“यह झाडू सीधी किसने खड़ी की? बीजी ने त्योरी चढ़ाकर विकट मुद्रा में पूछा। जवाब न मिलने पर उन्होंने मीरा को धमकाया, इस तरह फिर कभी झाडू की तो...”
वे कहना चाहती थीं कि मीरा को काम से निकाल देंगी पर उन्हें पता था नौकरानी कितनी मुश्किल से मिलती है। फिर मीरा तो वैसे भी हमेशा छोडू-छोडूँ मुद्रा में रहती थी।
'मैंने नहीं रखी, मीरा ने ऐंठकर जवाब दिया।
'क्यों रखी थी! तुझे इतना नहीं मालूम कि झाडू खड़ी रखने से घर में दलिद्दर आता है, क़र्ज़ बढ़ता है, रोग जड़ पकड़ लेता है।
“यह तो मैंने कभी नहीं सुना।
“जाने कौन गाँव की है तू। माँ के घर से कुछ भी तो सीखकर नहीं आई। काके का काम वैसे ही ढीला चल रहा है, तू और झाडू खड़ी रख, यही सीख है तेरी!
मेरा ख़याल है झाडू ग़ुसलख़ाने के बीचोबीच भीगती हुई, पसरी हुई छोड़ देने से दलिद्दर आ सकता है। तीलियाँ गल जाती हैं, रस्सी ढीली पड़ जाती है और गंदी भी कितनी लगती है।
“आज तो मैंने माफ़ कर दिया, फिर भी कभी झाडू खड़ी न मिले, समझी!
इस बात में कोई तुक नहीं है बीजी, झाडू कैसे भी रखी जा सकती है।
बीजी झुंझला गई। कैसी जाहिल और ज़िद्दी लड़की ले आया है काका। लाख बार कहा था इस कुदेसिन से ब्याह न कर, पर नहीं, उसके सिर पर तो भूत सवार था।
शिखा को हँसी आ गई। बीजी अपने को बहुत सही और समझदार मानती हैं, जबकि अकसर उनकी बातों में कोई तर्क नहीं होता।
उसे हँसते देखकर बीजी का ख़ून खौला गया।
इसे तो बिलकुल अक़ल नहीं, उन्होंने मीरा से कहा।
बीजी चाय पिएँगी? शिखा ने पूछा।
बीजी उसकी तरफ़ पीठ करके बैठी रहीं। शिखा की बात का जवाब देना वे ज़रूरी नहीं समझतीं। वैसे भी उनका ख़याल था कि शिखा के स्वर में ख़ुशामद की कमी रहती है।
शिखा ने चाय का गिलास उनके आगे रखा तो वे भड़क गईं, वैसे ही मेरा क़ब्ज़ के मारे बुरा हाल है, तू चाय पिला-पिलाकर मुझे मार डालना चाहती है।
शिखा ने और बहस करना स्थगित किया और चाय का गिलास लेकर कमरे में चली गई।
शिखा का शौहर, कपिल अपने घरवालों से इन अर्थों से भिन्न था कि आमतौर पर उसका सोचने का एक मौलिक तरीक़ा था। शादी के ख़याल से जब उसने अपने आस-पास देखा, तो कॉलेज में उसे अपने से दो साल जूनियर बीएससी में पढ़ती शिखा अच्छी लगी थी। सबसे पहली बात यह थी कि वह उन सब औरतों से एकदम अलग थी जो उसने परिवार और अपने परिवेश में देखी थीं। शिखा का पूरा नाम दीपशिखा था लेकिन कोई नाम पूछता तो वह महज नाम नहीं बताती, मेरे माता-पिता ने मेरा नाम ग़लत रखा है। मैं दीपशिखा नहीं, अग्निशिखा हूँ। वह कहती।
अग्निशिखा की तरह ही वह हमेशा प्रज्वलित रहती, कभी किसी बात पर, कभी किसी सवाल पर। तब उसकी तेज़ी देखने लायक़ होती। उसकी वक्तृता से प्रभावित होकर कपिल ने सोचा वह शिखा को पाकर रहेगा। पढ़ाई के साथ-साथ वह पिता के व्यवसाय में भी लगा था, इसलिए शादी से पहले नौकरी ढूँढ़ने की उसे कोई ज़रूरत नहीं थी। बिना किसी आडंबर, दहेज या नख़रे के एक सादे समारोह में वे विवाह-सूत्र में बंध गए। शिखा उसकी आत्मनिर्भरता, ख़ूबसूरती और स्वतंत्र सोच से प्रभावित हुई। तब उसे यह नहीं पता था कि प्रेम और विवाह दो अलग-अलग संसार हैं। एक में भावना और दूसरे में व्यवहार की ज़रूरत होती है। दुनिया भर में विवाहित औरतों का केवल एक स्वरूप होता है। उन्हें सहमति-प्रधान जीवन जीना होता है। अपने घर की कारा में वे क़ैद रहती हैं। हर एक की दिनचर्या में अपनी-अपनी तरह का समरसता रहती है। हरेक के चेहरे पर अपनी-अपनी तरह की ऊब। हर घर का एक ढर्रा है जिसमें आपको फिट होना है। कुछ औरतें इस ऊब पर श्रृंगार का मुलम्मा चढ़ा लेती हैं पर उनके श्रृंगार में भी एकरसता होती है। शिखा अंदाज़ लगाती, सामने वाले घर की नीता ने आज कौन-सी साड़ी पहनी होगी और प्रायः उसका अंदाज़ ठीक निकलता। यही हाल लिपिस्टक के रंग और बालों के स्टाइल का था। दुःख की बात यही थी कि अधिकांश औरतों को इस ऊब और क़ैद की कोई चेतना नहीं थी। वे रोज़ सुबह साढ़े नौ बजे सासों, नौकरों, नौकरानियों, बच्चों, माली और कुत्तों के साथ घरों में छोड़ दी जातीं, अपना दिन तमाम करने के लिए। वही लंच पर पति का इंतिज़ार, टी.वी. पर बेमतलब कार्यक्रमों का देखना और घर -भर के नाश्ते, खाने— नखरों की नोक पलक सँवारना। चिकनी महिला पत्रिकाओं के पन्ने पलटना, दोपहर को सोना, सजे हुए घर को कुछ और सजाना, सास की जी-हुज़ूरी करना और अंत में रात को एक जड़ नींद में लुढ़क जाना।
कपिल के घर आते ही बीजी ने उसके सामने शिकायत दर्ज की, तेरी बीवी तो अपने को बड़ी चतुर समझती है। अपने आगे किसी की चलने नहीं देती। खड़ी-खड़ी जबाब टिकाती है।”
कपिल को ग़ुस्सा आया। शिखा को एक अच्छी पत्नी की तरह चुप रहना चाहिए, ख़ासतौर पर माँ के आगे। इसने घर को कॉलेज का डिबेटिंग मंच समझ रखा है और माँ को प्रतिपक्ष का वक्ता। उसने कहा, मैं उसे समझा दूँगा, आगे से बहस नहीं करेगी।
उलटी खोपड़ी की है बिलकुल। वह समझ ही नहीं सकती'' माँ ने मुँह बिचकाया।
रात, उसने कमरे में शिखा से कहा, तुम माँ से क्यों उलझती रहती हो दिन-भर!
