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दूसरी नाक

dusri nak

यशपाल

यशपाल

दूसरी नाक

यशपाल

और अधिकयशपाल

    लड़के पर जवानी आती देख जब्बार के बाप ने पड़ोस के गाँव में एक लड़की तजवीज़ कर ली। लेकिन जब्बार ने हस्बा की लड़की शब्बू को जो पानी भर कर लौटते देखा, तो उसकी सुध-बुध जाती रही।

    जैसे कथा कहानी में कहा जाता है कि शाहज़ादा नदी में बहता हुआ सोने का एक बाल देख सोने के केशधारी सुंदरी के प्रेम से आहत महल की अटारी में उपवास कर लेट गया था; बहुत कुछ वैसा ही हाल जब्बार का भी हुआ। मुँह से तो कुछ कह सका पर शिथिल शरीर, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, कुछ खोया-खोया सा वह रहने लगा।

    माँ-बाप ने उसकी हालत देखकर सलाह की। मुँह-दर-मुँह नहीं पर उसे सुना दिया कि ब्याह जल्दी ही उसका हो जाएगा। लड़की भी बच्चा नहीं, बिलकुल जवान है। शमसल की बड़ी बेटी जहुन्ना आस-पास के चार गावों में एक ही लड़की है। पानी का बड़ा मटका सिर पर उठाकर धमकती दो मील चली जाती है। घर भर का काम सँभालती है अभी से! यहाँ जाएगी तो जब्बार की माँ को भी चैन मिलेगा। बूढ़ी हो गई बेचारी। पर जब्बार को इससे कुछ तसल्ली हुई। वह अक्सर लंबी-लंबी आहे खींचकर चुपचाप पड़ा रहता।

    एक रोज़ माँ ने आँखों में आँसू भर अपनी क़सम धराकर पूछा—तो उसने सच कह दिया। जहुन्ना की बात सुनने से भी उसने इनकार करके कहा—”यातो हस्बा की बेटी शब्बू, नहीं तो बस!...कुछ नहीं।”

    माँ-बाप ने बहुत समझाया। उसे सुनता देखते तो आपस में जहुन्ना की तारीफ़ और शब्बू की निंदा करने लगते। फिर जो लोग ऐसी बेशर्मी से ब्याह करते हैं उनकी कितनी निंदा होती है, यह सब वे लड़के को काकोक्ति, अलंकार और रूपक द्वारा समझाकर हार गए। पर धुन का पक्का जब्बार माना तो माना।

    बेटे की ज़िद्द से हार मान बूढ़ा गफ़्फ़ार एक रोज़ हस्बा से बात करने गया। जब वह लौटकर आया तो क्रोध से उसकी आँखें लाल और ग्लानि से चेहरा विरूप हो रहा था। बंदूक़ कोने में रख, कंधे की चादर ज़मीन पर फेंक वह ज़मीन पर ही बैठ गया।

    जब्बार की माँ ऊँटों को बेरी की पत्तियाँ खिला रही थी। तुरंत बूढ़े के समीप दौड़ी आई। जब्बार दूर से ही उत्सुक कान लगाए था। बूढ़ा मानो फट पड़ा—“ऐसे नालायक़ बेटे से बेऔलाद भला!”

    जब्बार की माँ ने घबराकर बेटे की बलाएँ अपने सिर लेते हुए नाक पर हाथ रख कर पूछा—”हाय-हाय! हुआ क्या?”

    बूढ़े ने कहा—“होगा क्या? ऐसे बे-शर्म बे-ग़ैरत लड़के से और होगा क्या? तमाम इज़्ज़त ख़ाक में मिल गई और घर मिट्टी में मिल जाएगा।”

    माँ ने फिर बलाएँ लेकर पूछा—“हाय हुआ क्या? ऐसा क्यों कहते हो!”

    बाप ने कहा—“अगर इसके ऐसे ही मिज़ाज थे तो यह क़लात के ख़ान के यहाँ पैदा क्यों नहीं हुआ? जानती है, हस्बा ने क्या कहा? सीधे मुँह से बात भी की। कहती है, शब्बू की बात तुम मत सोचो। उसे वह ब्याहेगा जो अढ़ाई सौ रुपए की गठरी बाँधकर लाएगा।”

    अढ़ाई सौ रुपए की बात सुन जब्बार की माँ की आँखें ऊपर चढ़ गई। बूढ़ा बोला—“तू भी बूढ़ी हो गई। तू ही बता-तूने कभी ऐसा तूफ़ान सुना है; उमर में?...अढ़ाई सौ रुपए!...कोई चीज़ ही नहीं होती?”

