एक मायापति सेठ था। उसके इकलौते बेटे की बरात धूमधाम से ब्याह करके वापस आ रही थी। ज़रा सुस्ताने के लिए बरात एक ठौर रुकी। घेर-घुमेर खेजड़ी की घनी छाया। सामने हब्बाहोल ठाटें मारता तालाब। काच-सा निरमल पानी। सूरज सर पर चढ़ आया था। झुलसते जेठ की लुएँ साँए-साँए बज रही थीं। खा-पीकर आगे चलें तो अच्छा। दूल्हे के बाप के कहते ही सब राजी ख़ुशी मान गए। दुल्हन के साथ पाँच डाविड़याँ थीं। वे सब खेजड़ी की छाया में जाजम बिछाकर बैठ गईं। पास ही एक बड़ा बबूल था। पीले फूलों से अटा हुआ। चाँदी के उनमान धवल हिलारियाँ। बाक़ी बरातियों ने बबूल की छाया पर क़ब्ज़ा किया। कुछ देर बिसाई करने के बाद खाने-पीने का सराजाम होने लगा।
दुल्हन बरातियों की ओर पीठ करके घूँघट उघाड़कर बैठ गई। ऊपर देखा—साँगरियाँ ही साँगरियाँ। पतली हरीचैर। देखते ही पुतलियाँ ठंडी हो गईं। संजोग की बात कि उस खेजड़ी पर एक भूत रहता था। इत्र-फुलेल से महकता दुल्हन का चेहरा देखकर उसकी आँखें चुँधियाँ गई। क्या लुगाई का ऐसा रूप और यौवन होता है? गुलाब के फूलों की कोमलता, सौरभ और रस-कस ही जैसे साँचे ढला हो। देखकर भी भरोसा नहीं होता। बादलों का ठीया छोड़कर बिजली तो नहीं उतर आई? इन मिरगनैनों की तो थाह ही नहीं! जैसे समूची क़ुदरत का रूप उसकी देह में समा गया हो। हज़ारों लुगाइयों का रूप देखा, पर इसकी तो रंगत ही न्यारी! खेजड़ी की छाया भी दिप-दिप करने लगी। भूत की जून धन्य हो गई! दुल्हन को लगने का विचार किया तो भूत को फिर चेत हुआ। इस से तो यह कष्ट पाएगी। ऐसे रूप को तकलीफ़ कैसे पहुँचाए! भूत गताघम में पड़ गया। यह तो अभी चली जाएगी। फिर? न लगते बनता है न छोड़े बनता है। इधर कुआँ, उधर खाई। ऐसी दशा तो कभी नहीं हुई। तो क्या दूल्हे को लग जाऊँ? पर तब भी दुल्हन को दुख होगा! इस रूप को दुख हुआ तो न बादल बरसेंगे, न बिजलियाँ चमकेंगी। न सूरज उगेगा, न चाँद। सारी क़ुदरत उलट-पुलट हो जाएगी। भूत को ऐसी दया माया तो कभी नहीं आई। इस रूप को दुख देने से तो ख़ुद दुख उठाना अच्छा है। ऐसा दुख भी कहाँ नसीब होता है! इस दुख परस से भूत की जून सफल हो जाएगी।
वहाँ कित्ती देर रुकते! आख़िर तो चलना ही था। दुल्हन पाँवों पर खड़ी होकर आगे बढ़ी तो भूत की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। रात को स्पष्ट देखने वाली आँखें जवाब कैसे दे गई? आकाश के बीच चमकते सूरज पर कालस कस पुत गया?
रुनझुन चलती दुल्हन दूल्हे की बहल पर चढ़ी। यह दूल्हा कित्ता सभागिया है! कित्ता सुखी है! भूत के रोम-रोम में सूलें खुबने लगीं। हिए में भट्टी दहक उठी। बिछोह की जलन के मारे न जीया जाता है न मरा जाता है। जीते जी यह जलन कैसे सहे! और मरने के बाद यह जलन भी कहाँ! ऐसी ऊहापोह में तो कभी नहीं फँसा। बहल के अदीठ होते ही वह बेचेत हो गया।
और उधर बहल में बैठे दूल्हे की उलझन भी कम न थीं। दो घड़ी हो गई सर खपाते, पर ब्याह के ख़रच का हिसाब नहीं मिल रहा। भायजी गुस्सा होंगे। ख़रच भी कुछ बेसी हो गया। ऐसी भूल-चूक से वे बहुत नाराज़ होते हैं। हिसाब और बिणज का सुख ही असली सुख हैं। बाक़ी सब पंपाल। ख़ुद भगवान भी पक्का हिसाबी हैं। एक-एक की साँस का पूरा हिसाब रखता है। बरसात की बूँद-बूँद का, हवा के रेशे-रेशे का और धरती के कण-कण का उसके पास सही पोता है। क़ुदरत के हिसाब में भी भूल नहीं चल सकती तब बनिए की बही में भूल कैसे खप सकती है!
माथे में बल डाले दूल्हा आँकड़ों का जोड़-तोड़ बिठा रहा था दुल्हन ने बहल का परदा उघाड़कर बाहर देखा। चिलकती तीखी धूप। हरियल केरों पर कसूँबल ढालू दिप-दिप कर रहे थे। कित्ते सुहाने! कित्ते मोहक! मुस्कराते ढालू-ढालू में दुल्हन की जोत पिरो गई। दूल्हे की बाँह पकड़कर अबूझ बच्चे की नाई बोली, “बही से नज़र तो हटाकर ज़रा बाहर तो देखो! कित्ते सुंदर ढालू हैं! नीचे उतरकर दोएक धोबे ढालू ला दो! ऐसी चिलचिलाती धूप में भी ये फीके नहीं पड़े। ज्यूँ धूप पड़ती है ज़्यादा लाल होते हैं।
दूल्हा आदमियों जैसा आदमी था। न सुंदर न भौंडा। भरी जवानी में ही ब्याह हुआ था, पर ब्याह की कोई खास ख़ुशी नहीं थी। पाँच बरस नहीं होता तब भी चल जाता। और हो गया तो बहुत अच्छा! कभी न कभी तो होना ही था। बड़ा काम निपटा। नवलखे हार पर हाथ फिराते हुए बोला, “ढालू तो गँवार खाते हैं। तुम्हें इसकी चाह कैसे हुई? खाने की इच्छा हो तो रक्खी में से खारक खोपरे निकालूँ? जी भरकर खाओ!
दुल्हन भी निरी गँवार निकली। हठ करते हुए बोली, “नहीं, मुझे थोड़े ढालू ला दो! आपका बहुत गुण मानूँगी। आप तकलीफ़ न उठाना चाहें तो मुझे आज्ञा दें। मैं ले आती हूँ।
दूल्हा अपनी बात पर अड़ा रहा, “इन काँटों से कौन उलझे! जंगली ही ढालू तोड़ते हैं और जंगली ही खाते हैं। मखाने खाओ। पतासे खाओ। इच्छा हो तो मिसरी अरोगो। गुट्टे ढालुओं की घर पर बात ही मत करना। लोग हँसेंगे।
हँसे तो हँसे। यह कहकर दुल्हन बहल से कूद पड़ी। तितली की तरह केर-केर पर उड़ती रही। कुछ ही देर में पल्लू में लाल चुट्ट ढालू लेकर वापस आई।
बुगती के पानी से ढालू धोए। ठंडे किए होंठों और दालुओं का रंग एक जैसा। पर दूल्हे को न दालुओं का रंग भाया, न होठों का। वह अपने हिसाब में उतना रहा। दुल्हन ने बहुत निहोरे किए, पर उसने ढालुओं को छुआ तक नहीं।
आपकी मरजी! अपनी-अपनी पसंद है। इन ढालुओं के बदले अपना नवलाख हार केर में टाँक दूँ तब भी कम है।
ढालू खाती दुल्हन के चेहरे को ताकते हुए दूल्हा कहने लगा, ऐसी फूहड़ बात फिर मत करना। भायजी बहुत गुस्सा होंगे। वह रूप की बजाय गुणों की ज़्यादा कदर करते हैं।
वह मुस्कराते हुए बोली, “अब समझी। उनके डर से आप हिसाब-किताब में डूबे हैं! पर सब काम अपनी-अपनी ठौर अच्छे लगते हैं। ब्याह की बेला हिसाब में रुँधना कहाँ का न्याय है!
“ब्याह होना था सो हो गया। पर हिसाब तो अभी बाक़ी है। ब्याह के खरचे का हिसाब सँभलाकर मुझे तीज के दिन दिसावर जाना है। ऐसा शुभ महूरत फिर सात साल नहीं आएगा।
पर गँवार दुल्हन को शुभ महूरत की ख़ुशखबरी सुनकर ज़रा भी ख़ुशी नहीं हुई। ढालुओं का स्वाद बिगड़ गया। दिल बैठने लगा। यह क्या सुना! एकाएक भरोसा न हुआ। पूछा, “क्या कहा, दिसावर जाएँगे? सुना है आपके यहाँ तो धन के भंडार भरे हैं?
“इसमें क्या शक है! ख़ुद अपनी आँखों से देख लेना। दूल्हा गुमान भरे सुर में कहने लगा, “हीरे-मोतियों से तहख़ाने भरे हैं। पर धन तो दिन दूना रात चौगुना बढ़ता हुआ ही अच्छा लगता है। बिणज ब्यौपार ही बनिए का धरम है। अभी तो बहुत धन कमाना है। ऐसा नामी महूरत कैसे छोड़ा जा सकता है!
दुल्हन ने बात नहीं बढ़ाई। बात बढ़ाने में सार ही क्या था! एक-एक सारे करके ढालू फेंक दिए। दूल्हा मुस्कराया, “मैंने तो पहले ही कहा था। ढालू तो गँवार खाते हैं। हम बड़े लोगों को अच्छे नहीं लगते। आख़िर नहीं खाए गए तो फेंकने पड़े न! धूप में जली सो नफ़े में!”
इत्ता कहकर दूल्हे ने धूप का तूमार जोहने के लिए बहल से बाहर देखा। नज़र सुलग उठे जैसी धूप। पीले फूलों से छाए हींगानियों के अनगिनत झाड़ ऐसे लग रहे थे मानो ठौर-ठौर आग की लपटें उठ रही हों। व्यंग्य से बोला, “अब इन हींगानियों के लिए तो हठ नहीं करोगी? इन में गुण होते तो गड़रिए कब छोड़ते!
दुल्हन ने कोई जवाब न दिया। अबोली बैठी पीहर की बातें सोचने लगी। इस धणी के भरोसे घर-आँगन छोड़ा। माँ-बाप का बिछोह सहा। सहेलियों का संग, भाई-भतीजे, तालाब की पाल, गीत, गुड्डे-गुड्डियाँ, झुरनी, आँखमिचौनी सब छोड़कर इस धणी का हाथ थामा। माँ की गोद छोड़कर पराए घर से आस लगाई। और ये तीज के दिन शुभ महूरत की घड़ी बिणज के लिए दिसावर जाना चाहते हैं! फिर बेहिसाब धन किस सुख के लिए है? जीते जी काम आता नहीं। मरने पर कफ़न-काठी की गरज भी सरती नहीं। किस सुख की आस में इनके पीछे आई? किस अदीठ सुख और संतोख के भरोसे पराई ठौर का निवास कबूल किया? कमाई, बिणज-ब्यौपार और धन-माया फिर किस दिन के लिए हैं? इस असली सुख के बदले तीन लोक का राज मिले तब भी किस काम का! दुनिया की समूची धन-संपत देकर भी बीता हुआ पल लौटाया नहीं जा सकता। आदमी पैसे के लिए है या पैसा आदमी के लिए, बस यही हिसाब समझना है। इसके बाद कौन-सा हिसाब बाक़ी रह जाता है। कंचन बड़ा कि काया? साँस बड़ी कि माया? इसके जवाब में ही मानुस के तमाम जवाब समाए हुए हैं।
दूल्हा अपने हिसाब में फँसा था। दुल्हन अपने ख़यालों में डूबी थी। और बैल अपनी चाल में मगन थे। जो चलेगा वह मुक़ाम पर पहुँचेगा ही। आख़िर सेठ की हवेली के आगे बरात रुकी। गाजे-बाजे ढोल-ढमंकों के साथ दुल्हन को बधाकर अंदर लिया। जिसने भी देखा, देखता रह गया। नज़र उतारी। रूप हो तो ऐसा रंग हो तो ऐसा!
साँझ को मेड़ी में घी के दीए जले। घड़ी तीनेक रात ढले दूल्हा मेड़ी में आया। आते ही सीख-नसीहतों की झड़ी लगा दी, “घर की इज़्ज़त का ध्यान रखना। सास-ससुर की सेवा करना। अपनी लाज अपने हाथ। दो दिन के लिए चौपड़-पासे का चस्का क्यूँ लगाएँ! दो दिन की अंगरलियाँ पाँच बरस दुख देंगी। बरस बीतते क्या देर लगती है! देखते-देखते पाँच बरस निकल जाएँगे। फिर कैसी कमी! यही मेड़ी। यही दीए। यही रातें। और यही सेज। वह बिलकुल चिंता न करे। पलक झपकते पाँच बरस बीत जाएँगे।
सीख की अनमोल बातें दुल्हन चुपचाप सुनती रही। कुछ कहना या करना तो उसके बस में था नहीं। जो धणी की मरजी वह उसकी मरजी। जो भायजी की मरजी वह बेटे की मरजी। जो लिछमी की मरजी वह भायजी की मरजी। और जो लोभ की मरजी वह लिछमी की मरजी। सीख की बातों में रात अलोप हो गई। रात के साथ झिलमिलाते नवलख तारे भी अलोप हो गए।
और उधर खेजड़ी के ठीए मूरछा टूटने पर भूत की आँखें खुलीं। चौफेर देखा। सूनी काँकड़। सूनी रिंधरोही। घनी खेजड़ी। घनी छाया। लटकती सागरियाँ। कहाँ दुल्हन? कहाँ मिरगनैन? कहाँ सुहाना मुखड़ा? कहाँ गुलाबी होंठ? कहीं वह सपना तो नहीं था? उसे लगा कि उसका कपटी मन सेडाऊ दूध में नहा गया है। ऐसा सूरज तो पहले कभी नहीं उगा! गोल-गट्ट गुलाबी घेरा। पूरी दुनिया में उजाला ही उजाला। मंद-मंद बयार। हवा की अदीठ तनियों पर झूलती अढ़ार हरियाली। उसका मन अनगिनत रूप धरकर क़ुदरत के कण-कण में समा गया।
अरे, सूरज इस तरह तो पहले कभी नहीं डूबा। पच्छम दिस में गुलाल ही गुलाल छा गया। धरती पर न चमचमाता उजास। न गगन में चाँद। न सूरज और न एक ही तारा। न पूरा अँधेरा। जैसे क़ुदरत ने झीना घूँघट निकाला हो। चेहरा भी दिखता है। घूँघट भी दिखता है। अब क़ुदरत ने चुनरी बदली। नवलख तारे जड़ी साँवली चुनरी। धुँधली चेहरा दिखता है। घुले रुख हरियाली। जैसे सपनों का ताना-बाना बुना जा रहा हो। क़ुदरत पहले तो कभी इत्ती सुहानी नहीं लगी। यह दुल्हन के रूप का चमत्कार है।
और उधर दुल्हन का भरतार उस रूप से मुँह मोड़कर दिसावर के मारग चल पड़ा। कमर से बँधी हीरे-मोतियों की नोली। कंधे पर रक्खी। और सामने आसमान में चमकता बिणज का अखंड सूरज। सुख, लाभ और कमाई का क्या पार!
चलते-चलते वह उसी खेजड़ी के पास से निकला। भूत ने उसे अदेर पहचान लिया। आदमी का रूप धरकर उस से 'जैरामजी' की। पूछा, अभी तो हथलेवे की मेहंदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा, काँकण-डोरड़े भी नहीं खुले, इत्ती जल्दी कहाँ चल दिए?
सेठ के बेटे ने कहा, “मेंहदी को जब उतरना होगा उतर जाएगी। और कोकण-डोरड़े क्या दिसावर में नहीं खुल सकते?