“इस बात का विलोम भी उतना ही सच है।
“हम विलोम-अनुलोम में बात नहीं कर रहे हैं, एक संबंध है जिसकी इज़्ज़त तुम्हें करनी होगी।
ग़लत बातों की भी!
माँ की कोई बात ग़लत नहीं होती।
“कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं हो सकता।”
कपिल तैश में आ गया, तुमने माँ को इम्परफ़ेक्ट कहा। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। तुम हमेशा ज़ियादा बोल जाती हो और ग़लत भी।
तुम मेरी आवाज़ बंद करना चाहते हो।
मैं एक शांत और सुरुचिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूँ।
शिखा अंदर तक जल गई इस उत्तर से क्योंकि यह उत्तर हज़ार नए प्रश्नों को जन्म दे रहा था। उसने प्रश्नों को होठों के क्लिप से दबाया और सोचा, अब वह बिलकुल नहीं बोलेगी, यहाँ तक कि ये सब उसकी आवाज़ को तरस जाएँगे।
लेकिन यह निश्चय उससे निभ न पाता। बहुत जल्द कोई-न-कोई ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता कि ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती और एक बार फिर बदतमीज़ और बदजुबान कहलाई जाती। तब शिखा बेहद तनाव में आ जाती। उसे लगता घर में जैसे टॉयलेट होता है ऐसे एक टॉकलेट भी होना चाहिए जहाँ खड़े होकर वह अपना ग़ुबार निकला ले, जंजीर खींचकर बातें बहा दे और एक सभ्य शांत मुद्रा से बाहर आ जाए। उसे यह भी बड़ा अजीब लगता है कि वह लगातार ऐसे लोगों से मुख़ातिब है जिन्हें इसके इस भारी-भरकम शब्दकोश की ज़रूरत ही नहीं है। घर को सुचारू रूप से चलाने के लिए सिर्फ़ दो शब्दों की दरकार थी-जी और हाँजी।
“कल छोले बनेंगे?
जी छोले बनेंगे।
पाजामों के नाड़ें बदले जाने चाहिए।”
हाँ जी, पाजामों के नाड़े बदले जाने चाहिए।
उसने अपने जैसी कई स्त्रियों से बात करके देखा, सबमें अपने घरबार के लिए बेहद संतोष और गर्व था।
हमारे तो ये ऐसे हैं। हमारे तो ये वैसे हैं जैसा कोई नहीं हो सकता।
हमारे बच्चे तो बिलकुल लव-कुश की जोड़ी है। हमारा बेटा तो पढ़ने में इतना तेज़ है कि पूछो ही मत। शिखा को लगता उसी में शायद कोई कमी है जो वह इस तरह संतोष में लबालब भरकर मेरा परिवार महान के राग नहीं अलाप सकती।
रातों को बिस्तर में पड़े-पड़े वह देर तक सोती नहीं, सोचती रहती, उसकी नियति क्या है। न जाने कब कैसे एक फुलटाइम गृहिणी बनती गई जबकि उसने ज़िंदगी की एक बिलकुल अगल तस्वीर देखी थी। कितना अजीब होता है कि दो लोग बिलकुल अनोखे, अकेले अंदाज़ में इसलिए नज़दीक आएँ कि वे एक-दूसरे की मौलिकता की क़द्र करते हों, महज़ इसलिए टकराएँ क्योंकि अब उन्हें मौलिकता बरदाश्त नहीं।
दरअसल वे दोनों अपने-अपने खलनायक के हाथों मार खा रहे थे। यह खलनायक था रूटीन जो जीवन की ख़ूबसूरती को दीमक की तरह चाट रहा था। कपिल चाहता था कि शिखा एक अनुकूल पत्नी की तरह रूटीन का बड़ा हिस्सा अपने ऊपर ओढ़ ले और उसे अपने मौलिक सोच-विचार के लिए स्वतंत्र छोड़ दे। शिखा की भी यही उम्मीद थी। उनकी ज़िंदगी का रूटीन या ढर्रा उनसे कहीं ज़ियादा शक्तिशाली था। अलस्सुबह वह कॉलबेल की पहली कर्कश ध्वनि के साथ जग जाता और रात बारह के टन-टन घंटे के साथ सोता। बीजी घर में इस रूटीन की चौकीदार तैनात थीं। घर की दिनचर्या में ज़रा-सी भी देर-सबेर उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। शिखा जैसे-तैसे रोज़ के काम निपटाती और जब समस्त घर सो जाता, हाथ-मुँह धो, कपड़े बदल एक बार फिर अपना दिन शुरू करने की कोशिश करती। उसे सोने में काफ़ी देर हो जाती और अगली सुबह उठने में भी। उसके सभी आगमी काम थोड़े पिछड़ जाते। बीजी का हिदायतनामा शुरू हो जाता, यह आधी-आधी रात तक बत्ती