मैं उसे तब से जानता था, जब मैं बहुत छोटा था। वह मेरे पिताजी के जूते बनाता था। अपने बड़े भाई के साथ वह रहता था। छोटी-सी एक गली में दो दुकानों को मिलाकर एक दुकान में बदल दिया गया था, पर अब वह दुकान नहीं रही, उसकी जगह एक बेहद आधुनिक दुकान खड़ी हो गई है।
उसकी कारीगरी में कुछ ख़ास बात थी। शाही परिवारों के लिए बनाए गए किसी भी जूते की जोड़ी पर कोई चिन्ह अंकित नहीं होता था सिवाए, उनके अपने जर्मन नाम के गेस्लर ब्रदर्स; और खिड़की पर जूतों की केवल कुछ जोड़ियाँ रखी रहती। मुझे याद है खिड़की पर एक ही तरह की जोड़ियों को हर बार देखना मुझे खलता था, क्योंकि वह ऑर्डर के मुताबिक ही जूते बनाता था—न कम न ज़्यादा। उसके बनाए जूतों के बारे में यह सोचना अकल्पनीय था कि वे पाँव में ठीक से नहीं बैठेंगे। तो क्या खिड़की पर रखे जूते उसने ख़रीदे थे। यह सोचना भी कल्पना से परे था? वह अपने घर में ऐसा कोई चमड़ा रखना सहन नहीं करता था, जिस पर वह ख़ुद काम न करे। इसके अलावा, पंप शू का वह जोड़ा बेहद ख़ूबसूरत था, इतना शानदार कि बयान करना मुश्किल था। वह असली चमड़े का था। जिसकी ऊपरी तह कपड़े की थी। उन्हें देख कर ही जी ललचाने लगता था। ऊँचे-ऊँचे भूरे चमकदार जूते, हालाँकि नए थे पर लगता मानों सैकड़ों बरसों से पहने जा रहे हों, ऐसे जूते केवल वही बना सकता था, जो जूतों की आत्मा को देख लेता हो—वाक़ई जूतों का वह जोड़ा एक आदर्श नमूना था, मानों सारे जूतों की आत्मा उसमें अवतरित हो गई हो।
दरअसल ये सारे ख़याल मुझे बाद में आए, हालाँकि जब मैं केवल चौदह बरस का था, तब से उसे जानता था और तभी से मेरे मन में उसके और उसके भाई के प्रति आदर की भावना थी। ऐसे जूते बनाना—जैसे वह बनाता था—तब भी और अब भी मेरे लिए एक अजूबा और अचरज की तरह था।
मुझे बख़ूबी याद है, एक दिन मैंने अपना छोटा-सा पैर आगे बढ़ाकर शर्माते हुए उससे पूछा था—“मिस्टर गेस्लर क्या यह बहुत मुश्किल काम नहीं है।”
जवाब देते वक़्त ललाई से भरी उसकी कर्कश दाढ़ी से एक मुस्कान उभर आई थी, “हाँ यह मुश्किल काम है!”
नाटा-सा वह आदमी मानो ख़ुद भी चमड़े से बनाया गया हो, उसका पीला झुर्रियों भरा चेहरा और ललाई लिए हुए घुँघराले बाल और दाढ़ी, गालों से उसके मुँह तक गोलाई में आती हुई चेहरे की स्पष्ट रेखाएँ; कंठ से निकली एकरस भारी आवाज़। चमड़ा एक अवज्ञापूर्ण चीज़ है— कठोर और धीरे-धीरे आकार लेने वाली। उसके चेहरे की भी कुछ यही ख़ासियत थी—अपने आदर्श को अपने भीतर संजोए हुए, महज उसकी आँखों को छोड़, जो भूरी नीली थीं और जिनमें एक सादगी भरी गहराई थी।
उसका बड़ा भाई भी क़रीब-क़रीब उसी के समान था, हालाँकि अधिक तरल, ज़्यादा ज़र्दी लिए हुए। शुरूआत में मेरे लिए फ़र्क़ कर पाना मुश्किल था। फिर मुझे समझ आ गया। जब कभी मैं अपने भाई से पूछूँगा, ऐसा नहीं कहा जाता तो मैं जानता था कि यह वही है और जब ये शब्द कहे जाते तो यक़ीनन वह उसका बड़ा भाई होता।
कई बार बरसों बीत जाते और बिल बढ़ते जाते, पर गेस्लर बंधुओं की रक़म को कोई बक़ाया नहीं रखता था। ऐसा कभी नहीं होता कि उस नीले फ़्रेम के चश्मे वाले बूटमेकर का किसी पर दो जोड़ियों से अधिक का पैसा बक़ाया हो। उसके पास जाना एक सुखद आश्वासन था कि हम अभी भी उसके ग्राहक हैं।
उसके पास बार-बार जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि उसके बनाए जूते बहुत टिकाऊ होते थे, उनका कोई सानी नहीं था। वे जूते ऐसे होते, मानों जूतों की आत्मा उनके भीतर सिल दी गई हो।
वहाँ जाना किसी आम ख़रीदारी जैसा नहीं था। ऐसा नहीं था कि आप दुकान में घुसे और बस कहने लगें कि “ज़रा मुझे यह दिखाओ” या “ठीक है” कहकर उठे और चल दिए। यहाँ पूरे इत्मीनान के साथ जाना होता था, ठीक जैसे किसी गिरजाघर में प्रवेश करते हों, फिर उसकी एकमात्र काठ की कुर्सी पर बैठकर इंतज़ार करें, क्योंकि उस वक़्त वहाँ कोई नहीं होता। जल्दी ही चमड़े की भीनी गंध और अंधकार से भरी ऊपर की कुँएनुमा कोठरी से उसका या उसके बड़े भाई का चेहरा नीचे की ओर झाँकता। एक भारी भरकम आवाज़ और लकड़ी की संकरी सीढ़ियों से चप्पलों की छप्-छप् सुनाई देती, फिर वह आपके सामने खड़ा होता बिना कोट के थोड़ा झुका-झुका सा, चमड़े का एप्रेन पहने, आस्तीन ऊपर चढ़ाए, आँख झपझपाता मानो, उसे जूतों के किसी स्वप्न से जगाया गया हो या जैसे वह उल्लू की तरह दिन की रोशनी से चकित और इस व्यवधान से झुँझलाया हुआ हो।
मैं उससे पूछता, “कैसे हो भाई गैस्लर? क्या तुम मेरे लिए रूसी चमड़े के एक जोड़ी जूते बना दोगे?”