भूत उसके साथ हो लिया। सारी बातें जान लीं। वह पाँच बरस दिसावर में बिणज करेगा। यह महूरत निकल जाता तो सात साल तक ऐसा महूरत नहीं आता। सेठ के बेटे की बोली चाली और उसके स्वभाव की ज़रूरत मुताबिक जानकारी करके यह दूसरे मारग मुड़ गया। मन-ही-मन सोचने लगा कि सेठ के बेटे का रूप धरकर हवेली पहुँच जाए तो पाँच बरस तक कोई पूछने वाला नहीं। यह छींका तो ख़ूब टूटा। आगे की आगे देखी जाएगी। भगवान ने विनती सुनी तो सही फिर तो उस से एक पल भी न रुका गया। हूबहू सेठ के बेटे का रूप धरकर गाँव की ओर चल पड़ा। मन में न ख़ुशी का पार था न आनंद का।
दो-तीन घड़ी दिन बाक़ी था, तब भी अच्छा-खासा अँधेरा हो गया। काली-पीली उत्तरादी आँधी के गोट पर गोट घुमड़ते दिखे। आँधी तर तर ऊँची उठती गई। तर-तर अँधेरा बना होता गया। सूरज के रहते अँधेरा! हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। क़ुदरत को भी कैसे-कैसे सपने आते हैं! क़ुदरत के इस सपने के बिना धरती पर बिछी पाँव तले की धूल को सूरज ढकने का मौक़ा कब मिलता! धरती पर पसरी रेत आसमान में पहुँच गई। हवा खें-खें बजने लगी। पहाड़ के पहाड़ उथल दे ऐसी आँधी! थोथी अकड़वाले जंगी रूख़ चरड़-चरड़ टूटने उखड़ने लगे। नमने वाली लोचदार झाड़ियाँ कभी इधर झुकतीं कभी उधर, पर उनका कुछ नहीं बिगड़ा। पाँवों तले रौंदी जानेवाली घास का तो बाल भी बाँका नहीं हुआ। खेमकुशल पूछती, दुलारती, सहलाती आँधी ऊपर से निकल गई। सारी वनराय जैसे पालने में झूलने लगी। पत्ते-पत्ते और कोंपल-कोंपल की सार-सँभाल हो गई। बड़े पछियों के झपीड़ उड़ने लगे। छोटे पंछी डालियों से चिपककर बैठ गए। उड़ना दूभर हो गया। समूचे आसमान पर आँधी का राज थरप गया। चारों-मेर सूँ-सूँ, खें-खें। सूरज के तप-तेज को धरती की धूल निगल गई! अज़ब है आँधी का यह नाच! अज़ब है रेत की यह घूमर समूची क़ुदरत इस तांडव से ढँक गई। सारा विरमांड एकमेख हो गया न आसमान दिख रहा है न सूरज न पहाड़ न वनराय। और न धरती। निराकार अगोचर क़ुदरत की इस नाकुछ उबासी के आगे न मानुस के ज्ञान की कोई हस्ती है, न उसके आपे की औक़ात, न उसके गुमान का कोई जोर, न उसकी खटपट की कोई बिसात।
क़ुदरत की कावड़ का दूसरा चित्राम-हौले-हौले फिर उजाला होने लगा। हाथ को हाथ सूझने लगा। तर-तर उजाले का आपा पसरने लगा। हौले-हौले क़ुदरत की छवि साफ़ दिखने लगी। पहाड़ की ठौर पहाड़ सोने के पात जैसा गोल गोल सूरज। रुँख़ की ठौर रुँख़। झाड़ियों की ठौर झाड़ियाँ हवा की ठौर हवा यह कैसी माया! कि सहसा तड़-तड़-तड़ बड़ी-बड़ी बूँदें बरसने लगीं। बूँद से बूँद टकराने लगी। परनालों मेह बरसने लगा। क़ुदरत स्नान कर रही है। उसका रोयाँ-रोयाँ धुल गया। नाले-खाले बहने लगे। जल-थल एक हो गया। जलबंब ही जलबंब नहाती क़ुदरत को निहारकर सूरज का उजाला सारथक हुआ।
थोड़ी ही देर में क्या से क्या हो गया! देखकर भी भूत को भरोसा न हुआ। क़ुदरत की यह कैसी दिल्लगी है? यह क्या हुआ? कैसे हुआ? कहीं उसके मन की आँधी ही तो बाहर प्रकट नहीं हुई? क़ुदरत का यह कौतुक उसके मन में ही दुबका हुआ तो नहीं था? इस भरम की झोंक में वह तेज-तेज चलने लगा।
सीधे हवेली न जाकर पहले वह पेढ़ी पर गया। हिसाब करते सेठ ने बेटे को देखा तब भी एकाएक मन नहीं माना। दिसावर गया बेटा वापस आया तो आया ही कैसे? पहले तो कभी उसका कहा नहीं टाला! ब्याह के बाद आदमी किसी काम का नहीं रहता। जल्दी ब्याह रचाकर राम जाने सेठानी ने किस जनम का बदला लिया? है हो चुकी कमाई! या तो बिणज की हाजरी बजा लो या लुगाई की।
बाप के होंठों तक आई बात वह बिना कहे ही समझ गया। हाथ जोड़कर बोला, पहले मेरी बात सुन लें! बिणज की सलाह-सूत करने के लिए ही वापस आया हूँ। आपका हुकम नहीं होगा तो घर गए बिना ही लीट जाऊँगा। मारग में समाधि लगाए एक महात्मा के दरसन हुए। पूरे शरीर पर दीमक जमी हुई थी। मैंने सुथराई से माटी हटाई। कुएँ से पानी सींचकर स्नान कराया। पानी पिलाया। खाना खिलाया। मेरी सेवा से प्रसन्न होकर महात्मा ने वरदान दिया कि मुझे रोज़ तड़के पलंग से उतरते ही पाँच मोहरें मिलेंगी। दिसावर में यह वरदान नहीं फलेगा। अब फरमाएँ आपका क्या हुकम है?
ऐसे अचीते वरदान के बाद जो हुकम होना था वही हुआ। सेठ ख़ुशी-ख़ुशी मान गया। सेठानी की ख़ुशी का तो कहना ही क्या इकलौता बेटा आँखों के आगे रहेगा। और कमाई की ठौर कमाई का जुगाड़ भी हो गया। दुल्हन को ख़ुशी के साथ-साथ अचरज और गुमान भी हुआ कि यह रूप छोड़कर कोई दिसावर जा सकता है भला! तीसरे दिन ही वापस आना पड़ा।
दुकान के सौदे-सूत, हिसाब और ब्यालू से निपटकर वह घड़ी-दो घड़ी रात मेड़ी में आया। चारों कोनों में घी की पीलजोतें जल रही थीं। हींगलू सेज पर फूल बिछे हुए थे। इस इंतज़ार से बढ़कर कोई आनंद नहीं। रिमझोल की रुनझुन सुनाई दी। इस रणकार से बढ़कर कोई नाद नहीं। सोलह सिंगार से सजी दुल्हन मेड़ी में आई। इस नज़र से बढ़कर कोई जोत नहीं। समूची मेड़ी इत्र-फुलेल से महक उठी। इस सौरम से बढ़कर कोई गंध नहीं। इसी महक ने खेजड़ी के ठीए मन में आग लगाई थी। और आज मेड़ी में प्रत्यक्ष नज़रों का मिलन! इत्ती जल्दी कामना फलेगी यह तो सपने में भी नहीं सोचा था।
दुल्हन निसंकोच उसकी बगल में बैठ गई। घूँघट क्या हटाया जैसे तीन लोक का परम आनंद जगमगा उठा। इस रूप की तो छाया भी दिप-दिप करती है। दुल्हन ने मुस्कराकर कहा, मैं जानती थी कि आप बीच राह से लौट आएँगे। यह तारों जड़ी रात ऐसी साइत में आगे नहीं बढ़ने देती। ऐसा ही जोम था तो मेरी इच्छा के खिलाफ़ गए ही क्यूँ? आख़िर मेरी मन्नत फली।
भूत के मन में बवंडर-सा उठा। इस सेडाऊ दूध में कीचड़ कैसे मिलाए। इसे छलने से बड़ा कोई पाप नहीं। यह तो असली धणी समझकर इत्ती ख़ुश हुई। पर इस से अधम झूठ और क्या होगा यह तो झूठ की हद है। इस अबूझ प्रीत से बात कैसे करे। प्रीत के परस से भूतों का मन भी घुल जाता है। कोई बराबरी का हो तो छल-बल का जोर भी बताए। पर नींद में सोए हुए का गला सूँतने से तो तलवार का मान भी घटता है।
भूत थोड़ा दूर सरकते हुए बोला, कौन जाने मन्नत फली कि नहीं! अच्छी तरह तपास तो कर लो! कोई दूसरा आदमी तुम्हारे धणी का रूप धरकर तो नहीं आ गया?
वह चौंकी। हींगलू सेज पर बैठे मानुस को सर से पाँव तक गौर से देखा। वही शकल-सूरत वही रंग-रूप वही नज़र वही बोली अदेर समझ गई कि धणी उसके सत की परख करना चाहता है। मुस्कान का उजाला छितराते हुए बोली, “सपने में भी पराए मानुस को अपनी छाया न छूने दूँ, फिर खुली आँखों यह कैसे हो सकता है! दूसरा आदमी होता तो मेरे सत के जोर से कब का भस्म हो जाता।
पहले तो यह बात उसे चुभी। होंठों तक आए बोल तुरंत वापस निगल गया कि तब तो उसका सत खोटा है। वह भस्म हो जाता तो उसका सत खरा था। वास्तव में दूसरा आदमी होते हुए भी वह भस्म नहीं हुआ तो उसका सत खोटा है। पर अगले ही छिन बात के दूसरे पहलू का ध्यान जाते ही उसकी खीझ निथर गई। उलटा राजी हुआ। फ़कत शकल-सूरत से क्या होता है! सच्चा धणी होता तो लुगाई की यह माया छोड़कर जाता भला! क्या विछोह के लिए ही चँवरी में हाथ थामकर अपने पीछे लाया था? कोई अंधा भी रूप की इस झाँई को नहीं ठुकराता। तब वह दीठ के रहते कैसे अंधा बना! सात फेरे खाए तो क्या, उसकी प्रीत सच्ची कहाँ! और उसने भूत होकर इस से सच्ची प्रीत की। छल करते जी छटपटाता है। उसकी प्रीत सच्ची है। उसका नेह खरा है। तभी तो दोनों का सत बच गया। फिर भी आपस में दुराव रखने से प्रीत की मरजाद घटेगी। साँच को आँच लगेगी। सच्ची बात बताए बिना वह इस मेड़ी में साँस भी नहीं ले सकता। वापस पास सरकते हुए कहने लगा, सचमुच दूसरा आदमी होते हुए भी तुम्हारा सत खरा है। क्योंकि मेरी प्रीत सच्ची है। सात फेरे के असली धणी की प्रीत झूठी है। तभी तो इस रूप से मुँह मोड़कर वह दिसावर चला गया।
पर दुल्हन सच-झूठ की पहचान कैसे करे? कुछ भी पल्ले न पड़ा। ख़ुद माँ-बाप जिसे अपना बेटा समझते हैं, हूबहू सूरत वाले इस बंदे को अपना धणी मानने में कैसी झिझक सूरत और रंग-रूप ही तो रिश्ते-नातों की सबसे बड़ी पहचान है।
फिर भूत ने उसे एक-एक बात ब्यौरेवार बताई कि खेजड़ी के नीचे उसका रूप निहारकर उसकी क्या हालत हुई। उसके अदीठ होते ही कैसे बेचेत हुआ। वापस कब होश आया। दिसावर जाते थणी से उसने क्या बातें कीं। फिर उसका रूप धरकर कैसे यहाँ आने का फैसला किया। राह में आई आँधी-बरसात की बात भी नहीं छिपाई। दुल्हन काठ की पुतली की नाई सुनती रही। क्या यही सच्चाई सुनने के लिए विधाता ने उसे कान दिए?
उसकी कलाई सहलाते हुए वह आगे कहने लगा, माँ-बाप को तो नित-हमेस पाँच मोहरों के साथ पेढ़ी के लाभ की दरकार है। असलियत से उन्हें कोई वास्ता नहीं। पर तुम से सच बात छिपाता तो प्रीत के चेहरे पर कालिख पुत जाती में भेद नहीं बताता तो तुम्हें पाँच बरस तक सपने में भी सच्चाई का पता न चलता। तुम तो असली धणी समझकर ही घरवास करती। पर मेरा मन न माना। मैं अपने मन से सच्चाई कैसे छिपाता! इस से पहले बहुत-सी लुगाइयों को लगा। उन्हें बहुत दुख दिया। पर मेरी ऐसी हालत कभी नहीं हुई। राम जाने इत्ती दया माया मेरे मन में कहाँ ओटी हुई थी? तिस पर भी तुम्हारी इच्छा नहीं होगी तो मैं इसी पल वापस चला जाऊँगा। जीते जी इस ओर मुँह भी नहीं करूँगा तुम्हें पीड़ा पहुँचाकर मुझे प्रीत का आनंद नहीं चाहिए। तब भी आख़िरी साँस तक तुम्हारा एहसान मानूँगा। तुम्हारे कारण मेरे हिवड़े का विष इमरत में बदल गया। नारी के रूप और पुरुष के प्रेम की यही तो सच्ची मर्यादा है।
रूप की पुतली के होंठ खुले, समझ नहीं पड़ता कि यह भेद छुपा रहता तो अच्छा था या प्रकट हो गया तो अच्छा हुआ। कभी पहली बात ठीक लगती है तो कभी दूसरी।”
दुल्हन की आँखों में आँखें पिरोकर भूत कहने लगा, बाँझ औरत जच्चा की पीड़ा क्या जाने! इस पीड़ा में ही कुख का आनंद छिपा हुआ है। साँच और कूख के प्रसव की पीड़ा एक सरीखी होती है। इस साँच को छिपाने में न तो पीड़ा थी, न आनंद। वह तो फ़कत साँच का भरम होता। आनंद का स्वाँग होता। में कई लुगाइयों को लगा तब कहीं असलियत को जान पाया में कई ऐसी सती साध्वियों को जानता हूँ जो अंगरलियों की बेला घणी के चेहरे में अपने वार का चेहरा खोजती हैं। यूँ कहने को तो वे पराए मरद की छाया भी नहीं छूतीं, पर धणी के बहाने दूसरे पुरुष के ध्यान में कितना सत है, इसकी असलियत जित्ती में जानता हूँ उत्ती माता भी नहीं जानती। सती-सावित्रियों के चरित का दिखावा मैंने बहुत देखा है। डर तो बस लोकलाज का होता है। किसी को पता न चले तो स्वयं भगवान भी पाप करने से न चूकें। अब जो तुम्हारी मरजी हो बता दो। मैंने तो भूत होकर भी कुछ नहीं छुपाया।
ऐसी पहेली कभी किसी औरत को सुलझानी नहीं पड़ी होगी। ठौर-कुटीर मुँड मारने की किसे हवस नहीं होती? पराई औरत और पराए आदमी के लिए किसका जी नहीं ललचाता? पर लौकिक के डर से ढक्कन हटाए नहीं बनता। ढक्कन के भीतर जो पकता है, वह तो पकता ही है। सोच-विचारकर ऐसी बातों का जवाब देना कित्ता मुश्किल है! वह इस तरह गुमधाम बैठी रही मानो बोलना बिसर गई हो।
दुल्हन की समझ में अचीता सोता फूटा। सोचने लगी, उसके जनम पर थाल की ठौर सूप बजा। घरवालों को कोई खास ख़ुशी नहीं हुई। बेटा होता तो अच्छा था। माँ-बाप की नज़र में घूरा बढ़ते देर लगे तो बेटी बड़ी होते देर लगे। दसवाँ बरस उतरते न उतरते माँ-बाप उसे हाथ पीले करके पराए घर पहुँचाने की चिंता करने लगे। न आँगन में समाती थी, न आसमान में छाछ और लाछ माँगने में कैसा संकोच! रिश्ते पर रिश्ते आने लगे। उसके रूप की ख्याति चौफेर हवा में घुली हुई थी। सोलह बरस बिताने दूभर हो गए। माँ की कूख में समा गई, पर घर-आँगन में न समाई। तभी इस हवेली से नारियल आया। उसके बड़भाग जो माँ-बाप ने सावा कबूल कर लिया। कोई दूसरी घर-गवाड़ी होती तब भी उसे तो जाना ही था। धणी बिणज और लेखे-जोखे में ही मगन है। उसकी नज़र में हाँड़ी के पैंदे और लुगाई के चेहरे में कोई फ़रक नहीं। दरकता यौवन और दरकती माटी दोनों एक सरीखी। न बहल में लुगाई के मन की बात समझा, न मेड़ी में। मेड़ी और सेज सूनी छोड़कर बिणज के लिए चला गया। एक बार मुड़कर भी न देखा और आज भूत की प्रीत का उजाला हुआ तो सूरज भी फीका पड़ गया। हथलेवे का ब्याहता जबरन चला गया तब भी उसका बस न चला। भूत की प्रीत के आगे भी उसका बस कहाँ चला! जानेवाले को रोक न सकी तो मेड़ी में आए को कैसे रोके! यह प्रीत की बात करता है तो कानों में तेल कैसे डाले! धणी होकर यूँ मझधार में छोड़ गया, भूत होकर यूँ प्रीत दरसाई! कैसे बरजे? क्यूँ बरजे?
