kyonki fauj mein laDakiyon ki zarurat nahin hai, phir kya hua?”
unhonne mujhe vapas skool jane ko kaha ya reDakraus mein bharti hone ko kaha. ”
“dekha, tumne, mainne theek kaha tha na. tab tum yahan kya kar rahi ho?”
“sirf sivil Diphains ke saath thoDa sa haath banta rahi hoon. ”
“chalo theek hai, yaqinan tum bahut hi achchhi laDki ho. ” vahi din tha jis din usne socha ki kranti mein akhir kuch hai. usne pahle bhi laDakiyon aur aurton ko maching tatha pradarshan karte dekha tha, lekin wo unke bare mein theek thaak dharna nahin bana paya tha. ismen to koi sandeh nahin ki aurten aur laDkiyan apne bare mein gambhirta se sochti theen, jo galiyon mein chhaDiyan uthaye aur siron par steel hailmeton ki jagah soop ke katore rakhe aage pichhe Dril kiya karti theen. un dinon ka sabse mashhur mazak tha wo bainar jiske pichhe pichhe sthaniy skool ki laDkiyan chalti theen aur jis par likha rahta tha—vi० aar० impraignebal!”
lekin aavka chaik pauyant par us laDki ke saath us mulaqat ke baad wo dubara na to laDakiyon ka mazak hi uDa saka aur na hi kranti ki baat ka, kyonki us laDki ki karya kushalta mein sadgi aur aatm vishvas ne use ekdam chhichhorepan ka apradhi ghoshit kar diya tha. kya kaha tha usne—“ham vahi kaam kar rahe hain, jo aap logon ne hamein saumpa hai. ” wo uska bhi lihaz nahin karne ja rahi thi, jisne ek baar us par ehsaan kiya tha. use yaqin tha ki wo apne pita ki talashi bhi usi sakhti se leti.
jab ve tisri baar ek dusre ki rahon se guzre to atharah mahine beet chuke the aur halat kafi kharab the. maut aur bhukhamri ne pahle dinon ke svabhiman ko bhaga diya tha, jiska sthaan le liya tha vishuddh nirasha ne aur kahin kahin patthar si kathor aur kabhi kabhi aatm ghatak avagya ne. ashcharya ki baat hai ki aise vaqt mein bhi kuch log aise the, jinki ekmaatr ichchha vaqt rahte jivan ki achchhi vastuon ko hathiyana tatha charam sima tak mauz uDana thi. aise logon ke liye duniya mein ek ajibo gharib taur par samanyata laut aai thi. sabhi chek pauint ghayab ho ge. laDkiyan phir laDkiyan ban gain aur laDke, laDke. jivan bahut hi sankuchit, ghira hua tatha nirashajnak ho gaya tha, jismen kuch achchhaiyan theen, kuch buraiyan aur Dher si virata, jo is kahani ke patron se pare riphyuji kaimpon, chithDon mein lipte, goli ke nishane ke samne Date, bhukhe nange lekin sahasi logon mein dikhai deti thi.
reginalD nvanakvo un dinon auvairi mein rah raha tha tatha us din wo rashan ki talash mein nkvairi gaya hua tha. auvairi mein use kairitas mein Dibbaband maans tatha ghatiya ameriki khadya, jise khadya pharmula do kahte the aur kuch machhli, jo kisi qism ka pashuon ka chara tha, mil gaya tha. use lagta tha ki kaitholik na hone ki vajah se use kairitas mein nuksan hota tha. isiliye wo nkvairi mein chaval, beens tatha geban gari namak ek baDhiya anaj ki talash mein apne ek dost ke paas aaya tha, jo Dablyu si si ka ek Dipo chalata tha.
wo auvairi se subah chhah baje hi nikal paDa tha, taki apne dost ko Dipo mein hi pakaD sake, jo havai hamle ke Dar se 8 30 ke baad vahan nahin rukta tha. nvanakvo ke liye wo din bhagyashali tha. kuch din pahle kai jahazon ke achanak eksaath aa jane ke karan Dipo mein ek din pahle hi rasad ka bahut baDa stauk aaya tha. jab uska Draivar tin, thaile aur kartan uski gaDi mein laad raha tha to bhukhi bheeD ne jo hamesha rilif saintron ke gird juti rahti thi, kai fabtiyan kasin jaise ki ‘vaar kain kantinyu’ jiska ashay Dablyu si si se tha. koi aur chillaya ‘irevolu’, uske doston ne uttar diya ‘sham’. ‘irevolu’ ‘sham’!