बग़ैर कुछ कहे वह दुकान के भीतर चला जाता और मैं उसी लकड़ी की कुर्सी पर आराम से बैठ उसके पेशे की गंध अपनी साँसों में उतारता रहता। कुछ ही देर बाद वह लौटता। उसके दुबले, उभरी नसों वाले हाथ में सुनहरे भूरे रंग के चमड़े का टुकड़ा होता। उसकी आँखें उसी पर गड़ी रहतीं और वह कहता—“कितना सुंदर टुकड़ा है!” जब मैं भी उसकी तारीफ़ कर चुका होता तो वह पूछता—“आपको जूते कब तक चाहिए?” और मैं कहता: “ओह बिना किसी दिक़्क़त के जितनी जल्दी तुम बनाकर दे सको” और वह पूछता “कल दोपहर?” या अगर उसका बड़ा भाई होता तो कहता—“मैं अपने भाई से पूछूँगा!”
फिर मैं धीमे से कहता—“शुक्रिया मिस्टर गेस्लर, चलता हूँ, नमस्ते!”
“नमस्ते!” वह कहता पर उसकी नज़रें हाथ में थमे चमड़े पर ही टिकी रहतीं। मैं उसके दरवाज़े की तरफ़ मुड़ता, मुझे सीढ़ियाँ चढ़ते उसकी चप्पलों की आवाज़ सुनाई देती, जो उसे जूतों की उसी ख़्वाबों की दुनिया में ले जाती, पर यदि ऐसा कोई नया जूता बनवाना हो, जो उसने अभी तक मेरे लिए न बनाया होता तो वह जैसे एक बड़े अनुष्ठान में लग जाता। मुझे मेरे जूते से विमुख कर देर तक उसे हाथ में पकड़े रहता। लगातार स्नेह भरी पारखी नज़रों से निहारता रहता, मानों उस घड़ी को याद करने की कोशिश कर रहा हो, जब जतन से उन्हें बनाया गया था। उसके हाव-भाव में एक उलाहना भी होता कि आख़िर किसने इतने उत्कृष्ट नमूने को इस हाल तक पहुँचाया है। फिर काग़ज़ के एक टुकड़े पर मेरा पैर रखवाकर वह पेंसिल से दो-तीन बार पैर के घेरे का निशान बनाता, उसकी अधीर उँगलियाँ मेरे अँगूठे और पैरों को छूती रहतीं, मानो पूरी तरह मेरी ज़रूरत की आत्मा में पैठ गई हों।
मैं उस दिन को नहीं भूल सकता, जब मैंने यूँ ही उससे कह दिया “भाई गेस्लर आपको पता है, आपने जो पिछला जूता बनाकर दिया, वह चरमराता है।”
कुछ कहे बग़ैर उसने पल भर मेरी ओर देखा, मानो उम्मीद कर रहा हो कि या तो मैं अपना कथन वापस लूँ या अपनी बात का सबूत दूँ।
“ऐसा तो नहीं होना चाहिए था।” वह बोला।
“हाँ, पर ऐसा हुआ है।”
“क्या तुमने उन्हें भिगोया था?”
“मेरे ख़याल से तो नहीं।”
इस पर उसने अपनी नज़रें झुका लीं, मानो उन जूतों को याद करने की कोशिश कर रहा हो, मुझको बेहद अफ़सोस हुआ कि मैंने क्यों इतनी गंभीर बात कर दी।
“जूते वापस भेज दो!” वह बोला, “मैं देखूँगा।”
अपने चरमराते जूतों के प्रति एक दया भाव मेरे भीतर उमड़ा, मैं बख़ूबी कल्पना कर सकता था कि दुख भरी लंबी आतुरता के साथ न जाने कितनी देर वह जूतों पर लगाएगा।
“कुछ जूते”, उसने धीमे से कहा, “पैदायशी ख़राब होते हैं, यदि उन्हें ठीक न कर सका तो आपके बिल में उसके पैसे नहीं जोडूँगा।”
एक बार, महज़ एक बार मैं उसकी दुकान में बेध्यानी से ऐसे जूते पहनकर गया जो जल्दबाज़ी में किसी नामी दुकान से ख़रीद लिए थे। उसने बिना कोई चमड़ा दिखाए मेरा आर्डर ले लिया। मेरे जूतों की घटिया बनावट पर उसकी आँखें किस क़दर टिकी हुई थीं। मैं अच्छी तरह महसूस कर रहा था। आख़िर उससे रहा न गया और वह बोल ही पड़ा।
“ये मेरे बनाए जूते तो नहीं हैं।”
उसके लहज़े में न ग़ुस्सा था, न दुख और न ही तिरस्कार का भाव, पर कुछ ऐसा ज़रूर था, जो लहू को सर्द कर दे। उसने हाथ अंदर डालकर उँगली से बाएँ बूट को दबाया, जहाँ जूते को फैशनेबल बनाने के लिए अतिरिक्त कारीगरी की गई थी, पर वहाँ जूता काटता था।
“यहाँ यह आपको काटता है ना!” उसने पूछा, “ये जो बड़ी कंपनियाँ हैं इनमें आत्म-सम्मान नहीं होता।” फिर मानो उसके दिमाग़ में कुछ बैठ गया हो और वह ज़ोर-ज़ोर से और कड़वाहट से बोलने लगा। यह पहली मर्तबा था, जब मैंने उसे अपने पेशे की परिस्थितियों और दिक्कतों के बारे में बोलते सुना।
“उन्हें सब कुछ हासिल हो जाता है” उसने कहा, “वे काम के बूते पर नहीं, प्रचार के दम पर सब हासिल कर लेते हैं। वे हमारे ग्राहक छीन लेते हैं। यही वजह है कि आज मेरे पास काम नहीं है” उसके झुर्रीदार चेहरे पर मैंने वह सब देखा, जो कभी नहीं देखा था। बेइंतहा तकलीफ़, कड़ुवाहट और संघर्ष—अचानक उसकी लाल दाढ़ी में सफ़ेदी लहराने लगी थी।
अपनी ओर से मैं इतना ही कर सकता था कि उसे वे परिस्थितियाँ बताता, जिनमें उन घटिया जूतों को ख़रीदने के लिए विवश हो गया था। पर उन कुछ पलों में उसके चेहरे और स्वर ने मुझे इतना गहरे प्रभावित किया कि मैंने कई जोड़ी जूते बनाने का ऑर्डर दे डाला और उसके बाद यह तो होना ही था। वे जूते जैसे घिसने का नाम ही नहीं लेते थे। क़रीब दो बरसों तक मेरा अंत:करण उसके पास जाने से मुझे रोकता रहा।
आख़िर जब मैं गया तो यह देखकर बड़ा अचरज हुआ कि उसकी दुकान की दो छोटी खिड़कियों में से एक खिड़की के बाहर किसी दूसरे के नाम का कोई बोर्ड लगा हुआ था—वह भी जूते बनाने वाला ही था—शाही परिवारों के जूते। अब सिर्फ़ एक खिड़की पर वही जाने पहचाने जूते रखे थे—वे अलग से नहीं लग रहे थे। भीतर भी, दुकान की वह कुँआनुमा संकरी कोठरी पहले से अधिक अंधकार और गंध से भर गई थी। इस बार हमेशा से कुछ ज़्यादा ही वक़्त लगा। काफ़ी देर बाद वही चेहरा नीचे झाँकता दिखाई दिया, फिर चप्पलों की वही छप्- छप् गूँजने लगी, आख़िरकार वह मेरे सामने था, जंग खाए टूटे पुराने चश्मे में से झाँकता हुआ। उसने पूछा—“आप मिस्टर...हैं ना?”
