“बड़ा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।”
“आँधी की संभावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।”
“तो क्या तुम भी बंदी हो?”
“हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।”
“शस्त्र मिलेगा?”
“मिल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे?”
“हाँ।”
समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा—
स्नेह का असंभावित आलिंगन। दोनों ही अंधकार में मुक्त हो गए। दूसरे बंदी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बंदी ने कहा- “यह क्या? तुम स्त्री हो?”
“क्या स्त्री होना कोई पाप है?”—अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।
“शस्त्र कहाँ है? तुम्हारा नाम?”
“चंपा।”
तारक-खचित नील अंबर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अंधकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आंदोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढ़कने लगी। एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाण निकालकर, फिर लुढ़कते हुए, बंदी के समीप पहुँच गई। सहसा पोत से पथ-प्रदर्शक ने चिल्लाकर कहा- “आँधी!”
आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बंदी युवक उसी तरह पड़ा रहा। किसी ने रस्सी पकड़ी, कोई पाल खोल रहा था। पर युवक बंदी ढुलककर उस रज्जु के पास पहुँचा, जो पोत से संलग्न थी। तारे ढँक गए। तरंगें उद्वेलित हुईं, समुद्र गरजने लगा। भीषण आँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कंदुक-क्रीड़ा और अट्टहास करने लगी।
एक झटके के साथ ही नाव स्वतंत्र थी। उस संकट में भी दोनों बंदी खिलखिला कर हँस पड़े। आँधी के हाहाकार में उसे कोई न सुन सका।
(दो)
अनंत जलनिधि में ऊषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कुराने लगी। सागर शांत था। नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बंदी मुक्त हैं।
नायक ने कहा- “बुधगुप्त! तुमको मुक्त किसने किया?”
कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा- “इसने।”
नायक ने कहा- “तो तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।”
“किसके लिए? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा, नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।”
“तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं।”—चौंककर नायक ने कहा और अपना कृपाण टटोलने लगा! चंपा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वह क्रोध से उछल पड़ा।
“तो तुम द्वंद्व युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ; जो विजयी होगा, वह स्वामी होगा।”—इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया। चंपा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।
भीषण घात-प्रतिघात आरंभ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित गति वाले थे। बड़ी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतंत्र कर लिए। चंपा भय और विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गए। परंतु बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाण वाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुँकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण हाथों में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।
बुधगुप्त ने कहा- “बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?”
“मैं अनुचर हूँ, वरुणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा।” बुधगुप्त ने उसे छोड़ दिया।
चंपा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना विहीन कर दिया। बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्त-बिंदु विजय-तिलक कर रहे थे।
विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा- “हम लोग कहाँ होंगे?”
“बालीद्वीप से बहुत दूर, संभवत: एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।”
“कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?”
“अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में। तब तक के लिए खाद्य का अभाव न होगा।”
सहसा नायक ने नाविकों को डाँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़कर बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा- “यहाँ एक जलमग्न शैलखंड है। सावधान न रहने से नाव टकराने का भय है।”
(तीन)
“तुम्हें इन लोगों ने बंदी क्यों बनाया?”
“वणिक मणिभद्र की पाप-वासना ने।”
“तुम्हारा घर कहाँ है?”
“जाह्नवी के तट पर। चंपा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है। तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनंतता में निस्सहाय हूँ, अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ सुनाईं। उसी दिन से बंदी बना दी गई।”—चंपा रोष से जल रही थी।
“मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चंपा! परंतु दुर्भाग्य से जलदस्यु बन कर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?”
“मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले जाए।”—चंपा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरुद्देश्य थी। किसी आकांक्षा के लाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश विश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर काँप गया। उसके मन में एक सम्भ्रमपूर्ण श्रद्धा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी। समुद्र-वक्ष पर विलंबमयी राग-रंजित संध्या थिरकने लगी। चंपा के असंयत कुंतल उसकी पीठ पर बिखरे थे। दुर्दांत दस्यु ने देखा, अपनी महिमा में अलौकिक एक तरुण बालिका! वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह थी— कोमलता!
उसी समय नायक ने कहा- “हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए।”
बेला से नाव टकराई। चंपा निर्भीकता से कूद पड़ी। माँझी भी उतरे। बुधगुप्त ने कहा- “जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम लोग इसे चंपा-द्वीप कहेंगे।”
चंपा हँस पड़ी।
(चार)
पाँच बरस बाद—
शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चंद्र की उज्ज्वल विजय पर अंतरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया।
चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी चंपा दीपक जला रही थी। बड़े यत्न से अभ्रक की मंजूषा में दीप धरकर उसने अपनी सुकुमार उँगलियों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढ़ने लगा। भोली-भोली आँखें उसे ऊपर चढ़ते बड़े हर्ष से देख रही थीं। डोरी धीरे-धीरे खींची गई। चंपा की कामना थी कि उसका आकाश-दीप नक्षत्रों से हिलमिल जाए; किंतु वैसा होना असंभव था। उसने आशाभरी आँखें फिरा लीं।
सामने जल-राशि का रजत शृंगार था। वरुण बालिकाओं के लिए लहरों से हीरे और नीलम की क्रीड़ा शैल-मालाएँ बन रही थीं और वे मायाविनी छलनाएँ अपनी हँसी का कलनाद छोड़कर छिप जाती थीं। दूर-दूर से धीवरों का वंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखरित होता था। चंपा ने देखा कि तरल संकुल जल-राशि में उसके कंडील का प्रतिबिंब अस्त-व्यस्त था! वह अपनी पूर्णता के लिए सैकड़ों चक्कर काटता था। वह अनमनी होकर उठ खड़ी हुई। किसी को पास न देखकर पुकारा—“जया!”
एक श्यामा युवती सामने आकर खड़ी हुई। वह जंगली थी। नील नभोमंडल के मुख में शुद्ध नक्षत्रों की पंक्ति के समान उसके दाँत हँसते ही रहते। वह चंपा को रानी कहती; बुधगुप्त की आज्ञा थी।
“महानाविक कब तक आवेंगे, बाहर पूछो तो।” चंपा ने कहा। जया चली गई।
दूरागत पवन चंपा के अँचल में विश्राम लेना चाहता था। उसके हृदय में गुदगुदी हो रही थी। आज न जाने क्यों वह बेसुध थी। वह दीर्घकाल दृढ़ पुरुष ने उसकी पीठ पर हाथ रख चमत्कृत कर दिया। उसने फिरकर कहा- “बुधगुप्त!”
“बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तुम्हें यह काम करना है?”
“क्षीरनिधिशायी अनंत की प्रसन्नता के लिए क्या दासियों से आकाश-दीप जलवाऊँ?”
“हँसी आती है। तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो? उसको, जिसको तुमने भगवान् मान लिया है?”
“हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं, नहीं तो, बुधगुप्त को इतना ऐश्वर्य क्यों देते?”
“तो बुरा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चंपा रानी?”