    शमसल से मैंने जहुन्ना के लिए बात की थी। उसने लड़की के अस्सी माँगे थे, आख़िर साठ पर तैयार है। उसकी लड़की भी एक आदमी है। और वह बदज़ात माँगता है—अढ़ाई सौ। और फिर तू बूढ़ी हो गई; तू ही बता, रंग ज़रा मैला हुआ तो क्या, और ज़रा साफ़ हुआ तो क्या? औरत औरत सब एक। तुझे अपने काम से मतलब कि रंग से? अभी छः महीने नहीं हुए इसके लिए बंदूक़ ख़रीदी थी तो वह ऊँट बेचा था। अड़ाई सौ रुपए उमर भर में कमा तो पाएगा नहीं और शान यह है! अच्छा तू ही बता—इतनी बूढ़ी हुई, अढ़ाई सौ रुपए कभी औरत के दाम सुने हैं?...अढ़ाई सौ रुपए में तो फिरंगी की तोप ख़रीदी जाती है।”

    जब्बार ने सुना और आह को सीने में दबाकर करवट बदल ली।

    ***

    एकलौते बेटे का यूँ दिन-रात बिसूरना माँ-बाप से देखा गया। बूढ़े ने कहा—“मेरा क्या है? पका फल हूँ! कब टपक पड़ूँ? जो कुछ है इसी के लिए है। रोज़ी का सहारा ये दो ऊँट हैं ये भी जाएँगे तो फिर ख़ुद ही फिरंगियों की सड़क पर रोड़ी कूटने की मज़दूरी करेगा। लोग यही कहेंगे कि गफ़्फ़ार का बेटा मज़दूरी करने लगा, सो इसकी क़िसमत! मैं क्या सदा बैठा रहूँगा?”

    आख़िर दोनों ऊँट भी बन्नू के बाज़ार में बेच दिए गए और शब्बू जब्बार की बहू बन के घर गई।

    शब्बू को इस बात का कम गर्व नहीं था कि उसकी क़ीमत गिन कर अढ़ाई सौ रुपए चुकाई गई है। पानी भरने जाती तो आधा ही घड़ा लेकर लौटती, वह भी लचकती, बलखाती। पड़ोस की मीरन ने समझाया—“ऐसा नख़रा ठीक नहीं। मर्दों को काम प्यारा होता है। किसी रोज़ ऐसी मार पड़ेगी कि कमर सदा को लचक जाएगी।”

    अपनी कान तक फैली आँखें मटकाकर और हाथ का अँगूठा दिखाकर शब्बू ने कहा—“ओहो! मेरे बाप ने बारह बीसे और दस रुपए गिन कर मुझे मार खाने को ही तो यहाँ भेजा है? कोई मुझे हाथ तो लगाए? तेरा क्या है? तेरे मर्द ने तीन बीसे में तुझे लिया है।...लँगड़ी लूली हो जाएगी तो एक और सही।”

    ग़ज़ब की शोख़ और शौक़ीन थी शब्बू! वह काले मख़मल की वास्कट पहरती जिसकी सिलाइयों पर सीप के तीन सौ बटन टँके थे। अपने बालों में मक्खन लगाती और बाहर जाने से पहले पानी का हाथ लगाकर उन्हें सवार लेती। महीने में दो-दो बेर अपने बाल धोती।

    जब्बार की माँ यह सब देखती और नाक पर हाथ रख पढ़ोसिन से कहतीं—“देखो तो, अढ़ाई सौ रुपए देकर ब्याह किया पर मुझे क्या आराम मिला? इसे तो अपने नख़रों से ही छुट्टी नहीं।”

    ***

    बूढ़े ने बेटे को समझाया “जवानी की तेरी उमर है। कुछ कमाई अब नहीं करेगा तो कैसे निबाह होगा। यूँ घर बैठा रहना क्या तुझे सोहाता है! रोज़ी का एक ज़रिया मेरे ऊँट थे, सो तेरे ब्याह में ख़तम हो गए। अब भी तू कुछ नहीं करेगा तो क्या मैं परदेस जाकर मज़दूरी करूँगा?