“हाँ मिस्टर गेस्लर,” मैंने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, “क्या बतलाऊँ, आपके जूते इतने अच्छे हैं कि घिसते ही नहीं, देखिए ये जूते भी अभी चल रहे हैं” और मैंने अपना पैर आगे कर दिया, उसने उन्हें देखा।
“हाँ” वह बोला, “पर लगता है लोगों को अब टिकाऊ जूतों की ज़रूरत नहीं रही।”
उसकी उलाहने भरी नज़रों और आवाज़ से छुटकारा पाने के लिए मैं झट से बोला—“यह तुमने अपनी दुकान को क्या कर डाला है?”
वह शांत स्वर में बोला, “बहुत महँगा पड़ रहा था। क्या आपको कोई जूते चाहिए?”
मैंने तीन जोड़ी जूतों का आर्डर दिया। हालाँकि मुझे ज़रूरत सिर्फ़ दो की ही थी और जल्दी से मैं वहाँ से निकल आया। जाने क्यों मुझे लगा कि उसके ज़ेहन में कहीं यह बात है कि उसे या सच कहें तो जूतों के प्रति उसके सम्मोहन के खिलाफ़ जो साजिश चल रही है, उसमें मैं भी शामिल हूँ। यूँ कोई इन चीज़ों की इतनी परवाह नहीं करता; पर फिर ऐसा हुआ कि मैं कई महीनों तक वहाँ नहीं गया। जब मैं गया तो मेरे मन में बस यही ख़याल था, “ओह मैं भला उस बूढ़े को कैसे छोड़ सकता हूँ—शायद इस बार उसके बड़े भाई से पाला पड़े!”
मैं जानता था कि उसका बड़ा भाई लेशमात्र भी कटु या तिरस्कार भरे स्वर में नहीं बोल सकता।
वाक़ई दुकान में जब मुझे बड़े भाई की आकृति दिखाई दी, तो मैंने राहत महसूस की। वह चमड़े के एक टुकड़े पर काम कर रहा था।
“हेलो मिस्टर गेस्लर कैसे हैं आप?” मैंने पूछा। वह उठा और ग़ौर से मुझे देखने लगा।
“मैं ठीक हूँ,” उसने धीमे से कहा, “पर मेरे बड़े भाई का देहांत हो गया।”
तब मैंने देखा कि यह तो वह ख़ुद था—कितना बूढ़ा और कमज़ोर हो गया था। इससे पहले मैंने कभी उसे अपने भाई का ज़िक्र करते नहीं सुना था। मुझे गहरा धक्का लगा, मैंने आहिस्ता से कहा, “यह तो बहुत बुरा हुआ।”
“हाँ,” वह बोला, “वह नेकदिल इंसान था, अच्छे जूते बनाता था, पर अब वह नहीं रहा।” फिर उसने अपने सिर पर हाथ रखा, जहाँ से अचानक उसके बाल इतने झड़ गए थे—उसके अभागे भाई की ही तरह। मुझे लगा शायद वह इस तरह अपने भाई की मृत्यु का कारण बता रहा था। “भाई उस दूसरी दुकान खोने का ग़म नहीं सह पाया। खैर, क्या आपको जूते चाहिए?” उसने हाथ में पकड़ा चमड़ा उठाकर दिखाया, “यह बहुत ख़ूबसूरत टुकड़ा है!”
मैंने कई जोड़ी जूतों का आर्डर दिया। बहुत दिनों बाद मुझे वे जूते मिले जो बेहद शानदार थे। उन्हें ऐसे वैसे नहीं पहना जा सकता था, उसके कुछ दिनों बाद मैं विदेश चला गया। लौटकर लंदन आने में एक बरस से भी ज़्यादा वक़्त गुजर गया। लौटने के बाद सबसे पहले मैं अपने उसी बूढ़े मित्र की दुकान पर गया। मैं जब गया था, वह साठ बरस का था। अब जिसे मैं देख रहा था, वह पचहत्तर से भी ज़्यादा का दिख रहा था—भूख से बेहाल, थका-मांदा, भयभीत और इस बार वाक़ई उसने मुझे नहीं पहचाना।
“ओह, मिस्टर गेस्लर,” मैंने कहा, मन-ही-मन मैं दुखी था; “तुम्हारे जूते तो वाक़ई कमाल के हैं! देखो, मैं विदेश में पूरे समय यही जूते पहनता रहा और अभी भी ये अच्छे हैं—ज़रा भी ख़राब नहीं हुए हैं, हैं न?”
काफ़ी देर वह जूतों को देखता रहा—रशियन चमड़े से बने जूते। उसके चेहरे पर एक चमक-सी लौट आई। अपना हाथ जूते के ऊपरी भाग में डालते हुए वह बोला—
“क्या यहाँ से काटते हैं? मुझे याद है इन जूतों को बनाने में मुझे काफ़ी परेशानी हुई थी।”
मैंने उसे यक़ीन दिलाया कि वे हर तरह से सही नाप के हैं और ठीक बैठते हैं।
“क्या आपको जूते बनवाने हैं?” उसने पूछा, “मैं जल्द ही बनाकर दूँगा, यूँ भी मंदी का वक़्त चल रहा है।”
मैंने कहा—“ज़रूर, ज़रूर! मुझे हर तरह के जूते चाहिए!”
“मैं बिल्कुल नए मॉडल के जूते बनाऊँगा! आपके पैर थोड़े बड़े होंगे।” और बहुत ही धीमी गति से उसने मेरे पैर को टटोला और अँगूठे को महसूस किया। इस पूरे वक़्त सिर्फ़ एक बार ऊपर देखकर वह बोला—
“क्या मैंने आपको बताया कि मेरे भाई का देहांत हो गया है?”