‘isofeli’, ‘sham’! ‘isofeli’, ‘mbaa’
nvanakvo ko bahut sharm ai—chithDon tatha nangi pasaliyon vali bheeD se nahin, lekin unke bimar jismon tatha dosh lagati ankhon se. use zyada bura lagta agar ve kuch bhi na kah kar chupchap uski gaDi ke boot mein doodh, anDe ka pauDar, daliya, maans aur machhli ke Dibbon ko ladta dekhte rahte. samanyatya charon or phaili musibton ke beech is prakar ki khushqismti par sharm aana anivarya tha, lekin koi kya kar sakta tha? door ogbu gaanv mein rah rahi uski patni aur chaar bachche puri tarah us dvara bheji gai rahat par nirbhar the. wo unhen kvashikhor jaisi ghatak bimari ke munh mein to nahin dhakel sakta tha. wo sirf itna kar sakta tha—aur kar raha tha—ki jab bhi use aaj ki tarah achchhi rasad mil jati thi to wo uska kuch hissa apne Draivar jaunsan ko de deta tha, jiski patni aur chhah bachche the ya saat aur jiski tanakhvah das paunD prati maah thi. bazar mein ‘gari’ ann ki kimat ek paunD prati sigret tin tak pahunch gai thi. aisi haalat mein wo bheeD ke liye kuch bhi nahin kar sakta tha. zyada se zyada wo apne paDosi ke liye kuch kar sakta tha. bas, yahi kuchh!
auvairi se vapas aate samay, saDak ke kinare khaDi ek khubsurat laDki ne lift mangi. usne Draivar ko rukne ko kaha. charon or se bisiyon paidal chalne vale —dhool se sane aur thake—jinmen kuch fauji the aur kuch siviliyan, gaDi ki or jhapte.
“nahin, nahin, nahin,” nvanakvo ne sakhti se kaha—“main to us sundri ke liye ruka hoon. mera tayar kharab hai aur main sirf ek hi yatri ko le sakta hoon. sauri!”
“bete, pleej”. hainDal pakaDte hue ek nirash buDhiya ne kaha.
“buDhiya tu marna chahti hai?” Draivar ne use dhakelte hue aur gaDi baDhate hue kaha.
nvanakvo ne ab tak kitab khol li thi aur nazren usmen gaDa di theen. lagbhag ek meel tak usne laDki ki taraf dekha hi nahin. akhir laDki ko chuppi bahut bhari lagi aur usne kaha,
“apne aaj mujhe bacha liya, shukriya!”
“ismen kya baat hai, kahan ja rahi ho?”
“auvairi, aapne mujhe pahchana nahin?”
“o, haan zarur. main bhi kitna bevaquf hoon, tum?”
“glaiDis. ”
“haan, haan, fauji laDki. glaiDis tum badal gai ho. khubsurat to tum hamesha hi thi, lekin ab to tum roop ki rani lagti ho. kya karti ho ajkal?”
“main ajkal fyool Dayrektret mein hoon. ”
“bahut achchhi baat hai. ”
achchhi baat to hai, usne socha, lekin dukhad bhi. wo ek gaDhe rang ka vig pahne hue thi, mahngi skart aur lo kat ka blauz. uske jate zarur geban se aaye honge aur kafi mahnge honge. kul mila kar, nvanakvo ne socha, use kisi amir adami ki rakhail hona chahiye. aisa adami jo laDai se paison ke pahaD bana raha hoga.
“mainne aaj tumhein lift dekar apna ek usul toDa hai. ajkal main lift bilkul bhi nahin deta. ”
“kyon?”
akhir aap kitne logon ko le ja sakte hain? behtar hai ki koshish hi mat karo. us buDhiya ko hi lo. ”
“mainne socha tha ki aap use bitha lenge. ”
wo is par kuch bhi nahin bola. chuppi ke ek aur daur ke baad glaiDis ko laga ki wo bura maan gaya hai. isiliye usne joDa—
“mere liye apna usul toDne ka shukriya. ” wo uske thoDe pare muDe hue chehre ko paDhne ki koshish kar rahi thi. wo muskuraya, muDa, uski godi par halke se haath mara aur puchha,
“auvairi mein tum kya karne ja rahi ho?”
“main apni saheli se milne ja rahi hoon. ”
“saheli? pakki baat?”