    मन मार कर जब्बार को कमाई करने बन्नू जाना पड़ा, लेकिन मन उसका गाँव में ही रहता। पूरा सप्ताह जब्बार को बन्नू गए नहीं हुआ था कि वह शब्बू की याद से बेकल हो एक दिन आधी रात में उठ अपने गाँव को चल दिया।

    सोलह मील चलकर जब उसे ऊषा की अस्पष्ट लाल आभा में पहाड़ी पर अपने गाँव की छतें दिखाई दीं तो वह ठिठक गया। अपने गाँव की क्रुद्ध मूर्ति और पड़ोसियों की लाँछना के विचार ने उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल दीं। वह एक चट्टान पर बैठ अपने घर के दरवाज़े की ओर देखने लगा। उसने सोचा—पानी भरने शब्बू निकलेगी तब वह उसे एक आँख देख सकेगा। बावड़ी पर चलकर बैठूँ, शब्बू पानी भरने आएगी तो उससे दो बातें करके लौट जाऊँगा।

    शब्बू पानी लेने आई तो दो सहेलियों के साथ। जब्बार तीस क़दम पर एक पत्थर की ओट में बैठ धड़कते हुए दिल से देखता रहा पर एक शब्द बोल सका। बोलता कैसे? वह दोनों पड़ोसिने बदनाम कर देतीं। दिल पर पत्थर रखे जब्बार देखता रहा, शब्बू सहेलियों से चुहल करती, मटकती लौट गई। जब्बार आहें भरता बन्नू लौट गया।

    जब्बार के विरह की आग में ईर्षा का घी पड़ गया। उसने सोचा देखो, मैं यहाँ परदेश में अकेला मर रहा हूँ और वह मौज करती है। उसे मेरा ज़रा भी ग़म नहीं। औरत की ज़ात में वफ़ा नहीं होती।

    आठ दस दिन बाद यह फिर रातों रात सफ़र कर शब्बू को एक पलक देख सकने और एक चुंबन पा सकने की आशा में गाँव की बावली पर आकर बैठ गया। परंतु वह अकेली नहीं आई। पड़ोस की तीन सहेलियों के साथ अठखेलियाँ करती आई। जब्बार उनकी बात को कान लगाकर सुन रहा था।

    मीरन ने शब्बू की ठोड़ी छूकर कहा—“हाय रे तेरा नख़रा। गाँव के छैले तुझ पर जान दे रहे हैं, क़सम तेरे सिर की!”

    शब्बू के चेहरे पर गर्व से सुरूर छा गया। वे पानी लेकर लौट गई। जब्बार की छाती पर मानो सौ मन का पत्थर गिरा, पर बेबस था।

    अब उसके मन में संदेह का अंकुर और जमा। संदेह मनुष्य के हृदय में आकाश बेल की तरह बढ़ता है। उसके लिए जड़ या बुनियाद की भी ज़रूरत नहीं। वह कल्पना के आकाश में ही पुष्ट होता है। संदेह को निश्चय का रूप लेते भी देर नहीं लगती।

    गाँव में ऐसे कई लौंडे लुँगाड़े थे, जिन्हें फ़ितूर के अलावा कुछ काम था। रहमान और अब्बास से हर एक बात की आशा रखी जा सकती थी। और फिर यदि कुछ दाल में काला नहीं है तो मीरन ऐसी चर्चा क्यों कर रहीं थी? और शब्बू की यह चटक-मटक किसके लिए है? देखो, उसे मेरा ज़रा भी ग़म नहीं! और मैं मरा जा रहा हूँ! जब्बार लहू के घूँट पी-पी कर रह जाता।

    उसने सोचा, रुपया कमाने के लिए ही तो वह घर से दूर यहाँ पड़ा है। यूँ आठ आने-दस आने रोज़ में रुपया नहीं कमाया जा सकता। घर लौटने की आग ने उसे बावला कर दिया। एक दिन मौक़ा देख उसने एक हाथ मार ही दिया। क़िसमत अच्छी थी। वह पकड़ा भी नहीं गया और डेढ़ सौ रुपया कमाकर डेढ़ महीने में घर लौट आया। जब्बार के बाप को हौसला हो गया, बेटा भूखा नहीं मरेगा।

    ***

    जैसे नील का दाग़ कपड़े को नहीं छोड़ता वैसे ही जिस मन में संदेह एक बार प्रवेश कर जाता है, उसे छोड़ता नहीं। जब्बार ने शब्बू से पूछा—“क्यों? जब मैं बन्नू में था तो ख़ूब मज़े उड़ते थे?।”

    शब्बू भी निरी मज़दूरिन थी। चमक कर उसने पूछा—“कैसे मज़े? किससे मज़े उड़ते थे”

    जब्बार ने कहा—“क्यों गाँव में क्या कम आदमी हैं! रहमान है, अब्बास है। ख़ूब बनाव-सिंगार से पानी लेने जाना होता था, क्यों?”