जलाकर क्या करती रहती है तू। ऐसे कहीं घर चलता है! ससुर 194 में सीखा हुआ मुहावरा टिका देते, “अर्ली टु बेड एंड अर्ली टु राइज़ वग़ैरह-वग़ैरह। हिदायतें सही होती पर शिखा को बुरी लगतीं। वह बेमन से झाडू-झाड़न पोचे का रोज़नामचा हाथ में उठा लेती जबकि उसका दिमाग़ किताब, काग़ज़ और कलम की माँग करता रहता। कभी-कभी छुट्टी के दिन कपिल घर के कामों में उसकी मदद करता। बीजी उसे टोक देतीं, ये औरतों वाले काम करता तू अच्छा लगता है। तू तो बिलकुल जोरू का ग़ुलाम हो गया है।'
घर में एक सहज और सघन संबंध को लगातार ठोंक-पीठकर यांत्रिक बनाया जा रहा था। एकांत में जो भी तन्मयता पति-पत्नी के बीच जन्म लेती, दिन के उजाले में उसकी गर्दन मरोड़ दी जाती। बीजी को संतोष था कि वे परिवार का संचालन बढ़िया कर रही हैं। वे बेटे से कहतीं, “तू फ़िकर मत कर। थोड़े दिनों में मैं इसे ऐन पटरी पर ले आऊँगी।”
पटरी पर शिखा तब भी नहीं आई अब दो बच्ची की माँ हो गई। बस इतना भर हुआ कि उसने अपने सभी सवालों का रुख़ अन्य लोगों से हटाकर कपिल और बच्चों की तरफ़ कर लिया। बच्चे अभी कई सवालों के जवाब देने लायक़ समझदार नहीं हुए थे, बल्कि लाड-प्यार में दोनों के अंदर एक तर्कातीत तुनकमिजाज़ी आ बैठी थी। स्कूल से आकर वे दिन-भर वीडियो देखते, गाने-सुनते, आपस में मार-पीट करते और जैसे-तैसे अपना होमवर्क पार लगाकर सो जाते। कपिल अपने व्यवसाय से बचा हुआ समय अख़बारों, पत्रिकाओं और दोस्तों में बिताता। अकेली शिखा घर की कारा में क़ैद घटनाहीन दिन बिताती रहती। वह जीवन के पिछले दस सालों और अगले बीस सालों पर नज़र डालती और घबरा जाती। क्या उसे वापस अग्नि शिखा की बजाय दीपशिखा बनकर ही रहना होगा, मद्धिम और मधुर-मधुर जलना होगा। वह क्या करे अगर उसके अंदर तेल की जगह लावा भरा पड़ा है।
उसे रोज़ लगता कि उन्हें अपना जीवन नए सिरे से शुरू करना चाहिए। इसी उद्देश्य से उसने कपिल से कहा, क्यों नहीं हम दो-चार दिन को कहीं घूमने चलें।
“कहाँ?
“कहीं भी। जैसे जयपुर या आगरा।”
वहाँ हमें कौन जानता है। फ़िज़ूल में एक नई जगह जाकर फँसना।
“वहाँ देखने को बहुत कुछ है। हम घूमेंगे, कुछ नई और नायाब चीज़ें ख़रीदेंगे, देखना, एकदम फ़्रेश हो जाएँगे।
ऐसी सब चीज़ें यहाँ भी मिलती हैं, सारी दुनिया का दर्शन जब टी.वी. पर हो जाता है तो वहाँ जाने में क्या तुक है?
“तुक के सहारे दिन कब तक बिताएँगे?
बच्चों ने इस बात का मज़ाक बना लिया “कल को तुम कहोगी, अंडमान चलो, घूमेंगे।”
“इसका मतलब अब हम कहीं नहीं जाएँगे, यहीं पड़े-पड़े एक दिन दरख़्त बन जाएँगे।
तुम अपने दिमाग़ का इलाज कराओ, मुझे लगता है तुम्हारे हॉरमोन बदल रहे हैं।
मुझे लगता है, तुम्हारे भी हॉरमोन बदल रहे हैं।
तुम्हारे अंदर बराबरी का बोलना एक रोग बनता जा रहा है। इन ऊलजलूल बातों में क्या रखा है?
शिखा याद करती वे प्यार के दिन जब उसकी कोई बात बेतुकी नहीं थी। एक इंसान को प्रेमी की तरह जानना और पति की तरह पाना कितना अलग था। जिसे उसने निराला समझा वहीं कितना औसत निकला। वह नहीं चाहता जीवन के ढर्रे में कोई नयापन या प्रयोग। उसे एक परंपरा चाहिए जी-हुज़ूरी की। उसे एक गाँधारी चाहिए जो जानबूझकर न सिर्फ़ अंधी हो बल्कि गूँगी और बहरी भी।
बच्चों ने बात दादी तक पहुँचा दी। बीजी एकदम भड़क गईं, “अपना काम-धंधा छोड़ कर काका जयपुर जाएगा, क्यों, बीवी को सैर कराने। एक हम थे, कभी घर से बाहर पैर नहीं रखा।
“और अब जो आप तीर्थ के बहाने घूमने जाती हैं वह? शिखा से नहीं रहा गया तीरथ को तू घूमना कहती है! इतनी ख़राब जुबान पाई है तूने, कैसे गुज़ारा होगा तेरी गृहस्थी का!