उसे देखना बेहद यातनादायी था, वह बहुत कमज़ोर हो गया था, बाहर आकर मैंने राहत महसूस की।
मैं उन जूतों की बात भूल ही चुका था कि अचानक एक शाम वे आ पहुँचे। जब मैंने पार्सल खोला तो एक के बाद एक, चार जोड़ी जूते निकले। आकार, नमूने, चमड़े की क्वालिटी, फिटिंग हर लिहाज़ से अब तक बनाए गए जूतों से बेहतर और लाजवाब। आम मौक़े पर पहने जाने वाले एक बूट में मुझे उसका बिल मिला। उसने हमेशा के जितना ही दाम लगाया था, पर मुझे थोड़ा झटका लगा, क्योंकि वह कभी तिमाही की आख़िरी तारीख़ से पहले बिल नहीं भेजता था। मैं भागते हुए नीचे गया, चेक बनाया और फ़ौरन पोस्ट कर दिया।
हफ़्ते भर बाद मैं उस रास्ते से गुज़र रहा था तो सोचा उसे जाकर बताऊँ कि उसके जूते कितने शानदार और सही नाप के बने हैं, पर जब मैं वहाँ पहुँचा, जहाँ उसकी दुकान थी तो उसका नाम नदारद था। खिड़की पर अब भी वही सलीकेदार पंप शू रखे थे—असली चमड़े और कपड़े की ऊपरी तह वाले।
विचलित-सा मैं भीतर गया, दोनों दुकानों को दोबारा एक ही में मिला दिया गया था। एक अँग्रेज़ युवक मुझे मिला।
“मिस्टर गेस्लर अंदर हैं?” मैंने पूछा। उसने मुझे अजीब और अकृतज्ञ नज़रों से घूरा।
“नहीं सर,” वह बोला, “नहीं, मिस्टर गेस्लर नहीं हैं, पर हम आपकी हर तरह से सेवा कर सकते हैं, यह दुकान हमने ख़रीद ली है। आपने बाहर हमारा बोर्ड देख ही लिया होगा। हम नामी-गिरामी लोगों के लिए जूते बनाते हैं।”
“हाँ, हाँ,” मैंने कहा, “पर मिस्टर गेस्लर?”
“ओह!” वह बोला, “उनका देहांत हो गया।”
“क्या देहांत हो गया! पर मुझे उन्होंने पिछले हफ़्ते ही ये जूते भेजे हैं।”
“ओह!” वह बोला, “बेचारा बूढ़ा भूख से ही मर गया।”
“भूख से धीमी मृत्यु डॉक्टर यही कहते हैं! आप जानते हैं, वह दिन-रात भूखा रहता था और काम करता था। अपने अलावा किसी को भी जूतों पर हाथ लगाने नहीं देता था। जब उसे ऑर्डर मिलता तो उसे पूरा करने में रात-दिन एक कर देता। अब लोग भला क्यों इंतज़ार करते। उसके सभी ग्राहक छूट गए। वह वहाँ बैठा लगातार काम करता रहता। वह कहता—पूरे लंदन में उससे बेहतर जूते कोई नहीं बनाता! पर आप ही सोचिए, प्रतिस्पर्धा कितनी बढ़ गई है! उसने कोई प्रचार भी नहीं किया, उसके पास बेहतरीन चमड़ा था, पर वह अकेले ही सारा काम करता था, खैर! छोड़िए, इस तरह के आदर्श में क्या रखा है?”
“पर भूख से मर जाना!”
“यह थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, पर मैं जानता हूँ दिन-रात अपनी आख़िरी साँस तक वह जूतों पर लगा रहा।” उसे देखता रहता था, उसे खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती थी। जेब में एक कौड़ी तक न थी, सब कुछ गिरवी चढ़ गया था। पर उसने चमड़ा नहीं छोड़ा, जाने कैसे वह इतने दिन जीवित रहा। वह लगातार फ़ाक़े करता रहा। वह एक अजीब इंसान था, पर हाँ, वह जूते बहुत बढ़िया बनाता था।”
“हाँ” मैं बोला, “वह बढ़िया जूते बनाता था!”
main use tab se janta tha, jab main bahut chhota tha. wo mere pitaji ke jute banata tha. apne baDe bhai ke saath wo rahta tha. chhoti si ek gali mein do dukanon ko milakar ek dukan mein badal diya gaya tha, par ab wo dukan nahin rahi, uski jagah ek behad adhunik dukan khaDi ho gai hai.
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darasal ye sare khayal mujhe baad mein aaye, halanki jab main keval chaudah baras ka tha, tab se use janta tha aur tabhi se mere man mein uske aur uske bhai ke prati aadar ki bhavna thi. aise jute banana jaise wo banata tha—tab bhi aur ab bhi mere liye ek ajuba aur achraj ki tarah tha.
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main us din ko nahin bhool sakta, jab mainne yoon hi usse kah diya “bhai geslar aapko pata hai, aapne jo pichhla juta banakar diya, wo charamrata hai. ”
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“aisa to nahin hona chahiye tha. ” wo bola.
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“kya tumne unhen bhigoya tha?”
“mere khayal se to nahin. ”
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“jute vapas bhej do!” wo bola “main dekhunga. ”
apne charmarate juton ke prati ek daya bhaav mere bhitar umDa, main bakhubi kalpana kar sakta tha ki dukh bhari lambi aturta ke saath na jane kitni der wo juton par lagayega.
“kuchh jute”, usne dhime se kaha, “paidayshi kharab hote hain, yadi unhen theek na kar saka to aapke bil mein uske paise nahin joDunga. ”
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“ye mere banaye jute to nahin hain. ”
uske lahze mein na ghussa tha, na dukh aur na hi tiraskar ka bhaav, par kuch aisa zarur tha, jo lahu ko sard kar de. usne haath andar Dalkar ungli se bayen boot ko dabaya, jahan jute ko phaishnebal banane ke liye atirikt karigari ki gai thi, par vahan juta katta tha.
“yahan ye aapko katta hai na!” usne puchha, “ye jo baDi kampaniyan hoon inmen aatm samman nahin hota. ” phir manon uske dimagh wo zor zor se aur kaDvahat se bolne laga. ye pahli martaba tha, jab mainne use apne peshe ki paristhitiyon aur diqqton ke bare mein bolte suna.
“unhen sab kuch hasil ho jata hai” usne kaha, “ve kaam ke bute par nahin, parchar ke dam par sab hasil kar lete hain. ve hamare grahak chheen lete hain. yahi vajah hai ki aaj mere paas kaam nahin hai” uske jhurridar chehre par mainne wo sab dekha, jo kabhi nahin dekha tha. beithan taklif, kaDuvahat aur sangharsh—achanak uski laal daDhi mein safedi lahrane lagi thi.
apni or se main itna hi kar sakta tha ki use ve paristhitiyan batata, jinmen un ghatiya juton ko kharidne ke liye vivash ho gaya tha. par un kuch palon mein uske chehre aur svar ne mujhe itna gahre prabhavit kiya ki mainne kai joDi jute banane ka arDar de Dala aur uske baad ye to hona hi tha. ve jute jaise ghisne ka naam hi nahin lete the. qarib do barson tak mera antahakran uske paas jane se mujhe rokta raha.
akhir jab main gaya to ye dekhkar baDa achraj hua ki uski dukan ki do chhoti khiDakiyon mein se ek khiDki ke bahar kisi dusre ke naam ka koi borD laga hua tha—vah bhi jute banane vala hi tha—shahi parivaron ke jute. ab sirf ek khiDki par vahi jane pahchane jute rakhe the—ve alag se nahin lag rahe the. bhitar bhi, dukan ki wo kunanuma sankri kothari pahle se adhik andhkar aur gandh se bhar gai thi. is baar hamesha se kuch zyada hi vaqt laga. kafi der baad vahi chehra niche jhankta dikhai diya, phir chapplon ki vahi chhap chhap gunjne lagi, akhirkar wo mere samne tha, jang khaye toot purane chashme mein se jhankta hua. usne puchha—“ap mistar. . . hain na?”