    शब्बू ने कहा—“मैंने कभी किसी मरे की तरफ़ आँख उठाकर देखा हो तो मैं मर जाऊँ, नहीं मुझ पर झूठा इल्ज़ाम लगाने वाला मर जाए!”

    जब्बार ने तड़प कर पूछा—“तू बन ठनकर अपना हुस्न दिखाने नहीं जाती थी?”

    शब्बू ने उत्तर दिया—“मैं क्यों जाऊँगी दिखाने किसी को?...कोई मरा घूरा करे तो मेरा क्या क़सूर?”

    जब्बार ने चुटिया कर पूछा—“तो तू यूँ बन ठनकर दिखाने को निकलती क्यों है?”

    अपने सौंदर्य के अभिमान में सिर ऊँचा कर शब्बू ने कहा—“मैं क्या करती हूँ?... क्या मुँह काला कर लूँ?...मैं जैसी हूँ वैसी हूँ।”

    जब्बार बड़े यत्न से शब्बू की चौकसी करने लगा। वह शब्बू से सौ क़दम दूर पर भी आदमी देख पाता तो उसे यही संदेह होता कि वह उससे आँख लड़ा रहा है। कुछ दिन में उसका खाना-पीना हराम हो गया। किसी मुसाफ़िर को गाँव से गुज़रते देखकर भी उसे यह शंका होती कि संभव है शब्बू के रूप की ख्याति सुनकर ही यह आदमी बहाने से इधर आया है। सारा गाँव उसे शब्बू के पीछे पागल दिखाई पड़ने लगा।

    एक रात जब्बार ने शब्बू से पूछा—“आज तू बाहर से लौट रही थी तब राह में मुस्कुरा क्यों रही थी?”

    उत्तर में शब्बू ने पूछा—“मैं कहाँ मुस्कुरा रही थी?”

    जब्बार ने कहा—“और वे सब आदमी खड़े हुए क्यों देख रहे थे?”

    अपने रूप की महिमा के संकेत से पुलकित होकर शब्बू ने उपेक्षा से उत्तर दिया—“मैं क्या जानूँ?”

    होंठ काटकर जब्बार ने कहा—“बहुत घमंड होगा हुस्न का!... नाक काट लूँगा?”

    शब्बू का मन गुदगुदा उठा। उसने कह दिया—“बारह बीसे और दस रुपए की नाक है!” और मन-मन मुस्कुराने लगी।

    शब्बू सो गई। परंतु जब्बार की आँखों में नींद कहाँ। उसने पुकारा—“सुन तो!” उत्तर नदारद।

    जब्बार ने सोचा—देखो तो घमंड इसका!...“मैं बेचैन पड़ा हूँ और यह मज़े में सो रही है। यह सब घमंड हुस्न का है। इसी हुस्न के पीछे गाँव के बदमाश पागल हैं। मेरी क्या आबरू है? अगर यह हुस्न होता तो क्या मेरी आबरू यूँ मिट्टी में मिलती?...ऐसे हुस्न से क्या फ़ायदा?

    गंभीर होकर इस समस्या पर विचार कर उसने सोचा—आबरू नहीं तो कुछ नहीं। और यह हुस्न तो सब लोग देखते हैं। मेरा इस पर क्या क़ब्ज़ा? जब तक यह हुसन रहेगा तब तक मुझे आबरू और चैन कहाँ मिल सकता है?

    रात के सन्नाटे में जो विचार उठते हैं वे बहुत उग्र होते हैं। दिन की तरह उस समय विचारों को बाधित करने वाली सैंकड़ों उलझनें नहीं रहती। इसीलिए भक्त समाधि रात में लगाते हैं, क़ातिल क़त्ल रात में करते हैं और चोर चोरी रात में करते हैं और विरही भी रात में ही पागल हो उठते हैं।

    जब्बार अँधेरे में आँख खोले शब्बू के रूप के कारण होने वाले सब अनर्थ पर विचार कर रहा था। वह अनर्थ उसे अपरिमेय जान पड़ा। उसे सहन करना बिलकुल संभव था।

    उसने सिरहाने से पैना छुरा उठाया और अँधेरे में टटोल कर शब्बू की नाक पकड़ ली। एक ही झटके में नाक काटकर उसने फेंक दी।

    शब्बू चीख़ उठी। जब्बार की माँ उठकर दौड़ी। रोशनी जलाई गई। पड़ोस के लोग दौड़ आए। जब्बार का बाप ग़ुस्से में गालियाँ दे रहा था और दूसरे लोग इलाज बता रहे थे। एक बुढ़िया ने चिल्ला कर कहा—“अरे जल्दी से कोई भेड़ बकरी का ताज़ा, गर्म-गर्म, ज़िंदा गोश्त का टुकड़ा काटकर नाक पर रखो नहीं तो लड़की मर जाएगी!”