सपनों पर कोई बस चले तो ऐसी प्रीत पर बस चले। वह सुध-बुध बिसराकर उसकी गोद में लुढ़क गई।
कहीं यह उसके मन का भूत ही तो नहीं, जो साकार रूप धरकर प्रकट हुआ? फिर अपने मन से कैसी लाज! जहाँ वाणी अटकती है, वहाँ मौन काम सारता है। उसके उपरांत कुछ भी कहना-सुनना बाक़ी न रहा। आप ही एक-दूसरे के अंतस की बात समझ गए। दीए का उजास लोप हो गया। और अँधेरा उजास बनकर जगमगाने लगा। सेज के कुम्हलाए फूलों की कली कली खिल गई। मेड़ी का उजाला धन्य हुआ। मेड़ी का अँधेरा धन्य हुआ। आसमान के तारों का उजास दूना हो गया।
ऐसी अनमोल रातों में बखत बीतते क्या देर लगती है! चुटकियों में दिन फिसलने लगे। ख़ूब बिणज बढ़ा। ख़ूब लेन-देन बढ़ा। ख़ूब जस बढ़ा माँ-बाप ख़ुश थे सो तो थे ही, सारे इलाके के लोग भी सेठ के बेटे से बहुत ख़ुश थे। बखत-बेबखत सब के काम आता था। दूसरे बनियों की तरह गला नहीं काटता था। लंगोट का सच्चा। पेढ़ी पर आई लुगाई की ओर देखता तक नहीं था। छोटी को बहन और बड़ी को माँ सरीखी समझता था। उसका नाम लेते तो लोगों के मुँह में मिसरी घुल जाती। उस में खामी बस एक ही थी। दिसावर से सेठ के बेटे का काग़ज़ आता तो फाड़कर फेंक देता। वापस कोई जवाब नहीं।
इस आनंद और जस के पालने में देखते-देखते तीन बरस बीत गए। जैसे मीठा सपना बीता हो। भूत भी हवेली में रलमिल गया। मानो सेठ का सगा बेटा हो। बहू भी मेड़ी के नशे में डूबी हुई थी। रात के इंतज़ार में दिन उगते ही डूब जाता। मेड़ी में पलक झपकते रात ढल जाती।
बहू के आसा ठहरी। तीसरा महीना उतरनेवाला था। ख़ुद सेठ ने अपने हाथ से सवा मन गुड़ बाँटा। लोगों ने सवा मन सोना समझकर कबूल किया। सेठ ने उमर में पहली बार दातारी दिखाई थी। आज हाथ खुला है तो आगे भी खुलेगा। बेटे-बहू ने चुपके-चुपके ख़ूब दान-पुन्न किया। हरख के नवलख तारों में नया चाँद जुड़ेगा! कूख का चाँद आसमान के चाँद से हमेशा बढ़कर होता है।
धणी-लुगाई दोनों को बेटी की बड़ी चाह थी। बहुत खुशियाँ मनाएँगे। बेटा कौन सरग ले जाता है! राम जाने किसके जैसा होगा? बच्चे के जन्म की बजाय उसकी आस में ज़्यादा आनंद है। कूख में बच्चे के साथ-साथ सपने पलते हैं।
दिन सरपट दौड़ने लगे। पाँच महीने बीते सात महीने संपूर्ण हुए। यह नौवा महीना उतरनेवाला है। बहू रात-दिन मेड़ी में सोई रहती। तीन-तीन दाइयाँ हाज़री में हर घड़ी जाग रहतीं।
धणी की गोद में सोई घरनी आँखें मूँदे-मूँदे ही बोली, कई बार सोचती हूँ, यदि उस दिन खेजड़ी के नीचे विसराम करने नहीं रुकते तो मेरे ये चार साल कैसे बीतते? शायद बीतते ही नहीं।
भूत ने कहा, “तुम्हारे दिन तो ज्यू-त्यू कट जाते, पर मेरा क्या होता? झाड़ी-झाड़ी खेजड़ी-खेजड़ी भूत की जून पूरी करता। उस दिन सुमत सूझी जो तुम्हें नहीं लगा। मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि सचमुच जीने का आनंद भोग रहा हूँ या सपना देख रहा हूँ!
चिकने बालों में अँगुलियाँ फिराते-फिरते रात फिसल गई।
उधर दूर दिसावर में बहू का ब्याहता तड़के घड़ी रात रहते उठा। आलस मरोड़ा। उबासी खाकर दीवड़ी से ठंडा पानी पीया। चारों-मेर एक सरीखा अँधेरा छाया हुआ था। टिमटिमाते हुए एक सरीखे तारे। कहीं किसी दिशा में उजाला नहीं। रात और छोटी होती तो कित्ता अच्छा रहता! क्या ज़रूरत है इत्ती बड़ी रात की सोने-सोने में आधी उमर निकल जाती है। नींद में बिणज ब्यौपार तो होने से रहा! वरना दूनी कमाई होती। तब भी माया कम नहीं जोड़ी भायजी बहुत ख़ुश होंगे।
बीच-बीच में आस-पड़ौस के साहूकार मिलते रहते थे। उसे वहाँ देखकर उन्हें बहुत अचंभा होता। पूछते कि वह गाँव से कब आया? यह सुनकर उसे भी कम अचंभा नहीं होता। कहता कि उसने तो गाँव की ओर मुँह ही नहीं किया। वे पागल तो नहीं हो गए। तब उन्होंने जोर देकर पूरी बात खुलासा करके समझाई। फिर भी उसे विश्वास नहीं हुआ। वह तो यहाँ से हिला ही नहीं, तब वहाँ कैसे पहुँच सकता है? कमाई देखी नहीं जाती इसलिए उल्टी-सुल्टी सुनाकर दुविधा में डालना चाहते हैं। पर वह इत्ता भोला नहीं। उनके कान कतरे जैसा है। कमाई और बिणज में ज़्यादा मन लगाने लगा।
पर आज अल्ल सवेरे एक खास पड़ोसी ने समाचार दिया कि बहू के बच्चा होने वाला है। शायद हो गया हो।
वह बीच ही में बोला, ऐसी बात होती तो घरवाले मुझे ज़रूर ख़बर करते। मैंने पाँच-सात काग़ज़ दिए, पर वापस एक का भी जवाब नहीं।
पड़ोसी ने कहा, “भले मानुस, ज़रा सोचो तो...वे क्यूँ ख़बर करते? किसे ख़बर करते? उनका बेटा तो तीसरे दिन ही वापस आ गया। एक महात्मा के दिए मंतर से सेठजी को नित पाँच मोहरें देता है। हवेली में राम राजी है। सब मजे में हैं। मेड़ी में घी के दिए जलते हैं। हाँ, अब पता चला। सेठजी के बेटे की शकल हूबहू आप से मिलती है। विधाता की कारीगरी! ख़ुद सेठजी देखें तब भी पहचान न सकें। अब मालूम हुआ कि शकल तो ज़रूर मिलती है, पर आप दूसरे हैं।
“भला में दूसरा कैसे हुआ? लगता है, कल-परसों ही जाना पड़ेगा।
सो सेठ के बेटे ने बिणज-बौपार समेटा, मुनीम को भुलावन दी और अपने गाँव की ओर चल पड़ा। वही जेठ का महीना लूओं के खेंखाड़ बज रहे थे। केरों पर लाल-लाल ढालू देखकर उस दिन की बात याद आ गई। जब बहू की यहीं पसंद है तो अपना क्या जाता है! न हींग लगे न फिटकड़ी! पके हुए ढालू तोड़कर गम में बाँध लिए।
वह हवेली पहुँचा उस बखत वहाँ लुगाइयों का मेला लगा हुआ था। सेठ-सेठानी घबराए हुए मन्नत पर मन्नत बोल रहे थे। भूतवाला धणी मेड़ी के बाहर खड़ा था। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। बहू सौरी में टसक रही थी। बच्चा अटक गया था। दाइयों अपने हुनर में लगी थीं।
इस चकचक के बीच चैवरी का ब्याहता धूल से अटा हुआ, बेझिझक चौक में आ खड़ा हुआ। कंधे पर ढालुओं का गमछा लटक रहा था। माँ-बाप के चरण छूए। यह कैसा तमाशा? हूबहू बेटे से शकल मिलती है! खंख से सना है तो क्या! कोई ठग तो नहीं? बेहद अचरज भी गूँगा होता है। माँ-बाप चाहकर भी कुछ बोल न सके। लुगाइयों की चकचक का राग बदल गया। हाय दैया, एक ही शकल के दो धणी! कौन सच्चा कौन झूठा? यह कैसी लीला? यह कैसा कौतुक? कोई इधर भागी, कोई उधर सौरी में लुगाई का टसकना सुनकर वह अदेर सारी बात समझ गया। ख़बर ग़लत नहीं थी। ऐसा छल किसने किया? कैसे हो इसकी पहचान? लोग किसके कहे पर भरोसा करेंगे? तभी मेड़ी के बाहर खड़े मानुस पर उसकी नज़र पड़ी। हूबहू उसका रंगरूप! छलिया के छल को कौन जान सका है! नसों का लहू जम गया। भला यह क्या हुआ?
प्रीत वाले धणी के कानों में फ़कत जच्चा की टसक गूँज रही थी। और किसी बात का उसे चेत न था। हवा थम गई थी। सूरज थम गया था। कब यह टसकना बंद हो और कब क़ुदरत का पेंखड़ा छूटे!
बेटे ने बाप से कहा, मैं तो चार बरस से दिसावर था, फिर बहू के पाँव कैसे हुए? आपने कुछ तो सोचा होता?
सेठ ने मन ही मन सारा हिसाब लगा लिया। बोला, तू है कौन? मेरा बेटा तो तीसरे दिन ही वापस आ गया था। यहाँ तेरी दाल नहीं गलेगी।
उसके अचरज का पार न रहा। चुप रहने से बात बिगड़ जाएगी तुरंत बोला, “क्या मैं इसलिए कमाई करने दिसावर गया था कि लौटूँ तो आप पहचानने से ही मना कर दें? आपने ही तो ज़बरदस्ती भेजा था।
सेठ ने कहा, नहीं चाहिए मुझे ऐसी कमाई। तू मुझे कमाई का क्या रोब दिखाता है? जिधर से आया है, उधर ही चलता बन! नहीं तो खाल में भूसा भरवा दूँगा।
भायजी का सर फिर गया लगता है। उसने माँ की ओर मुड़कर पूछा, माँ, क्या तू भी अपने बेटे को नहीं पहचानती?
माँ क्या जवाब देती! ऐसे सवाल का जवाब क्या कोई माँ दे भी सकती है? शायद अब तक किसी बेटे ने अपनी माँ से ऐसा सवाल नहीं किया होगा। उसकी जीभ तालू से चिपक गई। वह दुग-दुग धणी को देखने लगी। माँ को अबोली देखकर वह गताघम में पड़ गया। तभी उसे ढालुओं का ध्यान आया। काँपते हाथों से गमछा खोला। लाल-लाल ढालू भावजी को दिखाते हुए बोला, बहू को उस दिन के ढालुओं की बात याद दिलाइए। वह सब बता देगी। उस दिन उसने ख़ुद ढालू तोड़कर खाए थे। आज में तोड़कर लाया हूँ। उससे पूछकर तो देखो! आप कहें तो मैं बाहर से पूछ लूँ सेठ का चेहरा तमतमा गया। तैश में आकर बोला, पागल कहीं का! यह ढालुओं की बात पूछने का बखत है! बहू को तो जान की पड़ी है और तुझे ढालुओं की लगी है! दूर हटा अपने ढालुओं को मैं तो यह फूहड़ बात सुनते ही समझ गया कि मायापति सेठ की बहू गँवारों की तरह ख़ुद तोड़कर ढालू खाएगी? खैर चाहता है तो चुपचाप चला जा। नहीं तो इसे जूते पड़ेंगे कि गिननेवाला नहीं मिलेगा।
बेटे ने कहा, बाप के जूतों की परवाह नहीं, पर उस दिन मैंने भी बहल में यही बात कही थी।
सौरी में बहू उसी तरह टसक रही थी। दाइयों ने घड़ी-घड़ी बच्चे को काटकर निकालने की बात कही, पर वह तैयार न हुई। आख़िर मरते-मरते बड़ी मुश्किल से छूटापा हुआ। बहू की आँखों के आगे कभी अँधेरा छा जाता, कभी बिजलियाँ काँधने लगतीं।
चौक से भागी लुगाइयों के मुँह से दो धणियों की बात ऐसी उफ़नी कि घर-घर में कचकचाटा मच गया। देखते-देखते सेठ की हवेली के इर्द-गिर्द लोगों का मेला लग गया। ऐसी अनहोनी बात का स्वाद जीभ को बरसों से मिलता है। हरेक की जीभ को मानो पंख लग गए ! एक ही सूरत के दो धणी। एक तो चार बरस पहले मेड़ी चढ़ गया और एक आज अपना हक जताने आया है। बहू सौरी में जापे की पीड़ा से उसक रही है। अजब तमाशा हुआ! देखें, सेठ कैसे बात सँवारते हैं। कैसे ढाँपते हैं! भला ऐसी बातों को ढाँपने कौन देगा? लोग उस बात को चबा चबाकर फिर चबाते।
भीड़-भड़क्का देखकर सेठ आपे से बाहर हो गया। थूक उछालते हुए बोला, हमारे घर की बात है। हम आप निपट लेंगे। गाँववाले क्यूँ पंचायती करते हैं? मैं कहता हूँ बाद में आने वाला झूठा है। मैं धक्के देकर निकलवा दूँगा। दिन-दहाड़े लुच्चाई नहीं चल सकती।
बेटा चिल्लाया, “आप क्या पागलपन कर रहे हैं? सूरज को तवा और तवे को सूरज बता रहे हैं? आप जैसे चाहें छानबीन कर लें। यह तो सरासर अन्याय है।
मायापति सेठ की पंचायती का ऐसा मौका कब मिलेगा! लोगबाग अड़ गए कि खरा न्याय होना चाहिए। दूध का दूध और पानी का पानी। कसूरवार को पूरा दंड मिले। यूँ दो धणियों का रिवाज़ कैसे चलेगा! अमीरों का तो कुछ नहीं, हम ग़रीबों का जीना हराम हो जाएगा। बस्ती से अलग नहीं टल सकते। कित्ता ही धन का जोर हो, कंधा देनेवाले भाई पर नहीं आएँगे।
मामला उलझा पर उलझा! कोई झुकने को तैयार न था न सेठ, न बस्ती के लोग। लोगों के मुँह थे और बहू के कान। सो उसे सौरी में ही सारे समाचार मिल गए।
लुगाई का जीवन मिला है तो राम जाने क्या-क्या सुनना होगा! क्या-क्या हाज़री उठानी होगी! क्या-क्या रामत देखनी होगी! आख़िर एक दिन तो यह होना ही था। चार बरस तो सपने की नाई अलोप हो गए। भला सपने का कैसा थावस! और कित्ती उसकी जड़ गहरी।
खंडहर में मँडराती चमगादड़ों की तरह लोग इधर-उधर चक्कर लगाने यह पंचायती सलटे बिना कौर भी गले न उतरेगा।
सौरी का किवाड़ उघाड़कर दाइयों ने समचार दिया कि बहू के लड़की हुई है। मौत की विकट घाटी टल गई। मौत में क्या कसर रह गई थी! बच गई सो बड़भाग। सौरी के बाहर भिनभिनाती लुगाइयों को बालसाद सुनाई दिया। मेड़ी की देहरी पर खड़े धणी को अब कहीं चेत हुआ। पर चेत होने पर जो बात उसके कानों में पड़ी उससे कलेजे में अचीती सुरंग छूटी। सुध-बुध पर पाला पड़ गया। एक बरस पहले यह गाज कैसे गिरी?
सेठ-सेठानी मुँह लटकाए खड़े थे। पूरे गाँव में हल्ला मच गया। कैसी अजानी आफ़त आई! नागखाधे ने जाने किस जनम का बदला लिया? बात तो बिगड़ती ही चली जा रही है। कैसे सँवारे? कौन जाने किसने दाँव-घात किया? मेड़ी तो पिछले चार बरस से आबाद है। इसे नज़रअंदाज करने पर तो हवेली की नाक कट जाएगी। ढालूवाला मान जाए तो बात दब सकती है। मुँहमाँगा अलल हिसाब देने को तैयार हैं। और क्या चाहिए?