“काश गोदरेज कम्पनी का कोई ताला होता मुँह पर लगानेवाला, तो ये लोग उसे मेरे मुँह पर जड़कर चाबी सेफ़ में डाल देते, शिखा ने सोचा, “सच ऐसे कब तक चलेगा जीवन।
बच्चे शहजादों की तरह बर्ताव करते। नाश्ता करने के बाद जूठी प्लेटें कमरे में पड़ी रहतीं मेज़ पर। शिखा चिल्लाती, यहाँ कोई रूम सर्विस नहीं चल रही है, जाओ, अपने जूठे बर्तन रसोई में रखकर आओ।
“नहीं रखेंगे, क्या कर लोगी, बड़ा बेटा हिमाक़त से कहता।
न चाहते हुए भी शिखा मार बैठती उसे।
एक दिन बेटे ने पलटकर उसे मार दिया। हल्के हाथ से नहीं, भरपूर घूँसा मुँह पर। होठ के अंदर एक तरफ़ का माँस बिलकुल चिथड़ा हो गया। शिखा सन्न रह गई। न केवल उसके शब्द बंद हो गए, जबड़ा भी जाम हो गया। बर्तन बेटे ने फिर भी नहीं उठाए, वे दोपहर तक कमरे में पड़े रहे। घर भर में किसी ने बेटे को ग़लत नहीं कहा।
बीजी एक दर्शक की तरह वारदात देखती रहीं। उन्होंने कहा, हमेशा ग़लत बात बोलती हो, इसी से दूसरे का ख़ून खौलता है। शुरू से जैसी तूने ट्रेनिंग दी, वैसा वह बना है। ये तो बचपन से सिखानेवाली बातें हैं। फिर तू बर्तन उठा देती तो क्या घिस जाता।
उन्हीं के शब्द शिखा के मुँह से निकल गए, “अगर ये रख देता तो इसका क्या घिस जाता।
“बदतमीज़ कहीं की, बड़ों से बात करने की अक़ल नहीं है। बीजी ने कहा।
ससुर ने सारी घटना सुनकर फिर 194 का एक मुहावरा टिका दिया, एज यू सो, सो शैल यू रीप
कपिल ने कहा, पहले सिर्फ़ मुझे सताती थीं, अब बच्चों का भी शिकार कर रही हो।
शिकार तो मैं हूँ, तुम सब शिकारी हो, शिखा कहना चाहती थी पर जबड़ा एकदम जाम था। होंठ अब तक सूज गया था। शिखा ने पाया, परिवार में परिवार की शर्तों पर रहते-रहते न सिर्फ़ वह अपनी शक्ल खो बैठी है वरन अभिव्यक्ति भी। उसे लगा वह ठूस ले अपने मुँह में कपड़ा या सी डाले इसे लोहे के तार से। उसके शरीर से कहीं कोई आवाज़ न निकले। बस, उसके हाथ-पाँव परिवार के काम आते रहें। न निकलें इस वक़्त मुँह से बोल लेकिन शब्द उसके अंदर खलबलाते रहेंगे। घर के लोग उसके समस्त रंध्र बंद कर दें फिर भी ये शब्द अंदर पड़े रहेंगे, खौलते और खदकते। जब मृत्यु के बाद उसकी चीर-फाड़ होगी, तो ये शब्द निकल भागेंगे शरीर से और जीती-जागती इबारत बन जाएँगे। उसके फेफड़ों से, गले की नली से, अंतड़ियों से चिपके हुए ये शब्द बाहर आकर तीखे, नुकीले, कँटीले, ज़हरीले असहमति के अग्रलेख बनकर छा जाएँगे घर भर पर। अगर वह इन्हें लिख दे तो एक बहुत तेज़ एसिड का आविष्कार हो जाए। फिलहाल उसका मुँह सूजा हुआ है, पर मुँह बंद रखना चुप रहने की शर्त नहीं है। ये शब्द उसकी लड़ाई लड़ते रहेंगे।
“yah jhaDu sidhi kisne khaDi kee? biji ne tyori chaDhakar wicket mudra mein puchha jawab na milne par unhonne mera ko dhamkaya, is tarah phir kabhi jhaDu ki to ”
we kahna chahti theen ki mera ko kaam se nikal dengi par unhen pata tha naukarani kitni mushkil se milti hai phir mera to waise bhi hamesha chhoDu chhoDun mudra mein rahti thi
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“yah to mainne kabhi nahin suna
“jane kaun ganw ki hai tu man ke ghar se kuch bhi to sikhkar nahin i kake ka kaam waise hi Dhila chal raha hai, tu aur jhaDu khaDi rakh, yahi seekh hai teri!
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“aj to mainne maf kar diya, phir bhi kabhi jhaDu khaDi na mile, samjhi!
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biji jhunjhla gai kaisi jahil aur ziddi laDki le aaya hai kaka lakh bar kaha tha is kudesin se byah na kar, par nahin, uske sir par to bhoot sawar tha
shikha ko hansi aa gai biji apne ko bahut sahi aur samajhdar manti hain, jabki aksar unki baton mein koi tark nahin hota
use hanste dekhkar biji ka khoon khaula gaya
ise to bilkul aqal nahin, unhonne mera se kaha
biji chay piyengi? shikha ne puchha
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shikha ne chay ka gilas unke aage rakha to we bhaDak gain, waise hi mera qabz ke mare bura haal hai, tu chay pila pilakar mujhe mar Dalna chahti hai
shikha ne aur bahs karna sthagit kiya aur chay ka gilas lekar kamre mein chali gai
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“is baat ka wilom bhi utna hi sach hai
“ham wilom anulom mein baat nahin kar rahe hain, ek sambandh hai jiski izzat tumhein karni hogi
ghalat baton ki bhee!
man ki koi baat ghalat nahin hoti
“koi bhi insan parphekt nahin ho sakta ”
kapil taish mein aa gaya, tumne man ko imparfekt kaha tumhein sharm aani chahiye tum hamesha ziyada bol jati ho aur ghalat bhi
tum meri awaz band karna chahte ho
main ek shant aur suruchipurn jiwan jina chahta hoon
shikha andar tak jal gai is uttar se kyonki ye uttar hazar nae prashnon ko janm de raha tha usne prashnon ko hothon ke klip se dabaya aur socha, ab wo bilkul nahin bolegi, yahan tak ki ye sab uski awaz ko taras jayenge
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“kal chhole banenge?
