(एक)
रज्जब क़साई अपना रोज़गार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रक़म। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफ़ी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुरा-नामक गाँव में ठहर जाने का निश्चय किया। उसकी पत्नी को बुख़ार हो आया था, रक़म पास में थी, और बैलगाड़ी किराए पर करने में ख़र्च ज़्यादा पड़ता, इसलिए रज्जब ने उस रात आराम कर लेना ही ठीक समझा।
परंतु ठहरता कहाँ? जात छिपाने से काम नहीं चल सकता था। उसकी पत्नी नाक और कानों में चाँदी की बालियाँ डाले थी, और पैजामा पहने थी। इसके सिवा गाँव के बहुत-से लोग उसको पहचानते भी थे। वह उस गाँव के बहुत-से कर्मण्य और अकर्मण्य ढोर ख़रीद कर ले जा चुका था।
अपने व्यवहारियों से उसने रात-भर के बसेरे के लायक़ स्थान की याचना की। किसी ने भी मंज़ूर न किया। उन लोगों ने अपने ढोर रज्जब को अलग-अलग और लुके-छिपे बेचे थे। ठहरने में तुरंत ही तरह-तरह की ख़बरें फैलतीं, इसलिए सबों ने इंकार कर दिया।
गाँव में एक ग़रीब ठाकुर रहता था। थोड़ी-सी ज़मीन थी, जिसको किसान जोते हुए थे। जिसका हल-बैल कुछ भी न था। लेकिन अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान वसूल कर लेने में ठाकुर को किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था। छोटा-सा मकान था, परंतु उसको गाँव वाले गढ़ी के आदरव्यंजक शब्द से पुकारा करते थे, और ठाकुर को डर के मारे ‘राजा’ शब्द संबोधन करते थे।
शामत का मारा रज्जब इसी ठाकुर के दरवाज़े पर अपनी ज्वरग्रस्त पत्नी को लेकर पहुँचा।
ठाकुर पौर में बैठा हुक़्क़ा पी रहा था। रज्जब ने बाहर से ही सलाम करके कहा— “दाऊजू, एक बिनती है।”
ठाकुर ने बिना एक रत्ती-भर इधर-उधर हिले-डुले पूछा— “क्या?”
रज्जब बोला- “मैं दूर से आ रहा हूँ। बहुत थका हुआ हूँ। मेरी औरत को ज़ोर से बुख़ार आ गया है। जाड़े में बाहर रहने से न जाने इसकी क्या हालत हो जाएगी, इसलिए रात-भर के लिए कहीं दो हाथ जगह दे दी जाए।”
“कौन लोग हो?” ठाकुर ने प्रश्न किया।
“हूँ तो क़साई।” रज्जब ने सीधा उत्तर दिया। चेहरे पर उसके बहुत गिड़गिड़ाहट थी।
ठाकुर की बड़ी-बड़ी आँखों में कठोरता छा गई। बोला— “जानता है यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?”
रज्जब ने आशा-भरे स्वर में कहा- “यह राजा का घर है, इसलिए शरण में आया हुआ हूँ।”
तुरंत ठाकुर की आँखों की कठोरता ग़ायब हो गई। ज़रा नरम स्वर में बोला- “किसी ने तुम को बसेरा नहीं दिया है।”
“नहीं महाराज”, रज्जब ने उत्तर दिया- “बहुत कोशिश की, परंतु मेरे खोटे पेशे के कारण कोई सीधा नहीं हुआ।” और वह दरवाज़े के बाहर ही, एक कोने से चिपटकर बैठ गया। पीछे उसकी पत्नी कराहती, काँपती हुई गठरी-सी बनकर सिमट गई!
ठाकुर ने कहा- “तुम अपनी चिलम लिए हो?”
“हाँ, सरकार!” रज्जब ने उत्तर दिया।
ठाकुर बोला- “तब भीतर आ जाओ, और तमाखू अपनी चिलम से पी लो। अपनी औरत को भीतर कर लो। हमारी पौर के एक कोने में पड़े रहना।”
जब वे दोनों भीतर आ गए तो ठाकुर ने पूछा- “तुम कब यहाँ से उठकर चले जाओगे?” जवाब मिला- “अँधेरे में ही महाराज! खाने के लिए रोटियाँ बाँधे हैं, इसलिए पकाने की ज़रूरत न पड़ेगी।”
“तुम्हारा नाम?”
“रज्जब।”
(दो)
थोड़ी देर बाद ठाकुर ने रज्जब से पूछा- “कहाँ से आ रहे हो।” रज्जब ने स्थान का नाम बतलाया।
“वहाँ किस लिए गए थे?”
“अपने रोज़गार के लिए।”
“काम तो तुम्हारा बहुत बुरा है।“
“क्या करूँ, पेट के लिए करना ही पड़ता है। परमात्मा ने जिसके लिए जो रोज़गार नियत किया है, वही उसको करना पड़ता है।”
“क्या नफ़ा हुआ?” प्रश्न करने में ठाकुर को ज़रा संकोच हुआ, और प्रश्न का उत्तर देने में रज्जब को उससे बढ़कर।
रज्जब ने जवाब दिया- “महाराज, पेट के लायक़ कुछ मिल गया है। यों ही।” ठाकुर ने इस पर कोई ज़िद नहीं की।
रज्जब एक क्षण बाद बोला—“बड़े भोर उठकर चला जाऊँगा। तब तक घर के लोगों की तबियत भी अच्छी हो जाएगी।”
इसके बाद दिन-भर के थके हुए पति-पत्नी सो गये। काफ़ी रात गए कुछ लोगों ने एक बँधे इशारे से ठाकुर को बाहर बुलाया। एक फटी-सी रज़ाई ओढ़े ठाकुर बाहर निकल आया।
आगंतुकों में से एक ने धीरे से कहा- “दाऊजू, आज तो ख़ाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।”
ठाकुर ने कहा- “आज ज़रूरत थी। ख़ैर, कल देखा जाएगा।”
“क्या कोई उपाय किया था?”