न ढालूवाला माना, न बस्ती के लोग। अदल न्याय होना चाहिए। बिरादरी में कहीं मुँह दिखाने लायक न रहेंगे। चार यरस उपरांत कुख उपड़ी तो एक और धणी आ टपका! राम जाने कौन सच्चा है? एक तो झूठा है ही गाँव चिनचिनाटे चढ़ गया, जैसे बर्रों का छत्ता ज़मीन पर आ गिरा हो। ढालूवाले की तरफ़दारी नहीं की तो मामला टाँय-टाँय फ़िस्स हो जाएगा। सारा मजा किरकिरा हो जाएगा। यह सोचकर हर व्यक्ति आप ही ढालूवाले की तरफ़ हो गया।
सेठ हाथ जोड़कर भये सुर में बोला, “मेरी पगड़ी उछालने से आप लोगों को क्या मिलेगा? साथ बैठे भाई हैं। बख़त बेबख़त एक-दूसरे के काम आते हैं। मेरे बेटे के गुण आपसे छिपे नहीं हैं। उसके हाथ से किसका भला नहीं हुआ? इसी जल्दी गुणचोर मत बनो। मेरी पगड़ी आपके चरणों में है। किसी भी तरह बात बिठा दो। यह ढालूवाला जाली है। इसे धक्के देकर गाँव से निकाल दो!
बड़े-बुजुर्गो ने कहा, सेठजी, दिखती मक्खी कैसे निगलें! बख़त आने पर सर देने को तैयार हैं, पर पानी की गठरी कैसे बाँधे! यह बार-बार कह रहा है, बहू ढालुओं की बात पुछवाइए तो सही! इसमें क्या हरज़ है?
ऐसी बात कौन पूछे? कैसे पूछे? तब कुछ भली डोकरियाँ आगे आई। बख़त पर आदमी ही आदमी के काम आता है! सौरी का किवाड़ उघाड़कर भीतर गई। जच्चा के पेट में टीसें उठ रही थीं। पर अब जो बात उसके कानों में पड़ी तो वह जापे का दरद भूल गई। यह दरद उस से कहीं ज़्यादा था। दाँत भींचकर बड़ी मुश्किल से बोल पाई, “कोई मरद पूछता तो उसे हाँ ना का जवाब भी देती। लुगाई होकर यह बात पूछने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? मुझे अपने हाल पर छोड़ दो। तुम्हें तंग करने का यही बख़त मिला? धन्य है तुम्हारी हिम्मत!
डोकरियाँ मुँह मस्कोरती हुई बाहर आई। कहा, ऐसी बातों में लुगाइयाँ कब सच बोलती हैं! हमें तो दूध में कालस दिखती है। बाक़ी आप जानो।
ऐसे मौकों पर ही तो अक्ल के धार लगती है। सूत बुरी तरह उलझ गया। बड़े-बूढ़ों ने फिर माथा लड़ाया, यह न्याय राजाजी ही निपटा सकते हैं। किसी और ने इस में टाँग अड़ाई तो पूरे गाँव को दंड मिलेगा। अपना भला-बुरा तो सोचना ही पड़ता है। दोनों धणियों को राजाजी के हवाले कर दें। फिर दरबार जानें और सेठजी जानें हम बीच में तिक-लिक क्यूँ करें। फिर बस्ती राम है जो सबको ठीक लगे वह करो।
जो बस्ती ने चाहा वही हुआ। भला वह अपना राम-पद कैसे छोड़ती। दोनों धणियों को रस्सी से बाँध दिया। मेड़ी के बाहर खड़े धणी को बाँधने लगे तब उसे चेत हुआ कि पानी सर से गुज़र चुका है उसने कोई ना-नुकर नहीं की सीढ़ियाँ उतरते हुए कलेजा होंठों तक लाकर बोला, “एक बार सौरी में जाने दो! माँ-बेटी की कुशल तो पूछ लूँ।
पर लोग न माने, “न्याय निपटने के बाद सारी उमर कुशल पूछनी ही है! इत्ती जल्दी क्या है?
लोगों का बवंडर आगे बढ़ा। दोनों धणी साथ बँधे थे। सेठ भी ख़ुर रगड़ते हुए साथ चल रहा था। पगड़ी बिखर गई थी। लंबे अरज की हवा पत्ते पत्ते को फँफेड़ती खें-खें बज रही थी। चलते-चलते अचानक उसी खेजड़ी पर भूत की नज़र पड़ी। एड़ी से चोटी तक बिजली दौड़ गई। पाँव जहाँ-के-तहाँ गड़ गए। माथा सुन्न हो गया। कानों में साँय साँय गूँजने लगी आँखों के आगे यादों के चित्र घूमने लगे तभी रस्सी का झटका पड़ा। पाँव आप ही हरकत में आ गए। दाँया-बाँया बाँया-दाँया। आदमी के माथे में यादों का लफड़ा नहीं होता तो कित्ता अच्छा रहता। यह याद तो जान ही ले लेगी।
साथ बँधे बिणजवाले धणी का मन तो जाग रहा था। आज साँच को यह कैसी आँच आई? यह ख़ुद भरम में पड़ गया। यह कैसी लीला है? यह आदमी तो ऐसा लगता है जैसे वह आरसी में अपनी छवि देख रहा हो। इससे पूछकर तो देखें शायद कोई सुराग मिल जाए। उसके गले में अटके सबद बड़ी मुश्किल से बाहर निकले, भाई, न्याय तो राम जाने क्या होगा, पर तू अच्छी तरह जानता है कि सेठजी का बेटा मैं हूँ, चँवरी का असली ब्याहता। पर तू कौन है, यह तो बता? यह कैसा मायाजाल है? बैठे-ठाले किस झंझट में फँस गया? बता, मुझे तो बता कि तू है कौन?
था तो भूत। न्याय करने वाले पंचों की गरदनें एक साथ मरोड़ सकता था। कई लीलाएँ कर सकता था। किसी को लग जाए तो छठी का दूध याद दिला दें। पर चार बरस की प्रीत से उसका अंतस बदल गया। झूठ बोलना चाहने पर भी बोल न सका। और सच कहे तो कैसे! प्रिया की लाज तो रखनी ही थी। जुधिस्ठर वाली आन निभाई। बोला, मैं लुगाइयों की ग्राम के भीतर का सूक्ष्म जीव हूँ उनकी प्रीत का स्वामी। बिणज और कमाई की बजाय मुझे हेत- प्रीत की ज़्यादा लालसा है।
सात फेरों के धणी ने अधीर होकर बीच ही में टोका, दूसरी बकवास क्यूँ करता है! साफ़-साफ़ बता, क्या तूने चँवरी में हथलेवा जोड़ा था?
कोरे मोरे हथलेवे से क्या होता है? चँवरी की धौंस सारी उमर नहीं चलती। बिणज चीजों का होता है, प्रीत का नहीं। तुम तो प्रीत का भी बिणज करने लगे! इस बिणज में ऐसी ही बरकत होती है।
सेठ के बेटे का कलेजा तीरों से बिंध गया। यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं। सोचने का मौका ही कब मिला और आज मौका मिला तो ऐसे संकट में!
पंचों का बवंडर राजदरबार के न्याय की आस में तेज-तेज चला जा रहा था कि रास्ते में रेवड़ चराता एक गड़रिया मिल गया। हाथ में लंबा तड़ा। खिचड़ी दाढ़ी। खिचड़ी बाल। कसूँबल गोल साफा। हाथों में चाँदी के कड़े। ख़ूब लंबा रींछ की तरह पूरे शरीर पर घने बाल। घनी भौंहें कनवाल भी ख़ूब लंबे पीले दाँत आड़े तड़े से राह रोककर दैत्य के लहजे में पूछा, “इत्ते लोग इकट्ठे होकर कहाँ जा रहे हो? मौसर खाने के लिए?
दो-तीन बार समझाया तब कहीं बात उसकी समझ में आई। मूँफाड़ की बाजू से हँसी छलकाते हुए कहने लगा, इत्ती-सी बात के लिए बेचारे राजा को क्यूँ तकलीफ़ देते हो! यह न्याय तो मैं यहीं सलटा दूँगा। तुम्हें आँखों की कसम जो एक क़दम भी आगे रखा। नदी का ठंडा पानी पीओ थोड़ा सुस्ताओ ख़ूब नाम डुबोया अपने गाँव का! कोई माई का लाल यह न्याय न निपटा सका? खुर रगड़ते हुए सीधे राजा के पास चल दिए।
लोगों ने भी सोचा, अभी राजदरबार बहुत दूर है। इस गंवार की अक्ल से मामला सलट जाए तो क्या हरज़ है! नहीं तो राजाजी के पास तो जाना है ही। वे मान गए। तब गड़रिए ने बारी-बारी से दोनों को ध्यान से देखा। हूबहू एक-सी सूरत हवा भर भी फरक नहीं। वेमाता भी कैसी-कैसी खुराफ़ात करती है!
दोनों के बंधन खोलते हुए बोला, “भले आदमियो, इन्हें बाँधा क्यूँ? इत्ते लोगों के बीच ये भागकर कहाँ जाते!
फिर मुखिया से पूछा, ये गूँगे-बहरे तो नहीं हैं?
मुखिया ने जवाब दिया, नहीं, ये तो फ़र्राटे से बोलते हैं।
गड़रिया ठठाकर हँसा, फिर इसी तकलीफ़ क्यूँ उठाई? यहीं पूछ लेते। दोनों में से एक तो झूठा है ही!
पंच मन ही मन हँसे। यह गड़रिया तो निरा बौड़म है। ये सच बोलते तो फिर रोना ही क्या था! बस हो चुका इससे न्याय! न्याय करने लायक अक्ल होती तो भेड़ों के पीछे ढरर-ढरर करता क्यूँ डोलता?
रस्सी समेटते हुए गड़रिए ने कहा, समझ गया, समझ गया। बोलना तो जानते हैं, पर झूठ बोलना भी सीख गए हैं। कोई बात नहीं। सच उगलवाना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है। गले में तड़ा खसोलकर आँतों में उलझा सच अभी बाहर ला पटकता हूँ। देर किस बात की खेजड़ी की टहनियाँ भी इसके आगे नहीं ठहर सकती, फिर बेचारे सच की क्या बिसात! बोलो, पहले किसके गले में तड़ा खसोलूँ? जो पहले मुँह खोलेगा वही सच्चा!
भूत ने सोचा, अकेले की बात होती तो कैसी भी जोखिम और दुख उठा लेता। पर अब भेद खुला तो मेड़ी की धणियाणी मुसीबत में पड़ जाएगी। ऐसा जानता तो खेजड़ी के काँटों में ही उलझा रहता। भूतों के छल-बल में तो वह पारंगत था, पर आदमी के दाँव-घात का उसे तिल भर भी इलम नहीं था। आदमी के मुँह से जो भी सुनता, सच मान लेता। तड़े से उसके गले का क्या बिगड़ता है! ऐसे सौ तड़े भी उसका बाल बाँका नहीं कर सकते। उसकी प्रीत हरगिज़ झूठी नहीं हो सकती। इसमें इत्ता सोचना क्या! वह झट मुँह फाड़ता ही नज़र आया। सेठ के बेटे ने तो होंठ ही नहीं खोले। गावदी गड़रिए को सिला पर बाँटकर चटनी बना दे। पर कहा कुछ नहीं।
मुँह फाड़ने वाले की पीठ ठोंकते हुए गड़रिया बोला, शाबास रे पट्टे! तेरे जैसे सच्चे मानुस को इन मूरखों ने इत्ता तंग किया ! फिर भी दो परख और करूँगा। न्याय तो अब जो होना है, वही होगा। पर मन की तसल्ली बड़ी बात है। राई-रत्ती भी वहम क्यूँ रखना?
उसकी भेड़ें दूर-दूर चर रही थीं। उनकी ओर हाथ घुमाते हुए बोला, मैं सात ताली बजाऊँ तब तक जो इन भेड़ों को इस खेजड़ी के नीचे इकड़ी कर देगा, वही सच्चा!
गड़रिए को कहते देर लगी और भूत ने बवंडर का रूप धरकर पाँचवी ताली बजने से पहले-पहले सब भेड़ों को इकट्ठा कर दिया। सेठ का बेटा मुँह लटकाए खड़ा रहा। ठौर से हिला ही नहीं जैसी गड़रियों की मोटी अक्ल वैसा ही फूहड़ उनका न्याय! मानना न मानना तो उसके हाथ में है।
गड़रिए ने कहा, वाह, क्या बात है! भला सच्चे घणी के अलावा इत्ता हौसला किसका हो सकता है। एक मामूली-सी परख और करूँगा तब तक थोड़ा सुस्ता लो।
फिर तड़ा बगल में दबाकर दीवड़ी का मुँह खोला। एक ही साँस में सारा पानी पी गया। जोर से डकार ली। फिर पेट पर हाथ फेरते हुए बोला, सात चुटकियों में जो इस दीवड़ी के भीतर घुस जाएगा, वही मेड़ी का सच्चा धणी है। मेरा न्याय न मानने वाले का गला तड़े के एक झटके में चाक कर दूँगा।”
लोगों ने तड़े के अंकोड़िए की ओर देखा। धार लगा हुआ। तीखा-तच्च। दूसरे अटके का काम ही नहीं मुंडी धूल चाटती नज़र आएगी।
लोगों को अंकोड़िए की आँट देखते देर लगी, पर भूत को दीवड़ी में घुसते कोई देर नहीं लगी। ये करतब तो वह जनम से जानता है। गँवार गड़रिए ने लाज रख ली। भूत 'के अंदर घुसते ही गड़रिए ने एक छिन भी ढील नहीं की अदेर दीवड़ी का मुँह बंद करके कस्सा खींचकर बाँध दिया। फिर पंचों की ओर देखकर गुमान से बोला, न्याय करने में यह देर लगी दीवड़ी तो मेरी भी मुफ़तखाते में जाएगी, पर न्याय निपटाने का ज़िम्मा कुछ सोचकर ही लिया था। चलो अब सब मिलकर इस दीवड़ी को नदी में फेंक आएँ। आटा-पाटाँ गैगाट करती नदी इसे आप ही मेड़ी की सेज पर पहुँचा देगी। बोलो, हुआ कि नहीं अदल न्याय?
सबने एक साथ सर धुना। सेठ के बेटे की न ख़ुशी का पार था न आनंद का। ब्याह से भी हज़ार गुना उछाह उसके हिए में ठाटें मारने लगा। अंतस का आनंद छलककर होंठों से झरने लगा। हड़बड़ी में नग जड़ी अँगूठी निकालकर गड़रिए की ओर बढ़ाई गड़रिया बिना कहे ही उसके मन की बात समझ गया। पर अंगूठी क़बूल नहीं की। खिचड़ी दाढ़ी में पीले दाँतों की मुस्कान छितराते हुए बोला, “मैं राजा नहीं जो न्याय का मोल लूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया। और यह अँगूठी मेरे किस काम की न अँगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह अबूझ हैं। लूँग खाती हैं, पर सोना सूँघती भी नहीं। ये फ़ालतू चीज़ें तुम अमीरों को ही फबती हैं।
अब कहीं भूत को गड़रिए के उज्जह न्याय का पता चला। पर बेकार बात बस के बाहर हो गई थी। फिर भी जोर से कूका, देवासी, तेरी मींडकी गाय हूँ, एक बार बाहर निकाल दे। जीऊँगा तब तक तेरा रेवड़ चराऊँगा।
अब भला भूत की कौन सुनता! ख़ुशी से झूमते हुए नदी के किनारे पहुँचे। दीवड़ी कल-कल बहती नदी के हवाले कर दी। प्रीत के क्षणी को आख़िर नदी की आटाँ-पाटाँ बहती सेज मिली। उसका जीवन सफ़ल हुआ। उसकी मौत सारथक हुई।
फिर गाँववाले, सेठ और सेठ का बेटा दूने वेग से गाँव की ओर चले।
हवेली में घुसते ही बेटा सीधा सौरी में गया। एक दाई बेटी के लोई कर रही थी। दूसरी चंदन की काँघसी से जच्चा के केश सुलझा रही थी। गड़रिए के अदल न्याय की एक-एक बात का खुलासा करके ही उसे चैन पड़ा। एक-एक सबद के साथ जच्चा के कलेजे पर चरड़-चरड़ डाम लगता। जापे की पीड़ा से भी यह पीड़ा हज़ार गुना ज़्यादा थी। पर वह न तो टसकी और न चुस्कारा ही किया। पाखाण-पुतली की नाई चुपचाप सुनती रही।
सारी रामायण उधेड़ने के उपरांत वह आगे कहने लगा, “पर तुम्हारा चेहरा क उत्तर गया? जनम देनेवाले माँ-बाप भी नहीं पहचान सके तो तुम कैसे पहचानतीं? इस में तुम्हारा कोई कसूर नहीं पर हरामी भूत में लच्छन मुताबिक ख़ूब बीती! दीवड़ी में बंदी बना बहुत चिल्लाया, बहुत गिड़गिड़ाया, पर फिर तो राम का नाम जपो। हम ऐसे भोले कहाँ! आख़िर नदी में फेंकने से पीछा छूटा और उसका चीखना-चिल्लाना बंद हुआ। चंडाल फिर कभी छल करेगा!