“kyon nahin. . . agar aap mujhe uske ghar tak chhoDen to usse mil bhi sakte hain. bas ek hi Dar hai ki wo kahin veek enD par nikal na gai ho. tab to gaDbaD ho jayegi. ”
“kyon?”
“kyonki agar wo ghar par na hui to saDak par sona paDega. ”
“main to pararthna kar raha hoon ki wo ghar par na hi ho. ”
“kyon?”
“kyonki agar wo ghar par na hui to main tumhein raat ke liye aur subah nashte ke liye nyauta de sakunga. ”
“kya hai?” usne Draivar se puchha, jisne ekayek gaDi rok di thi. javab ki zarurat hi nahin thi. samne khaDi bheeD uupar dekh rahi thi. tinon gaDi se nikalte hi jhaDiyon ki or bhage, gardnen pichhe asman par lagi theen. lekin alarm ghalat tha.
asman saaf aur beavaz tha, sirf do giddh uunchi uDaan bhar rahe the. bheeD mein se ek masakhre ne unko ‘phaitar’ aur baumbar’ ka naam de diya aur sabhi rahat ki hansi hans uthe. tinon phir gaDi mein savar hue tatha yatra jari rahi.
“abhi reDs ke liye jaldi hai,” usne glaiDis se kaha, jo abhi bhi apne donon haath chhatiyon par rakhe hue thi, manon dil ki dhak dhak sun rahi ho. “ve das baje se pahle nahin aate hain. ”
lekin glaiDis Dar ke mare bol bhi nahin pa rahi mauqa dikhai diya aur usne use turant hathiya liya—
“tumhari saheli kahan rahti hai?”
“250, Daglas roD. ”
“oh, ye to shahr ke bicho beech hai. bahut hi vahiyat jagah hai. na khandak aur na kuch aur. main tumhein vahan shaam chhah baje se pahle jane ki salah nahin dunga. surakshit nahin hai. agar tumhein bura na lage to main tumhein apne yahan liye chalta hoon. jaise hi chhah bajenge main tumhein tumhari saheli ke yahan chhoD auunga. theek hai?”
“theek hai,” usne bejan se svar mein kaha. “mujhe isse bahut Dar lagta hai. isiliye mainne auvairi mein kaam karne se bhi inkaar kar diya tha. jane kisne mujhe aaj yahan aane ki salah di thi. ”
“koi baat nahin, hamein to aadat ho gai hai. ”
“lekin aap ke saath aapka parivar to nahin hai na?”
“nahin,” usne kaha, “kisi ka bhi parivar yahan nahin hai. kahte hum hain ki iska karan eyar reDs hai, lekin sachchai kuch aur hai. auvairi mauz masti ka shahr hai aur hum log mast kunvaron ki tarah rahte hain. ”
“mainne bhi kuch aisa hi suna hai. ”
“suna hi nahin, tum aaj dekhogi bhi. main tumhein aaj ek bahut hi masti bhari parti mein le jaunga. mere ek dost ka jo lephtinent karnal hai, aaj janmadivas hai. uski parti hai. unhonne saunD smaishars bainD kiraye par liya hai. mujhe vishvas hai tumhein maza ayega. ”
lekin use is baat par sharm aai. use partiyon tatha raas rang se bahut chiDh thi, jabki uske dost makkhiyon ki tarah usse chipke rahte the. aur ye sab baat wo isliye kar raha tha, kyonki wo ek laDki ko ghar le jana chahta tha. aur laDki bhi wo jiska ek samay jang mein atut vishvas tha aur jise (use yaqin tha) kisi rangreliye ne dhokha diya tha. kshobh mein usne sir hilaya.
“kya hua?” glaiDis ne puchha.
“kuchh nahin, yoon hi kuch sochne laga tha. ”
baqi yatra lagbhag chuppi mein kati.
wo itni tezi se uske ghar mein ghul mil gai, jaise ki uski niymit garl phrenD ho. usne gharelu poshak pahni aur apna bhaDkila vig utaar diya.
“tumhare balon ki sajavat bahut achchhi hai. tum inhen vig mein kyon chhupaye rakhti ho?”
“shukriya,” usne kuch der tak uske saval ka javab diya hi nahin.
phir kaha, “adami log bhi masakhre hote hain. ”
“kyon?”
“tum to roop ki rani lagti ho”, usne uski nakal utari.