ji chhole banenge
pajamon ke naDen badle jane chahiye ”
han ji, pajamon ke naDe badle jane chahiye
usne apne jaisi kai striyon se baat karke dekha, sabmen apne gharbar ke liye behad santosh aur garw tha
hamare to ye aise hain hamare to ye waise hain jaisa koi nahin ho sakta
hamare bachche to bilkul lawa kush ki joDi hai hamara beta to paDhne mein itna tez hai ki puchho hi mat shikha ko lagta usi mein shayad koi kami hai jo wo is tarah santosh mein labalb bharkar mera pariwar mahan ke rag nahin alap sakti
raton ko bistar mein paDe paDe wo der tak soti nahin, sochti rahti, uski niyti kya hai na jane kab kaise ek phultaim grihinai banti gai jabki usne zindagi ki ek bilkul agal taswir dekhi thi kitna ajib hota hai ki do log bilkul anokhe, akele andaz mein isliye nazdik ayen ki we ek dusre ki maulikta ki qadr karte hon, mahz isliye takrayen kyonki ab unhen maulikta bardasht nahin
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ghar mein ek sahj aur saghan sambandh ko lagatar thonk pithkar yantrik banaya ja raha tha ekant mein jo bhi tanmayta pati patni ke beech janm leti, din ke ujale mein uski gardan maroD di jati biji ko santosh tha ki we pariwar ka sanchalan baDhiya kar rahi hain we bete se kahtin, “tu fikar mat kar thoDe dinon mein main ise ain patri par le aungi ”
patri par shikha tab bhi nahin i ab do bachchi ki man ho gai bus itna bhar hua ki usne apne sabhi sawalon ka rukh any logon se hatakar kapil aur bachchon ki taraf kar liya bachche abhi kai sawalon ke jawab dene layaq samajhdar nahin hue the, balki laD pyar mein donon ke andar ek tarkatit tunakamijazi aa baithi thi school se aakar we din bhar wideo dekhte, gane sunte, aapas mein mar peet karte aur jaise taise apna homework par lagakar so jate kapil apne wyawsay se bacha hua samay akhbaron, patrikaon aur doston mein bitata akeli shikha ghar ki kara mein qaid ghatnahin din bitati rahti wo jiwan ke pichhle das salon aur agle bees salon par nazar Dalti aur ghabra jati kya use wapas agni shikha ki bajay dipashikha bankar hi rahna hoga, maddhim aur madhur madhur jalna hoga wo kya kare agar uske andar tel ki jagah lawa bhara paDa hai
use roz lagta ki unhen apna jiwan nae sire se shuru karna chahiye isi uddeshy se usne kapil se kaha, kyon nahin hum do chaar din ko kahin ghumne chalen
“kahan?
“kahin bhi jaise jaypur ya agara ”
wahan hamein kaun janta hai fizul mein ek nai jagah jakar phansna
“wahan dekhne ko bahut kuch hai hum ghumenge, kuch nai aur nayab chizen kharidenge, dekhana, ekdam fresh ho jayenge
aisi sab chizen yahan bhi milti hain, sari duniya ka darshan jab t wi par ho jata hai to wahan jane mein kya tuk hai?
“tuk ke sahare din kab tak bitayenge?
bachchon ne is baat ka mazak bana liya “kal ko tum kahogi, anDman chalo, ghumenge ”
“iska matlab ab hum kahin nahin jayenge, yahin paDe paDe ek din darakht ban jayenge
tum apne dimagh ka ilaj karao, mujhe lagta hai tumhare haurmon badal rahe hain
mujhe lagta hai, tumhare bhi haurmon badal rahe hain
tumhare andar barabari ka bolna ek rog banta ja raha hai in ulajlul baton mein kya rakha hai?
shikha yaad karti we pyar ke din jab uski koi baat betuki nahin thi ek insan ko premi ki tarah janna aur pati ki tarah pana kitna alag tha jise usne nirala samjha wahin kitna ausat nikla wo nahin chahta jiwan ke Dharre mein koi nayapan ya prayog use ek parampara chahiye ji huzuri ki use ek gandhari chahiye jo janbujhkar na sirf andhi ho balki gungi aur bahri bhi
bachchon ne baat dadi tak pahuncha di biji ekdam bhaDak gain, “apna kaam dhandha chhoD kar kaka jaypur jayega, kyon, biwi ko sair karane ek hum the, kabhi ghar se bahar pair nahin rakha
“aur ab jo aap teerth ke bahane ghumne jati hain wah? shikha se nahin raha gaya tirath ko tu ghumna kahti hai! itni kharab juban pai hai tune, kaise guzara hoga teri grihasthi ka!