उसके बाद घरवालों ने जैसा कहा, जच्चा ने वैसा ही किया। कभी किसी बात का पलटकर जवाब नहीं दिया। सास ने जित्ती सुवावड़ बनाई, उसने चुपचाप खा ली। जब सास ने कहा तब स्नान किया। बाल सँवारे। सूरज पूजा बामन ने होम किया। लुगाइयों ने गीत गाए गुड़ की मांगलिक लपसी बनी। सास के कहने पर जलवा पूजी। पीला पोमचा ओड़ा। बेटी को पीली ओढ़नी में झुलाया। परींडा पूजा। कूँकूँ के माँडने उकेरे। मेंहदी लगाई। जैसा कहा वैसा सिंगार किया। गहने-गाँठे पहने। ऐसी सुलच्छनी बहू बड़े भाग्य से मिलती है!
जलवा पूजन की रात बहू पीला ओढ़कर झंमर-झंमर करती हुई मेड़ी चढ़ी। बगल में छोरी। हाँचल में दूध। सूनी आँखें सूना हिवड़ा। माथे में जैसे अनगिनत बुग भनभना रहे हों। बहू के इंतज़ार में धणी हींगलू सेज पर बैठा था। इस एक ही मेड़ी में उसे राम जाने कित्ते जीवन भुगतने होंगे? पर हाँचल चूँघती विटिया बड़ी होकर लुगाई की ऐसी ज़िंदगी न जीए तो माँ की सारी पीड़ा सार्थक हो जाए। यूँ तो ढोर-डाँगरों को भी उनकी मरजी के खिलाफ़ नहीं बरत सकते। एक बार तो सर धुनते ही हैं। पर लुगाई की अपनी मरज़ी होती ही कहाँ है? मसान न पहुँचे तब तक मेड़ी और मेड़ी से सीधे मसान!
ek mayapati seth tha. uske iklaute bete ki barat dhumdham se byaah karke vapas aa rahi thi. zara sustane ke liye barat ek thaur ruki. gher ghumer khejaDi ki ghani chhaya. samne habbahol thaten marta talab. kaach sa nirmal pani. suraj sar par chaDh aaya tha. jhulaste jeth ki luen sane sane baj rahi theen. kha pikar aage chalen to achchha. dulhe ke baap ke kahte hi sab raji khushi maan gaye. dulhan ke saath paanch DaviDyan theen. ve sab khejaDi ki chhaya mein jajam bichhakar baith gain. paas hi ek baDa babul tha. pile phulon se ata hua. chandi ke unmaan dhaval hilariyan. baqi baratiyon ne babul ki chhaya par qabza kiya. kuch der bisai karne ke baad khane pine ka sarajam hone laga.
dulhan baratiyon ki or peeth karke ghunghat ughaDkar baith gai. upar dekha—sangriyan hi sangriyan. patli harichair. dekhte hi putliyan thanDi ho gain. sanjog ki baat ki us khejaDi par ek bhoot rahta tha. itr phulel se mahakta dulhan ka chehra dekhkar uski ankhen chundhiyan gai. kya lugai ka aisa roop aur yauvan hota hai? gulab ke phulon ki komalta, saurabh aur ras kas hi jaise sanche Dhala ho. dekhkar bhi bharosa nahin hota. badalon ka thiya chhoDkar bijli to nahin utar i? in miraganainon ki to thaah hi nahin! jaise samuchi qudrat ka roop uski deh mein sama gaya ho. hazaron lugaiyon ka roop dekha, par iski to rangat hi nyari! khejaDi ki chhaya bhi dip dip karne lagi. bhoot ki june dhany ho gai! dulhan ko lagne ka vichar kiya to bhoot ko phir chet hua. is se to ye kasht payegi. aise roop ko taklif kaise pahunchaye! bhoot gatagham mein paD gaya. ye to abhi chali jayegi. phir? na lagte banta hai na chhoDe banta hai. idhar kuan, udhar khai. aisi dasha to kabhi nahin hui. to kya dulhe ko lag jaun? par tab bhi dulhan ko dukh hoga! is roop ko dukh hua to na badal barsenge, na bijliyan chamkengi. na suraj ugega, na chaand. sari qudrat ulat pulat ho jayegi. bhoot ko aisi daya maya to kabhi nahin i. is roop ko dukh dene se to khu dukh uthana achchha hai. aisa dukh bhi kahan nasib hota hai! is dukh paras se bhoot ki june saphal ho jayegi.
vahan kitti der rukte! akhir to chalna hi tha. dulhan panvon par khaDi hokar aage baDhi to bhoot ki ankhon ke aage andhera chha gaya. raat ko aspasht dekhne vali ankhen javab kaise de gai? akash ke beech chamakte suraj par kalas kas put gaya?
runjhun chalti dulhan dulhe ki bahal par chaDhi. ye dulha kitta sabhagiya hai! kitta sukhi hai! bhoot ke rom rom mein sulen khubne lagin. hiye mein bhatti dahak uthi. bichhoh ki jalan ke mare na jiya jata hai na mara jata hai. jite ji ye jalan kaise sahe! aur marne ke baad ye jalan bhi kahan! aisi uhapoh mein to kabhi nahin phansa. bahal ke adith hote hi wo bechet ho gaya.
aur udhar bahal mein baithe dulhe ki uljhan bhi kam na theen. do ghaDi ho gai sar khapate, par byaah ke khar ka hisab nahin mil raha. bhayji gussa honge. khar bhi kuch besi ho gaya. aisi bhool chook se ve bahut naraz hote hain. hisab aur binaj ka sukh hi asli sukh hain. baqi sab pampal. khu bhagvan bhi pakka hisabi hain. ek ek ki saans ka pura hisab rakhta hai. barsat ki boond boond ka, hava ke reshe reshe ka aur dharti ke kan kan ka uske paas sahi pota hai. qudrat ke hisab mein bhi bhool nahin chal sakti tab baniye ki bahi mein bhool kaise khap sakti hai!
mathe mein bal Dale dulha ankaDon ka joD toD bitha raha tha dulhan ne bahal ka parda ughaDkar bahar dekha. chilakti tikhi dhoop. hariyal keron par kasunbal Dhalu dip dip kar rahe the. kitte suhane! kitte mohak! muskrate Dhalu Dhalu mein dulhan ki jot piro gai. dulhe ki baanh pakaDkar abujh bachche ki nai boli, “bahi se nazar to hatakar zara bahar to dekho! kitte sundar Dhalu hain! niche utarkar doek dhobe Dhalu la do! aisi chilchilati dhoop mein bhi ye phike nahin paDe. jyoon dhoop paDti hai zyada laal hote hain.
dulha adamiyon jaisa adami tha. na sundar na bhaunDa. bhari javani mein hi byaah hua tha, par byaah ki koi khaas khushi nahin thi. paanch baras nahin hota tab bhi chal jata. aur ho gaya to bahut achchha! kabhi na kabhi to hona hi tha. baDa kaam nipta. navalkhe haar par haath phirate hue bola, “Dhalu to ganvar khate hain. tumhein iski chaah kaise hui? khane ki ichha ho to rakkhi mein se kharak khopre nikalun? ji bharkar khao!
dulhan bhi niri ganvar nikli. hath karte hue boli, “nahin, mujhe thoDe Dhalu la do! aapka bahut gun manungi. aap taklif na uthana chahen to mujhe aagya den. main le aati hoon.
dulha apni baat par aDa raha, “in kanton se kaun uljhe! jangali hi Dhalu toDte hain aur jangali hi khate hain. makhane khao. patase khao. ichha ho to misri arogo. gutte Dhaluon ki ghar par baat hi mat karna. log hansenge.
hanse to hanse. ye kahkar dulhan bahal se kood paDi. titli ki tarah ker ker par uDti rahi. kuch hi der mein pallu mein laal chutt Dhalu lekar vapas i.
bugti ke pani se Dhalu dhoe. thanDe kiye honthon aur daluon ka rang ek jaisa. par dulhe ko na daluon ka rang bhaya, na hothon ka. wo apne hisab mein utna raha. dulhan ne bahut nihore kiye, par usne Dhaluon ko chhua tak nahin.
apaki marji! apni apni pasand hai. in Dhaluon ke badle apna navlakh haar ker mein taank doon tab bhi kam hai.
Dhalu khati dulhan ke chehre ko takte hue dulha kahne laga, aisi phoohD baat phir mat karna. bhayji bahut gussa honge. wo roop ki bajay gunon ki zyada kadar karte hain.
wo muskrate hue boli, “ab samjhi. unke Dar se aap hisab kitab mein Dube hain! par sab kaam apni apni thaur achchhe lagte hain. byaah ki bela hisab mein rundhana kahan ka nyaay hai!
“byaah hona tha so ho gaya. par hisab to abhi baqi hai. byaah ke kharche ka hisab sanbhlakar mujhe teej ke din disavar jana hai. aisa shubh mahurat phir saat saal nahin ayega.
par ganvar dulhan ko shubh mahurat ki khushakhabri sunkar zara bhi khushi nahin hui. Dhaluon ka svaad bigaD gaya. dil baithne laga. ye kya suna! ekayek bharosa na hua. puchha, “kya kaha, disavar jayenge? suna hai aapke yahan to dhan ke bhanDar bhare hain?
“ismen kya shak hai! khu apni ankhon se dekh lena. dulha guman bhare sur mein kahne laga, “hire motiyon se tahkhane bhare hain. par dhan to din duna raat chauguna baDhta hua hi achchha lagta hai. binaj byaupar hi baniye ka dharam hai. abhi to bahut dhan kamana hai. aisa nami mahurat kaise chhoDa ja sakta hai!
dulhan ne baat nahin baDhai. baat baDhane mein saar hi kya tha! ek ek sare karke Dhalu phenk diye. dulha muskraya, “mainne to pahle hi kaha tha. Dhalu to ganvar khate hain. hum baDe logon ko achchhe nahin lagte. akhir nahin khaye gaye to phenkne paDe n! dhoop mein jali so nafe men!”
itta kahkar dulhe ne dhoop ka tumar johne ke liye bahal se bahar dekha. nazar sulag uthe jaisi dhoop. pile phulon se chhaye hinganiyon ke anaginat jhaaD aise lag rahe the mano thaur thaur aag ki lapten uth rahi hon. vyangy se bola, “ab in hinganiyon ke liye to hath nahin karogi? in mein gun hote to gaDariye kab chhoDte!
dulhan ne koi javab na diya. aboli baithi pihar ki baten sochne lagi. is dhani ke bharose ghar angan chhoDa. maan baap ka bichhoh saha. saheliyon ka sang, bhai bhatije, talab ki paal, geet, guDDe guDDiyan, jhurni, ankhmichauni sab chhoDkar is dhani ka haath thama. maan ki god chhoDkar paraye ghar se aas lagai. aur ye teej ke din shubh mahurat ki ghaDi binaj ke liye disavar jana chahte hain! phir behisab dhan kis sukh ke liye hai? jite ji kaam aata nahin. marne par kafan kathi ki garaj bhi sarti nahin. kis sukh ki aas mein inke pichhe i? kis adith sukh aur santokh ke bharose parai thaur ka nivas kabul kiya? kamai, binaj byaupar aur dhan maya phir kis din ke liye hain? is asli sukh ke badle teen lok ka raaj mile tab bhi kis kaam ka! duniya ki samuchi dhan sampat dekar bhi bita hua pal lautaya nahin ja sakta. adami paise ke liye hai ya paisa adami ke liye, bus yahi hisab samajhna hai. iske baad kaun sa hisab baqi rah jata hai. kanchan baDa ki kaya? saans baDi ki maya? iske javab mein hi manus ke tamam javab samaye hue hain.
dulha apne hisab mein phansa tha. dulhan apne khayalon mein Dubi thi. aur bail apni chaal mein magan the. jo chalega wo muqam par pahunchega hi. akhir seth ki haveli ke aage barat ruki. gaje baje Dhol Dhamankon ke saath dulhan ko badhakar andar liya. jisne bhi dekha, dekhta rah gaya. nazar utari. roop ho to aisa rang ho to aisa!
saanjh ko meDi mein ghi ke diye jale. ghaDi tinek raat Dhale dulha meDi mein aaya. aate hi seekh nasihton ki jhaDi laga di, “ghar ki izzat ka dhyaan rakhna. saas sasur ki seva karna. apni laaj apne haath. do din ke liye chaupaD pase ka chaska kyoon lagayen! do din ki angaraliyan paanch baras dukh dengi. baras bitte kya der lagti hai! dekhte dekhte paanch baras nikal jayenge. phir kaisi kami! yahi meDi. yahi diye. yahi raten. aur yahi sej. wo bilkul chinta na kare. palak jhapakte paanch baras beet jayenge.
seekh ki anmol baten dulhan chupchap sunti rahi. kuch kahna ya karna to uske bus mein tha nahin. jo dhani ki marji wo uski marji. jo bhayji ki marji wo bete ki marji. jo lichhmi ki marji wo bhayji ki marji. aur jo lobh ki marji wo lichhmi ki marji. seekh ki baton mein raat alop ho gai. raat ke saath jhilmilate navlakh tare bhi alop ho gaye.
aur udhar khejaDi ke thiye murchha tutne par bhoot ki ankhen khulin. chaupher dekha. suni kankaD. suni rindhrohi. ghani khejaDi. ghani chhaya. latakti sagariyan. kahan dulhan? kahan miragnain? kahan suhana mukhDa? kahan gulabi honth? kahin wo sapna to nahin tha? use laga ki uska kapti man seDau doodh mein nha gaya hai. aisa suraj to pahle kabhi nahin ugaa! gol gatt gulabi ghera. puri duniya mein ujala hi ujala. mand mand bayar. hava ki adith taniyon par jhulti aDhar hariyali. uska man anaginat roop dharkar qudrat ke kan kan mein sama gaya.
are, suraj is tarah to pahle kabhi nahin Duba. pachchham dis mein gulal hi gulal chha gaya. dharti par na chamachmata ujaas. na gagan mein chaand. na suraj aur na ek hi tara. na pura andhera. jaise qudrat ne jhina ghunghat nikala ho. chehra bhi dikhta hai. ghunghat bhi dikhta hai. ab qudrat ne chunari badli. navlakh tare jaDi sanvli chunari. dhundhli chehra dikhta hai. ghule rukh hariyali. jaise sapnon ka tana bana buna ja raha ho. qudrat pahle to kabhi itti suhani nahin lagi. ye dulhan ke roop ka chamatkar hai.
aur udhar dulhan ka bhartar us roop se munh moDkar disavar ke marag chal paDa. kamar se bandhi hire motiyon ki noli. kandhe par rakkhi. aur samne asman mein chamakta binaj ka akhanD suraj. sukh, laabh aur kamai ka kya paar!
chalte chalte wo usi khejaDi ke paas se nikla. bhoot ne use ader pahchan liya. adami ka roop dharkar us se jairamji ki. puchha, abhi to hathleve ki mehndi ka rang bhi phika nahin paDa, kankan DorDe bhi nahin khule, itti jaldi kahan chal diye?
seth ke bete ne kaha, “menhdi ko jab utarna hoga utar jayegi. aur kokan DorDe kya disavar mein nahin khul sakte?
bhoot uske saath ho liya. sari baten jaan leen. wo paanch baras disavar mein binaj karega. ye mahurat nikal jata to saat saal tak aisa mahurat nahin aata. seth ke bete ki boli chali aur uske svbhaav ki zarurat mutabik jankari karke ye dusre marag muD gaya. man hi man sochne laga ki seth ke bete ka roop dharkar haveli pahunch jaye to paanch baras tak koi puchhne vala nahin. ye chhinka to khoob tuta. aage ki aage dekhi jayegi. bhagvan ne vinti suni to sahi phir to us se ek pal bhi na ruka gaya. hubhu seth ke bete ka roop dharkar gaanv ki or chal paDa. man mein na khushi ka paar tha na anand ka.