“oh, wo baat. main to use aksharshah sach manata hoon. ” usne use apni or khincha aur choom liya. na to usne aitraj hi kiya aur na hi puri tarah samarpan. shuruat ke liye nvanakvo ko ye achchha laga. in dinon bahut si laDkiyan asani se maan jati thi. kuch logon ne ise ‘bimari e jang’ ka naam de diya tha.
kuch der baad wo apne daftar haziri lagane gaya aur wo rasoi mein lanch ke liye naukar ki madad karne lagi. usne sirf haziri hi lagai hogi, kyonki wo aadhe ghante mein hi laut aaya. haath malte hue bola ki wo apni roop ki rani se zyada der door nahin rah sakta tha.
jab ve lanch kar rahe the to wo boli, “tumhare frij mein to kuch bhi nahin hai!”
“jaise?” usne bura sa mante hue puchha.
“jaise maans” usne bina jhijhak ke uttar diya.
“tum abhi bhi maans khati ho?” usne saval kiya.
“main bhala kaun hoti hoon, lekin aap jaise baDe log khate hain. ”
“mujhe pata nahin, tum kin baDe logon ki baat kar rahi ho. lekin ve mere jaise nahin hai. main na to dushman se karobar karke paisa banata hoon aur na hi rahat ka saman bechkar ya. . .
“agasta ka bvauy phrenD bhi ye sab nahin karta. use sirf videshi mudra milti hai. ”
“kaise milti hai? wo sarkar ko dhokha deta hai aise milti hai use videshi mudra. ”
“chahe wo koi bhi ho. vaise ye agasta kaun hai?”
“meri saheli. ”
“oh. ”
“pichhli baar usne mujhe teen Daular diye the, jinhen mainne paintalis paunD mein badal liya. us adami ne agasta ko pachas Daular diye the. ”
“khair meri pyari, main videshi mudra ki bhi dalali nahin karta aur mere frij mein maans bhi nahin hai. hum ek jang laD rahe hain aur mujhe sirf ye pata hai ki phrant par hamare kuch naujavan teen teen din mein ek baar jau ka pani pikar laD rahe hain. ”
“yah to theek hi hai. badar laDi hai, lagur khai hai. ”
“baat ye bhi nahin hai—isse bhi buri hai”, usne kaha. ghusse se uski zuban laDkhaDane lagi thi. “log har roz mare ja rahe hain. is vaqt jab hum tum baat kar rahe hain, us vaqt bhi koi mara ja raha hai. ”
“yah to theek hai” usne phir kaha.
“havai jahaz!” laDka rasoi se chillaya.
“haay man”—glaiDis chillai. jaise hi ve paas ke patton aur laal mitti se bani khandak ki or, sir par haath dhare, sharir ko jhukaye hue bhage, asman jet vimanon tatha gharelu viman bhedi topon ki garajti avaz se phat paDa.
khandak mein, vimanon ke chale jane ke baad aur der se shuru hui topon ki ghan garaj khatm ho jane ke baad bhi wo usse chipki rahi.
“vah jahaz to sirf uupar se guzar raha tha” nvanakvo ne kaha. uski avaz kuch kaanp si rahi thi. “usne, kuch bhi nahin giraya. uski disha se lag raha tha ki laDai ke morche par ja raha tha. shayad hamare sainik un par dabav Daal rahe hain, isiliye ve aisa karte hain. jab bhi hamare sainik dabav Dalte hain ve rusiyon aur misr ko havai jahajon ke liye es o es bhej dete hain. ” usne lambi saans li.
usne kuch bhi nahin kaha, sirf usse chipki rahi. ve sunte rahe. unka naukar saath vale ghar ke naukar ko batala raha tha ki ve do the. ek ne yoon Daiv mari aur dusre ne doon.
“ham bhi achchhi tarah dekh rahe hain”, dusre ne utne hi utsaah se kaha.
“kahna to nahin chahiye. lekin in masinon se logon ka marna dekhne mein sundar lagega na, bhagvan qasam. ”
“socho!” akhirkar glaiDis ne juban ka istemal karte hue kaha. nvanakvo ne socha ki wo chand lafzon mein hi ya sirf ek hi lafj se arth ki kai parton ko vyakt kar sakti thi. is ek lafj men—socho—ashcharya, alochana tatha shayad in logon ke liye ek tarah ki prshansa bhi chhipi thi, jo maut ke harkaron ke bare mein bhi mazak kar sakte the.