“haan mistar geslar,” mainne kuch hichkichate hue kaha, “kya batlaun, aapke jute itne achchhe hain ki ghiste hi nahin, dekhiye ye jute bhi abhi chal rahe hain” aur mainne apna pair aage kar diya, usne unhen dekha.
“haan” wo bola, “par lagta hai logon ko ab tikau juton ki zarurat nahin rahi. ”
uski ulahna bhari najron aur avaz se chhutkara pane ke liye main jhat se bola—“yah tumne apni dukan ko kya kar Dala hai?”
wo shaant svar mein bola, “bahut manhaga paD raha tha. kya aapko koi jute chahiye?”
mainne teen joDi juton ka arDar diya. halanki mujhe zarurat sirf do ki hi thi aur jaldi se main vahan se nikal aaya. jane kyon mujhe laga ki uske zehn mein kahin ye baat hai ki use ya sach kahen to juton ke prati uske sammohan ke khilaf jo sajish chal rahi hai, usmen main bhi shamil hoon. yoon koi in chizon ki itni parvah nahin karta; par phir aisa hua ki main kai mahinon tak vahan nahin gaya. jab main gaya to mere man mein bas yahi khayal tha, “oh main bhala us buDhe ko kaise chhoD sakta hun—shayad is baar uske baDe bhai se pala paDe!”
main janta tha ki uska baDa bhai leshamatr bhi katu ya tiraskar bhare svar mein nahin bol sakta.
vaqii dukan mein jab mujhe baDe bhai ki akriti dikhai di, to mainne rahat mahsus ki. wo chamDe ke ek tukDe par kaam kar raha tha.
“helo mistar geslar kaise hain aap?” mainne puchha. wo utha aur ghaur se mujhe dekhne laga.
“main theek hoon,” usne dhime se kaha, “par mere baDe bhai ka dehant ho gaya. ”
tab mainne dekha ki ye to wo khud tha—kitna buDha aur kamzor ho gaya tha. isse pahle mainne kabhi use apne bhai ka zikr karte nahin suna tha. mujhe gahra dhakka laga, mainne ahista se kaha, “yah to bahut bura hua”
“haan,” wo bola, “vah nekadil insaan tha, achchhe jute banata tha, par ab wo nahin raha. ” phir usne apne sir par haath rakha, jahan se achanak uske baal itne jhaD ge the—uske abhage bhai ki hi tarah. mujhe laga shayad wo is tarah apne bhai ki mrityu ka karan bata raha tha. “bhai us dusri dukan khone ka gam nahin sah paya. khair, kya aapko jute chahiye?” usne haath mein pakDa chamDa uthakar dikhaya, “yah bahut khubsurat tukDa hai!”
mainne kai joDi juton ka arDar diya. bahut dinon baad mujhe ve jute mile jo behad shanadar the. unhen aise vaise nahin pahna ja sakta tha, uske kuch dinon baad main videsh chala gaya. lautkar landan aane mein ek baras se bhi zyada vaqt gujar gaya. lautne ke baad sabse pahle main apne usi buDhe mitr ki dukan par gaya. main jab gaya tha, wo saath baras ka tha. ab jise main dekh raha tha, wo pachhattar se bhi zyada ka dikh raha tha—bhukh se behal, thaka manda, bhaybhit aur is baar vakii usne mujhe nahin pahchana.
“oh, mistar geslar,” mainne kaha, man hi man main dukhi tha; “tumhare jute to vaqii kamal ke hain! dekho, main videsh mein pure samay yahi jute pahanta raha aur abhi bhi ye achchhe hain—zara bhi kharab nahin hue hain, hain na?”
kafi der wo juton ko dekhta raha—rashiyan chamDe se bane jute. uske chehre par ek chamak si laut aai. apna haath jute ke uupri bhaag mein Dalte hue wo bola—
“kya yahan se katte hain? mujhe yaad hai in juton ko banane mein mujhe kafi pareshani hui thi. ”
mainne use yaqin dilaya ki ve har tarah se sahi naap ke hain aur theek baithte hain.
“kya aapko jute banvane hain?” usne puchha, “main jald hi banakar dunga, yoon bhi mandi ka vaqt chal raha hai. ”
mainne kaha—“zarur, zarur! mujhe har tarah ke jute chahiye!”
“main bilkul ne mauDal ke jute banaunga! aapke pair thoDe baDe honge. ” aur bahut hi dhimi gati se usne mere pair ko tatola aur anguthe ko mahsus kiya. is pure vaqt sirf ek baar uupar dekhkar wo bola—
“kya mainne aapko bataya ki mere bhai ka dehant ho gaya hai?”
use dekhana behad yatanadayi tha, wo bahut kamzor ho gaya tha, bahar aakar mainne rahat mahsus ki.
main un juton ki baat bhool hi chuka tha ki achanak ek shaam ve aa pahunche. jab mainne parsal khola to ek ke baad ek, chaar joDi jute nikle. akar, namune, chamDe ki kvaliti, phiting har lihaz se ab tak banaye ge juton se behtar aur lajavab. aam mauke par pahne jane vale ek boot mein mujhe uska bil mila. usne hamesha ke jitna hi daam lagaya tha, par mujhe thoDa jhatka laga, kyonki wo kabhi timahi ki akhiri tarikh se pahle bil nahin bhejta tha. main bhagte hue niche gaya, chek banaya aur fauran post kar diya.
hafte bhar baad main us raste se guzar raha tha to socha use jakar bataun ki uske jute kitne shanadar aur sahi naap ke bane hain, par jab main vahan pahuncha, jahan uski dukan thi to uska naam nadarad tha. khiDki par ab bhi vahi salikedar pamp shu rakhe the—asli chamDe aur kapDe ki uupri tah vale.
vichlit sa main bhitar gaya, donon dukanon ko dobara ek hi mein mila diya gaya tha. ek angrez yuvak mujhe mila.
“nahin sar,” wo bola, “nahin, mistar geslar nahin hain, par hum apaki har tarah se seva kar sakte hain, ye dukan hamne kharid li hai. aapne bahar hamara borD dekh hi liya hoga. hum nami girami logon ke liye jute banate hain. ”
“haan, haan,” mainne kaha, “par mistar geslar?”