“मुझे इस बंदी-गृह से मुक्त करो। अब तो बाली, जावा और सुमात्रा का वाणिज्य केवल तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक! परंतु मुझे उन दिनों की स्मृति सुहावनी लगती है, जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य लादकर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे, इस जल में अगणित बार हम लोगों की तरी आलोकमय प्रभात में तारिकाओं की मधुर ज्योति में थिरकती थी। बुधगुप्त! उस विजन अनंत में जब माँझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम-तुम परिश्रम से थककर पालों में शरीर लपेटकर एक-दूसरे का मुँह क्यों देखते थे? वह नक्षत्रों की मधुर छाया...”
“तो चंपा! अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं। तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।”
“नहीं-नहीं, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी परंतु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है। तुम भगवान के नाम पर हँसी उड़ाते हो। मेरे आकाश-दीप पर व्यंग कर रहे हो, नाविक! उस प्रचंड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे। मुझे स्मरण है, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे—मेरी माता, मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी। उस समय वह प्रार्थना करती- ‘भगवान! मेरे पथ-भ्रष्ट नाविक को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना।’ और जब मेरे पिता बरसों पर लौटते तो कहते- ‘साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान् ने संकटों में मेरी रक्षा की है।’ वह गद्गद हो जाती। मेरी माँ? आह नाविक! यह उसी की पुण्य-स्मृति है। मेरे पिता, वीर पिता की मृत्यु के निष्ठुर कारण, जलदस्यु! हट जाओ।”—सहसा चंपा का मुख क्रोध से भीषण होकर रंग बदलने लगा। महानाविक ने कभी यह रूप न देखा था। वह ठठाकर हँस पड़ा।
“यह क्या, चंपा? तुम अस्वस्थ हो जाओगी, सो रहो।”—कहता हुआ चला गया। चंपा मुठ्ठी बाँधे उन्मादिनी-सी घूमती रही।
(पाँच)
निर्जन समुद्र के उपकूल में वेला से टकराकर लहरें बिखर जाती थीं। पश्चिम का पथिक थक गया था। उसका मुख पीला पड़ गया। अपनी शांत गंभीर हलचल में जलनिधि विचार में निमग्न था। वह जैसे प्रकाश की उन्मलिन किरणों से विरक्त था।
चंपा और जया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खड़ी हो गईं। तरंग से उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया। जया के संकेत से एक छोटी-सी नौका आई। दोनों के उस पर बैठते ही नाविक उतर गया। जया नाव खेने लगी। चंपा मुग्ध-सी समुद्र के उदास वातावरण में अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी।
“इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी। पी सकूँगी? नहीं! तो जैसे वेला में चोट खाकर सिंधु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूँ? या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनंत जल में डूबकर बुझ जाऊँ?”—चंपा के देखते-देखते पीड़ा और ज्वलन से आरक्त बिंब धीरे-धीरे सिंधु में चौथाई-आधा, फिर संपूर्ण विलीन हो गया। एक दीर्घ निश्वास लेकर चंपा ने मुँह फेर लिया। देखा, तो महानाविक का बजरा उसके पास है। बुधगुप्त ने झुककर हाथ बढ़ाया। चंपा उसके सहारे बजरे पर चढ़ गर्इ। दोनों पास-पास बैठ गए।
“इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न शैल खंड है। कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती, चंपा तो?”
“अच्छा होता, बुधगुप्त! जल में बंदी होना कठोर प्राचीरों से तो अच्छा है।”
आह चंपा, तुम कितनी निर्दय हो! बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तुम्हारे लिए नए द्वीप की सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नए राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो...। कहो, चंपा! वह कृपाण से अपना हृदय-पिंड निकाल अपने हाथों अतल जल में विसर्जन कर दे।”—महानाविक—जिसके नाम से बाली, जावा और चंपा का आकाश गूँजता था, पवन थर्राता था, घुटनों के बल चंपा के सामने छलछलाई आँखों से बैठा था।
सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में, नील पिंगल संध्या, प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने लगी। उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण नीलजाल का कुहक स्फुट हो उठा। जैसे मदिरा से सारा अंतरिक्ष सिक्त हो गया। सृष्टि नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से पागल चंपा ने बुधगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिए। वहाँ एक आलिंगन हुआ, जैसे क्षितिज में आकाश और सिंधु का। किंतु उस परिरंभ में सहसा चैतन्य होकर चंपा ने अपनी कंचुकी से एक कृपाण निकाल लिया।
“बुधगुप्त! आज मैं अपने प्रतिशोध का कृपाण अतल जल में डुबा देती हूँ। हृदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया!”—चमककर वह कृपाण समुद्र का हृदय बेधता हुआ विलीन हो गया।
“तो आज से मैं विश्वास करूँ, क्षमा कर दिया गया?”—आश्चर्यचकित कंपित कंठ से महानाविक ने पूछा।
'विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुप्त! जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अँधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।” चंपा रो पड़ी।
वह स्वप्नों की रंगीन संध्या, तम से अपनी आँखें बंद करने लगी थी। दीर्घ निश्वास लेकर महानाविक ने कहा- “इस जीवन की पुण्यतम घड़ी की स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊँगा, चंपा! चंपा यहीं उस पहाड़ी पर। संभव है कि मेरे जीवन की धुँधली संध्या उससे आलोकपूर्ण हो जाए।”
(छः)
चंपा के दूसरे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी। वह बहुत दूर तक सिंधु-जल में निमग्न थी। सागर का चंचल जल उस पर उछलता हुआ उसे छिपाए था। आज उसी शैलमाला पर चंपा के आदि-निवासियों का समारोह था। उन सबों ने चंपा को वनदेवी-सा सजाया था। ताम्रलिप्ति के बहुत से सैनिक नाविकों की श्रेणी में वन-कुसुम-विभूषिता चंपा शिविकारूढ़ होकर जा रही थी।
शैल के एक उँचे शिखर पर चंपा के नाविकों को सावधान करने के लिए सुदृढ़ दीप-स्तंभ बनवाया गया था। आज उसी का महोत्सव है। बुधगुप्त स्तंभ के द्वार पर खड़ा था। शिविका से सहायता देकर चंपा को उसने उतारा। दोनों ने भीतर पदार्पण किया था कि बाँसुरी और ढोल बजने लगे। पंक्तियों में कुसुम-भूषण से सजी वन-बालाएँ फूल उछालती हुई नाचने लगीं।
दीप-स्तंभ की ऊपरी खिड़की से यह देखती हुई चंपा ने जया से पूछा- “यह क्या है जया? इतनी बालिकाएँ कहाँ से बटोर लाईं?”
“आज रानी का ब्याह है न?”—कहकर जया ने हँस दिया।
बुधगुप्त विस्तृत जलनिधि की ओर देख रहा था। उसे झकझोरकर चंपा ने पूछा- “क्या यह सच है?”
“यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चंपा! कितने वर्षों से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाए हूँ।”
“चुप रहो, महानाविक! क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?”
“मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ, चंपा! वह एक दूसरे दस्यु के शस्त्र से मरे।”
“मैं इसका विश्वास कर सकती। बुधगुप्त, वह दिन कितना सुंदर होता, वह क्षण कितना स्पृहणीय! आह! तुम इस निष्ठुरता में भी कितने महान होते।”
जया नीचे चली गई थी। स्तंभ के संकीर्ण प्रकोष्ठ में बुधगुप्त और चंपा एकांत में एक दूसरे के सामने बैठे थे।
बुधगुप्त ने चंपा के पैर पकड़ लिए। उच्छ्वसित शब्दों में वह कहने लगा- “चंपा, हम लोग जन्मभूमि-भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इंद्र और शची के समान पूजित हैं। पर न जाने कौन अभिशाप हम लोगों को अभी तक अलग किए है। स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परंतु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्त्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चन्द्रकांतमणि की तरह द्रवित हुआ।
चंपा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता। पर मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हो गई हो। आलोक की एक कोमल रेखा इस निविड़तम में मुस्कुराने लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में किसी शांत और एकांत कामना की हँसी खिलखिलाने लगी; पर मैं न हँस सका!
चलोगी चंपा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लादकर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? आज हमारा परिणय हो, कल ही हम लोग भारत के लिए प्रस्थान करें। महानाविक बुधगुप्त की आज्ञा सिंधु की लहरें मानती हैं। वे स्वयं उस पोत-पुंज को दक्षिण पवन के समान भारत में पहुँचा देंगी। आह चंपा! चलो।”
चंपा ने उसके हाथ पकड़ लिए। किसी आकस्मिक झटके ने एक पलभर के लिए दोनों के अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चंपा ने कहा- “बुधगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दु:ख की सहानुभूति और सेवा के लिए।”
“तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चंपा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय पर अधिकार रख सकूँ— इसमें संदेह है। आह! उन लहरों में मेरा विनाश हो जाए।”—महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर उसने पूछ- “तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?”
“पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तंभ पर से आलोक जलाकर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी। किंतु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।”
(सात)
एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तंभ पर से देखा—सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चंपा का उपकूल छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर महा जल-व्याल के समान संतरण कर रही है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चंपा आजीवन उस दीप-स्तंभ में आलोक जलाती रही। किंतु उसके बाद भी बहुत दिन, दीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश पूजा करते थे।
एक दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरा दिया।
(ek)
bandi!
kya hai? sone do.
mukt hona chahte ho?
abhi nahin, nidra khulne par, chup raho.
phir avsar na milega.
baDa sheet hai, kahin se ek kambal Dalkar koi sheet se mukt karta.
andhi ki sambhavna hai. yahi avsar hai. aaj mere bandhan shithil hain.
to kya tum bhi bandi ho?
haan, dhire bolo, is naav par keval das navik aur prahri hain.
shastr milega?
mil jayega. pot se sambaddh rajju kaat sakoge?
haan.
samudr mein hiloren uthne lagin. donon bandi aapas mein takrane lage. pahle bandi ne apne ko svtantr kar liya. dusre ka bandhan kholne ka prayatn karne laga. lahron ke dhakke ek dusre ko sparsh se pulkit kar rahe the. mukti ki asha—
sneh ka asambhavit alingan. donon hi andhkar mein mukt ho gaye. dusre bandi ne harshatirek se usko gale se laga liya. sahsa us bandi ne kaha yah kyaa? tum istri ho?
kya istri hona koi paap hai?—apne ko alag karte hue istri ne kaha.
shastr kahan hai? tumhara naam?
champa.
tarak khachit neel ambar aur samudr ke avkash mein pavan udham macha raha tha. andhkar se milkar pavan dusht ho raha tha. samudr mein andolan tha. nauka lahron mein vikal thi. istri satarkata se luDhakne lagi. ek matvale navik ke sharir se takrati hui savadhani se uska kripan nikalkar, phir luDhakte hue, bandi ke samip pahunch gai. sahsa pot se path pradarshak ne chillakar kaha andhi!
apatti suchak toory bajne laga. sab savdhan hone lage. bandi yuvak usi tarah paDa raha. kisi ne rassi pakDi, koi paal khol raha tha. par yuvak bandi Dhulakkar us rajju ke paas pahuncha, jo pot se sanlagn thi. tare Dhank gaye. tarangen udvelit huin, samudr garajne laga. bhishan andhi, pishachini ke saman naav ko apne hathon mein lekar kanduk kriDa aur attahas karne lagi.
ek jhatke ke saath hi naav svtantr thi. us sankat mein bhi donon bandi khilkhila kar hans paDe. andhi ke hahakar mein use koi na sun saka.
(do)
anant jalnidhi mein usha ka madhur aalok phoot utha. sunahli kirnon aur lahron ki komal sirishti muskurane lagi. sagar shaant tha. navikon ne dekha, pot ka pata nahin. bandi mukt hain.
nayak ne kaha budhgupt! tumko mukt kisne kiya?
kripan dikhakar budhgupt ne kaha isne.
nayak ne kaha to tumhein phir bandi banaunga.
kiske liye? potadhyaksh manibhadr atal jal mein hoga, nayak! ab is nauka ka svami main hoon.
tum? jaldasyu budhgupt? kadapi nahin. —chaunkkar nayak ne kaha aur apna kripan tatolne laga! champa ne iske pahle us par adhikar kar liya tha. wo krodh se uchhal paDa.
to tum dvandv yudh ke liye prastut ho jao; jo vijyi hoga, wo svami hoga. —itna kahkar budhgupt ne kripan dene ka sanket kiya. champa ne kripan nayak ke haath mein de diya.
bhishan ghaat pratighat arambh hua. donon kushal, donon tvarit gati vale the. baDi nipunata se budhgupt ne apna kripan danton se pakaDkar apne donon haath svtantr kar liye. champa bhay aur vismay se dekhne lagi. navik prasann ho gaye. parantu budhgupt ne laghav se nayak ka kripan vala haath pakaD liya aur wicket hunkar se dusra haath kati mein Daal, use gira diya. dusre hi kshan parbhat ki kirnon mein budhgupt ka vijyi kripan hathon mein chamak utha. nayak ki katar ankhen paran bhiksha mangne lagin.
budhgupt ne kaha bolo, ab svikar hai ki nahin?
main anuchar hoon, varundev ki shapath. main vishvasghat nahin karunga. budhgupt ne use chhoD diya.
champa ne yuvak jaldasyu ke samip aakar uske kshton ko apni snigdh drishti aur komal karon se vedna vihin kar diya. budhgupt ke sugthit sharir par rakt bindu vijay tilak kar rahe the.
vishram lekar budhgupt ne puchha ham log kahan honge?
balidvip se bahut door, sambhavtah ek navin dveep ke paas, jismen abhi hum logon ka bahut kam aana jana hota hai. sinhal ke vanikon ka vahan pradhany hai.
kitne dinon mein hum log vahan pahunchenge?
anukul pavan milne par do din mein. tab tak ke liye khaady ka abhav na hoga.
sahsa nayak ne navikon ko DaanD lagane ki aagya di, aur svayan patvar pakaDkar baith gaya. budhgupt ke puchhne par usne kaha yahan ek jalmagn shailkhanD hai. savdhan na rahne se naav takrane ka bhay hai.