do teen ghaDi din baqi tha, tab bhi achchha khasa andhera ho gaya. kali pili uttradi andhi ke got par got ghumaDte dikhe. andhi tar tar unchi uthti gai. tar tar andhera bana hota gaya. suraj ke rahte andhera! haath ko haath nahin soojh raha tha. qudrat ko bhi kaise kaise sapne aate hain! qudrat ke is sapne ke bina dharti par bichhi paanv tale ki dhool ko suraj dhakne ka mauqa kab milta! dharti par pasri ret asman mein pahunch gai. hava khen khen bajne lagi. pahaD ke pahaD uthal de aisi andhi! thothi akaDvale jangi rookh charaD charaD tutne ukhaDne lage. namnevali lochdar jhaDiyan kabhi idhar jhuktin kabhi udhar, par unka kuch nahin bigDa. panvon tale rondi janevali ghaas ka to baal bhi banka nahin hua. khemakushal puchhti, dularti, sahlati andhi upar se nikal gai. sari vanray jaise palne mein jhulne lagi. patte patte aur kompal kompal ki saar sanbhal ho gai. baDe pachhiyon ke jhapiD uDne lage. chhote panchhi Daliyon se chipakkar baith gaye. uDna dubhar ho gaya. samuche asman par andhi ka raaj tharap gaya. charon mer soon soon, khen khen. suraj ke tap tej ko dharti ki dhool nigal gai! azab hai andhi ka ye naach! azab hai ret ki ye ghumar samuchi qudrat is tanDav se Dhank gai. sara virmanD ekmekh ho gaya na asman dikh raha hai na suraj na pahaD na vanray. aur na dharti. nirakar agochar qudrat ki is nakuchh ubasi ke aage na manus ke gyaan ki koi hasti hai, na uske aape ki auqat, na uske guman ka koi jor, na uski khatpat ki koi bisat.
qudrat ki kavaD ka dusra chitram haule haule phir ujala hone laga. haath ko haath sujhne laga. tar tar ujale ka aapa pasarne laga. haule haule qudrat ki chhavi saaf dikhne lagi. pahaD ki thaur pahaD sone ke paat jaisa gol gol suraj. runkh ki thaur runkh. jhaDiyon ki thaur jhaDiyan hava ki thaur hava ye kaisi maya! ki sahsa taD taD taD baDi baDi bunden barasne lagin. boond se boond takrane lagi. parnalon meh barasne laga. qudrat snaan kar rahi hai. uska royan royan dhul gaya. nale khale bahne lage. jal thal ek ho gaya. jalbamb hi jalbamb nahati qudrat ko niharkar suraj ka ujala sarthak hua.
thoDi hi der mein kya se kya ho gaya! dekhkar bhi bhoot ko bharosa na hua. qudrat ki ye kaisi dillgi hai? ye kya hua? kaise hua? kahin uske man ki andhi hi to bahar prakat nahin hui? qudrat ka ye kautuk uske man mein hi dubka hua to nahin tha? is bharam ki jhonk mein wo tej tej chalne laga.
sidhe haveli na jakar pahle wo peDhi par gaya. hisab karte seth ne bete ko dekha tab bhi ekayek man nahin mana. disavar gaya beta vapas aaya to aaya hi kaise? pahle to kabhi uska kaha nahin tala! byaah ke baad adami kisi kaam ka nahin rahta. jaldi byaah rachakar raam jane sethani ne kis janam ka badla liya? hai ho chuki kamai! ya to binaj ki hajri baja lo ya lugai ki.
baap ke honthon tak i baat wo bina kahe hi samajh gaya. haath joDkar bola, pahle meri baat sun len! binaj ki salah soot karne ke liye hi vapas aaya hoon. aapka hukam nahin hoga to ghar gaye bina hi leet jaunga. marag mein samadhi lagaye ek mahatma ke darsan hue. pure sharir par dimak jami hui thi. mainne suthrai se mati hatai. kuen se pani sinchkar snaan karaya. pani pilaya. khana khilaya. meri seva se prasann hokar mahatma ne vardan diya ki mujhe roz taDke palang se utarte hi paanch mohren milengi. disavar mein ye vardan nahin phalega. ab pharmayen aapka kya hukam hai?
aise achite vardan ke baad jo hukam hona tha vahi hua. seth khushi khushi maan gaya. sethani ki khushi ka to kahna hi kya iklauta beta ankhon ke aage rahega. aur kamai ki thaur kamai ka jugaD bhi ho gaya. dulhan ko khushi ke saath saath achraj aur guman bhi hua ki ye roop chhoDkar koi disavar ja sakta hai bhala! tisre din hi vapas aana paDa.
dukan ke saude soot, hisab aur byalu se nipatkar wo ghaDi do ghaDi raat meDi mein aaya. charon konon mein ghi ki piljoten jal rahi theen. hinglu sej par phool bichhe hue the. is intज़aar se baDhkar koi anand nahin. rimjhol ki runjhun sunai di. is rankar se baDhkar koi naad nahin. solah singar se saji dulhan meDi mein i. is nazar se baDhkar koi jot nahin. samuchi meDi itr phulel se mahak uthi. is sauram se baDhkar koi gandh nahin. isi mahak ne khejaDi ke thiye man mein aag lagai thi. aur aaj meDi mein pratyaksh nazron ka milan! itti jaldi kamna phalegi ye to sapne mein bhi nahin socha tha.
dulhan nisankoch uski bagal mein baith gai. ghunghat kya hataya jaise teen lok ka param anand jagmaga utha. is roop ki to chhaya bhi dip dip karti hai. dulhan ne muskrakar kaha, main janti thi ki aap beech raah se laut ayenge. ye taron jaDi raat aisi sait mein aage nahin baDhne deti. aisa hi jom tha to meri ichha ke khilaf gaye hi kyoon? akhir meri mannat phali.
bhoot ke man mein bavanDar sa utha. is seDau doodh mein kichaD kaise milaye. ise chhalne se baDa koi paap nahin. ye to asli dhani samajhkar itti khush hui. par is se adham jhooth aur kya hoga ye to jhooth ki had hai. is abujh preet se baat kaise kare. preet ke paras se bhuton ka man bhi ghul jata hai. koi barabari ka ho to chhal bal ka jor bhi bataye. par neend mein soe hue ka gala suntane se to talvar ka maan bhi ghatta hai.
bhoot thoDa door sarakte hue bola, kaun jane mannat phali ki nahin! achchhi tarah tapas to kar lo! koi dusra adami tumhare dhani ka roop dharkar to nahin aa gaya?
wo chaunki. hinglu sej par baithe manus ko sar se paanv tak gaur se dekha. vahi shakal surat vahi rang roop vahi nazar vahi boli ader samajh gai ki dhani uske sat ki parakh karna chahta hai. muskan ka ujala chhitrate hue boli, “sapne mein bhi paraye manus ko apni chhaya na chhune doon, phir khuli ankhon ye kaise ho sakta hai! dusra adami hota to mere sat ke jor se kab ka bhasm ho jata.
pahle to ye baat use chubhi. honthon tak aaye bol turant vapas nigal gaya ki tab to uska sat khota hai. wo bhasm ho jata to uska sat khara tha. vastav mein dusra adami hote hue bhi wo bhasm nahin hua to uska sat khota hai. par agle hi chhin baat ke dusre pahlu ka dhyaan jate hi uski kheejh nithar gai. ulta raji hua. fakat shakal surat se kya hota hai! sachcha dhani hota to lugai ki ye maya chhoDkar jata bhala! kya vichhoh ke liye hi chanvari mein haath thamkar apne pichhe laya tha? koi andha bhi roop ki is jhani ko nahin thukrata. tab wo deeth ke rahte kaise andha bana! saat phere khaye to kya, uski preet sachchi kahan! aur usne bhoot hokar is se sachchi preet ki. chhal karte ji chhatpatata hai. uski preet sachchi hai. uska neh khara hai. tabhi to donon ka sat bach gaya. phir bhi aapas mein durav rakhne se preet ki marjad ghategi. saanch ko anch lagegi. sachchi baat bataye bina wo is meDi mein saans bhi nahin le sakta. vapas paas sarakte hue kahne laga, sachmuch dusra adami hote hue bhi tumhara sat khara hai. kyonki meri preet sachchi hai. saat phere ke asli dhani ki preet jhuthi hai. tabhi to is roop se munh moDkar wo disavar chala gaya.
par dulhan sach jhooth ki pahchan kaise kare? kuch bhi palle na paDa. khu maan baap jise apna beta samajhte hain, hubhu surat vale is bande ko apna dhani manne mein kaisi jhijhak surat aur rang roop hi to rishte naton ki sabse baDi pahchan hai.
phir bhoot ne use ek ek baat byaurevar batai ki khejaDi ke niche uska roop niharkar uski kya haalat hui. uske adith hote hi kaise bechet hua. vapas kab hosh aaya. disavar jate thani se usne kya baten keen. phir uska roop dharkar kaise yahan aane ka phaisla kiya. raah mein i andhi barsat ki baat bhi nahin chhipai. dulhan kaath ki putli ki nai sunti rahi. kya yahi sachchai sunne ke liye vidhata ne use kaan diye?
uski kalai sahlate hue wo aage kahne laga, maan baap ko to nit hames paanch mohron ke saath peDhi ke laabh ki darkar hai. asliyat se unhen koi vasta nahin. par tum se sach baat chhipata to preet ke chehre par kalikh put jati mein bhed nahin batata to tumhein paanch baras tak sapne mein bhi sachchai ka pata na chalta. tum to asli dhani samajhkar hi gharvas karti. par mera man na mana. main apne man se sachchai kaise chhipata! is se pahle bahut si lugaiyon ko laga. unhen bahut dukh diya. par meri aisi haalat kabhi nahin hui. raam jane itti daya maya mere man mein kahan oti hui thee? tis par bhi tumhari ichha nahin hogi to main isi pal vapas chala jaunga. jite ji is or munh bhi nahin karunga tumhein piDa pahunchakar mujhe preet ka anand nahin chahiye. tab bhi akhiri saans tak tumhara ehsaan manunga. tumhare karan mere hivDe ka vish imrat mein badal gaya. nari ke roop aur purush ke prem ki yahi to sachchi maryada hai.
roop ki putli ke honth khule, samajh nahin paDta ki ye bhed chhupa rahta to achchha tha ya prakat ho gaya to achchha hua. kabhi pahli baat theek lagti hai to kabhi dusri. ”
dulhan ki ankhon mein ankhen pirokar bhoot kahne laga, baanjh aurat jachcha ki piDa kya jane! is piDa mein hi kukh ka anand chhipa hua hai. saanch aur kookh ke prasav ki piDa ek sarikhi hoti hai. is saanch ko chhipane mein na to piDa thi, na anand. wo to fakat saanch ka bharam hota. anand ka svaang hota. mein kai lugaiyon ko laga tab kahin asliyat ko jaan paya mein kai aisi sati sadhviyon ko janta hoon jo angaraliyon ki bela ghani ke chehre mein apne vaar ka chehra khojti hain. yoon kahne ko to ve paraye marad ki chhaya bhi nahin chhutin, par dhani ke bahane dusre purush ke dhyaan mein kitna sat hai, iski asliyat jitti mein janta hoon utti mata bhi nahin janti. sati savitriyon ke charit ka dikhava mainne bahut dekha hai. Dar to bus loklaj ka hota hai. kisi ko pata na chale to svayan bhagvan bhi paap karne se na chuken. ab jo tumhari marji ho bata do. mainne to bhoot hokar bhi kuch nahin chhupaya.
aisi paheli kabhi kisi aurat ko suljhani nahin paDi hogi. thaur kutir munD marne ki kise havas nahin hoti? parai aurat aur paraye adami ke liye kiska ji nahin lalchata? par laukik ke Dar se Dhakkan hataye nahin banta. Dhakkan ke bhitar jo pakta hai, wo to pakta hi hai. soch vicharkar aisi baton ka javab dena kitta mushkil hai! wo is tarah gumdham baithi rahi mano bolna bisar gai ho.
dulhan ki samajh mein achita sota phuta. sochne lagi, uske janam par thaal ki thaur soup baja. gharvalon ko koi khaas khushi nahin hui. beta hota to achchha tha. maan baap ki nazar mein ghura baDhte der lage to beti baDi hote der lage. dasvan baras utarte na utarte maan baap use haath pile karke paraye ghar pahunchane ki chinta karne lage. na angan mein samati thi, na asman mein chhaachh aur laachh mangne mein kaisa sankoch! rishte par rishte aane lage. uske roop ki khyati chaupher hava mein ghuli hui thi. solah baras bitane dubhar ho gaye. maan ki kookh mein sama gai, par ghar angan mein na samai. tabhi is haveli se nariyal aaya. uske baDbhag jo maan baap ne sava kabul kar liya. koi dusri ghar gavaDi hoti tab bhi use to jana hi tha. dhani binaj aur lekhe jokhe mein hi magan hai. uski nazar mein hanDi ke painde aur lugai ke chehre mein koi farak nahin. darakta yauvan aur darakti mati donon ek sarikhi. na bahal mein lugai ke man ki baat samjha, na meDi mein. meDi aur sej suni chhoDkar binaj ke liye chala gaya. ek baar muDkar bhi na dekha aur aaj bhoot ki preet ka ujala hua to suraj bhi phika paD gaya. hathleve ka byahta jabran chala gaya tab bhi uska bus na chala. bhoot ki preet ke aage bhi uska bus kahan chala! janevale ko rok na saki to meDi mein aaye ko kaise roke! ye preet ki baat karta hai to kanon mein tel kaise Dale! dhani hokar yoon majdhar mein chhoD gaya, bhoot hokar yoon preet darsai! kaise barje? kyoon barje?
sapnon par koi bus chale to aisi preet par bus chale. wo sudh budh bisrakar uski god mein luDhak gai.
kahin ye uske man ka bhoot hi to nahin, jo sakar roop dharkar prakat hua? phir apne man se kaisi laaj! jahan vani atakti hai, vahan maun kaam sarata hai. uske upraant kuch bhi kahna sunna baqi na raha. aap hi ek dusre ke antas ki baat samajh gaye. diye ka ujaas lop ho gaya. aur andhera ujaas bankar jagmagane laga. sej ke kumhlaye phulon ki kali kali khil gai. meDi ka ujala dhany hua. meDi ka andhera dhany hua. asman ke taron ka ujaas duna ho gaya.
aisi anmol raton mein bakhat bitte kya der lagti hai! chutkiyon mein din phisalne lage. khoob binaj baDha. khoob len den baDha. khoob jas baDha maan baap khush the so to the hi, sare ilake ke log bhi seth ke bete se bahut khush the. bakhat bebkhat sab ke kaam aata tha. dusre baniyon ki tarah gala nahin katta tha. langot ka sachcha. peDhi par i lugai ki or dekhta tak nahin tha. chhoti ko bahan aur baDi ko maan sarikhi samajhta tha. uska naam lete to logon ke munh mein misri ghul jati. us mein khami bus ek hi thi. disavar se seth ke bete ka kaghaz aata to phaDkar phenk deta. vapas koi javab nahin.
is anand aur jas ke palne mein dekhte dekhte teen baras beet gaye. jaise mitha sapna bita ho. bhoot bhi haveli mein ralmil gaya. mano seth ka saga beta ho. bahu bhi meDi ke nashe mein Dubi hui thi. raat ke intज़aar mein din ugte hi Doob jata. meDi mein palak jhapakte raat Dhal jati.
bahu ke aasa thahri. tisra mahina utarnevala tha. khu seth ne apne haath se sava man guD banta. logon ne sava man sona samajhkar kabul kiya. seth ne umar mein pahli baar datari dikhai thi. aaj haath khula hai to aage bhi khulega. bete bahu ne chupke chupke khoob daan punn kiya. harakh ke navlakh taron mein naya chaand juDega! kookh ka chaand asman ke chaand se hamesha baDhkar hota hai.
dhani lugai donon ko beti ki baDi chaah thi. bahut khushiyan manaenge. beta kaun sarag le jata hai! raam jane kiske jaisa hoga? bachche ke janm ki bajay uski aas mein zyada anand hai. kookh mein bachche ke saath saath sapne palte hain.
din sarpat dauDne lage. paanch mahine bite saat mahine sampurn hue. ye nauva mahina utarnevala hai. bahu raat din meDi mein soi rahti. teen teen daiyan hazri mein har ghaDi jaag rahtin.
dhani ki god mein soi gharni ankhen munde munde hi boli, kai baar sochti hoon, yadi us din khejaDi ke niche visram karne nahin rukte to mere ye chaar saal kaise bitte? shayad bitte hi nahin.
bhoot ne kaha, “tumhare din to jyu tyu kat jate, par mera kya hota? jhaDi jhaDi khejaDi khejaDi bhoot ki june puri karta. us din sumat sujhi jo tumhein nahin laga. mujhe to ab bhi vishvas nahin hota ki sachmuch jine ka anand bhog raha hoon ya sapna dekh raha hoon!
udhar door disavar mein bahu ka byahta taDke ghaDi raat rahte utha. aalas maroDa. ubasi khakar divDi se thanDa pani piya. charon mer ek sarikha andhera chhaya hua tha. timtimate hue ek sarikhe tare. kahin kisi disha mein ujala nahin. raat aur chhoti hoti to kitta achchha rahta! kya zarurat hai itti baDi raat ki sone sone mein aadhi umar nikal jati hai. neend mein binaj byaupar to hone se raha! varna duni kamai hoti. tab bhi maya kam nahin joDi bhayji bahut khush honge.
beech beech mein aas paDaus ke sahukar milte rahte the. use vahan dekhkar unhen bahut achanbha hota. puchhte ki wo gaanv se kab aaya? ye sunkar use bhi kam achanbha nahin hota. kahta ki usne to gaanv ki or munh hi nahin kiya. ve pagal to nahin ho gaye. tab unhonne jor dekar puri baat khulasa karke samjhai. phir bhi use vishvas nahin hua. wo to yahan se hila hi nahin, tab vahan kaise pahunch sakta hai? kamai dekhi nahin jati isliye ulti sulti sunakar duvidha mein Dalna chahte hain. par wo itta bhola nahin. unke kaan katre jaisa hai. kamai aur binaj mein zyada man lagane laga.
par aaj all savere ek khaas paDosi ne samachar diya ki bahu ke bachcha honevala hai. shayad ho gaya ho.
wo beech hi mein bola, aisi baat hoti to gharvale mujhe zarur khabar karte. mainne paanch saat kaghaz diye, par vapas ek ka bhi javab nahin.
paDosi ne kaha, “bhale manus, zara socho to. . . ve kyoon khabar karte? kise khabar karte? unka beta to tisre din hi vapas aa gaya. ek mahatma ke diye mantar se sethji ko nit paanch mohren deta hai. haveli mein raam raji hai. sab maje mein hain. meDi mein ghi ke diye jalte hain. haan, ab pata chala. sethji ke bete ki shakal hubhu aap se milti hai. vidhata ki karigari! khu sethji dekhen tab bhi pahchan na saken. ab malum hua ki shakal to zarur milti hai, par aap dusre hain.