“Daro mat,” usne kaha. wo uske aur nazdik aa gai aur wo use chumne laga, uski chhatiyan dabane laga. wo dhire dhire khulne lagi aur phir puri tarah se khul gai. khandak mein andhera tha, vahan jhaaD bhi nahin lagi thi aur usmen kiDe patange ho sakte the. usne ghar mein se chatai lane ki sochi, phir khayal chhoD diya. aur koi havai jahaz aa sakta tha. paDosi ya aata jata koi aakar unke uupar paD sakta tha. ye to lagbhag vaisi hi paristhiti hogi, jismen logon ne havai hamle ke samay din dahaDe ek adami ko nang dhaDang apne beD room se nikalkar bhagte dekha tha aur uske pichhe pichhe vaisi hi haalat mein ek aurat bhi thi.
jaisa ki glaiDis ko Dar tha, uski saheli ghar par nahin thi. lagta tha ki uske prabhavashali dost ne livarvil mein kharidari ke liye uske pichhe havai jahaz mein ek seet hasil kar li thi. kam se kam paDosiyon ko to yahi andaz tha.
“kamal hai”, nvanakvo ne vapisi par kaha. “vah laDaku viman par juton, vigon, painto, bra, kausmaitiks aur aisi chizon se ladi phandi lautegi, jinhen phir wo hazaron paunD ki qimat par bech degi. tum laDkiyan sachmuch jang par ho, nahin!”
wo kuch nahin boli aur use laga ki akhirkar wo use kachotne mein saphal ho gaya hai. lekin ekayek wo boli, “tum mard log to chahte hi ho ki hum yahi sab kuch karen. ”
“khair,” usne kaha, “main ek aisa mard hoon, jo nahin chahta ki tum ye sab karo. tumhein khaki jeens mein wo laDki yaad hai, jisne berahmi se chek pauvant par meri talashi li thee?”
wo hansne lagi.
“main chahta hoon tum phir se vahi laDki ban jao. tumhein yaad hai?’’ koi vig nahin, aur jahan tak mujhe yaad hai koi iyring tak nahin. . . ”
“chalo theek hai, lekin samajh aai ki main kya kah raha hoon?”
“vo vaqt gaya. ab to sab bachna chahte hain. ise kahte hain nambar chhah. tum apna nambar chhah nikalo; main apna nambar chhah nikalti hoon. sab kuch theek thaak. ”
leftinent karnal ki parti mein ek ajib si baat ho gai. lekin uske hone se pahle sab theek thaak chal raha tha. bakre ka maans tha, murgha aur chaval tatha Dher si desi sharab, jismen se ek ka naam unhonne tresar rakh chhoDa tha, kyonki wo halaq ko jalati hui utarti thi. mazak ki baat to ye thi ki botal mein dekhne par wo narangi ke ras jaisi sidhi sadi lagti thi. lekin sabse zyada jis cheez ne hangama khaDa kiya wo thi Dabalroti. asli. bainD bhi achchha aur laDkiyan bhi bahut si theen. mahaul ko aur bhi behtar banane ke liye do gore aa nikle jo reDakraus mein the. saath mein laye ve ek botal kurvejyo ki aur ek skauch ki. parti ne pahle to khaDe hokar unka abhinandan kiya aur phir sabhi bhage ek ek ghoont pane ke liye. kuch der baad ek gore ke vyvahar se laga ki usne pahle se hi kafi pi rakhi thi, jiska karan shayad ye tha ki gai raat ek paylet jise wo achchhi tarah janta tha, kharab mausam mein rahat samagri late emay eyarport par havai durghatna mein mara gaya tha.
parti mein us samay tak kam logon ne hi is durghatna ke bare mein suna tha. so sare vatavran mein turant murdani si chha gai.
naach rahe kuch joDe tunrat vapas apni siton par chale ge tatha bainD bajna band ho gaya. tab ekayek akaran hi reDakraus vala adami garaj paDa—“ek adami ne—sharif adami ne—kyon apni jaan de di, bekar hi. charli ko marne ki zarurat nahin thi. is saDiyal jagah ke liye to bilkul nahin. yahan har cheez bu marti hai. ye laDkiyan bhi jo bani thani, muskurati yahan aai hain, kisi kaam ki nahin hain, machhli ka ek tukDa—ya ek ameriki Daular—bas aur ye sali hambistar hone ko taiyar hain. ’
ubaal ke baad aai chuppi mein ek naujavan afsar uske paas gaya aur use teen tamache jaD diye dayen! bayen! use seet se kheench kar utha liya (uski ankhon mein ansuon jaisa kuch tha) aur bahar dhakel diya. uska dost bhi jisne use chup karane ki koshish ki thi, pichhe pichhe bahar chala gaya. nistabdh parti mein unki kaar ke jane ki avaz saaf sunai di. afsar jisne tamache jaDe the, haath jhaDta hua apni seet par vapas aa gaya.