(teen)
tumhen in logon ne bandi kyon banaya?
vanaik manibhadr ki paap vasana ne.
tumhara ghar kahan hai?
jahnavi ke tat par. champa nagri ki ek kshatriy balika hoon. pita isi manibhadr ke yahan prahri ka kaam karte the. mata ka dehavasan ho jane par main bhi pita ke saath naav par hi rahne lagi. aath baras se samudr hi mera ghar hai. tumhare akramn ke samay mere pita ne hi saat dasyuon ko markar jal samadhi li. ek maas hua, main is neel nabh ke niche, neel jalnidhi ke upar, ek bhayanak anantta mein nissahay hoon, anath hoon. manibhadr ne mujhse ek din ghrinait prastav kiya. mainne use galiyan sunain. usi din se bandi bana di gai. —champa rosh se jal rahi thi.
main bhi tamrlipti ka ek kshatriy hoon, champa! parantu durbhagy se jaldasyu ban kar jivan bitata hoon. ab tum kya karogi?
main apne adrsht ko anirdisht hi rahne dungi. wo jahan le jaye. —champa ki ankhen nissim pardesh mein niruddeshy thi. kisi akanksha ke laal Dore na the. dhaval apangon mein balkon ke sadrish vishvas tha. hattya vyavsayi dasyu bhi use dekhkar kaanp gaya. uske man mein ek sambhrampurn shardha yauvan ki pahli lahron ko jagane lagi. samudr vaksh par vilambamyi raag ranjit sandhya thirakne lagi. champa ke asanyat kuntal uski peeth par bikhre the. durdant dasyu ne dekha, apni mahima mein alaukik ek tarun balika! wo vismay se apne hirdai ko tatolne laga. use ek nai vastu ka pata chala. wo thee— komalta!
usi samay nayak ne kaha ham log dveep ke paas pahunch gaye.
bela se naav takrai. champa nirbhikata se kood paDi. manjhi bhi utre. budhgupt ne kaha jab iska koi naam nahin hai, to hum log ise champa dveep kahenge.
champa hans paDi.
4
paanch baras baad—
sharad ke dhaval nakshatr neel gagan mein jhalamla rahe the. chandr ki ujjval vijay par antriksh mein sharadlakshmi ne ashirvad ke phulon aur khilon ko bikher diya.
champa ke ek uchchsaudh par baithi hui tarunai champa dipak jala rahi thi. baDe yatn se abhrak ki manjusha mein deep dharkar usne apni sukumar ungliyon se Dori khinchi. wo dipadhar upar chaDhne laga. bholi bholi ankhen use upar chaDhte baDe harsh se dekh rahi theen. Dori dhire dhire khinchi gai. champa ki kamna thi ki uska akash deep nakshatron se hilmil jaye; kintu vaisa hona asambhav tha. usne ashabhri ankhen phira leen.
samne jal rashi ka rajat shringar tha. varun balikaon ke liye lahron se hire aur nilam ki kriDa shail malayen ban rahi theen aur ve mayavini chhalnayen apni hansi ka kalnad chhoDkar chhip jati theen. door door se dhivron ka vanshi jhankar unke sangit sa mukhrit hota tha. champa ne dekha ki taral sankul jal rashi mein uske kanDil ka pratibimb ast vyast tha! wo apni purnata ke liye saikDon chakkar katta tha. wo anamni hokar uth khaDi hui. kisi ko paas na dekhkar pukara—jaya!
ek shyama yuvati samne aakar khaDi hui. wo jangli thi. neel nabhomanDal se mukh mein shuddh nakshatron ki pankti ke saman uske daant hanste hi rahte. wo champa ko rani kahti; budhgupt ki aagya thi.
mahanavik kab tak avenge, bahar puchho to. champa ne kaha. jaya chali gai.
duragat pavan champa ke anchal mein vishram lena chahta tha. uske hirdai mein gudgudi ho rahi thi. aaj na jane kyon wo besudh thi. wo dirghakal driDh purush ne uski peeth par haath rakh chamatkrit kar diya. usne phirkar kaha budhgupt!
bavli ho kyaa? yahan baithi hui abhi tak deep jala rahi ho, tumhein ye kaam karna hai?
kshairanidhishayi anant ki prasannata ke liye kya dasiyon se akash deep jalvaun?
hansi aati hai. tum kisko deep jalakar path dikhlana chahti ho? usko, jisko tumne bhagvan maan liya hai?
haan, wo bhi kabhi bhatakte hain, bhulte hain, nahin to, budhgupt ko itna aishvary kyon dete?
to bura kya hua, is dveep ki adhishvri champarani!
mujhe is bandigrih se mukt karo. ab to bali, java aur sumatra ka vanaijy keval tumhare hi adhikar mein hai mahanavik! parantu mujhe un dinon ki smriti suhavni lagti hai, jab tumhare paas ek hi naav thi aur champa ke upkul mein panya ladkar hum log sukhi jivan bitate the, is jal mein agnit baar hum logon ki tari alokmay parbhat mein tarikaon ki madhur jyoti mein thirakti thi. budhgupt! us vijan anant mein jab manjhi so jate the, dipak bujh jate the, hum tum parishram se thakkar palon mein sharir lapetkar ek dusre ka munh kyon dekhte the? wo nakshatron ki madhur chhaya. . .
to champa! ab usse bhi achchhe Dhang se hum log vichar sakte hain. tum meri pranadatri ho, meri sarvasv ho.
nahin nahin, tumne dasyuvrtti chhoD di parantu hirdai vaisa hi akrun, satrshn aur jvalanshil hai. tum bhagvan ke naam par hansi uDate ho. mere akash deep par vyang kar rahe ho, navik! us prchanD andhi mein parkash ki ek ek kiran ke liye hum log kitne vyakul the. mujhe smarn hai, jab main chhoti thi, mere pita naukari par samudr mein jate the—meri mata, mitti ka dipak baans ki pitari mein bhagirathi ke tat par baans ke saath unche taang deti thi. us samay wo pararthna karti bhagvan! mere path bhrasht navik ko andhkar mein theek path par le chalna. aur jab mere pita barson par lautte to kahte sadhvi! teri pararthna se bhagvan ne sankton mein meri rakhsha ki hai. wo gadgad ho jati. meri maan? aah navik! ye usi ki punny smriti hai. mere pita, veer pita ki mirtyu ke nishthur karan, jaldasyu! hat jao. —sahsa champa ka mukh krodh se bhishan hokar rang badalne laga. mahanavik ne kabhi ye roop na dekha tha. wo thathakar hans paDa.
yah kya, champa? tum asvasth ho jaogi, so raho. —kahta hua chala gaya. champa muththi bandhe unmadini si ghumti rahi.