    जब्बार की माँ ने घबराकर कहा—“इस वक़्त भेड़-बकरी कहाँ?” बुढ़िया ने उत्तर दिया—“तो तुम जानो।”

    जब्बार खड़ा सुन रहा था। शब्बू की नाक उसने इसलिए काटी थी कि वह केवल उसी की होकर रहे। दूसरों की आँख उस पर पड़ना भी उसे सह्य था। वह शब्बू को केवल अपने ही लिए रखना चाहता था। दूसरे की आँख उस पर पड़ने से उसके दिल पर घाव लगता था। उसके मर जाने की संभावना सुन उसका दिल दहल गया।

    ज़िंदा गरम गोश्त नहीं मिलेगा तो क्या...! उसने वही पैना छुरा उठाया और अपनी जाँघ से ज़िंदा गरम गोश्त का टुकड़ा काट कर शब्बू की नाक पर धर दिया। जब्बार के माँ और बाप बिलकुल पागल हो बैठे और दूसरे लोग हैरान रह गए।

    ***

    शब्बू चेहरे पर घाव के दर्द के मारे खाट पर पड़ी कराहती रहती और जब्बार जाँघ में पट्टी बाँधे खाट की पटिया पर बैठा शब्बू के चेहरे पर से मक्खियाँ हाँका करता। ज़ख़्म के कारण शब्बू का तमाम चेहरा सूझ गया। पानी का घूँट तक निगलना उसके लिए दूभर हो गया, तिस पर बुख़ार! यह हालत देखी तो जब्बार ने उसका इलाज बन्नू के फिरंगी डाक्टर वाले अस्पताल में कराने का निश्चय किया। स्वयं बड़ी कठिनाई से वह चल पाता था परंतु एक रात जब सब लोग सो रहे थे, उसने शब्बू को कंधे पर उठा लिया और बग़ल में लाठी ले वह बन्नू के लिए चल पड़ा।

    वह कुछ दूर चलता और सुस्ता लेता। कपड़ा भिगोकर पानी की बूंदें शब्बू के मुँह में टपकाता जाता। पाँचवें दिन वे लोग बन्नू के अस्पताल में पहुँच गए। बीस रोज़ में शब्बू का ज़ख़्म भर पाया और उसकी तबीअत ठिकाने पाई।

    ***

    नाक रहने पर हवा होटों की अपेक्षा नाक के छेद से अधिक निकल जाती है और स्वर बिलकुल नक्की (प्लुत अनुस्वार) हो जाता है। उसी स्वर में मिनमिना कर शब्बू ने कहा—“मेम साहब कहती हैं विलायत से रबड़ की नाक मँगवाई जा सकती है।”

    जब्बार ने घबराकर उत्तर दिया—“बस रहने दे। हमें नाक नहीं चाहिए। मुझे तू बिना नाक के ही भली मालूम होती है। मुझे क्या नाक औरों को दिखानी है?”

    शब्बू उदास हो गई। उसने खाना खाने से इनकार कर दिया। जब्बार के लिए बड़ी भयंकर समस्या पड़ी। उसने सोचा बुरा हो इस मेम का। मैंने एक नाक काटी थी, वह दूसरी बनाने को तैयार है।

    जब दो दिन शब्बू ने खाना नहीं खाया तो जब्बार ने रबड़ की नाक की क़ीमत चालीस रुपए डाक्टर के यहाँ जमा करादी। पर शर्त एक रही कि शब्बू नाक लगाएगी ज़रूर लेकिन ग़ैर मर्द अगर उसे घूरने लगे तो झट नाक उतार कर जेब में डाल ले।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वो दुनिया (पृष्ठ 43)
    • रचनाकार : यशपाल
    • प्रकाशन : विप्लव प्रकाशन, लखनऊ
    • संस्करण : 1945

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