“kash godrej kampni ka koi tala hota munh par laganewala, to ye log use mere munh par jaDkar chabi sef mein Dal dete, shikha ne socha, “sach aise kab tak chalega jiwan
bachche shahjadon ki tarah bartaw karte nashta karne ke baad juthi pleten kamre mein paDi rahtin mez par shikha chillati, yahan koi room serwice nahin chal rahi hai, jao, apne juthe bartan rasoi mein rakhkar aao
“nahin rakhenge, kya kar logi, baDa beta himaqat se kahta
na chahte hue bhi shikha mar baithti use
ek din bete ne palatkar use mar diya halke hath se nahin, bharpur ghunsa munh par hoth ke andar ek taraf ka mans bilkul chithDa ho gaya shikha sann rah gai na kewal uske shabd band ho gaye, jabDa bhi jam ho gaya bartan bete ne phir bhi nahin uthaye, we dopahar tak kamre mein paDe rahe ghar bhar mein kisi ne bete ko ghalat nahin kaha
biji ek darshak ki tarah wardat dekhti rahin unhonne kaha, hamesha ghalat baat bolti ho, isi se dusre ka khoon khaulta hai shuru se jaisi tune trening di, waisa wo bana hai ye to bachpan se sikhanewali baten hain phir tu bartan utha deti to kya ghis jata
unhin ke shabd shikha ke munh se nikal gaye, “agar ye rakh deta to iska kya ghis jata
“badtamiz kahin ki, baDon se baat karne ki aqal nahin hai biji ne kaha
sasur ne sari ghatna sunkar phir 194 ka ek muhawara tika diya, age yu so, so shail yu reep
kapil ne kaha, pahle sirf mujhe satati theen, ab bachchon ka bhi shikar kar rahi ho
shikar to main hoon, tum sab shikari ho, shikha kahna chahti thi par jabDa ekdam jam tha honth ab tak sooj gaya tha shikha ne paya, pariwar mein pariwar ki sharton par rahte rahte na sirf wo apni shakl kho baithi hai waran abhiwyakti bhi use laga wo thoos le apne munh mein kapDa ya si Dale ise lohe ke tar se uske sharir se kahin koi awaz na nikle bus, uske hath panw pariwar ke kaam aate rahen na niklen is waqt munh se bol lekin shabd uske andar khalablate rahenge ghar ke log uske samast randhr band kar den phir bhi ye shabd andar paDe rahenge, khaulte aur khadakte jab mirtyu ke baad uski cheer phaD hogi, to ye shabd nikal bhagenge sharir se aur jiti jagti ibarat ban jayenge uske phephDon se, gale ki nali se, antaDiyon se chipke hue ye shabd bahar aakar tikhe, nukile, kantile, zahrile ashamti ke agralekh bankar chha jayenge ghar bhar par agar wo inhen likh de to ek bahut tez esiD ka awishkar ho jaye philhal uska munh suja hua hai, par munh band rakhna chup rahne ki shart nahin hai ye shabd uski laDai laDte rahenge
“yah jhaDu sidhi kisne khaDi kee? biji ne tyori chaDhakar wicket mudra mein puchha jawab na milne par unhonne mera ko dhamkaya, is tarah phir kabhi jhaDu ki to ”
we kahna chahti theen ki mera ko kaam se nikal dengi par unhen pata tha naukarani kitni mushkil se milti hai phir mera to waise bhi hamesha chhoDu chhoDun mudra mein rahti thi
mainne nahin rakhi, mera ne ainthkar jawab diya
kyon rakhi thee! tujhe itna nahin malum ki jhaDu khaDi rakhne se ghar mein daliddar aata hai, qarz baDhta hai, rog jaD pakaD leta hai
“yah to mainne kabhi nahin suna
“jane kaun ganw ki hai tu man ke ghar se kuch bhi to sikhkar nahin i kake ka kaam waise hi Dhila chal raha hai, tu aur jhaDu khaDi rakh, yahi seekh hai teri!
mera khayal hai jhaDu ghusalkhane ke bichobich bhigti hui, pasri hui chhoD dene se daliddar aa sakta hai tiliyan gal jati hain, rassi Dhili paD jati hai aur gandi bhi kitni lagti hai
“aj to mainne maf kar diya, phir bhi kabhi jhaDu khaDi na mile, samjhi!
is baat mein koi tuk nahin hai biji, jhaDu kaise bhi rakhi ja sakti hai
biji jhunjhla gai kaisi jahil aur ziddi laDki le aaya hai kaka lakh bar kaha tha is kudesin se byah na kar, par nahin, uske sir par to bhoot sawar tha
shikha ko hansi aa gai biji apne ko bahut sahi aur samajhdar manti hain, jabki aksar unki baton mein koi tark nahin hota
use hanste dekhkar biji ka khoon khaula gaya
ise to bilkul aqal nahin, unhonne mera se kaha
biji chay piyengi? shikha ne puchha
biji uski taraf peeth karke baithi rahin shikha ki baat ka jawab dena we zaruri nahin samajhtin waise bhi unka khayal tha ki shikha ke swar mein khushamad ki kami rahti hai
shikha ne chay ka gilas unke aage rakha to we bhaDak gain, waise hi mera qabz ke mare bura haal hai, tu chay pila pilakar mujhe mar Dalna chahti hai
shikha ne aur bahs karna sthagit kiya aur chay ka gilas lekar kamre mein chali gai
shikha ka shauhar, kapil apne gharwalon se in arthon se bhinn tha ki amtaur par uska sochne ka ek maulik tariqa tha shadi ke khayal se jab usne apne aas pas dekha, to college mein use apne se do sal juniyar biyessi mein paDhti shikha achchhi lagi thi sabse pahli baat ye thi ki wo un sab aurton se ekdam alag thi jo usne pariwar aur apne pariwesh mein dekhi theen shikha ka pura nam dipashikha tha lekin koi nam puchhta to wo mahaj nam nahin batati, mere mata pita ne mera nam ghalat rakha hai main dipashikha nahin, agnishikha hoon wo kahti
agnishikha ki tarah hi wo hamesha prajwalit rahti, kabhi kisi baat par, kabhi kisi sawal par tab uski tezi dekhne layaq hoti uski waktrita se prabhawit hokar kapil ne socha wo shikha ko pakar rahega paDhai ke sath sath wo pita ke wyawsay mein bhi laga tha, isliye shadi se pahle naukari DhunDhane ki use koi zarurat nahin thi bina kisi aDambar, dahej ya nakhre ke ek sade samaroh mein we wiwah sootr mein bandh gaye shikha uski atmanirbharta, khubsurati aur swtantr soch se prabhawit hui tab use ye nahin pata tha ki prem aur wiwah do alag alag sansar hain ek mein bhawna aur dusre mein wywahar ki zarurat hoti hai duniya bhar mein wiwahit aurton ka kewal ek swarup hota hai unhen sahamti pardhan jiwan jina hota hai apne ghar ki kara mein we qaid rahti hain har ek ki dincharya mein apni apni tarah ka samrasta rahti hai harek ke chehre par apni apni tarah ki ub har ghar ka ek Dharra hai jismen aapko phit hona hai kuch aurten is ub par shrringar ka mulamma chaDha leti hain par unke shrringar mein bhi ekrasta hoti hai shikha andaz lagati, samne wale ghar ki nita ne aaj kaun si saDi pahni hogi aur prayः uska andaz theek nikalta yahi haal lipistak ke rang aur balon ke style ka tha duःkh ki baat yahi thi ki adhikansh aurton ko is ub aur qaid ki koi chetna nahin thi we roz subah saDhe nau baje sason, naukron, naukraniyon, bachchon, mali aur kutton ke sath gharon mein chhoD di jatin, apna din tamam karne ke liye wahi lanch par pati ka intizar, t wi par bematlab karyakrmon ka dekhana aur ghar bhar ke nashte, khane— nakhron ki nok palak sanwarna chikni mahila patrikaon ke panne palatna, dopahar ko sona, saje hue ghar ko kuch aur sajana, sas ki ji huzuri karna aur ant mein raat ko ek jaD neend mein luDhak jana
kapil ke ghar aate hi biji ne uske samne shikayat darj ki, teri biwi to apne ko baDi chatur samajhti hai apne aage kisi ki chalne nahin deti khaDi khaDi jabab tikati hai ”
kapil ko ghussa aaya shikha ko ek achchhi patni ki tarah chup rahna chahiye, khastaur par man ke aage isne ghar ko college ka Dibeting manch samajh rakha hai aur man ko pratipaksh ka wakta usne kaha, main use samjha dunga, aage se bahs nahin karegi
ulti khopaDi ki hai bilkul wo samajh hi nahin sakti man ne munh bichkaya
raat, usne kamre mein shikha se kaha, tum man se kyon ulajhti rahti ho din bhar!