“oh!” wo bola, “unka dehant ho gaya. ”
“kya dehant ho gaya! par mujhe unhonne pichhle hafte hi ye jute bheje hain. ”
“oh!” wo bola, “bechara buDha bhookh se hi mar gaya. ”
“bhookh se dhimi mrityu Dauktar yahi kahte hain! aap jante hain, wo din raat bhukha rahta tha aur kaam karta tha. apne alava kisi ko bhi juton par haath lagane nahin deta tha. jab use arDar milta to use pura karne mein raat din ek kar deta. ab log bhala kyon intzaar karte. uske sabhi grahak chhoot ge. wo vahan baitha lagatar kaam karta rahta. wo kahta—pure landan mein usse behtar jute koi nahin banata! par aap hi sochiye, pratispardha kitni baDh gai hai! usne koi parchar bhi nahin kiya, uske paas behtarin chamDa tha, par wo akele hi sara kaam karta tha, khair! chhoDiye, is tarah ke adarsh mein kya rakha hai?”
“par bhookh se mar jana!”
“yah thoDa atishyoktipurn lag sakta hai, par main janta hoon din raat apni akhiri saans tak wo juton par laga raha. ” use dekhta rahta tha, use khane pine ki bhi sudh nahin rahti thi. jeb mein ek kauDi tak na thi, sab kuch girvi chaDh gaya tha. par usne chamDa nahin chhoDa, jane kaise wo itne din jivit raha. wo lagatar faqe karta raha. wo ek ajib insaan tha, par haan, wo jute bahut baDhiya banata tha. ”
“haan” main bola, “vah baDhiya jute banata tha!”
main use tab se janta tha, jab main bahut chhota tha. wo mere pitaji ke jute banata tha. apne baDe bhai ke saath wo rahta tha. chhoti si ek gali mein do dukanon ko milakar ek dukan mein badal diya gaya tha, par ab wo dukan nahin rahi, uski jagah ek behad adhunik dukan khaDi ho gai hai.
uski karigari mein kuch khaas baat thi. shahi parivaron ke liye banaye ge kisi bhi jute ki joDi par koi chinh ankit nahin hota tha sivaye, unke apne jarman naam ke geslar brdars; aur khiDki par juton ki keval kuch joDiyan rakhi rahti. mujhe yaad hai khiDki par ek hi tarah ki joDiyon ko har baar dekhana mujhe khalta tha, kyonki wo arDar ke mutabik hi jute banata tha—na kam na zyada. uske banaye juton ke bare mein ye sochna akalpaniy tha ki ve paanv mein theek se nahin baithenge. to kya khiDki par rakhe jute usne kharide the. ye sochna bhi kalpana se pare tha? wo apne ghar mein aisa koi chamDa rakhna sahn nahin karta tha, jis par wo khud kaam na kare. iske alava, pamp shu ka wo joDa behad khubsurat thi, itna shanadar ki byaan karna mushkil tha. wo asli chamDe ka tha. jiski uupri tah kapDe ki thi. unhen dekh kar hi ji lalchane lagta tha. uunche uunche bhure chamakdar jute, halanki ne the par lagta manon saikDon barson se pahne ja rahe hon, aise jute keval vahi bana sakta tha, jo juton ki aatma ko dekh leta ho—vaqii juton ka wo joDa ek adarsh namuna tha, manon sare juton ki aatma usmen avatrit ho gai ho.
darasal ye sare khayal mujhe baad mein aaye, halanki jab main keval chaudah baras ka tha, tab se use janta tha aur tabhi se mere man mein uske aur uske bhai ke prati aadar ki bhavna thi. aise jute banana jaise wo banata tha—tab bhi aur ab bhi mere liye ek ajuba aur achraj ki tarah tha.
mujhe bakhubi yaad hai, ek din mainne apna chhota sa pair aage baDhakar sharmate hue usse puchha tha—“mistar geslar kya ye bahut mushkil kaam nahin hai. ”
javab dete vaqt lalai se bhari uski karkash daDhi se ek muskan ubhar aai thi, “haan ye mushkil kaam hai!”
nata sa wo adami manon khud bhi chamDe se banaya gaya ho, uska pila jhurriyon bhara chehra aur lalai liye hue ghunghrale baal aur daDhi, galon se uske munh tak golai mein aati hui chehre ki aspasht rekhayen; kanth se nikli ekras bhari avaz. chamDa ek avagyapurn cheez hai— kathor aur dhire dhire akar lene vali. uske chehre ki bhi kuch yahi khasiyat thi—apne adarsh ko apne bhitar sanjoe hue, mahaj uski ankhon ko chhoD, jo bhuri nili theen aur jinmen ek sadgi bhari gahrai thi.
uska baDa bhai bhi qarib qarib usi ke saman tha, halanki adhik taral, zyada zardi liye hue. shuruat mein mere liye farq kar pana mushkil tha. phir mujhe samajh aa gaya. jab kabhi main apne bhai se puchhunga, aisa nahin kaha jata to main janta tha ki ye vahi hai aur jab ye shabd kahe jate to yaqinan wo uska baDa bhai hota.
kai baar barson beet jate aur bil baDhte jate, par geslar bandhuon ki raqam ko koi baqaya nahin rakhta tha. aisa kabhi nahin hota ki us nile frem ke chashme vale butmekar ka kisi par do joDiyon se adhik ka paisa baqaya ho. uske paas jana ek sukhad ashvasan tha ki hum abhi bhi uske grahak hain.
uske paas baar baar jane ki zarurat nahin paDti thi, kyonki uske banaye jute bahut tikau hote the, unka koi sani nahin tha. ve jute aise hote, manon juton ki aatma unke bhitar sil di gai ho.
vahan jana kisi aam kharidari jaisa nahin tha. aisa nahin tha ki aap dukan mein ghuse aur bas kahne lagen ki “zara mujhe ye dikhao” ya “theek hai” kahkar uthe aur chal diye. yahan pure itminan ke saath jana hota tha, theek jaise kisi girjaghar mein pravesh karte hon, phir uski ekmaatr kaath ki kursi par baithkar intzaar karen, kyonki us vaqt vahan koi nahin hota. jaldi hi chamDe ki bhini gandh aur andhkar se bhari uupar ki kunenuma kothari se uska ya uske baDe bhai ka chehra niche ki or jhankta. ek bhari bharkam avaz aur lakDi ki sankri siDhiyon se chapplon ki chhap chhap sunai deti, phir wo aapke samne khaDa hota bina kot ke thoDa jhuka jhuka sa, chamDe ka epren pahne, astin uupar chaDhaye, ankh jhapajhpata manon, use juton ke kisi svapn se jagaya gaya ho ya jaise wo ullu ki tarah din ki roshni se chakit aur is vyavdhan se jhunjhlaya hua ho.
main usse puchhta, “kaise ho bhai gaislar? kya tum mere liye rusi chamDe ke ek joDi jute bana doge?”
baghair kuch kahe wo dukan ke bhitar chala jata aur main usi lakDi ki kursi par aram se baith uske peshe ki gandh apni sanson mein utarta rahta. kuch hi der baad wo lautta. uske duble, ubhri nason vale haath mein sunahre bhure rang ke chamDe ka tukDa hota. uski ankhen usi par gaDi rahtin aur wo kahta—“kitna sundar tukDa hai!” jab main bhi uski tarif kar chuka hota to wo puchhta—”apko jute kab tak chahiye?” aur main kahtah “oh bina kisi diqqat ke jitni jaldi tum banakar de sako” aur wo puchhta “kal dopahar?” ya agar uska baDa bhai hota to kahta—“main apne bhai se puchhunga!”
phir main dhime se kahta—“shukriya mistar geslar, chalta hoon, namaste!”