5
nirjan samudr ke upkul mein vela se takrakar lahren bikhar jati theen. pashchim ka pathik thak gaya tha. uska mukh pila paD gaya. apni shaant gambhir halchal mein jalnidhi vichar mein nimagn tha. wo jaise parkash ki unmlin kirnon se virakt tha.
champa aur jaya dhire dhire us tat par aakar khaDi ho gain. tarang se uthte hue pavan ne unke vasan ko ast vyast kar diya. jaya ke sanket se ek chhoti si nauka i. donon ke us par baithte hi navik utar gaya. jaya naav khene lagi. champa mugdh si samudr ke udaas vatavarn mein apne ko mishrit kar dena chahti thi.
itna jal! itni shitalta! hirdai ki pyaas na bujhi. pi sakungi? nahin! to jaise vela mein chot khakar sindhu chilla uthta hai, usi ke saman rodan karun? ya jalte hue svarn golak sadrish anant jal mein Dubkar bujh jaun?—champa ke dekhte dekhte piDa aur jvalan se arakt bimb dhire dhire sindhu mein chauthai aadha, phir sampurn vilin ho gaya. ek deergh nishvas lekar champa ne munh pher liya. dekha, to mahanavik ka bajra uske paas hai. budhgupt ne jhukkar haath baDhaya. champa uske sahare bajre par chaDh gari. donon paas paas baith gaye.
itni chhoti naav par idhar ghumna theek nahin. paas hi wo jalmagn shail khanD hai. kahin naav takra jati ya upar chaDh jati, champa to?
achchha hota, budhgupt! jal mein bandi hona kathor prachiron se to achchha hai.
aah champa, tum kitni nirday ho! budhgupt ko aagya dekar dekho to, wo kya nahin kar sakta. jo tumhare liye nae dveep ki sirishti kar sakta hai, nai praja khoj sakta hai, nae raajy bana sakta hai, uski pariksha lekar dekho to. . . . kaho, champa! wo kripan se apna hirdai pinD nikal apne hathon atal jal mein visarjan kar de. —mahanavik—jiske naam se bali, java aur champa ka akash gunjta tha, pavan tharrata tha, ghutnon ke bal champa ke samne chhalachhlai ankhon se baitha tha.
samne shailmala ki choti par hariyali mein vistrit jal desh mein, neel pingal sandhya, prakrti ki sahrday kalpana, vishram ki shital chhaya, svapnalok ka srijan karne lagi. us mohiani ke rahasyapurn niljal ka kuhak sphut ho utha. jaise madira se sara antriksh sikt ho gaya. sirishti neel kamlon mein bhar uthi. us saurabh se pagal champa ne budhgupt ke donon haath pakaD liye. vahan ek alingan hua, jaise kshaitij mein akash aur sindhu ka. kintu us parirambh mein sahsa chaitany hokar champa ne apni kanchuki se ek kripan nikal liya.
budhgupt! aaj main apne pratishodh ka kripan atal jal mein Duba deti hoon. hirdai ne chhal kiya, baar baar dhokha diya!—chamakkar wo kripan samudr ka hirdai bedhta hua vilin ho gaya.
to aaj se main vishvas karun, kshama kar diya gaya?—ashcharyachkit kampit kanth se mahanavik ne puchha.
vishvas? kadapi nahin, budhgupt! jab main apne hirdai par vishvas nahin kar saki, usi ne dhokha diya, tab main kaise kahun? main tumhein ghrinaa karti hoon, phir bhi tumhare liye mar sakti hoon. andher hai jaldasyu. tumhein pyaar karti hoon. champa ro paDi.
wo svapnon ki rangin sandhya, tam se apni ankhen band karne lagi thi. deergh nishvas lekar mahanavik ne kaha is jivan ki punytam ghaDi ki smriti mein ek parkash grih banaunga, champa! champa yahin us pahaDi par. sambhav hai ki mere jivan ki dhundhli sandhya usse alokpurn ho jaye.
(chh?)
champa ke dusre bhaag mein ek manoram shailmala thi. wo bahut door tak sindhu jal mein nimagn thi. sagar ka chanchal jal us par uchhalta hua use chhipaye tha. aaj usi shailmala par champa ke aadi nivasiyon ka samaroh tha. un sabon ne champa ko vandevi sa sajaya tha. tamrlipti ke bahut se sainik navikon ki shrenai mein van kusum vibhushita champa shivikaruDh hokar ja rahi thi.
shail ke ek unche sikhar par champa ke navikon ko savdhan karne ke liye sudriDh deep stambh banvaya gaya tha. aaj usi ka mahotsav hai. budhgupt stambh ke dvaar par khaDa tha. shivika se sahayata dekar champa ko usne utara. donon ne bhitar padarpan kiya tha ki bansuri aur Dhol bajne lage. panktiyon mein kusum bhushan se saji van balayen phool uchhalti hui nachne lagin.
deep stambh ki upri khiDki se ye dekhti hui champa ne jaya se puchha yah kya hai jaya? itni balikayen kahan se bator lain?
aaj rani ka byaah hai n?—kahkar jaya ne hans diya.
budhgupt vistrit jalnidhi ki or dekh raha tha. use jhakjhorkar champa ne puchha kya ye sach hai?
yadi tumhari ichha ho, to ye sach bhi ho sakta hai, champa! kitne varshon se main jvalamukhi ko apni chhati mein dabaye hoon. ”
chup raho, mahanavik! kya mujhe nissahay aur kangal jankar tumne aaj sab pratishodh lena chaha?
main tumhare pita ka ghatak nahin hoon, champa! wo ek dusre dasyu ke shastr se mare.
main iska vishvas kar sakti. budhgupt, wo din kitna sundar hota, wo kshan kitna sprihanaiy! aah! tum is nishthurta mein bhi kitne mahan hote.
jaya niche chali gai thi. stambh ke sankirn prakoshth mein budhgupt aur champa ekaant mein ek dusre ke samne baithe the.
budhgupt ne champa ke pair pakaD liye. uchchhvsit shabdon mein wo kahne laga champa, hum log janmabhumi bharatvarsh se kitni door in nirih praniyon mein indr aur shachi ke saman pujit hain. par na jane kaun abhishap hum logon ko abhi tak alag kiye hai. smarn hota hai wo darshanikon ka desh! wo mahima ki pratima! mujhe wo smriti nity akarshait karti hai; parantu main kyon nahin jata? janti ho, itna mahattv praapt karne par bhi main kangal hoon! mera patthar sa hirdai ek din sahsa tumhare sparsh se chandrkantamani ki tarah drvit hua.
champa! main ishvar ko nahin manata, main paap ko nahin manata, main daya ko nahin samajh sakta, main us lok mein vishvas nahin karta. par mujhe apne hirdai ke ek durbal ansh par shardha ho chali hai. tum na jane kaise ek bahki hui tarika ke saman mere shunya mein udit ho gai ho. aalok ki ek komal rekha is niviDtam mein muskurane lagi. pashu bal aur dhan ke upasak ke man mein kisi shaant aur ekaant kamna ki hansi khilkhilane lagi; par main na hans saka!
chalogi champa? potavahini par asankhya dhanrashi ladkar rajrani si janmabhumi ke ank men? aaj hamara parinay ho, kal hi hum log bharat ke liye prasthan karen. mahanavik budhgupt ki aagya sindhu ki lahren manti hain. ve svayan us pot punj ko dakshain pavan ke saman bharat mein pahuncha dengi. aah champa! chalo.
champa ne uske haath pakaD liye. kisi akasmik jhatke ne ek palbhar ke liye donon ke adhron ko mila diya. sahsa chaitany hokar champa ne kaha budhgupt! mere liye sab bhumi mitti hai; sab jal taral hai; sab pavan shital hai. koi vishesh akanksha hirdai mein agni ke saman prajvalit nahin. sab milakar mere liye ek shunya hai. priy navik! tum svadesh laut jao, vibhvon ka sukh bhogne ke liye, aur mujhe, chhoD do in nirih bhole bhale praniyon ke duhakh ki sahanubhuti aur seva ke liye.
tab main avashy chala jaunga, champa! yahan rahkar main apne hirdai par adhikar rakh sakun— ismen sandeh hai. aah! un lahron mein mera vinash ho jaye. —mahanavik ke uchchhvaas mein vikalta thi. phir usne poochh tum akeli yahan kya karogi?
pahle vichar tha ki kabhi kabhi is deep stambh par se aalok jalakar apne pita ki samadhi ka is jal se anveshan karungi. kintu dekhti hoon, mujhe bhi isi mein jalna hoga, jaise akash deep.