“bhala mein dusra kaise hua? lagta hai, kal parson hi jana paDega.
so seth ke bete ne binaj baupar sameta, munim ko bhulavan di aur apne gaanv ki or chal paDa. vahi jeth ka mahina luon ke khenkhaD baj rahe the. keron par laal laal Dhalu dekhkar us din ki baat yaad aa gai. jab bahu ki yahin pasand hai to apna kya jata hai! na heeng lage na phitakDi! pake hue Dhalu toDkar gam mein baandh liye.
wo haveli pahuncha us bakhat vahan lugaiyon ka mela laga hua tha. seth sethani ghabraye hue mannat par mannat bol rahe the. bhutvala dhani meDi ke bahar khaDa tha. chehre par havaiyan uDi hui theen. bahu sauri mein tasak rahi thi. bachcha atak gaya tha. daiyon apne hunar mein lagi theen.
is chakchak ke beech chaivri ka byahta dhool se ata hua, bejhijhak chauk mein aa khaDa hua. kandhe par Dhaluon ka gamchha latak raha tha. maan baap ke charn chhue. ye kaisa tamasha? hubhu bete se shakal milti hai! khankh se sana hai to kyaa! koi thag to nahin? behad achraj bhi gunga hota hai. maan baap chahkar bhi kuch bol na sake. lugaiyon ki chakchak ka raag badal gaya. haay daiya, ek hi shakal ke do dhani! kaun sachcha kaun jhutha? ye kaisi lila? ye kaisa kautuk? koi idhar bhagi, koi udhar sauri mein lugai ka tasakna sunkar wo ader sari baat samajh gaya. khabar ghalat nahin thi. aisa chhal kisne kiya? kaise ho iski pahchan? log kiske kahe par bharosa karenge? tabhi meDi ke bahar khaDe manus par uski nazar paDi. hubhu uska rangrup! chhaliya ke chhal ko kaun jaan saka hai! nason ka lahu jam gaya. bhala ye kya hua?
pritvale dhani ke kanon mein fakat jachcha ki tasak goonj rahi thi. aur kisi baat ka use chet na tha. hava tham gai thi. suraj tham gaya tha. kab ye tasakna band ho aur kab qudrat ka penkhDa chhute!
bete ne baap se kaha, main to chaar baras se disavar tha, phir bahu ke paanv kaise hue? aapne kuch to socha hota?
seth ne man hi man sara hisab laga liya. bola, tu hai kaun? mera beta to tisre din hi vapas aa gaya tha. yahan teri daal nahin galegi.
uske achraj ka paar na raha. chup rahne se baat bigaD jayegi turant bola, “kya main isliye kamai karne disavar gaya tha ki lautun to aap pahchanne se hi mana kar den? aapne hi to zabardasti bheja tha.
seth ne kaha, nahin chahiye mujhe aisi kamai. tu mujhe kamai ka kya rob dikhata hai? jidhar se aaya hai, udhar hi chalta ban! nahin to khaal mein bhusa bharva dunga.
bhayji ka sar phir gaya lagta hai. usne maan ki or muDkar puchha, maan, kya tu bhi apne bete ko nahin pahchanti?
maan kya javab deti! aise saval ka javab kya koi maan de bhi sakti hai? shayad ab tak kisi bete ne apni maan se aisa saval nahin kiya hoga. uski jeebh talu se chipak gai. wo dug dug dhani ko dekhne lagi. maan ko aboli dekhkar wo gatagham mein paD gaya. tabhi use Dhaluon ka dhyaan aaya. kanpte hathon se gamchha khola. laal laal Dhalu bhavji ko dikhate hue bola, bahu ko us din ke Dhaluon ki baat yaad dilaiye. wo sab bata degi. us din usne khu Dhalu toDkar khaye the. aaj mein toDkar laya hoon. usse puchhkar to dekho! aap kahen to main bahar se poochh loon seth ka chehra tamtama gaya. taish mein aakar bola, pagal kahin ka! ye Dhaluon ki baat puchhne ka bakhat hai! bahu ko to jaan ki paDi hai aur tujhe Dhaluon ki lagi hai! door hata apne Dhaluon ko main to ye phoohD baat sunte hi samajh gaya ki mayapati seth ki bahu ganvaron ki tarah khu toDkar Dhalu khayegi? khair chahta hai to chupchap chala ja. nahin to ise jute paDenge ki ginnevala nahin milega.
bete ne kaha, baap ke juton ki parvah nahin, par us din mainne bhi bahal mein yahi baat kahi thi.
sauri mein bahu usi tarah tasak rahi thi. daiyon ne ghaDi ghaDi bachche ko katkar nikalne ki baat kahi, par wo taiyar na hui. akhir marte marte baDi mushkil se chhutapa hua. bahu ki ankhon ke aage kabhi andhera chha jata, kabhi bijliyan kandhane lagtin.
chauk se bhagi lugaiyon ke munh se do dhaniyon ki baat aisi ufni ki ghar ghar mein kachakchata mach gaya. dekhte dekhte seth ki haveli ke ird gird logon ka mela lag gaya. aisi anhoni baat ka svaad jeebh ko barson se milta hai. harek ki jeebh ko mano pankh lag gaye ! ek hi surat ke do dhani. ek to chaar baras pahle meDi chaDh gaya aur ek aaj apna hak jatane aaya hai. bahu sauri mein jape ki piDa se usak rahi hai. ajab tamasha hua! dekhen, seth kaise baat sanvarte hain. kaise Dhanpate hain! bhala aisi baton ko Dhanpne kaun dega? log us baat ko chaba chabakar phir chabate.
bheeD bhaDakka dekhkar seth aape se bahar ho gaya. thook uchhalte hue bola, hamare ghar ki baat hai. hum aap nipat lenge. ganvvale kyoon panchayti karte hain? main kahta hoon baad mein anevala jhutha hai. main dhakke dekar nikalva dunga. din dahaDe luchchai nahin chal sakti.
beta chillaya, “aap kya pagalpan kar rahe hain? suraj ko tava aur tave ko suraj bata rahe hain? aap jaise chahen chhanabin kar len. ye to sarasar annyaye hai.
mayapati seth ki panchayti ka aisa mauka kab milega! logabag aD gaye ki khara nyaay hona chahiye. doodh ka doodh aur pani ka pani. kasurvar ko pura danD mile. yoon do dhaniyon ka rivaj kaise chalega! amiron ka to kuch nahin, hum gharibon ka jina haram ho jayega. basti se alag nahin tal sakte. kitta hi dhan ka jor ho, kandha denevale bhai par nahin ayenge.
mamla uljha par uljhaa! koi jhukne ko taiyar na tha na seth, na basti ke log. logon ke munh the aur bahu ke kaan. so use sauri mein hi sare samanchar mil gaye.
lugai ka jivan mila hai to raam jane kya kya sunna hoga! kya kya hazri uthani hogi! kya kya ramat dekhni hogi! akhir ek din to ye hona hi tha. chaar baras to sapne ki nai alop ho gaye. bhala sapne ka kaisa thavas! aur kitti uski jaD gahri.
khanDhar mein manDrati chamgadaDon ki tarah log idhar udhar chakkar lagane ye panchayti salte bina kaur bhi gale na utrega.
sauri ka kivaD ughaDkar daiyon ne samchar diya ki bahu ke laDki hui hai. maut ki wicket ghati tal gai. maut mein kya kasar rah gai thee! bach gai so baDbhag. sauri ke bahar bhinbhinati lugaiyon ko balsad sunai diya. meDi ki dehri par khaDe dhani ko ab kahin chet hua. par chet hone par jo baat uske kanon mein paDi usse kaleje mein achiti surang chhuti. sudh budh par pala paD gaya. ek baras pahle ye gaaj kaise giri?
seth sethani munh latkaye khaDe the. pure gaanv mein halla mach gaya. kaisi ajani aafat i! nagkhadhe ne jane kis janam ka badla liya? baat to bigaDti hi chali ja rahi hai. kaise sanvare? kaun jane kisne daanv ghaat kiya? meDi to pichhle chaar baras se abad hai. ise nazarandaj karne par to haveli ki naak kat jayegi. Dhaluvala maan jaye to baat dab sakti hai. munhmanga alal hisab dene ko taiyar hain. aur kya chahiye?
na Dhaluvala mana, na basti ke log. adal nyaay hona chahiye. biradri mein kahin munh dikhane layak na rahenge. chaar yaras upraant kukh upDi to ek aur dhani aa tapka! raam jane kaun sachcha hai? ek to jhutha hai hi gaanv chinachinate chaDh gaya, jaise barron ka chhatta zamin par aa gira ho. Dhaluvale ki tarafadar nahin ki to mamla tanya tanya fiss ho jayega. sara maja kirkira ho jayega. ye sochkar har vekti aap hi Dhaluvale ki taraf ho gaya.
seth haath joDkar bhaye sur mein bola, “meri pagDi uchhalne se aap logon ko kya milega? saath baithe bhai hain. bakhat bebkhat ek dusre ke kaam aate hain. mere bete ke gun aapse chhipe nahin hain. uske haath se kiska bhala nahin hua? isi jaldi gunchor mat bano. meri pagDi aapke charnon mein hai. kisi bhi tarah baat bitha do. ye Dhaluvala jali hai. ise dhakke dekar gaanv se nikal do!
baDe bujurgo ne kaha, sethji, dikhti makkhi kaise niglen! bakhat aane par sar dene ko taiyar hain, par pani ki gathri kaise bandhe! ye baar baar kah raha hai, bahu Dhaluon ki baat puchhvaiye to sahi! ismen kya haraz hai?
aisi baat kaun puchhe? kaise puchhe? tab kuch bhali Dokariyan aage i. bakhat par adami hi adami ke kaam aata hai! sauri ka kivaD ughaDkar bhitar gai. jachcha ke pet mein tisen uth rahi theen. par ab jo baat uske kanon mein paDi to wo jape ka darad bhool gai. ye darad us se kahin zyada tha. daant bhinchkar baDi mushkil se bol pai, “koi marad puchhta to use haan na ka javab bhi deti. lugai hokar ye baat puchhne ki tumhari himmat kaise hui? mujhe apne haal par chhoD do. tumhein tang karne ka yahi bakhat mila? dhany hai tumhari himmat!
aise maukon par hi to akl ke dhaar lagti hai. soot buri tarah ulajh gaya. baDe buDhon ne phir matha laDaya, yah nyaay rajaji hi nipta sakte hain. kisi aur ne is mein taang aDai to pure gaanv ko danD milega. apna bhala bura to sochna hi paDta hai. donon dhaniyon ko rajaji ke havale kar den. phir darbar janen aur sethji janen hum beech mein tik lik kyoon karen. phir basti raam hai jo sabko theek lage wo karo.
jo basti ne chaha vahi hua. bhala wo apna raam pad kaise chhoDti. donon dhaniyon ko rassi se baandh diya. meDi ke bahar khaDe dhani ko bandhne lage tab use chet hua ki pani sar se guzar chuka hai usne koi na nukar nahin ki siDhiyan utarte hue kaleja honthon tak lakar bola, “ek baar sauri mein jane do! maan beti ki kushal to poochh loon.
par log na mane, “nyaay nipatne ke baad sari umar kushal puchhni hi hai! itti jaldi kya hai?
logon ka bavanDar aage baDha. donon dhani saath bandhe the. seth bhi khur ragaDte hue saath chal raha tha. pagDi bikhar gai thi. lambe araj ki hava patte patte ko phampheDti khen khen baj rahi thi. chalte chalte achanak usi khejaDi par bhoot ki nazar paDi. eDi se choti tak bijli dauD gai. paanv jahan ke tahan gaD gaye. matha sunn ho gaya. kanon mein sanya sanya gunjne lagi ankhon ke aage yadon ke chitr ghumne lage tabhi rassi ka jhatka paDa. paanv aap hi harkat mein aa gaye. danya banya banya danya. adami ke mathe mein yadon ka laphDa nahin hota to kitta achchha rahta. ye yaad to jaan hi le legi.
saath bandhe binajvale dhani ka man to jaag raha tha. aaj saanch ko ye kaisi anch i? ye khu bharam mein paD gaya. ye kaisi lila hai? ye adami to aisa lagta hai jaise wo aarsi mein apni chhavi dekh raha ho. isse puchhkar to dekhen shayad koi surag mil jaye. uske gale mein atke sabad baDi mushkil se bahar nikle, bhai, nyaay to raam jane kya hoga, par tu achchhi tarah janta hai ki sethji ka beta main hoon, chanvari ka asli byahta. par tu kaun hai, ye to bata? ye kaisa mayajal hai? baithe thale kis jhanjhat mein phans gaya? bata, mujhe to bata ki tu hai kaun?
tha to bhoot. nyaay karnevale panchon ki garadnen ek saath maroD sakta tha. kai lilayen kar sakta tha. kisi ko lag jaye to chhathi ka doodh yaad dila den. par chaar baras ki preet se uska antas badal gaya. jhooth bolna chahne par bhi bol na saka. aur sach kahe to kaise! priya ki laaj to rakhni hi thi. judhisthar vali aan nibhai. bola, main lugaiyon ki gram ke bhitar ka sookshm jeev hoon unki preet ka svami. binaj aur kamai ki bajay mujhe het preet ki zyada lalsa hai.
saat pheron ke dhani ne adhir hokar beech hi mein toka, dusri bakvas kyoon karta hai! saaf saaf bata, kya tune chanvari mein hathleva joDa tha?
kore more hathleve se kya hota hai? chanvari ki dhauns sari umar nahin chalti. binaj chijon ka hota hai, preet ka nahin. tum to preet ka bhi binaj karne lage! is binaj mein aisi hi barkat hoti hai.
seth ke bete ka kaleja tiron se bindh gaya. ye to usne kabhi socha hi nahin. sochne ka mauka hi kab mila aur aaj mauka mila to aise sankat men!
panchon ka bavanDar rajadarbar ke nyaay ki aas mein tej tej chala ja raha tha ki raste mein revaD charata ek gaDariya mil gaya. haath mein lamba taDa. khichDi daDhi. khichDi baal. kasunbal gol sapha. hathon mein chandi ke kaDe. khoob lamba reenchh ki tarah pure sharir par ghane baal. ghani bhaunhen kanval bhi khoob lambe pile daant aaDe taDe se raah rokkar daity ke lahje mein puchha, “itte log ikatthe hokar kahan ja rahe ho? mausar khane ke liye?
do teen baar samjhaya tab kahin baat uski samajh mein i. munphaD ki baju se hansi chhalkate hue kahne laga, itti si baat ke liye bechare raja ko kyoon taklif dete ho! ye nyaay to main yahin salta dunga. tumhein ankhon ki kasam jo ek qadam bhi aage rakha. nadi ka thanDa pani pio thoDa sustao khoob naam Duboya apne gaanv ka! koi mai ka laal ye nyaay na nipta saka? khur ragaDte hue sidhe raja ke paas chal diye.
logon ne bhi socha, abhi rajadarbar bahut door hai. is ganvar ki akl se mamla salat jaye to kya haraz hai! nahin to rajaji ke paas to jana hai hi. ve maan gaye. tab gaDariye ne bari bari se donon ko dhyaan se dekha. hubhu ek si surat hava bhar bhi pharak nahin. vemata bhi kaisi kaisi khurafat karti hai!