“sala chutiya!” usne robili avaz mein kaha. sabhi laDakiyon ne apni nazron se use ahsas kara diya ki ve use mard aur hiro samajhti hain.
“aap use jante hain?” glaiDis ne nvanakvo se puchha. usne uttar nahin diya. badle mein sari parti ko sambodhit karte hue kaha—
“vah piye hue tha,” usne kaha.
“mujhe is baat ki parvah nahin,” afsar ne kaha, “jab adami piye hota hai, tabhi wo vahi kahta hai jo uske man mein hota hai. ”
“to tumne use us baat ke liye pita jo uske man mein thi,” mezban ne kaha.
“aisi hi bhavna honi chahiye, jo”
“shukriya janab,” jo ne sailyut karte hue kaha.
“to uska naam jo hai. ” glaiDis aur uske bain or baithi laDki ne ek dusre ki taraf muDte hue eksaath kaha.
usi samay nvanakvo aur dusri or baitha ek aur dost ek dusre se dabi zuban mein, bahut hi dabi zuban mein kah rahe the ki halanki wo adami badadimagh aur behuda tha, lekin laDakiyon ke bare mein usne jo kuch bhi kaha tha wo durbhagyavash katu satya tha, sirf kahne vala adami ghalat tha.
jab Daans dubara shuru hua to kaiptan jo glaiDis ke paas aaya aur Daans ke liye kaha. uske munh se lafz nikalne se pahle hi wo kudkar khaDi ho gai. tab use achanak yaad aaya, wo muDi aur usne nvanakvo se ijazat mangi. saath hi kaiptan ne bhi muDkar kaha,
“maaph kijiye. ”
“jaiye, jaiye,” nvanakvo ne donon ke beech kahin dekhte hue kaha.
Daans der tak chala aur wo bina jataye unhen dekhta raha. kabhi kabhi uupar se rasad ka havai jahaz guzarta to koi ye kah kar batti bujha deta ki kahin dushman ka na ho. lekin asal mein to ye andhere mein Daans karne ka tatha laDakiyon ko gudgudane ka bahana tha, kyonki dushman ke havai jahazon ki avaz to khoob pahchani hui thi. glaiDis jab vapis aai to bahut sankoch bhari thi aur usne nvanakvo ko apne saath nachne ko kaha. lekin usne mana kar diya. “meri parvah mat karo”, usne kaha, “main to yahan baithkar tum logon ko Daans karta dekhkar maze le raha hoon. ”
“lekin main to kabhi Daans nahin karta. vishvas karo. jao, maze karo. ”
usne agla Daans lephtinent karnal ke saath kiya aur phir kaiptan jo ke saath. iske baad nvanakvo use vapas ghar le chalne ke liye maan gaya.
“mujhe dukh hai ki main Daans nahin karta”, usne vapas kaar mein jate samay kaha, “lekin mainne qasam khai hai jab tak ye laDai chalegi, main Daans nahin karunga. ”
wo kuch nahin boli.
“main us paylet jaise adami ke bare mein soch raha hoon, jo kal raat mara gaya. uska to is laDai se koi sambandh nahin tha. wo to hamare liye rasad. . . ”.
“mujhe ummid hai ki uska dost us jaisa nahin hoga’“, glaiDis ne kaha.
“vah to apne dost ke karan ukhDa hua tha. lekin main to ye kahne ki koshish kar raha hoon ki jab us jaise log mare ja rahe hon, jab morche par hamare naujavan mare ja rahe hon to hum logon ko chupchap baithe rahna ya partiyan dena ya Daans karna kitna uchit hai?”
“lekin aap hi to mujhe vahan le ge the,” ant mein usne virodh karte hue kaha, “vo to aap hi ke dost hain. main to unhen janti bhi nahin thi. ”
“dekho, meri pyari glaiDis, main tumhein dosh nahin de raha hoon. main to tumhe sirf ye batala raha hoon ki main Daans kyon nahin karta. khair chhoDo kuch aur baat karen. . . tum abhi bhi kal hi vapis jane par amada ho? mera Draivar tumhein somvar subah subah kaam par vaqt se pahuncha sakta hai. nahin? chalo, jaisi tumhari marzi. tum malik ho. ”
jis asani se wo uske bistar par chali aai aur jis bhasha ka usne istemal kiya, usse use ashcharya hua.