(saat)
ek din svarn rahasy ke parbhat mein champa ne apne deep stambh par se dekha—samudrik navon ki ek shrenai champa ka upkul chhoDkar pashchim uttar ki or maha jal vyaal ke saman santran kar rahi hai. uski ankhon se ansu bahne lage.
ye kitni hi shatabdiyon pahle ki katha hai. champa ajivan us deep stambh mein aalok jalati rahi. kintu uske baad bhi bahut din, dipanivasi, us maya mamta aur sneh seva ki devi ki samadhi sadrish puja karte the.
ek din kaal ke kathor hathon ne use bhi apni chanchalta se gira diya.
(ek)
bandi!
kya hai? sone do.
mukt hona chahte ho?
abhi nahin, nidra khulne par, chup raho.
phir avsar na milega.
baDa sheet hai, kahin se ek kambal Dalkar koi sheet se mukt karta.
andhi ki sambhavna hai. yahi avsar hai. aaj mere bandhan shithil hain.
to kya tum bhi bandi ho?
haan, dhire bolo, is naav par keval das navik aur prahri hain.
shastr milega?
mil jayega. pot se sambaddh rajju kaat sakoge?
haan.
samudr mein hiloren uthne lagin. donon bandi aapas mein takrane lage. pahle bandi ne apne ko svtantr kar liya. dusre ka bandhan kholne ka prayatn karne laga. lahron ke dhakke ek dusre ko sparsh se pulkit kar rahe the. mukti ki asha—
sneh ka asambhavit alingan. donon hi andhkar mein mukt ho gaye. dusre bandi ne harshatirek se usko gale se laga liya. sahsa us bandi ne kaha yah kyaa? tum istri ho?
kya istri hona koi paap hai?—apne ko alag karte hue istri ne kaha.
shastr kahan hai? tumhara naam?
champa.
tarak khachit neel ambar aur samudr ke avkash mein pavan udham macha raha tha. andhkar se milkar pavan dusht ho raha tha. samudr mein andolan tha. nauka lahron mein vikal thi. istri satarkata se luDhakne lagi. ek matvale navik ke sharir se takrati hui savadhani se uska kripan nikalkar, phir luDhakte hue, bandi ke samip pahunch gai. sahsa pot se path pradarshak ne chillakar kaha andhi!
apatti suchak toory bajne laga. sab savdhan hone lage. bandi yuvak usi tarah paDa raha. kisi ne rassi pakDi, koi paal khol raha tha. par yuvak bandi Dhulakkar us rajju ke paas pahuncha, jo pot se sanlagn thi. tare Dhank gaye. tarangen udvelit huin, samudr garajne laga. bhishan andhi, pishachini ke saman naav ko apne hathon mein lekar kanduk kriDa aur attahas karne lagi.
ek jhatke ke saath hi naav svtantr thi. us sankat mein bhi donon bandi khilkhila kar hans paDe. andhi ke hahakar mein use koi na sun saka.
(do)
anant jalnidhi mein usha ka madhur aalok phoot utha. sunahli kirnon aur lahron ki komal sirishti muskurane lagi. sagar shaant tha. navikon ne dekha, pot ka pata nahin. bandi mukt hain.
nayak ne kaha budhgupt! tumko mukt kisne kiya?
kripan dikhakar budhgupt ne kaha isne.
nayak ne kaha to tumhein phir bandi banaunga.
kiske liye? potadhyaksh manibhadr atal jal mein hoga, nayak! ab is nauka ka svami main hoon.
tum? jaldasyu budhgupt? kadapi nahin. —chaunkkar nayak ne kaha aur apna kripan tatolne laga! champa ne iske pahle us par adhikar kar liya tha. wo krodh se uchhal paDa.
to tum dvandv yudh ke liye prastut ho jao; jo vijyi hoga, wo svami hoga. —itna kahkar budhgupt ne kripan dene ka sanket kiya. champa ne kripan nayak ke haath mein de diya.
bhishan ghaat pratighat arambh hua. donon kushal, donon tvarit gati vale the. baDi nipunata se budhgupt ne apna kripan danton se pakaDkar apne donon haath svtantr kar liye. champa bhay aur vismay se dekhne lagi. navik prasann ho gaye. parantu budhgupt ne laghav se nayak ka kripan vala haath pakaD liya aur wicket hunkar se dusra haath kati mein Daal, use gira diya. dusre hi kshan parbhat ki kirnon mein budhgupt ka vijyi kripan hathon mein chamak utha. nayak ki katar ankhen paran bhiksha mangne lagin.
budhgupt ne kaha bolo, ab svikar hai ki nahin?
main anuchar hoon, varundev ki shapath. main vishvasghat nahin karunga. budhgupt ne use chhoD diya.
champa ne yuvak jaldasyu ke samip aakar uske kshton ko apni snigdh drishti aur komal karon se vedna vihin kar diya. budhgupt ke sugthit sharir par rakt bindu vijay tilak kar rahe the.
vishram lekar budhgupt ne puchha ham log kahan honge?
balidvip se bahut door, sambhavtah ek navin dveep ke paas, jismen abhi hum logon ka bahut kam aana jana hota hai. sinhal ke vanikon ka vahan pradhany hai.
kitne dinon mein hum log vahan pahunchenge?
anukul pavan milne par do din mein. tab tak ke liye khaady ka abhav na hoga.
sahsa nayak ne navikon ko DaanD lagane ki aagya di, aur svayan patvar pakaDkar baith gaya. budhgupt ke puchhne par usne kaha yahan ek jalmagn shailkhanD hai. savdhan na rahne se naav takrane ka bhay hai.
(teen)
tumhen in logon ne bandi kyon banaya?
vanaik manibhadr ki paap vasana ne.
tumhara ghar kahan hai?
jahnavi ke tat par. champa nagri ki ek kshatriy balika hoon. pita isi manibhadr ke yahan prahri ka kaam karte the. mata ka dehavasan ho jane par main bhi pita ke saath naav par hi rahne lagi. aath baras se samudr hi mera ghar hai. tumhare akramn ke samay mere pita ne hi saat dasyuon ko markar jal samadhi li. ek maas hua, main is neel nabh ke niche, neel jalnidhi ke upar, ek bhayanak anantta mein nissahay hoon, anath hoon. manibhadr ne mujhse ek din ghrinait prastav kiya. mainne use galiyan sunain. usi din se bandi bana di gai. —champa rosh se jal rahi thi.
main bhi tamrlipti ka ek kshatriy hoon, champa! parantu durbhagy se jaldasyu ban kar jivan bitata hoon. ab tum kya karogi?
main apne adrsht ko anirdisht hi rahne dungi. wo jahan le jaye. —champa ki ankhen nissim pardesh mein niruddeshy thi. kisi akanksha ke laal Dore na the. dhaval apangon mein balkon ke sadrish vishvas tha. hattya vyavsayi dasyu bhi use dekhkar kaanp gaya. uske man mein ek sambhrampurn shardha yauvan ki pahli lahron ko jagane lagi. samudr vaksh par vilambamyi raag ranjit sandhya thirakne lagi. champa ke asanyat kuntal uski peeth par bikhre the. durdant dasyu ne dekha, apni mahima mein alaukik ek tarun balika! wo vismay se apne hirdai ko tatolne laga. use ek nai vastu ka pata chala. wo thee— komalta!
usi samay nayak ne kaha ham log dveep ke paas pahunch gaye.
bela se naav takrai. champa nirbhikata se kood paDi. manjhi bhi utre. budhgupt ne kaha jab iska koi naam nahin hai, to hum log ise champa dveep kahenge.
champa hans paDi.