“is baat ka wilom bhi utna hi sach hai
“ham wilom anulom mein baat nahin kar rahe hain, ek sambandh hai jiski izzat tumhein karni hogi
ghalat baton ki bhee!
man ki koi baat ghalat nahin hoti
“koi bhi insan parphekt nahin ho sakta ”
kapil taish mein aa gaya, tumne man ko imparfekt kaha tumhein sharm aani chahiye tum hamesha ziyada bol jati ho aur ghalat bhi
tum meri awaz band karna chahte ho
main ek shant aur suruchipurn jiwan jina chahta hoon
shikha andar tak jal gai is uttar se kyonki ye uttar hazar nae prashnon ko janm de raha tha usne prashnon ko hothon ke klip se dabaya aur socha, ab wo bilkul nahin bolegi, yahan tak ki ye sab uski awaz ko taras jayenge
lekin ye nishchay usse nibh na pata bahut jald koi na koi aisa prsang upasthit ho jata ki jwalamukhi ki tarah phat paDti aur ek bar phir badtamiz aur badajuban kahlai jati tab shikha behad tanaw mein aa jati use lagta ghar mein jaise taॉyalet hota hai aise ek tauklet bhi hona chahiye jahan khaDe hokar wo apna ghubar nikla le, janjir khinchkar baten baha de aur ek sabhy shant mudra se bahar aa jaye use ye bhi baDa ajib lagta hai ki wo lagatar aise logon se mukhatib hai jinhen iske is bhari bharkam shabdkosh ki zarurat hi nahin hai ghar ko sucharu roop se chalane ke liye sirf do shabdon ki darkar thi ji aur hanji
“kal chhole banenge?
ji chhole banenge
pajamon ke naDen badle jane chahiye ”
han ji, pajamon ke naDe badle jane chahiye
usne apne jaisi kai striyon se baat karke dekha, sabmen apne gharbar ke liye behad santosh aur garw tha
hamare to ye aise hain hamare to ye waise hain jaisa koi nahin ho sakta
hamare bachche to bilkul lawa kush ki joDi hai hamara beta to paDhne mein itna tez hai ki puchho hi mat shikha ko lagta usi mein shayad koi kami hai jo wo is tarah santosh mein labalb bharkar mera pariwar mahan ke rag nahin alap sakti
raton ko bistar mein paDe paDe wo der tak soti nahin, sochti rahti, uski niyti kya hai na jane kab kaise ek phultaim grihinai banti gai jabki usne zindagi ki ek bilkul agal taswir dekhi thi kitna ajib hota hai ki do log bilkul anokhe, akele andaz mein isliye nazdik ayen ki we ek dusre ki maulikta ki qadr karte hon, mahz isliye takrayen kyonki ab unhen maulikta bardasht nahin
darasal we donon apne apne khalnayak ke hathon mar kha rahe the ye khalnayak tha routine jo jiwan ki khubsurati ko dimak ki tarah chat raha tha kapil chahta tha ki shikha ek anukul patni ki tarah routine ka baDa hissa apne upar oDh le aur use apne maulik soch wichar ke liye swtantr chhoD de shikha ki bhi yahi ummid thi unki zindagi ka routine ya Dharra unse kahin ziyada shaktishali tha alassubah wo kaulbel ki pahli karkash dhwani ke sath jag jata aur raat barah ke tan tan ghante ke sath sota biji ghar mein is routine ki chaukidar tainat theen ghar ki dincharya mein zara si bhi der saber unhen bardasht nahin thi shikha jaise taise roz ke kaam niptati aur jab samast ghar so jata, hath munh dho, kapDe badal ek bar phir apna din shuru karne ki koshish karti use sone mein kafi der ho jati aur agli subah uthne mein bhi uske sabhi agami kaam thoDe pichhaD jate biji ka hidayatnama shuru ho jata, yah aadhi aadhi raat tak batti jalakar kya karti rahti hai tu aise kahin ghar chalta hai! sasur 194 mein sikha hua muhawara tika dete, “arli tu bed enD arli tu raiz waghairah waghairah hidayten sahi hoti par shikha ko buri lagtin wo beman se jhaDu jhaDan poche ka roznamcha hath mein utha leti jabki uska dimagh kitab, kaghaz aur kalam ki mang karta rahta kabhi kabhi chhutti ke din kapil ghar ke kamon mein uski madad karta biji use tok detin, ye aurton wale kaam karta tu achchha lagta hai tu to bilkul joru ka ghulam ho gaya hai
ghar mein ek sahj aur saghan sambandh ko lagatar thonk pithkar yantrik banaya ja raha tha ekant mein jo bhi tanmayta pati patni ke beech janm leti, din ke ujale mein uski gardan maroD di jati biji ko santosh tha ki we pariwar ka sanchalan baDhiya kar rahi hain we bete se kahtin, “tu fikar mat kar thoDe dinon mein main ise ain patri par le aungi ”
patri par shikha tab bhi nahin i ab do bachchi ki man ho gai bus itna bhar hua ki usne apne sabhi sawalon ka rukh any logon se hatakar kapil aur bachchon ki taraf kar liya bachche abhi kai sawalon ke jawab dene layaq samajhdar nahin hue the, balki laD pyar mein donon ke andar ek tarkatit tunakamijazi aa baithi thi school se aakar we din bhar wideo dekhte, gane sunte, aapas mein mar peet karte aur jaise taise apna homework par lagakar so jate kapil apne wyawsay se bacha hua samay akhbaron, patrikaon aur doston mein bitata akeli shikha ghar ki kara mein qaid ghatnahin din bitati rahti wo jiwan ke pichhle das salon aur agle bees salon par nazar Dalti aur ghabra jati kya use wapas agni shikha ki bajay dipashikha bankar hi rahna hoga, maddhim aur madhur madhur jalna hoga wo kya kare agar uske andar tel ki jagah lawa bhara paDa hai
use roz lagta ki unhen apna jiwan nae sire se shuru karna chahiye isi uddeshy se usne kapil se kaha, kyon nahin hum do chaar din ko kahin ghumne chalen
“kahan?