“bambari karna chahte ho?” usne puchha. aur javab ki parvah kiye bina boli, shuru karo, lekin apne sipahi andar mat chhoDna!”
ek baat to eqdam saaf thi—vah kisi sainik afsar ki rakhail thi. do salon mein kitna zabardast farq aa gaya hai. yahi kya kam kamal tha ki use abhi apna pahla jivan yaad tha, apna naam yaad tha? agar sharabi reDakraus vala qissa dubara hua, usne socha, to wo uske saath khaDa hoga—sari parti ko batala dega ki wo adami kitna sachcha hai. sari ki sari piDhi ko kya ho gaya hai? kya yahi hai kal ki matayen!
lekin subah hote hote wo behtar mahsus karne laga aur uski raay mein bhi udarta aa gai. usne socha ki glaiDis to us samaj ka ek chhota sa pratibimb hai, jo puri tarah saD chuka hai aur jismen kiDe reng rahe hain. lekin shisha sabut hai, sirf thoDi si dhool jam gai hai. zarurat hai to ek saaf, safed kapDe ki. “iske prati bhi mera kuch farj hai,” usne svayan se kaha, “vah chhoti si laDki jisne ek din mujhe hamare khatre ka ahsas karaya tha, ab svayan khatre mein hai. kuch khatarnak asar paD raha hai us par. ”
wo is ghatak asar ki jaD mein jana chahta tha. wo asar sirf uski achchhe dinon ki dost agasta—ya jo kuch bhi uska naam raha ho—ka nahin tha. iski tah mein zarur koi adami hoga—shayad un beraham vyapariyon mein se ek jo videshi mudra ki chori karte hain aur jo yuvkon ke jivan ko khatre mein Dalkar unhen dushmnon ki sima ke paar bhejte hain, taki taskari ki chizon ko sigreton mein badalkar karoDon kama saken. ya phir un thekedaron mein se hoga jo sena ko bheji jane vali rasad ki chori karke paison ke pahaD bana rahe the. ya shayad koi ghinauna aur buzdil sainik afsar jo bairkon ke gande phikre aur bahaduri ke jhuthe qisson se bhara hua tha. usne use Draivar ke saath akele hi bhejne ka phaisla kiya tha. lekin nahin, wo khud jayega aur dekhega ki wo kahan rahti thee? kuch na kuch zarur samne ayega. isi par wo glaiDis ko bachane ki yojna adharit karega. jaise jaise wo is trip ki taiyari karne laga, prati pal glaiDis ke prati uski bhavnayen narm hoti gain. usne ek din pahle rilif sentar se mile rashan ka aadha bhaag uske liye alag kar diya. halanki halat kharab the, lekin usne socha tha ki jis laDki ke paas khane ke liye kuch hoga, wo kam lalchayegi. wo Dablyu si si mein apne dost se har hafte uske liye kuch na kuch dene ki baat karega. uphaar dekhkar glaiDis ki ankhon mein ansu aa ge. nvanakvo ke paas paise to adhik nahin the, lekin usne joD jaaD kar bees paunD bhi use de diye.
“mere paas videshi mudra to nahin hai aur main janta hoon ki ye zyada der tak nahin chal sakte, lekin. . . ”
wo dauDkar aai aur usse lipatkar rone lagi. usne uske onth aur ankhen choom leen aur musibat ke maron ke bare mein kuch budabudaya, jise wo samajh nahin pai. nvanakvo ne socha ki mere karan hi usne apna vig utaar kar baig mein rakh liya hai.
“main chahta hoon ki tum mujhse ek vada karo”, usne kaha.
“kyaa?”
“bambari vali wo shabdavali tum kabhi istemal nahin karogi. ”
ansu bhari ankhon se wo muskurai. “tumhen pasand nahin hai na? lekin sabhi laDkiyan aise hi kahti hain. ”
“khair, tum dusri laDakiyon se alag ho. vada karogi na?”