“namaste!” wo kahta par uski nazren haath mein thame chamDe par hi tiki rahtin. main uske darvaze ki taraf muDta, mujhe siDhiyan chaDhte uski chapplon ki avaz sunai deti, jo use juton ki usi khvabon ki duniya mein le jati, par yadi aisa koi naya juta banvana ho, jo usne abhi tak mere liye na banaya hota to wo jaise ek baDe anushthan mein lag jata. mujhe mere jute se vimukh kar der tak use haath mein pakDe rahta. lagatar sneh bhari parkhi nazron se niharta rahta, manon us ghaDi ko yaad karne ki koshish kar raha ho, jab jatan se unhen banaya gaya tha. uske haav bhaav mein ek ulahna bhi hota ki akhir kisne itne utkrisht namune ko is haal tak pahunchaya hai. phir kaghaz ke ek tukDe par mera pair rakhva kar wo pensil se do teen baar pair ke ghere ka nishan banata, uski adhir ungliyan mere anguthe aur pairon ko chhuti rahtin, manon puri tarah meri zarurat ki aatma mein paith gai hon.
main us din ko nahin bhool sakta, jab mainne yoon hi usse kah diya “bhai geslar aapko pata hai, aapne jo pichhla juta banakar diya, wo charamrata hai. ”
kuch kahe baghair usne pal bhar meri or dekha, manon ummid kar raha ho ki ya to main apna kathan vapas loon ya apni baat ka sabut doon.
“aisa to nahin hona chahiye tha. ” wo bola.
“haan, par aisa hua hai. ”
“kya tumne unhen bhigoya tha?”
“mere khayal se to nahin. ”
is par usne apni nazren jhuka li, manon unjuton ko yaad karne ki koshish kar raha ho, mujhko behad afsos hua ki mainne kyon itni gambhir baat kar di.
“jute vapas bhej do!” wo bola “main dekhunga. ”
apne charmarate juton ke prati ek daya bhaav mere bhitar umDa, main bakhubi kalpana kar sakta tha ki dukh bhari lambi aturta ke saath na jane kitni der wo juton par lagayega.
“kuchh jute”, usne dhime se kaha, “paidayshi kharab hote hain, yadi unhen theek na kar saka to aapke bil mein uske paise nahin joDunga. ”
ek baar, mahaj ek baar main uski dukan mein bedhyani se aise jute pahankar gaya jo jaldbazi mein kisi nami dukan se kharid liye the. usne bina koi chamDa dikhaye mera arDar le liya. mere juton ki ghatiya banavat par uski ankhen kis qadar tiki hui theen. main achchhi tarah mahsus kar raha tha. akhir usse raha na gaya aur wo bol hi paDa.
“ye mere banaye jute to nahin hain. ”
uske lahze mein na ghussa tha, na dukh aur na hi tiraskar ka bhaav, par kuch aisa zarur tha, jo lahu ko sard kar de. usne haath andar Dalkar ungli se bayen boot ko dabaya, jahan jute ko phaishnebal banane ke liye atirikt karigari ki gai thi, par vahan juta katta tha.
“yahan ye aapko katta hai na!” usne puchha, “ye jo baDi kampaniyan hoon inmen aatm samman nahin hota. ” phir manon uske dimagh wo zor zor se aur kaDvahat se bolne laga. ye pahli martaba tha, jab mainne use apne peshe ki paristhitiyon aur diqqton ke bare mein bolte suna.
“unhen sab kuch hasil ho jata hai” usne kaha, “ve kaam ke bute par nahin, parchar ke dam par sab hasil kar lete hain. ve hamare grahak chheen lete hain. yahi vajah hai ki aaj mere paas kaam nahin hai” uske jhurridar chehre par mainne wo sab dekha, jo kabhi nahin dekha tha. beithan taklif, kaDuvahat aur sangharsh—achanak uski laal daDhi mein safedi lahrane lagi thi.
apni or se main itna hi kar sakta tha ki use ve paristhitiyan batata, jinmen un ghatiya juton ko kharidne ke liye vivash ho gaya tha. par un kuch palon mein uske chehre aur svar ne mujhe itna gahre prabhavit kiya ki mainne kai joDi jute banane ka arDar de Dala aur uske baad ye to hona hi tha. ve jute jaise ghisne ka naam hi nahin lete the. qarib do barson tak mera antahakran uske paas jane se mujhe rokta raha.
akhir jab main gaya to ye dekhkar baDa achraj hua ki uski dukan ki do chhoti khiDakiyon mein se ek khiDki ke bahar kisi dusre ke naam ka koi borD laga hua tha—vah bhi jute banane vala hi tha—shahi parivaron ke jute. ab sirf ek khiDki par vahi jane pahchane jute rakhe the—ve alag se nahin lag rahe the. bhitar bhi, dukan ki wo kunanuma sankri kothari pahle se adhik andhkar aur gandh se bhar gai thi. is baar hamesha se kuch zyada hi vaqt laga. kafi der baad vahi chehra niche jhankta dikhai diya, phir chapplon ki vahi chhap chhap gunjne lagi, akhirkar wo mere samne tha, jang khaye toot purane chashme mein se jhankta hua. usne puchha—“ap mistar. . . hain na?”
“haan mistar geslar,” mainne kuch hichkichate hue kaha, “kya batlaun, aapke jute itne achchhe hain ki ghiste hi nahin, dekhiye ye jute bhi abhi chal rahe hain” aur mainne apna pair aage kar diya, usne unhen dekha.
“haan” wo bola, “par lagta hai logon ko ab tikau juton ki zarurat nahin rahi. ”
uski ulahna bhari najron aur avaz se chhutkara pane ke liye main jhat se bola—“yah tumne apni dukan ko kya kar Dala hai?”
wo shaant svar mein bola, “bahut manhaga paD raha tha. kya aapko koi jute chahiye?”
mainne teen joDi juton ka arDar diya. halanki mujhe zarurat sirf do ki hi thi aur jaldi se main vahan se nikal aaya. jane kyon mujhe laga ki uske zehn mein kahin ye baat hai ki use ya sach kahen to juton ke prati uske sammohan ke khilaf jo sajish chal rahi hai, usmen main bhi shamil hoon. yoon koi in chizon ki itni parvah nahin karta; par phir aisa hua ki main kai mahinon tak vahan nahin gaya. jab main gaya to mere man mein bas yahi khayal tha, “oh main bhala us buDhe ko kaise chhoD sakta hun—shayad is baar uske baDe bhai se pala paDe!”
main janta tha ki uska baDa bhai leshamatr bhi katu ya tiraskar bhare svar mein nahin bol sakta.
vaqii dukan mein jab mujhe baDe bhai ki akriti dikhai di, to mainne rahat mahsus ki. wo chamDe ke ek tukDe par kaam kar raha tha.