“हाँ” आगंतुक बोला- “एक क़साई रुपए की मोट बाँधे इसी ओर आया है। परंतु हम लोग ज़रा देर में पहुँचे। वह खिसक गया। कल देखेंगे। ज़रा जल्दी।”
ठाकुर ने घृणा-सूचक स्वर में कहा- “क़साई का पैसा न छुएँगे।”
“क्यों?”
“बुरी कमाई है।”
“उसके रुपयों पर क़साई थोड़े ही लिखा है।”
“परंतु उसके व्यवसाय से वह रुपया दूषित हो गया है।”
“रुपया तो दूसरों का ही है। क़साई के हाथ आने से रुपया क़साई नहीं हुआ।”
“मेरा मन नहीं मानता, वह अशुद्ध है।”
“हम अपनी तलवार से उसको शुद्ध कर लेंगे।”
ज़्यादा बहस नहीं हुई। ठाकुर ने सोचकर अपने साथियों को बाहर का बाहर ही टाल दिया।
भीतर देखा, क़साई सो रहा था, और उसकी पत्नी भी।
ठाकुर भी सो गया।
(तीन)
सवेरा हो गया, परंतु रज्जब न जा सका। उसकी पत्नी का बुख़ार तो हल्का हो गया था, परंतु शरीर-भर में पीड़ा थी, और वह एक क़दम भी नहीं चल सकती थी।
ठाकुर उसे वहीं ठहरा हुआ देखकर कुपित हो गया। रज्जब से बोला— “मैंने ख़ूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव-भर थोड़ी देर में तुम लोगों को मेरी पौर में टिका हुआ देखकर तरह-तरह की बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ। इसी समय।”
रज्जब ने बहुत विनती की, परंतु ठाकुर न माना। यद्यपि गाँव-भर उसके दबदबे को मानता था, परंतु अन्य लोकमत दबदबा उसके भी मन पर था। इसलिए रज्जब गाँव के बाहर सपत्नीक एक पेड़ के नीचे जा बैठा, और हिंदू-मात्र को मन-ही-मन कोसने लगा।
उसे आशा थी कि पहर आध-पहर में उसकी पत्नी की तबियत इतनी स्वस्थ हो जाएगी कि वह पैदल यात्रा कर सकेगी। परंतु ऐसा न हुआ, तब उसने एक गाड़ी किराए पर कर लेने का निर्णय किया।
मुश्किल से एक चमार काफ़ी किराया लेकर ललितपुर गाड़ी ले जाने के लिए राज़ी हुआ। इतने में दुपहर हो गई! उसकी पत्नी को ज़ोर का बुख़ार हो आया। वह जाड़े के मारे थर-थर काँप रही थी, इतनी कि रज्जब की हिम्मत उसी समय ले जाने की न पड़ी। गाड़ी में अधिक हवा लगने के भय से रज्जब ने उस समय तक के लिए यात्रा को स्थगित कर दिया, जब तक कि उस बेचारी की कम-से-कम कँपकँपी बंद न हो जाए।
घंटे-डेढ-घंटे बाद उसकी कँपकँपी तो बंद हो गई, परंतु ज्वर बहुत तेज़ हो गया। रज्जब ने अपनी पत्नी को गाड़ी में डाल दिया और गाड़ीवान से जल्दी चलने को कहा।
गाड़ीवान बोला- “दिन-भर तो यही लगा दिया। अब जल्दी चलने को कहते हो!”
रज्जब ने मिठास के स्वर में उससे फिर जल्दी करने के लिए कहा। वह बोला- “इतने किराए में काम नहीं चलेगा। अपना रुपया वापस लो। मैं तो घर जाता हूँ।”
रज्जब ने दाँत पीसे। कुछ क्षण चुप रहा। सचेत होकर कहने लगा— “भाई, आफ़त सबके ऊपर आती है। मनुष्य मनुष्य को सहारा, देता है, जानवर तो देते नहीं। तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं। कुछ दया के साथ काम लो।”
क़साई को दया पर व्याख्यान देते सुनकर गाड़ीवान को हँसी आ गई।
उसको टस से मस न होता देखकर रज्जब ने और पैसे दिए। तब उसने गाड़ी हाँकी।
पाँच-छः मील चलने के बाद संध्या हो गई। गाँव कोई पास में न था। रज्जब की गाड़ी धीरे-धीरे चली जा रही थी। उसकी पत्नी बुख़ार में बेहोश-सी थी। रज्जब ने अपनी कमर टटोली, रक़म सुरक्षित बँधी पड़ी थी।
रज्जब को स्मरण हो आया कि पत्नी के बुख़ार के कारण अंटी का कुछ बोझ कम कर देना पड़ा है—और स्मरण हो आया गाड़ीवान का वह हठ, जिसके कारण उसको कुछ पैसे व्यर्थ ही दे देने पड़े थे। उसको गाड़ीवान पर क्रोध था, परंतु उसको प्रकट करने की उस समय उसके मन में इच्छा न थी।
बातचीत करके रास्ता काटने की कामना से उसने वार्तालाप आरंभ किया— “गाँव तो यहाँ से दूर मिलेगा।”
“बहुत दूर, वहीं ठहरेंगे।”
“किसके यहाँ?”
“किसी के यहाँ भी नहीं। पेड़ के नीचे। कल सवेरे ललितपुर चलेंगे।”
“कल को फिर पैसा माँग उठना।”
“कैसे माँग उठूँगा? किराया ले चुका हैं। अब फिर कैसे माँगूगा?”