4
paanch baras baad—
sharad ke dhaval nakshatr neel gagan mein jhalamla rahe the. chandr ki ujjval vijay par antriksh mein sharadlakshmi ne ashirvad ke phulon aur khilon ko bikher diya.
champa ke ek uchchsaudh par baithi hui tarunai champa dipak jala rahi thi. baDe yatn se abhrak ki manjusha mein deep dharkar usne apni sukumar ungliyon se Dori khinchi. wo dipadhar upar chaDhne laga. bholi bholi ankhen use upar chaDhte baDe harsh se dekh rahi theen. Dori dhire dhire khinchi gai. champa ki kamna thi ki uska akash deep nakshatron se hilmil jaye; kintu vaisa hona asambhav tha. usne ashabhri ankhen phira leen.
samne jal rashi ka rajat shringar tha. varun balikaon ke liye lahron se hire aur nilam ki kriDa shail malayen ban rahi theen aur ve mayavini chhalnayen apni hansi ka kalnad chhoDkar chhip jati theen. door door se dhivron ka vanshi jhankar unke sangit sa mukhrit hota tha. champa ne dekha ki taral sankul jal rashi mein uske kanDil ka pratibimb ast vyast tha! wo apni purnata ke liye saikDon chakkar katta tha. wo anamni hokar uth khaDi hui. kisi ko paas na dekhkar pukara—jaya!
ek shyama yuvati samne aakar khaDi hui. wo jangli thi. neel nabhomanDal se mukh mein shuddh nakshatron ki pankti ke saman uske daant hanste hi rahte. wo champa ko rani kahti; budhgupt ki aagya thi.
mahanavik kab tak avenge, bahar puchho to. champa ne kaha. jaya chali gai.
duragat pavan champa ke anchal mein vishram lena chahta tha. uske hirdai mein gudgudi ho rahi thi. aaj na jane kyon wo besudh thi. wo dirghakal driDh purush ne uski peeth par haath rakh chamatkrit kar diya. usne phirkar kaha budhgupt!
bavli ho kyaa? yahan baithi hui abhi tak deep jala rahi ho, tumhein ye kaam karna hai?
kshairanidhishayi anant ki prasannata ke liye kya dasiyon se akash deep jalvaun?
hansi aati hai. tum kisko deep jalakar path dikhlana chahti ho? usko, jisko tumne bhagvan maan liya hai?
haan, wo bhi kabhi bhatakte hain, bhulte hain, nahin to, budhgupt ko itna aishvary kyon dete?
to bura kya hua, is dveep ki adhishvri champarani!
mujhe is bandigrih se mukt karo. ab to bali, java aur sumatra ka vanaijy keval tumhare hi adhikar mein hai mahanavik! parantu mujhe un dinon ki smriti suhavni lagti hai, jab tumhare paas ek hi naav thi aur champa ke upkul mein panya ladkar hum log sukhi jivan bitate the, is jal mein agnit baar hum logon ki tari alokmay parbhat mein tarikaon ki madhur jyoti mein thirakti thi. budhgupt! us vijan anant mein jab manjhi so jate the, dipak bujh jate the, hum tum parishram se thakkar palon mein sharir lapetkar ek dusre ka munh kyon dekhte the? wo nakshatron ki madhur chhaya. . .
to champa! ab usse bhi achchhe Dhang se hum log vichar sakte hain. tum meri pranadatri ho, meri sarvasv ho.
nahin nahin, tumne dasyuvrtti chhoD di parantu hirdai vaisa hi akrun, satrshn aur jvalanshil hai. tum bhagvan ke naam par hansi uDate ho. mere akash deep par vyang kar rahe ho, navik! us prchanD andhi mein parkash ki ek ek kiran ke liye hum log kitne vyakul the. mujhe smarn hai, jab main chhoti thi, mere pita naukari par samudr mein jate the—meri mata, mitti ka dipak baans ki pitari mein bhagirathi ke tat par baans ke saath unche taang deti thi. us samay wo pararthna karti bhagvan! mere path bhrasht navik ko andhkar mein theek path par le chalna. aur jab mere pita barson par lautte to kahte sadhvi! teri pararthna se bhagvan ne sankton mein meri rakhsha ki hai. wo gadgad ho jati. meri maan? aah navik! ye usi ki punny smriti hai. mere pita, veer pita ki mirtyu ke nishthur karan, jaldasyu! hat jao. —sahsa champa ka mukh krodh se bhishan hokar rang badalne laga. mahanavik ne kabhi ye roop na dekha tha. wo thathakar hans paDa.
yah kya, champa? tum asvasth ho jaogi, so raho. —kahta hua chala gaya. champa muththi bandhe unmadini si ghumti rahi.
5
nirjan samudr ke upkul mein vela se takrakar lahren bikhar jati theen. pashchim ka pathik thak gaya tha. uska mukh pila paD gaya. apni shaant gambhir halchal mein jalnidhi vichar mein nimagn tha. wo jaise parkash ki unmlin kirnon se virakt tha.
champa aur jaya dhire dhire us tat par aakar khaDi ho gain. tarang se uthte hue pavan ne unke vasan ko ast vyast kar diya. jaya ke sanket se ek chhoti si nauka i. donon ke us par baithte hi navik utar gaya. jaya naav khene lagi. champa mugdh si samudr ke udaas vatavarn mein apne ko mishrit kar dena chahti thi.
itna jal! itni shitalta! hirdai ki pyaas na bujhi. pi sakungi? nahin! to jaise vela mein chot khakar sindhu chilla uthta hai, usi ke saman rodan karun? ya jalte hue svarn golak sadrish anant jal mein Dubkar bujh jaun?—champa ke dekhte dekhte piDa aur jvalan se arakt bimb dhire dhire sindhu mein chauthai aadha, phir sampurn vilin ho gaya. ek deergh nishvas lekar champa ne munh pher liya. dekha, to mahanavik ka bajra uske paas hai. budhgupt ne jhukkar haath baDhaya. champa uske sahare bajre par chaDh gari. donon paas paas baith gaye.
itni chhoti naav par idhar ghumna theek nahin. paas hi wo jalmagn shail khanD hai. kahin naav takra jati ya upar chaDh jati, champa to?
achchha hota, budhgupt! jal mein bandi hona kathor prachiron se to achchha hai.
aah champa, tum kitni nirday ho! budhgupt ko aagya dekar dekho to, wo kya nahin kar sakta. jo tumhare liye nae dveep ki sirishti kar sakta hai, nai praja khoj sakta hai, nae raajy bana sakta hai, uski pariksha lekar dekho to. . . . kaho, champa! wo kripan se apna hirdai pinD nikal apne hathon atal jal mein visarjan kar de. —mahanavik—jiske naam se bali, java aur champa ka akash gunjta tha, pavan tharrata tha, ghutnon ke bal champa ke samne chhalachhlai ankhon se baitha tha.
