जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
आकाशदीप
(एक) “बंदी!” “क्या है? सोने दो।” “मुक्त होना चाहते हो?” “अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।” “फिर अवसर न मिलेगा।” “बड़ा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।” “आँधी की संभावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल
स्वर्ग के खंडहर में
1 वन्य कुसुमों की झालरें सुख शीतल पवन से विकंपित होकर चारों ओर झूल रही थीं। छोटे-छोटे झरनों की कुल्याएँ कतराती हुई बह रही थीं। लता-वितानों से ढँकी हुई प्राकृतिक गुफ़ाएँ शिल्प-रचना-पूर्ण सुंदर प्रकोष्ठ बनातीं, जिनमें पागल कर देने वाली सुगंध की लहरें
मधुआ
“आज सात दिन हो गए, पीने को कौन कहे? छुआ तक नहीं! आज सातवाँ दिन है, सरकार! ” “तुम झूठे हो। अभी तो तुम्हारे कपड़े से महक आ रही है।” “वह... वह तो कई दिन हुए। सात दिन से ऊपर—कई दिन हुए, अँधेरे में बोतल उँड़ेलने लगा था। कपड़े पर गिर जाने से नशा भी न आया।