“helo mistar geslar kaise hain aap?” mainne puchha. wo utha aur ghaur se mujhe dekhne laga.
“main theek hoon,” usne dhime se kaha, “par mere baDe bhai ka dehant ho gaya. ”
tab mainne dekha ki ye to wo khud tha—kitna buDha aur kamzor ho gaya tha. isse pahle mainne kabhi use apne bhai ka zikr karte nahin suna tha. mujhe gahra dhakka laga, mainne ahista se kaha, “yah to bahut bura hua”
“haan,” wo bola, “vah nekadil insaan tha, achchhe jute banata tha, par ab wo nahin raha. ” phir usne apne sir par haath rakha, jahan se achanak uske baal itne jhaD ge the—uske abhage bhai ki hi tarah. mujhe laga shayad wo is tarah apne bhai ki mrityu ka karan bata raha tha. “bhai us dusri dukan khone ka gam nahin sah paya. khair, kya aapko jute chahiye?” usne haath mein pakDa chamDa uthakar dikhaya, “yah bahut khubsurat tukDa hai!”
mainne kai joDi juton ka arDar diya. bahut dinon baad mujhe ve jute mile jo behad shanadar the. unhen aise vaise nahin pahna ja sakta tha, uske kuch dinon baad main videsh chala gaya. lautkar landan aane mein ek baras se bhi zyada vaqt gujar gaya. lautne ke baad sabse pahle main apne usi buDhe mitr ki dukan par gaya. main jab gaya tha, wo saath baras ka tha. ab jise main dekh raha tha, wo pachhattar se bhi zyada ka dikh raha tha—bhukh se behal, thaka manda, bhaybhit aur is baar vakii usne mujhe nahin pahchana.
“oh, mistar geslar,” mainne kaha, man hi man main dukhi tha; “tumhare jute to vaqii kamal ke hain! dekho, main videsh mein pure samay yahi jute pahanta raha aur abhi bhi ye achchhe hain—zara bhi kharab nahin hue hain, hain na?”
kafi der wo juton ko dekhta raha—rashiyan chamDe se bane jute. uske chehre par ek chamak si laut aai. apna haath jute ke uupri bhaag mein Dalte hue wo bola—
“kya yahan se katte hain? mujhe yaad hai in juton ko banane mein mujhe kafi pareshani hui thi. ”
mainne use yaqin dilaya ki ve har tarah se sahi naap ke hain aur theek baithte hain.
“kya aapko jute banvane hain?” usne puchha, “main jald hi banakar dunga, yoon bhi mandi ka vaqt chal raha hai. ”
mainne kaha—“zarur, zarur! mujhe har tarah ke jute chahiye!”
“main bilkul ne mauDal ke jute banaunga! aapke pair thoDe baDe honge. ” aur bahut hi dhimi gati se usne mere pair ko tatola aur anguthe ko mahsus kiya. is pure vaqt sirf ek baar uupar dekhkar wo bola—
“kya mainne aapko bataya ki mere bhai ka dehant ho gaya hai?”
use dekhana behad yatanadayi tha, wo bahut kamzor ho gaya tha, bahar aakar mainne rahat mahsus ki.
main un juton ki baat bhool hi chuka tha ki achanak ek shaam ve aa pahunche. jab mainne parsal khola to ek ke baad ek, chaar joDi jute nikle. akar, namune, chamDe ki kvaliti, phiting har lihaz se ab tak banaye ge juton se behtar aur lajavab. aam mauke par pahne jane vale ek boot mein mujhe uska bil mila. usne hamesha ke jitna hi daam lagaya tha, par mujhe thoDa jhatka laga, kyonki wo kabhi timahi ki akhiri tarikh se pahle bil nahin bhejta tha. main bhagte hue niche gaya, chek banaya aur fauran post kar diya.
hafte bhar baad main us raste se guzar raha tha to socha use jakar bataun ki uske jute kitne shanadar aur sahi naap ke bane hain, par jab main vahan pahuncha, jahan uski dukan thi to uska naam nadarad tha. khiDki par ab bhi vahi salikedar pamp shu rakhe the—asli chamDe aur kapDe ki uupri tah vale.
vichlit sa main bhitar gaya, donon dukanon ko dobara ek hi mein mila diya gaya tha. ek angrez yuvak mujhe mila.
“nahin sar,” wo bola, “nahin, mistar geslar nahin hain, par hum apaki har tarah se seva kar sakte hain, ye dukan hamne kharid li hai. aapne bahar hamara borD dekh hi liya hoga. hum nami girami logon ke liye jute banate hain. ”
“haan, haan,” mainne kaha, “par mistar geslar?”
“oh!” wo bola, “unka dehant ho gaya. ”
“kya dehant ho gaya! par mujhe unhonne pichhle hafte hi ye jute bheje hain. ”
“oh!” wo bola, “bechara buDha bhookh se hi mar gaya. ”
“bhookh se dhimi mrityu Dauktar yahi kahte hain! aap jante hain, wo din raat bhukha rahta tha aur kaam karta tha. apne alava kisi ko bhi juton par haath lagane nahin deta tha. jab use arDar milta to use pura karne mein raat din ek kar deta. ab log bhala kyon intzaar karte. uske sabhi grahak chhoot ge. wo vahan baitha lagatar kaam karta rahta. wo kahta—pure landan mein usse behtar jute koi nahin banata! par aap hi sochiye, pratispardha kitni baDh gai hai! usne koi parchar bhi nahin kiya, uske paas behtarin chamDa tha, par wo akele hi sara kaam karta tha, khair! chhoDiye, is tarah ke adarsh mein kya rakha hai?”
“par bhookh se mar jana!”
“yah thoDa atishyoktipurn lag sakta hai, par main janta hoon din raat apni akhiri saans tak wo juton par laga raha. ” use dekhta rahta tha, use khane pine ki bhi sudh nahin rahti thi. jeb mein ek kauDi tak na thi, sab kuch girvi chaDh gaya tha. par usne chamDa nahin chhoDa, jane kaise wo itne din jivit raha. wo lagatar faqe karta raha. wo ek ajib insaan tha, par haan, wo jute bahut baDhiya banata tha. ”
“haan” main bola, “vah baDhiya jute banata tha!”
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 39)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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