“जैसे आज गाँव में हठ करके माँगा था। बेटा, ललितपुर होता, तो बतला देता!”
“क्या बतला देते? क्या सेंत-मेंत गाड़ी में बैठना चाहते थे?”
‘क्यों बे, क्या रुपए देकर भी सेंत-मेंत का बैठना कहाता है? जानता है, मेरा नाम रज्जब है। अगर बीच में गड़बड़ करेगा, तो नालायक़ को यहीं छुरे से काटकर कहीं फेंक दूँगा और गाड़ी लेकर ललितपुर चल दूँगा।”
रज्जब क्रोध को प्रकट नहीं करना चाहता था, परंतु शायद अकारण ही वह भली भाँति प्रकट हो गया।
गाड़ीवान ने इधर-उधर देखा। अँधेरा हो गया था। चारों ओर सुनसान था। आस-पास झाड़ी खड़ी थी। ऐसा जान पड़ता था, कहीं से कोई अब निकला और अब निकला। रज्जब की बात सुनकर उसकी हड्डी काँप गई। ऐसा जान पड़ा, मानों पसलियों को उसकी ठंडी छुरी छू रही हो।
गाड़ीवान चुपचाप बैल को हाँकने लगा। उसने सोचा—गाँव के आते ही गाड़ी छोड़कर नीचे खड़ा हो जाऊँगा, और हल्ला-गुल्ला करके गाँव वालों की मदद से अपना पीछा रज्जब से छुडाऊँगा। रुपए-पैसे भले ही वापस कर दूँगा, परंतु और आगे न जाऊँगा। कहीं सचमुच मार्ग में मार डाले!
गाड़ी थोड़ी दूर और चली होगी कि बैल ठिठककर खड़े हो गए। रज्जब सामने न देख रहा था, इसलिए ज़रा कड़ककर गाड़ीवान से बोला— “क्यों बे बदमाश, सो गया क्या?”
अधिक कड़क के साथ सामने रास्ते पर खड़ी हुई एक टुकड़ी में से किसी के कठोर कंठ से निकला... “ख़बरदार, जो आगे बढ़ा।”
रज्जब ने सामने देखा कि चार-पाँच आदमी बड़े-बड़े लठ बाँधकर न जाने कहाँ से आ गए हैं। उनमें तुरंत ही एक ने बैलों की जुआरी पर एक लठ पटका और दो दाएँ-बाएँ आकर रज्जब पर आक्रमण करने को तैयार हो गए।
गाड़ीवान गाड़ी छोड़कर नीचे जा खड़ा हुआ। बोला... “मालिक मैं तो गाड़ीवान हूँ। मुझसे कोई सरोकार नहीं।”
“यह कौन है?” एक ने गरजकर पूछा।
गाड़ीवान की घिग्घी बँध गई। कोई उत्तर न दे सका।
रज्जब ने कमर की गाँठ को एक हाथ से सँभालते हुए बहुत ही नम्र स्वर में कहा— “मैं बहुत ग़रीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी औरत गाड़ी में बीमार पड़ी है। मुझे जाने दीजिए।”
उन लोगों में से एक ने रज्जब के सिर पर लाठी उबारी। गाड़ीवान खिसकना चाहता था कि दूसरे ने उसको पकड़ लिया।
अब उसका मुँह खुला। बोला- “महाराज, मुझको छोड़ दो। मैं तो किराए से गाड़ी लिए जा रहा हूँ। गाँठ में खाने के लिए तीन-चार आने पैसे ही हैं।”
“और यह कौन है? बतला।” उन लोगों में से एक ने पूछा।
गाड़ीवान ने तुरंत उत्तर दिया- “ललितपुर का एक क़साई।
रज्जब के सिर पर जो लाठी उबारी गई थी, वह वहीं रह गई। लाठीवाले के मुँह से निकला- “तुम क़साई हो? सच बताओ!”
“हाँ, महाराज!' रज्जब ने सहसा उत्तर दिया- “मैं बहुत ग़रीब हूँ। हाथ जोड़ता हूँ मुझको मत सताओ। मेरी औरत बहुत बीमार है। औरत ज़ोर से कराही।
लाठीवाले उस आदमी ने अपने एक साथी से कान में कहा- “इसका नाम रज्जब है। छोड़ो। चलें यहाँ से।”
उसने न माना। बोला- “इसका खोपड़ा चकनाचूर करो दाऊजू, यदि वैसे न माने तो। असाई-क़साई हम कुछ नहीं मानते।”
“छोड़ना ही पड़ेगा, उसने कहा— “इस पर हाथ नहीं पसारेंगे और न इसका पैसा छुएँगे।”
दूसरा वोला- “क्या क़साई होने के डर से दाऊजू, आज तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गए हैं। मैं देखता हूँ।” और उसने तुरंत लाठी का एक सिरा रज्जब की छाती में अड़ाकर तुरंत रुपया-पैसा निकाल देने का हुक्म दिया। नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने ज़रा तीव्र स्वर में कहा— “नीचे उतर आओ। उससे मत बोलो। उसकी औरत बीमार है।”
“हो, मेरी बला से”, गाड़ी में चढ़े हुए लठैत ने उत्तर दिया- “मैं क़साइयों की दवा हूँ।” और उसने रज्जब को फिर धमकी दी।
नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने कहा— “ख़बरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चकनाचूर किए देता हूँ। वह मेरी शरण आया था।”
गाड़ीवान लठैत झख-सी मारकर नीचे उतर आया।
नीचे वाले व्यक्ति ने कहा- “सब लोग अपने-अपने घर जाओ। राहगीरों को तंग मत करो।” फिर गाड़ीवान से बोला— “जा रे, हाँक ले जा गाड़ी। ठिकाने तक पहुँचा आना, तब लौटना। नहीं तो अपनी ख़ैर मत समझियो। और, तुम दोनों में से किसी ने भी कभी इस बात की चर्चा कहीं की, तो भूसी की आग में जलाकर ख़ाक कर दूँगा।”
गाड़ीवान गाड़ी लेकर बढ़ गया। उन लोगों में से जिस आदमी ने गाड़ी पर चढ़कर रज्जब के सिर पर लाठी तानी थी, उसने क्षुब्ध स्वर में कहा— “दाऊजू, आगे से कभी आपके साथ न आऊँगा।”
दाऊजू ने कहा— “न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुज़रता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं करता, इस बात को गाँठ बाँध लेना।”
rajjab qasai apna rozgar karke lalitpur laut raha tha. saath mein istri thi, aur gaanth mein do sau teen sau ki baDi raqam. maarg bihaD tha, aur sunsan. lalitpur kafi door tha, basera kahin na kahin lena hi tha; isliye usne maDapura namak gaanv mein thahar jane ka nishchay kiya. uski patni ko bukhar ho aaya tha, raqam paas mein thi, aur bailaga?i kiraye par karne mein kharch zyada paDta, isliye rajjab ne us raat aram kar lena hi theek samjha.