“achchha. ”
unhen jane mein der ho gai thi. jab ve gaDi mein baithe to gaDi ne staart hone se inkaar kar diya. injan mein idhar udhar haath marne ke baad Draivar ne kaha ki baitari baith gai thi. nvanakvo hairan ho utha. usi hafte usne do sail badalne mein chauntis paunD kharche the aur badalne vale maikenik ne kaha tha ki ye chhah mahine tak chalegi. nai baitari kharidne ka to saval hi nahin uthta tha, kyonki uski qimat do sau pachas paunD tak ja pahunchi thi. zarur Draivar ne koi laparvahi dikhai hogi, usne socha.
“yah kal raat hua hoga,’’ Draivar ne kaha.
“kal raat kya hua tha?’’ —nvanakvo ne ghusse se puchha, ye sochte hue ki badatmizi ki had ho gai hai. lekin Draivar ka aisa koi ashay nahin tha.
“kyonki hum heDlaits istemal karte rahe the. ”
“to kya hamse ummid ki jati hai ki hum laiten na jalayen? jao, dhakka lagane ke liye kuch logon ko lao. ” wo glaiDis ke saath bahar nikalkar ghar mein vapas chala aaya aur Draivar paDos ke gharon mein dusre naukron ko madad ke liye DhunDhane nikla.
saDak par aadh ghanta aage pichhe dhakka lagane ke baad tatha dhakka lagane valon ki zor shor se di gai salahon ke baad gaDi mein jaan vapas aai aur ekzaust se dhuen ke kale badal nikalne lage.
jab ve chale to uski ghaDi mein saDhe aath baje the. kuch meel door ek apahiz sipahi ne lift ke liye haath diya.
“roko!” nvanakvo chillaya. Draivar ne break par apna pura pair jaam kar diya aur phir ashcharya se uski or dekha.
“tumne us sipahi ko haath hilate nahin dekha? vapis chalo aur use bithao. ”
“maaf kijiye, sar”, Draivar ne kaha, “mujhe pata nahin tha ki sa’ba lift dena mangta. ”
“agar nahin pata to puchho. vapis lo. ”
sipahi jo chhota sa laDka bhar tha, pasine se lathpath chikat si khaki vardi pahne tha aur ghutne se niche uski taang ghayab thi. ye jankar ki kaar uske liye ruki thi wo sirf abhari hi nahin balki chakit bhi tha. usne pahle lakDi ki, apni ghatiya si baisakhiyan pakDain jinhen Draivar ne aage donon siton ke beech tika diya, phir wo svayan andar baith gaya.
“khushi to hamein hai,” nvanakvo ne kaha. “yah ghaav kahan laga?”
“ajumini par, sar. das janavri ko. ”
“koi baat nahin, sab theek ho jayega. hamein tum naujvanon par garv hai. sab khatm ho jane par tum logon ko uchit padak milenge, ye hum vishvas dilate hain. ”
“main bhagvan se aapke liye pararthna karunga, sar!”
agle ghante tak ve chupchap rahe. jaise hi gaDi ek pul ki taraf utrai se utri, koi chillaya—shayad Draivar ya sipahi—“ve aa ge!” break ki avaz chillahat aur asman phatne ki avaz mein ghul gai. gaDi rukne se pahle hi darvaze khul ge aur ve andhadhundh jhaDiyon ki or bhagne lage. glaiDis nvanakvo se aage thi. tab us shor sharabe mein unhonne sipahi ke chillane ki avaz suni, “akar, mere liye darvaza kholo!” use glaiDis ke rukne ka abhas hua aur phir wo usse aage nikal gaya. usne glaiDis ko bhagte rahne ko kaha. tabhi us ast vyast vatavran mein ek uunchi siti ki avaz barchhe ki tarah niche giri, zor ki halchal ke saath ek dhamaka hua aur sab kuch titar bitar ho gaya. jis peD se wo laga khaDa tha, wo door jhaDiyon mein ja gira. phir ek or bhayanak uunchi siti ki avaz aur aas paas vahi toD phoD phir ek aur, aur uske baad nvanakvo ko kuch sunai nahin diya.
wo utha to charon or rone ki avazen theen, dhuan tha, badbu aur chiranyadh ka mahaul tha. usne khud ko ghasita tatha un avajon ki or chala.
door se usne! ansuon aur khoon se bhare Draivar ko apni or aate dekha. phir uski nazar gai—apni gaDi ke chithDon tatha laDki aur sipahi ki gaDDmaDD, kshat vikshat lashon ki or—aur wo chillakar Dhah paDa.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 260)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।