samne shailmala ki choti par hariyali mein vistrit jal desh mein, neel pingal sandhya, prakrti ki sahrday kalpana, vishram ki shital chhaya, svapnalok ka srijan karne lagi. us mohiani ke rahasyapurn niljal ka kuhak sphut ho utha. jaise madira se sara antriksh sikt ho gaya. sirishti neel kamlon mein bhar uthi. us saurabh se pagal champa ne budhgupt ke donon haath pakaD liye. vahan ek alingan hua, jaise kshaitij mein akash aur sindhu ka. kintu us parirambh mein sahsa chaitany hokar champa ne apni kanchuki se ek kripan nikal liya.
budhgupt! aaj main apne pratishodh ka kripan atal jal mein Duba deti hoon. hirdai ne chhal kiya, baar baar dhokha diya!—chamakkar wo kripan samudr ka hirdai bedhta hua vilin ho gaya.
to aaj se main vishvas karun, kshama kar diya gaya?—ashcharyachkit kampit kanth se mahanavik ne puchha.
vishvas? kadapi nahin, budhgupt! jab main apne hirdai par vishvas nahin kar saki, usi ne dhokha diya, tab main kaise kahun? main tumhein ghrinaa karti hoon, phir bhi tumhare liye mar sakti hoon. andher hai jaldasyu. tumhein pyaar karti hoon. champa ro paDi.
wo svapnon ki rangin sandhya, tam se apni ankhen band karne lagi thi. deergh nishvas lekar mahanavik ne kaha is jivan ki punytam ghaDi ki smriti mein ek parkash grih banaunga, champa! champa yahin us pahaDi par. sambhav hai ki mere jivan ki dhundhli sandhya usse alokpurn ho jaye.
(chh?)
champa ke dusre bhaag mein ek manoram shailmala thi. wo bahut door tak sindhu jal mein nimagn thi. sagar ka chanchal jal us par uchhalta hua use chhipaye tha. aaj usi shailmala par champa ke aadi nivasiyon ka samaroh tha. un sabon ne champa ko vandevi sa sajaya tha. tamrlipti ke bahut se sainik navikon ki shrenai mein van kusum vibhushita champa shivikaruDh hokar ja rahi thi.
shail ke ek unche sikhar par champa ke navikon ko savdhan karne ke liye sudriDh deep stambh banvaya gaya tha. aaj usi ka mahotsav hai. budhgupt stambh ke dvaar par khaDa tha. shivika se sahayata dekar champa ko usne utara. donon ne bhitar padarpan kiya tha ki bansuri aur Dhol bajne lage. panktiyon mein kusum bhushan se saji van balayen phool uchhalti hui nachne lagin.
deep stambh ki upri khiDki se ye dekhti hui champa ne jaya se puchha yah kya hai jaya? itni balikayen kahan se bator lain?
aaj rani ka byaah hai n?—kahkar jaya ne hans diya.
budhgupt vistrit jalnidhi ki or dekh raha tha. use jhakjhorkar champa ne puchha kya ye sach hai?
yadi tumhari ichha ho, to ye sach bhi ho sakta hai, champa! kitne varshon se main jvalamukhi ko apni chhati mein dabaye hoon. ”
chup raho, mahanavik! kya mujhe nissahay aur kangal jankar tumne aaj sab pratishodh lena chaha?
main tumhare pita ka ghatak nahin hoon, champa! wo ek dusre dasyu ke shastr se mare.
main iska vishvas kar sakti. budhgupt, wo din kitna sundar hota, wo kshan kitna sprihanaiy! aah! tum is nishthurta mein bhi kitne mahan hote.
jaya niche chali gai thi. stambh ke sankirn prakoshth mein budhgupt aur champa ekaant mein ek dusre ke samne baithe the.
budhgupt ne champa ke pair pakaD liye. uchchhvsit shabdon mein wo kahne laga champa, hum log janmabhumi bharatvarsh se kitni door in nirih praniyon mein indr aur shachi ke saman pujit hain. par na jane kaun abhishap hum logon ko abhi tak alag kiye hai. smarn hota hai wo darshanikon ka desh! wo mahima ki pratima! mujhe wo smriti nity akarshait karti hai; parantu main kyon nahin jata? janti ho, itna mahattv praapt karne par bhi main kangal hoon! mera patthar sa hirdai ek din sahsa tumhare sparsh se chandrkantamani ki tarah drvit hua.
champa! main ishvar ko nahin manata, main paap ko nahin manata, main daya ko nahin samajh sakta, main us lok mein vishvas nahin karta. par mujhe apne hirdai ke ek durbal ansh par shardha ho chali hai. tum na jane kaise ek bahki hui tarika ke saman mere shunya mein udit ho gai ho. aalok ki ek komal rekha is niviDtam mein muskurane lagi. pashu bal aur dhan ke upasak ke man mein kisi shaant aur ekaant kamna ki hansi khilkhilane lagi; par main na hans saka!
chalogi champa? potavahini par asankhya dhanrashi ladkar rajrani si janmabhumi ke ank men? aaj hamara parinay ho, kal hi hum log bharat ke liye prasthan karen. mahanavik budhgupt ki aagya sindhu ki lahren manti hain. ve svayan us pot punj ko dakshain pavan ke saman bharat mein pahuncha dengi. aah champa! chalo.
champa ne uske haath pakaD liye. kisi akasmik jhatke ne ek palbhar ke liye donon ke adhron ko mila diya. sahsa chaitany hokar champa ne kaha budhgupt! mere liye sab bhumi mitti hai; sab jal taral hai; sab pavan shital hai. koi vishesh akanksha hirdai mein agni ke saman prajvalit nahin. sab milakar mere liye ek shunya hai. priy navik! tum svadesh laut jao, vibhvon ka sukh bhogne ke liye, aur mujhe, chhoD do in nirih bhole bhale praniyon ke duhakh ki sahanubhuti aur seva ke liye.
tab main avashy chala jaunga, champa! yahan rahkar main apne hirdai par adhikar rakh sakun— ismen sandeh hai. aah! un lahron mein mera vinash ho jaye. —mahanavik ke uchchhvaas mein vikalta thi. phir usne poochh tum akeli yahan kya karogi?
pahle vichar tha ki kabhi kabhi is deep stambh par se aalok jalakar apne pita ki samadhi ka is jal se anveshan karungi. kintu dekhti hoon, mujhe bhi isi mein jalna hoga, jaise akash deep.
(saat)
ek din svarn rahasy ke parbhat mein champa ne apne deep stambh par se dekha—samudrik navon ki ek shrenai champa ka upkul chhoDkar pashchim uttar ki or maha jal vyaal ke saman santran kar rahi hai. uski ankhon se ansu bahne lage.
ye kitni hi shatabdiyon pahle ki katha hai. champa ajivan us deep stambh mein aalok jalati rahi. kintu uske baad bhi bahut din, dipanivasi, us maya mamta aur sneh seva ki devi ki samadhi sadrish puja karte the.
ek din kaal ke kathor hathon ne use bhi apni chanchalta se gira diya.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।