parantu thaharta kahan? jaat chhipane se kaam nahin chal sakta tha. uski patni naak aur kanon mein chandi ki baliyan Dale thi, aur paijama pahne thi. iske siva gaanv ke bahut se log usko pahchante bhi the. wo us gaanv ke bahut se karmanya aur akarmanya Dhor kharid kar le ja chuka tha.
apne vyavhariyon se usne raat bhar ke basere ke layaq sthaan ki yachana ki. kisi ne bhi manzur na kiya. un logon ne apne Dhor rajjab ko alag alag aur luke chhipe beche the. thaharne mein turant hi tarah tarah ki khabren phailtin, isliye sabon ne inkaar kar diya.
gaanv mein ek gharib thakur rahta tha. thoDi si zamin thi, jisko kisan jote hue the. jiska hal bail kuch bhi na tha. lekin apne kisanon se do teen saal ka peshgi lagan vasul kar lene mein thakur ko kisi vishesh badha ka samna nahin karna paDta tha. chhota sa makan tha, parantu usko gaanv vale gaDhi ke adravyanjak shabd se pukara karte the, aur thakur ko Dar ke mare raja shabd sambodhan karte the.
shamat ka mara rajjab isi thakur ke darvaze par apni jvragrast patni ko lekar pahuncha.
thakur paur mein baitha hukka huqqa pi raha tha. rajjab ne bahar se hi salam karke kaha “dauju, ek binti hai. ”
thakur ne bina ek ratti bhar idhar udhar hile Dule puchha ”kyaa?”
rajjab bola “main door se aa raha hoon. bahut thaka hua hoon. meri aurat ko zor se bukhar aa gaya hai. jaDe mein bahar rahne se na jane iski kya haalat ho jayegi, isliye raat bhar ke liye kahin do haath jagah de di jaye. ”
“kaun log ho?” thakur ne parashn kiya.
“hoon to qasai. ” rajjab ne sidha uttar diya. chehre par uske bahut giDgiDahat thi.
thakur ki baDi baDi ankhon mein kathorta chha gai. bola “janta hai ye kiska ghar hai? yahan tak aane ki himmat kaise ki tune?”
rajjab ne aasha bhare svar mein kaha “yah raja ka ghar hai, isliye sharan mein aaya hua hoon. ”
turant thakur ki ankhon ki kathorta ghayab ho gai. zara naram svar mein bola “kisi ne tum ko basera nahin diya hai. ”
“nahin maharaj”, rajjab ne uttar diya “bahut koshish ki, parantu mere khote peshe ke karan koi sidha nahin hua. ” aur wo darvaze ke bahar hi, ek kone se chipatkar, baith gaya. pichhe uski patni karahti, kanpti hui gathri si bankar simat gai!
thakur ne kaha “tum apni chilam liye ho?”
“haan, sarkar!” rajjab ne uttar diya.
thakur bola “tab bhitar aa jao, aur tamakhu apni chilam se pi lo. apni aurat ko bhitar kar lo. hamari paur ke ek kone mein paDe rahna. ”
jab ve donon bhitar aa gaye to thakur ne puchha “tum kab yahan se uthkar chale jaoge?” javab mila “andhere mein hi maharaj! khane ke liye rotiyan bandhe hain, isliye pakane ki zarurat na paDegi. ”
“tumhara naam?”
“rajjab. ”
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“vahan kis liye gaye the? ”
“apne rozgar ke liye. ”
“kaam to tumhara bahut bura hai.
“kya karun, pet ke liye karna hi paDta hai. parmatma ne jiske liye jo rozgar niyat kiya hai, vahi usko karna paDta hai. ”
.
“kya nafa hua? parashn karne mein thakur ko zara sankoch hua, aur parashn ka uttar dene mein rajjab ko usse baDhkar.
rajjab ne javab diya “maharaj, pet ke layaq kuch mil gaya hai. yon hi. ” thakur ne is par koi zid nahin ki.
rajjab ek kshan baad bola “baDe bhor uthkar chala jaunga. tab tak ghar ke logon ki tabiyat bhi achchhi ho jayegi. ”
iske baad din bhar ke thake hue pati patni so gaye. kafi raat gaye kuch logon ne ek bandhe ishare se thakur ko bahar bulaya. ek phati si razai oDhe thakur bahar nikal aaya.
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thakur ne kaha “aaj zarurat thi. khair, kal dekha jayega. ”
“kya koi upaay kiya tha?”