“kahin bhi jaise jaypur ya agara ”
wahan hamein kaun janta hai fizul mein ek nai jagah jakar phansna
“wahan dekhne ko bahut kuch hai hum ghumenge, kuch nai aur nayab chizen kharidenge, dekhana, ekdam fresh ho jayenge
aisi sab chizen yahan bhi milti hain, sari duniya ka darshan jab t wi par ho jata hai to wahan jane mein kya tuk hai?
“tuk ke sahare din kab tak bitayenge?
bachchon ne is baat ka mazak bana liya “kal ko tum kahogi, anDman chalo, ghumenge ”
“iska matlab ab hum kahin nahin jayenge, yahin paDe paDe ek din darakht ban jayenge
tum apne dimagh ka ilaj karao, mujhe lagta hai tumhare haurmon badal rahe hain
mujhe lagta hai, tumhare bhi haurmon badal rahe hain
tumhare andar barabari ka bolna ek rog banta ja raha hai in ulajlul baton mein kya rakha hai?
shikha yaad karti we pyar ke din jab uski koi baat betuki nahin thi ek insan ko premi ki tarah janna aur pati ki tarah pana kitna alag tha jise usne nirala samjha wahin kitna ausat nikla wo nahin chahta jiwan ke Dharre mein koi nayapan ya prayog use ek parampara chahiye ji huzuri ki use ek gandhari chahiye jo janbujhkar na sirf andhi ho balki gungi aur bahri bhi
bachchon ne baat dadi tak pahuncha di biji ekdam bhaDak gain, “apna kaam dhandha chhoD kar kaka jaypur jayega, kyon, biwi ko sair karane ek hum the, kabhi ghar se bahar pair nahin rakha
“aur ab jo aap teerth ke bahane ghumne jati hain wah? shikha se nahin raha gaya tirath ko tu ghumna kahti hai! itni kharab juban pai hai tune, kaise guzara hoga teri grihasthi ka!
“kash godrej kampni ka koi tala hota munh par laganewala, to ye log use mere munh par jaDkar chabi sef mein Dal dete, shikha ne socha, “sach aise kab tak chalega jiwan
bachche shahjadon ki tarah bartaw karte nashta karne ke baad juthi pleten kamre mein paDi rahtin mez par shikha chillati, yahan koi room serwice nahin chal rahi hai, jao, apne juthe bartan rasoi mein rakhkar aao
“nahin rakhenge, kya kar logi, baDa beta himaqat se kahta
na chahte hue bhi shikha mar baithti use
ek din bete ne palatkar use mar diya halke hath se nahin, bharpur ghunsa munh par hoth ke andar ek taraf ka mans bilkul chithDa ho gaya shikha sann rah gai na kewal uske shabd band ho gaye, jabDa bhi jam ho gaya bartan bete ne phir bhi nahin uthaye, we dopahar tak kamre mein paDe rahe ghar bhar mein kisi ne bete ko ghalat nahin kaha
biji ek darshak ki tarah wardat dekhti rahin unhonne kaha, hamesha ghalat baat bolti ho, isi se dusre ka khoon khaulta hai shuru se jaisi tune trening di, waisa wo bana hai ye to bachpan se sikhanewali baten hain phir tu bartan utha deti to kya ghis jata
unhin ke shabd shikha ke munh se nikal gaye, “agar ye rakh deta to iska kya ghis jata
“badtamiz kahin ki, baDon se baat karne ki aqal nahin hai biji ne kaha
sasur ne sari ghatna sunkar phir 194 ka ek muhawara tika diya, age yu so, so shail yu reep
kapil ne kaha, pahle sirf mujhe satati theen, ab bachchon ka bhi shikar kar rahi ho
shikar to main hoon, tum sab shikari ho, shikha kahna chahti thi par jabDa ekdam jam tha honth ab tak sooj gaya tha shikha ne paya, pariwar mein pariwar ki sharton par rahte rahte na sirf wo apni shakl kho baithi hai waran abhiwyakti bhi use laga wo thoos le apne munh mein kapDa ya si Dale ise lohe ke tar se uske sharir se kahin koi awaz na nikle bus, uske hath panw pariwar ke kaam aate rahen na niklen is waqt munh se bol lekin shabd uske andar khalablate rahenge ghar ke log uske samast randhr band kar den phir bhi ye shabd andar paDe rahenge, khaulte aur khadakte jab mirtyu ke baad uski cheer phaD hogi, to ye shabd nikal bhagenge sharir se aur jiti jagti ibarat ban jayenge uske phephDon se, gale ki nali se, antaDiyon se chipke hue ye shabd bahar aakar tikhe, nukile, kantile, zahrile ashamti ke agralekh bankar chha jayenge ghar bhar par agar wo inhen likh de to ek bahut tez esiD ka awishkar ho jaye philhal uska munh suja hua hai, par munh band rakhna chup rahne ki shart nahin hai ye shabd uski laDai laDte rahenge
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।