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thakur ne ghrinaa suchak svar mein kaha “qasai ka paisa na chhuvenge. ”
“kyon?”
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“uske rupyon par qasai thoDe hi likha hai. ”
“parantu uske vyavsay se wo rupaya dushait ho gaya hai. ”
“rupaya to dusron ka hi hai. qasai ke haath aane se rupaya qasai nahin hua. ”
“mera man nahin manata, wo ashuddh hai. ”
“ham apni talvar se usko shuddh kar lenge. ”
zyada bahs nahin hui. thakur ne sochkar apne sathiyon ko bahar ka bahar hi taal diya.
bhitar dekha, qasai so raha tha, aur uski patni bhi.
thakur bhi so gaya.
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ghante DeDh ghante baad uski kanpkanpi to band ho gai, parantu jvar bahut tez ho gaya. rajjab ne apni patni ko gaDi mein Daal diya aur gaDivan se jaldi chalne ko kaha.
gaDivan bola “din bhar to yahi laga diya. ab jaldi chalne ko kahte ho!”
rajjab ne mithas ke svar mein usse phir jaldi karne ke liye kaha. wo bola “itne kiraye mein kaam nahin chalega. apna rupaya vapas lo. main to ghar jata hoon. ”
rajjab ne daant pise. kuch kshan chup raha. sachet hokar kahne laga “bhai, aafat sabke upar aati hai. manushya manushya ko sahara, deta hai, janvar to dete nahin. tumhare bhi baal bachche hain. kuch daya ke saath kaam lo. ”
qasai ko daya par vyakhyan dete sunkar gaDivan ko hansi aa gai.
usko tas se mas na hota dekhkar rajjab ne aur paise diye. tab usne gaDi hanki.
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rajjab ko smarn ho aaya ki patni ke bukhar ke karan anti ka kuch bojh kam kar dena paDa hai—aur smarn ho aaya gaDivan ka wo hath, jiske karan usko kuch paise byarth hi de dene paDe the. usko gaDivan par krodh tha, parantu usko prakat karne ki us samay uske man mein ichha na thi.
batachit karke rasta katne ki kamna se usne vartalap arambh kiya “gaanv to yahan se door milega. ”
“bahut door, vahin thahrenge. ”
“kiske yahan?”
“kisi ke yahan bhi nahin. peD ke niche. kal savere lalitpur chalenge. ”
“kal ko phir paisa maang uthna. ”
“kaise maang uthunga? kiraya le chuka hain. ab phir kaise manguga? ”
“jaise aaj gaanv mein hath karke manga tha. beta, lalitpur hota, to batala deta!”
“kya batala dete? kya sent ment gaDi mein baithna chahte the?”
‘kyon be, kya rupae dekar bhi sent ment ka baithna kahata hai?” janta hai, mera naam rajjab hai. agar beech mein gaDbaD karega, to nalayaq ko yahin chhure se katkar kahin phenk dunga aur gaDi lekar lalitpur chal dunga. ”
rajjab krodh ko prakat nahin karna chahta tha, parantu shayad akaran hi wo bhali bhanti prakat ho gaya.
gaDivan ne idhar udhar dekha. andhera ho gaya tha. charon or sunsan tha. aas paas jhaDi khaDi thi. aisa jaan paDta tha, kahin se koi ab nikla aur ab nikla. rajjab ki baat sunkar uski haDDi kaanp gai. aisa jaan paDa, manon pasaliyon ko uski thanDi chhuri chhu rahi ho.
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gaDi thoDi door aur chali hogi ki bail thithakkar khaDe ho gaye. rajjab samne na dekh raha tha, isliye zara kaDakkar gaDivan se bola “kyon be badmash, so gaya kyaa?”
adhik kaDak ke saath samne raste par khaDi hui ek tukDi mein se kisi ke kathor kanth se nikla. . . “khabardar, jo aage baDha. ”
rajjab ne samne dekha ki chaar paanch adami baDe baDe lath bandhakar na jane kahan se aa gaye hain. unmen turant hi ek ne bailon ki juari par ek lath patka aur do dayen bayen aakar rajjab par akramn karne ko taiyar ho gaye.
gaDivan gaDi chhoDkar niche ja khaDa hua. bola. . . “malik main to gaDivan hoon. mujhse koi sarokar nahin. ”
“yah kaun hai?” ek ne garajkar puchha.
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rajjab ne kamar ki gaanth ko ek haath se sambhalte hue bahut hi vinamn svar mein kaha “main bahut gharib adami hoon. mere paas kuch nahin hai. meri aurat gaDi mein bimar paDi hai. mujhe jane dijiye. ”
un logon mein se ek ne rajjab ke sir par lathi ubari. gaDivan khisakna chahta tha ki dusre ne usko pakaD liya.
ab uska munh khula. bola “maharaj, mujhko chhoD do. main to kiraye se gaDi liye ja raha hoon. gaanth mein khane ke liye teen chaar aane paise hi hain. ”
“aur ye kaun hai? batala. ” un logon mein se ek ne puchha.
gaDivan ne turant uttar diya “lalitpur ka ek qasai.
rajjab ke sir par jo lathi ubari gai thi, wo vahin rah gai. lathivale ke munh se nikla “tum qasai ho? sach batao!”
“haan, maharaj! rajjab ne sahsa uttar diya “main bahut gharib hain. haath joDta hoon mujhko mat satao. meri aurat bahut bimar hai. aurat zor se karahi.
lathivale us adami ne apne ek sathi se kaan mein kaha “iska naam rajjab hai. chhoDo. chalen yahan se. ”
usne na mana. bola “iska khopaDa chaknachur karo dauju, yadi vaise na mane to. asai qasai hum kuch nahin mante. ”
“chhoDna hi paDega, usne kaha “is par haath nahin pasarenge aur na iska paisa chhuvenge. ”
dusra vola “kya qasai hone ke Dar se dauju, aaj tumhari buddhi par patthar paD gaye hain. main dekhta hoon. ” aur usne turant lathi ka ek sira rajjab ki chhati mein aDakar turant rupaya paisa nikal dene ka hukm diya. niche khaDe hue us vekti ne zara teevr svar mein kaha “niche utar aao. usse mat bolo. uski aurat bimar hai. ”
“ho, meri bala se”, gaDi mein chaDhe hue lathait ne uttar diya “main qasaiyon ki dava hoon. ” aur usne rajjab ko phir dhamki di.
niche khaDe hue us vekti ne kaha “khabardar, jo use chhua. niche utro, nahin to tumhara sir chaknachur kiye deta hoon. wo meri sharan aaya tha. ”
gaDivan lathait jhakh si markar niche utar aaya.
niche vale vekti ne kaha “sab log apne apne ghar jao. rahgiron ko tang mat karo. ” phir gaDivan se bola “ja re, haank le ja gaDi. thikane tak pahuncha aana, tab lautna. nahin to apni khair mat samajhiyo. aur, tum donon mein se kisi ne bhi kabhi is baat ki charcha kahin ki, to bhusi ki aag mein jalakar khaak kar dunga. ”
gaDivan gaDi lekar baDh gaya. un logon mein se jis adami ne gaDi par chaDhkar rajjab ke sir par lathi tani thi, usne kshaubdh svar mein kaha “dauju, aage se kabhi aapke saath na aunga. ”
dauju ne kaha “n aana. main akele hi bahut kar guzarta hoon. parantu bundela sharnaagat ke saath ghaat nahin karta, is baat ko gaanth baandh lena. ”
rajjab qasai apna rozgar karke lalitpur laut raha tha. saath mein istri thi, aur gaanth mein do sau teen sau ki baDi raqam. maarg bihaD tha, aur sunsan. lalitpur kafi door tha, basera kahin na kahin lena hi tha; isliye usne maDapura namak gaanv mein thahar jane ka nishchay kiya. uski patni ko bukhar ho aaya tha, raqam paas mein thi, aur bailaga?i kiraye par karne mein kharch zyada paDta, isliye rajjab ne us raat aram kar lena hi theek samjha.
parantu thaharta kahan? jaat chhipane se kaam nahin chal sakta tha. uski patni naak aur kanon mein chandi ki baliyan Dale thi, aur paijama pahne thi. iske siva gaanv ke bahut se log usko pahchante bhi the. wo us gaanv ke bahut se karmanya aur akarmanya Dhor kharid kar le ja chuka tha.
apne vyavhariyon se usne raat bhar ke basere ke layaq sthaan ki yachana ki. kisi ne bhi manzur na kiya. un logon ne apne Dhor rajjab ko alag alag aur luke chhipe beche the. thaharne mein turant hi tarah tarah ki khabren phailtin, isliye sabon ne inkaar kar diya.
gaanv mein ek gharib thakur rahta tha. thoDi si zamin thi, jisko kisan jote hue the. jiska hal bail kuch bhi na tha. lekin apne kisanon se do teen saal ka peshgi lagan vasul kar lene mein thakur ko kisi vishesh badha ka samna nahin karna paDta tha. chhota sa makan tha, parantu usko gaanv vale gaDhi ke adravyanjak shabd se pukara karte the, aur thakur ko Dar ke mare raja shabd sambodhan karte the.
shamat ka mara rajjab isi thakur ke darvaze par apni jvragrast patni ko lekar pahuncha.
thakur paur mein baitha hukka huqqa pi raha tha. rajjab ne bahar se hi salam karke kaha “dauju, ek binti hai. ”
thakur ne bina ek ratti bhar idhar udhar hile Dule puchha ”kyaa?”
rajjab bola “main door se aa raha hoon. bahut thaka hua hoon. meri aurat ko zor se bukhar aa gaya hai. jaDe mein bahar rahne se na jane iski kya haalat ho jayegi, isliye raat bhar ke liye kahin do haath jagah de di jaye. ”
“kaun log ho?” thakur ne parashn kiya.
“hoon to qasai. ” rajjab ne sidha uttar diya. chehre par uske bahut giDgiDahat thi.
thakur ki baDi baDi ankhon mein kathorta chha gai. bola “janta hai ye kiska ghar hai? yahan tak aane ki himmat kaise ki tune?”
rajjab ne aasha bhare svar mein kaha “yah raja ka ghar hai, isliye sharan mein aaya hua hoon. ”
turant thakur ki ankhon ki kathorta ghayab ho gai. zara naram svar mein bola “kisi ne tum ko basera nahin diya hai. ”
“nahin maharaj”, rajjab ne uttar diya “bahut koshish ki, parantu mere khote peshe ke karan koi sidha nahin hua. ” aur wo darvaze ke bahar hi, ek kone se chipatkar, baith gaya. pichhe uski patni karahti, kanpti hui gathri si bankar simat gai!
thakur ne kaha “tum apni chilam liye ho?”
“haan, sarkar!” rajjab ne uttar diya.
thakur bola “tab bhitar aa jao, aur tamakhu apni chilam se pi lo. apni aurat ko bhitar kar lo. hamari paur ke ek kone mein paDe rahna. ”
jab ve donon bhitar aa gaye to thakur ne puchha “tum kab yahan se uthkar chale jaoge?” javab mila “andhere mein hi maharaj! khane ke liye rotiyan bandhe hain, isliye pakane ki zarurat na paDegi. ”
“tumhara naam?”
“rajjab. ”
thoDi der baad thakur ne rajjab se puchha “kahan se aa rahe ho. ” rajjab ne sthaan ka naam batlaya.
“vahan kis liye gaye the? ”
“apne rozgar ke liye. ”
“kaam to tumhara bahut bura hai.
“kya karun, pet ke liye karna hi paDta hai. parmatma ne jiske liye jo rozgar niyat kiya hai, vahi usko karna paDta hai. ”
.
“kya nafa hua? parashn karne mein thakur ko zara sankoch hua, aur parashn ka uttar dene mein rajjab ko usse baDhkar.
rajjab ne javab diya “maharaj, pet ke layaq kuch mil gaya hai. yon hi. ” thakur ne is par koi zid nahin ki.
rajjab ek kshan baad bola “baDe bhor uthkar chala jaunga. tab tak ghar ke logon ki tabiyat bhi achchhi ho jayegi. ”
iske baad din bhar ke thake hue pati patni so gaye. kafi raat gaye kuch logon ne ek bandhe ishare se thakur ko bahar bulaya. ek phati si razai oDhe thakur bahar nikal aaya.
agantukon mein se ek ne dhire se kaha “dauju, aaj to khali haath laute hain. kal sandhya ka sagun baitha hai. ”
thakur ne kaha “aaj zarurat thi. khair, kal dekha jayega. ”
“kya koi upaay kiya tha?”
“haan” agantuk bola “ek qasai rupae ki mot bandhe isi or aaya hai. parantu hum log zara der mein pahunche. wo khisak gaya. kal dekhenge. zara jaldi. ”
thakur ne ghrinaa suchak svar mein kaha “qasai ka paisa na chhuvenge. ”
“kyon?”
“buri kamai hai. ”
“uske rupyon par qasai thoDe hi likha hai. ”
“parantu uske vyavsay se wo rupaya dushait ho gaya hai. ”
“rupaya to dusron ka hi hai. qasai ke haath aane se rupaya qasai nahin hua. ”
“mera man nahin manata, wo ashuddh hai. ”
“ham apni talvar se usko shuddh kar lenge. ”
zyada bahs nahin hui. thakur ne sochkar apne sathiyon ko bahar ka bahar hi taal diya.
bhitar dekha, qasai so raha tha, aur uski patni bhi.
thakur bhi so gaya.
savera ho gaya, parantu rajjab na ja saka. uski patni ka bukhar to halka ho gaya tha, parantu sharir bhar mein piDa thi, aur wo ek qadam bhi nahin chal sakti thi.
thakur use vahin thahra hua dekhkar kupit ho gaya. rajjab se bola “mainne khoob mehman ikatthe kiye hain. gaanv bhar thoDi der mein tum logon ko meri paur mein tika hua dekhkar tarah tarah ki bakvas karega. tum bahar jao. isi samay. ”
rajjab ne bahut vinti ki, parantu thakur na mana. yadyapi gaanv bhar uske dabdabe ko manata tha, parantu any lokamat dabdaba uske bhi man par tha. isliye rajjab gaanv ke bahar sapatnik ek peD ke niche ja baitha, aur hindu maatr ko man hi man kosne laga.
use aasha thi ki pahar aadh pahar mein uski patni ki tabiyat itni svasth ho jayegi ki wo paidal yatra kar sakegi. parantu aisa na hua, tab usne ek gaDi kiraye par kar lene ka nirnay kiya.
mushkil se ek chamar kafi kiraya lekar lalitpur gaDi le jane ke liye razi hua. itne mein duphar ho gai! uski patni ko zor ka bukhar ho aaya. wo jaDe ke mare thar thar kaanp rahi thi, itni ki rajjab ki himmat usi samay le jane ki na paDi. gaDi mein adhik hava lagne ke bhay se rajjab ne us samay tak ke liye yatra ko sthagit kar diya, jab tak ki us bechari ki kam se kam kanpkanpi band na ho jaye.
ghante DeDh ghante baad uski kanpkanpi to band ho gai, parantu jvar bahut tez ho gaya. rajjab ne apni patni ko gaDi mein Daal diya aur gaDivan se jaldi chalne ko kaha.
gaDivan bola “din bhar to yahi laga diya. ab jaldi chalne ko kahte ho!”
rajjab ne mithas ke svar mein usse phir jaldi karne ke liye kaha. wo bola “itne kiraye mein kaam nahin chalega. apna rupaya vapas lo. main to ghar jata hoon. ”
rajjab ne daant pise. kuch kshan chup raha. sachet hokar kahne laga “bhai, aafat sabke upar aati hai. manushya manushya ko sahara, deta hai, janvar to dete nahin. tumhare bhi baal bachche hain. kuch daya ke saath kaam lo. ”
qasai ko daya par vyakhyan dete sunkar gaDivan ko hansi aa gai.
usko tas se mas na hota dekhkar rajjab ne aur paise diye. tab usne gaDi hanki.
paanch chh? meel chalne ke baad sandhya ho gai. gaanv koi paas mein na tha. rajjab ki gaDi dhire dhire chali ja rahi thi. uski patni bukhar mein behosh si thi. rajjab ne apni kamar tatoli, raqam surakshait bandhi paDi thi.
rajjab ko smarn ho aaya ki patni ke bukhar ke karan anti ka kuch bojh kam kar dena paDa hai—aur smarn ho aaya gaDivan ka wo hath, jiske karan usko kuch paise byarth hi de dene paDe the. usko gaDivan par krodh tha, parantu usko prakat karne ki us samay uske man mein ichha na thi.
batachit karke rasta katne ki kamna se usne vartalap arambh kiya “gaanv to yahan se door milega. ”
“bahut door, vahin thahrenge. ”
“kiske yahan?”
“kisi ke yahan bhi nahin. peD ke niche. kal savere lalitpur chalenge. ”
“kal ko phir paisa maang uthna. ”
“kaise maang uthunga? kiraya le chuka hain. ab phir kaise manguga? ”
“jaise aaj gaanv mein hath karke manga tha. beta, lalitpur hota, to batala deta!”
“kya batala dete? kya sent ment gaDi mein baithna chahte the?”
‘kyon be, kya rupae dekar bhi sent ment ka baithna kahata hai?” janta hai, mera naam rajjab hai. agar beech mein gaDbaD karega, to nalayaq ko yahin chhure se katkar kahin phenk dunga aur gaDi lekar lalitpur chal dunga. ”
rajjab krodh ko prakat nahin karna chahta tha, parantu shayad akaran hi wo bhali bhanti prakat ho gaya.
gaDivan ne idhar udhar dekha. andhera ho gaya tha. charon or sunsan tha. aas paas jhaDi khaDi thi. aisa jaan paDta tha, kahin se koi ab nikla aur ab nikla. rajjab ki baat sunkar uski haDDi kaanp gai. aisa jaan paDa, manon pasaliyon ko uski thanDi chhuri chhu rahi ho.
gaDivan chupchap bail ko hankne laga. usne socha—ganv ke aate hi gaDi chhoDkar niche khaDa ho jaunga, aur halla gulla karke gaanv valon ki madad se apna pichha rajjab se chhuDaunga. rupae paise bhale hi vapas kar dunga, parantu aur aage na jaunga. kahin sachmuch maarg mein maar Dale!
gaDi thoDi door aur chali hogi ki bail thithakkar khaDe ho gaye. rajjab samne na dekh raha tha, isliye zara kaDakkar gaDivan se bola “kyon be badmash, so gaya kyaa?”
adhik kaDak ke saath samne raste par khaDi hui ek tukDi mein se kisi ke kathor kanth se nikla. . . “khabardar, jo aage baDha. ”
rajjab ne samne dekha ki chaar paanch adami baDe baDe lath bandhakar na jane kahan se aa gaye hain. unmen turant hi ek ne bailon ki juari par ek lath patka aur do dayen bayen aakar rajjab par akramn karne ko taiyar ho gaye.
gaDivan gaDi chhoDkar niche ja khaDa hua. bola. . . “malik main to gaDivan hoon. mujhse koi sarokar nahin. ”
“yah kaun hai?” ek ne garajkar puchha.
gaDivan ki ghigghi bandh gai. koi uttar na de saka.
rajjab ne kamar ki gaanth ko ek haath se sambhalte hue bahut hi vinamn svar mein kaha “main bahut gharib adami hoon. mere paas kuch nahin hai. meri aurat gaDi mein bimar paDi hai. mujhe jane dijiye. ”
un logon mein se ek ne rajjab ke sir par lathi ubari. gaDivan khisakna chahta tha ki dusre ne usko pakaD liya.
ab uska munh khula. bola “maharaj, mujhko chhoD do. main to kiraye se gaDi liye ja raha hoon. gaanth mein khane ke liye teen chaar aane paise hi hain. ”
“aur ye kaun hai? batala. ” un logon mein se ek ne puchha.
gaDivan ne turant uttar diya “lalitpur ka ek qasai.
rajjab ke sir par jo lathi ubari gai thi, wo vahin rah gai. lathivale ke munh se nikla “tum qasai ho? sach batao!”
“haan, maharaj! rajjab ne sahsa uttar diya “main bahut gharib hain. haath joDta hoon mujhko mat satao. meri aurat bahut bimar hai. aurat zor se karahi.
lathivale us adami ne apne ek sathi se kaan mein kaha “iska naam rajjab hai. chhoDo. chalen yahan se. ”
usne na mana. bola “iska khopaDa chaknachur karo dauju, yadi vaise na mane to. asai qasai hum kuch nahin mante. ”
“chhoDna hi paDega, usne kaha “is par haath nahin pasarenge aur na iska paisa chhuvenge. ”
dusra vola “kya qasai hone ke Dar se dauju, aaj tumhari buddhi par patthar paD gaye hain. main dekhta hoon. ” aur usne turant lathi ka ek sira rajjab ki chhati mein aDakar turant rupaya paisa nikal dene ka hukm diya. niche khaDe hue us vekti ne zara teevr svar mein kaha “niche utar aao. usse mat bolo. uski aurat bimar hai. ”
“ho, meri bala se”, gaDi mein chaDhe hue lathait ne uttar diya “main qasaiyon ki dava hoon. ” aur usne rajjab ko phir dhamki di.
niche khaDe hue us vekti ne kaha “khabardar, jo use chhua. niche utro, nahin to tumhara sir chaknachur kiye deta hoon. wo meri sharan aaya tha. ”
gaDivan lathait jhakh si markar niche utar aaya.
niche vale vekti ne kaha “sab log apne apne ghar jao. rahgiron ko tang mat karo. ” phir gaDivan se bola “ja re, haank le ja gaDi. thikane tak pahuncha aana, tab lautna. nahin to apni khair mat samajhiyo. aur, tum donon mein se kisi ne bhi kabhi is baat ki charcha kahin ki, to bhusi ki aag mein jalakar khaak kar dunga. ”
gaDivan gaDi lekar baDh gaya. un logon mein se jis adami ne gaDi par chaDhkar rajjab ke sir par lathi tani thi, usne kshaubdh svar mein kaha “dauju, aage se kabhi aapke saath na aunga. ”
dauju ne kaha “n aana. main akele hi bahut kar guzarta hoon. parantu bundela sharnaagat ke saath ghaat nahin karta, is baat ko gaanth baandh lena. ”
- पुस्तक : संपादित कहानी-संग्रह (पृष्ठ 102)
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
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