donon ke bandhan kholte hue bola, “bhale adamiyo, inhen bandha kyoon? itte logon ke beech ye bhagkar kahan jate!
phir mukhiya se puchha, ye gunge bahre to nahin hain?
mukhiya ne javab diya, nahin, ye to farrate se bolte hain.
gaDariya thathakar hansa, phir isi taklif kyoon uthai? yahin poochh lete. donon mein se ek to jhutha hai hee!
panch man hi man hanse. ye gaDariya to nira bauDam hai. ye sach bolte to phir rona hi kya tha! bus ho chuka isse nyaay! nyaay karne layak akl hoti to bheDon ke pichhe Dharar Dharar karta kyoon Dolta?
rassi samette hue gaDariye ne kaha, samajh gaya, samajh gaya. bolna to jante hain, par jhooth bolna bhi seekh gaye hain. koi baat nahin. sach ugalvana to mere bayen haath ka khel hai. gale mein taDa khasolkar anton mein uljha sach abhi bahar la patakta hoon. der kis baat ki khejaDi ki tahniyan bhi iske aage nahin thahar sakti, phir bechare sach ki kya bisat! bolo, pahle kiske gale mein taDa khasolun? jo pahle munh kholega vahi sachcha!
bhoot ne socha, akele ki baat hoti to kaisi bhi jokhim aur dukh utha leta. par ab bhed khula to meDi ki dhaniyani musibat mein paD jayegi. aisa janta to khejaDi ke kanton mein hi uljha rahta. bhuton ke chhal bal mein to wo parangat tha, par adami ke daanv ghaat ka use til bhar bhi ilam nahin tha. adami ke munh se jo bhi sunta, sach maan leta. taDe se uske gale ka kya bigaDta hai! aise sau taDe bhi uska baal banka nahin kar sakte. uski preet hargiz jhuthi nahin ho sakti. ismen itta sochna kyaa! wo jhat munh phaDta hi nazar aaya. seth ke bete ne to honth hi nahin khole. gavdi gaDariye ko sila par bantakar chatni bana de. par kaha kuch nahin.
munh phaDne vale ki peeth thonkte hue gaDariya bola, shabas re patte! tere jaise sachche manus ko in murkhon ne itta tang kiya ! phir bhi do parakh aur karunga. nyaay to ab jo hona hai, vahi hoga. par man ki tasalli baDi baat hai. rai ratti bhi vahm kyoon rakhna?
uski bheDen door door char rahi theen. unki or haath ghumate hue bola, main saat tali bajaun tab tak jo in bheDon ko is khejaDi ke niche ikDi kar dega, vahi sachcha!
gaDariye ko kahte der lagi aur bhoot ne bavanDar ka roop dharkar panchavi tali bajne se pahle pahle sab bheDon ko ikattha kar diya. seth ka beta munh latkaye khaDa raha. thaur se hila hi nahin jaisi gaDariyon ki moti akl vaisa hi phoohD unka nyaay! manna na manna to uske haath mein hai.
gaDariye ne kaha, vaah, kya baat hai! bhala sachche ghani ke alava itta hausla kiska ho sakta hai. ek mamuli si parakh aur karunga tab tak thoDa susta lo.
phir taDa bagal mein dabakar divDi ka munh khola. ek hi saans mein sara pani pi gaya. jor se Dakar li. phir pet par haath pherte hue bola, saat chutkiyon mein jo is divDi ke bhitar ghus jayega, vahi meDi ka sachcha dhani hai. mera nyaay na manne vale ka gala taDe ke ek jhatke mein chaak kar dunga. ”
logon ne taDe ke ankoDiye ki or dekha. dhaar laga hua. tikha tachch. dusre atke ka kaam hi nahin munDi dhool chatti nazar ayegi.
logon ko ankoDiye ki aant dekhte der lagi, par bhoot ko divDi mein ghuste koi der nahin lagi. ye kartab to wo janam se janta hai. ganvar gaDariye ne laaj rakh li. bhoot ke andar ghuste hi gaDariye ne ek chhin bhi Dheel nahin ki ader divDi ka munh band karke kassa khinchkar baandh diya. phir panchon ki or dekhkar guman se bola, nyaay karne mein ye der lagi divDi to meri bhi mufatkhate mein jayegi, par nyaay niptane ka zimma kuch sochkar hi liya tha. chalo ab sab milkar is divDi ko nadi mein phenk ayen. aata patan gaigat karti nadi ise aap hi meDi ki sej par pahuncha degi. bolo, hua ki nahin adal nyaay?
sabne ek saath sar dhuna. seth ke bete ki na khushi ka paar tha na anand ka. byaah se bhi hazar guna uchhaah uske hiye mein thaten marne laga. antas ka anand chhalakkar honthon se jharne laga. haDbaDi mein nag jaDi anguthi nikalkar gaDariye ki or baDhai gaDariya bina kahe hi uske man ki baat samajh gaya. par anguthi qabu nahin ki. khichDi daDhi mein pile danton ki muskan chhitrate hue bola, “main raja nahin jo nyaay ka mol loon. mainne to atka kaam nikal diya. aur ye anguthi mere kis kaam ki na anguliyon mein aati hai, na taDe mein. meri bheDen bhi meri tarah abujh hain. loong khati hain, par sona sunghti bhi nahin. ye faltu chizen tum amiron ko hi phabti hain.
ab kahin bhoot ko gaDariye ke ujjah nyaay ka pata chala. par bekar baat bus ke bahar ho gai thi. phir bhi jor se kuka, devasi, teri minDki gaay hoon, ek baar bahar nikal de. jiunga tab tak tera revaD charaunga.
ab bhala bhoot ki kaun sunta! khushi se jhumte hue nadi ke kinare pahunche. divDi kal kal bahti nadi ke havale kar di. preet ke kshanai ko akhir nadi ki atan patan bahti sej mili. uska jivan safal hua. uski maut sarthak hui.
phir ganvvale, seth aur seth ka beta dune veg se gaanv ki or chale.
haveli mein ghuste hi beta sidha sauri mein gaya. ek dai beti ke loi kar rahi thi. dusri chandan ki kanghasi se jachcha ke kesh suljha rahi thi. gaDariye ke adal nyaay ki ek ek baat ka khulasa karke hi use chain paDa. ek ek sabad ke saath jachcha ke kaleje par charaD charaD Daam lagta. jape ki piDa se bhi ye piDa hazar guna zyada thi. par wo na to taski aur na chuskara hi kiya. pakhan putli ki nai chupchap sunti rahi.
sari ramayan udheDne ke upraant wo aage kahne laga, “par tumhara chehra k uttar gaya? janam denevale maan baap bhi nahin pahchan sake to tum kaise pahchantin? is mein tumhara koi kasur nahin par harami bhoot mein lachchhan mutabik khoob biti! divDi mein bandi bana bahut chillaya, bahut giDgiDaya, par phir to raam ka naam japo. hum aise bhole kahan! akhir nadi mein phenkne se pichha chhuta aur uska chikhna chillana band hua. chanDal phir kabhi chhal karega!
uske baad gharvalon ne jaisa kaha, jachcha ne vaisa hi kiya. kabhi kisi baat ka palatkar javab nahin diya. saas ne jitti suvavaD banai, usne chupchap kha li. jab saas ne kaha tab snaan kiya. baal sanvare. suraj puja baman ne hom kiya. lugaiyon ne geet gaye guD ki manglik lapsi bani. saas ke kahne par jalva puji. pila pomcha oDa. beti ko pili oDhni mein jhulaya. parinDa puja. kunkun ke manDane ukere. menhdi lagai. jaisa kaha vaisa singar kiya. gahne ganthe pahne. aisi sulachchhni bahu baDe bhagya se milti hai!
jalva pujan ki raat bahu pila oDhkar jhanmar jhanmar karti hui meDi chaDhi. bagal mein chhori. hanchal mein doodh. suni ankhen suna hivDa. mathe mein jaise anaginat bug bhanabhna rahe hon. bahu ke intज़aar mein dhani hinglu sej par baitha tha. is ek hi meDi mein use raam jane kitte jivan bhugatne honge? par hanchal chunghati vitiya baDi hokar lugai ki aisi zindagi na jiye to maan ki sari piDa sarthak ho jaye. yoon to Dhor Dangaron ko bhi unki marji ke khilaf nahin barat sakte. ek baar to sar dhunte hi hain. par lugai ki apni marzi hoti hi kahan hai? masan na pahunche tab tak meDi aur meDi se sidhe masan!
ek mayapati seth tha. uske iklaute bete ki barat dhumdham se byaah karke vapas aa rahi thi. zara sustane ke liye barat ek thaur ruki. gher ghumer khejaDi ki ghani chhaya. samne habbahol thaten marta talab. kaach sa nirmal pani. suraj sar par chaDh aaya tha. jhulaste jeth ki luen sane sane baj rahi theen. kha pikar aage chalen to achchha. dulhe ke baap ke kahte hi sab raji khushi maan gaye. dulhan ke saath paanch DaviDyan theen. ve sab khejaDi ki chhaya mein jajam bichhakar baith gain. paas hi ek baDa babul tha. pile phulon se ata hua. chandi ke unmaan dhaval hilariyan. baqi baratiyon ne babul ki chhaya par qabza kiya. kuch der bisai karne ke baad khane pine ka sarajam hone laga.
dulhan baratiyon ki or peeth karke ghunghat ughaDkar baith gai. upar dekha—sangriyan hi sangriyan. patli harichair. dekhte hi putliyan thanDi ho gain. sanjog ki baat ki us khejaDi par ek bhoot rahta tha. itr phulel se mahakta dulhan ka chehra dekhkar uski ankhen chundhiyan gai. kya lugai ka aisa roop aur yauvan hota hai? gulab ke phulon ki komalta, saurabh aur ras kas hi jaise sanche Dhala ho. dekhkar bhi bharosa nahin hota. badalon ka thiya chhoDkar bijli to nahin utar i? in miraganainon ki to thaah hi nahin! jaise samuchi qudrat ka roop uski deh mein sama gaya ho. hazaron lugaiyon ka roop dekha, par iski to rangat hi nyari! khejaDi ki chhaya bhi dip dip karne lagi. bhoot ki june dhany ho gai! dulhan ko lagne ka vichar kiya to bhoot ko phir chet hua. is se to ye kasht payegi. aise roop ko taklif kaise pahunchaye! bhoot gatagham mein paD gaya. ye to abhi chali jayegi. phir? na lagte banta hai na chhoDe banta hai. idhar kuan, udhar khai. aisi dasha to kabhi nahin hui. to kya dulhe ko lag jaun? par tab bhi dulhan ko dukh hoga! is roop ko dukh hua to na badal barsenge, na bijliyan chamkengi. na suraj ugega, na chaand. sari qudrat ulat pulat ho jayegi. bhoot ko aisi daya maya to kabhi nahin i. is roop ko dukh dene se to khu dukh uthana achchha hai. aisa dukh bhi kahan nasib hota hai! is dukh paras se bhoot ki june saphal ho jayegi.
vahan kitti der rukte! akhir to chalna hi tha. dulhan panvon par khaDi hokar aage baDhi to bhoot ki ankhon ke aage andhera chha gaya. raat ko aspasht dekhne vali ankhen javab kaise de gai? akash ke beech chamakte suraj par kalas kas put gaya?
runjhun chalti dulhan dulhe ki bahal par chaDhi. ye dulha kitta sabhagiya hai! kitta sukhi hai! bhoot ke rom rom mein sulen khubne lagin. hiye mein bhatti dahak uthi. bichhoh ki jalan ke mare na jiya jata hai na mara jata hai. jite ji ye jalan kaise sahe! aur marne ke baad ye jalan bhi kahan! aisi uhapoh mein to kabhi nahin phansa. bahal ke adith hote hi wo bechet ho gaya.
aur udhar bahal mein baithe dulhe ki uljhan bhi kam na theen. do ghaDi ho gai sar khapate, par byaah ke khar ka hisab nahin mil raha. bhayji gussa honge. khar bhi kuch besi ho gaya. aisi bhool chook se ve bahut naraz hote hain. hisab aur binaj ka sukh hi asli sukh hain. baqi sab pampal. khu bhagvan bhi pakka hisabi hain. ek ek ki saans ka pura hisab rakhta hai. barsat ki boond boond ka, hava ke reshe reshe ka aur dharti ke kan kan ka uske paas sahi pota hai. qudrat ke hisab mein bhi bhool nahin chal sakti tab baniye ki bahi mein bhool kaise khap sakti hai!
mathe mein bal Dale dulha ankaDon ka joD toD bitha raha tha dulhan ne bahal ka parda ughaDkar bahar dekha. chilakti tikhi dhoop. hariyal keron par kasunbal Dhalu dip dip kar rahe the. kitte suhane! kitte mohak! muskrate Dhalu Dhalu mein dulhan ki jot piro gai. dulhe ki baanh pakaDkar abujh bachche ki nai boli, “bahi se nazar to hatakar zara bahar to dekho! kitte sundar Dhalu hain! niche utarkar doek dhobe Dhalu la do! aisi chilchilati dhoop mein bhi ye phike nahin paDe. jyoon dhoop paDti hai zyada laal hote hain.
dulha adamiyon jaisa adami tha. na sundar na bhaunDa. bhari javani mein hi byaah hua tha, par byaah ki koi khaas khushi nahin thi. paanch baras nahin hota tab bhi chal jata. aur ho gaya to bahut achchha! kabhi na kabhi to hona hi tha. baDa kaam nipta. navalkhe haar par haath phirate hue bola, “Dhalu to ganvar khate hain. tumhein iski chaah kaise hui? khane ki ichha ho to rakkhi mein se kharak khopre nikalun? ji bharkar khao!
dulhan bhi niri ganvar nikli. hath karte hue boli, “nahin, mujhe thoDe Dhalu la do! aapka bahut gun manungi. aap taklif na uthana chahen to mujhe aagya den. main le aati hoon.
dulha apni baat par aDa raha, “in kanton se kaun uljhe! jangali hi Dhalu toDte hain aur jangali hi khate hain. makhane khao. patase khao. ichha ho to misri arogo. gutte Dhaluon ki ghar par baat hi mat karna. log hansenge.
hanse to hanse. ye kahkar dulhan bahal se kood paDi. titli ki tarah ker ker par uDti rahi. kuch hi der mein pallu mein laal chutt Dhalu lekar vapas i.
bugti ke pani se Dhalu dhoe. thanDe kiye honthon aur daluon ka rang ek jaisa. par dulhe ko na daluon ka rang bhaya, na hothon ka. wo apne hisab mein utna raha. dulhan ne bahut nihore kiye, par usne Dhaluon ko chhua tak nahin.
apaki marji! apni apni pasand hai. in Dhaluon ke badle apna navlakh haar ker mein taank doon tab bhi kam hai.
Dhalu khati dulhan ke chehre ko takte hue dulha kahne laga, aisi phoohD baat phir mat karna. bhayji bahut gussa honge. wo roop ki bajay gunon ki zyada kadar karte hain.
wo muskrate hue boli, “ab samjhi. unke Dar se aap hisab kitab mein Dube hain! par sab kaam apni apni thaur achchhe lagte hain. byaah ki bela hisab mein rundhana kahan ka nyaay hai!
“byaah hona tha so ho gaya. par hisab to abhi baqi hai. byaah ke kharche ka hisab sanbhlakar mujhe teej ke din disavar jana hai. aisa shubh mahurat phir saat saal nahin ayega.
par ganvar dulhan ko shubh mahurat ki khushakhabri sunkar zara bhi khushi nahin hui. Dhaluon ka svaad bigaD gaya. dil baithne laga. ye kya suna! ekayek bharosa na hua. puchha, “kya kaha, disavar jayenge? suna hai aapke yahan to dhan ke bhanDar bhare hain?
“ismen kya shak hai! khu apni ankhon se dekh lena. dulha guman bhare sur mein kahne laga, “hire motiyon se tahkhane bhare hain. par dhan to din duna raat chauguna baDhta hua hi achchha lagta hai. binaj byaupar hi baniye ka dharam hai. abhi to bahut dhan kamana hai. aisa nami mahurat kaise chhoDa ja sakta hai!
dulhan ne baat nahin baDhai. baat baDhane mein saar hi kya tha! ek ek sare karke Dhalu phenk diye. dulha muskraya, “mainne to pahle hi kaha tha. Dhalu to ganvar khate hain. hum baDe logon ko achchhe nahin lagte. akhir nahin khaye gaye to phenkne paDe n! dhoop mein jali so nafe men!”
itta kahkar dulhe ne dhoop ka tumar johne ke liye bahal se bahar dekha. nazar sulag uthe jaisi dhoop. pile phulon se chhaye hinganiyon ke anaginat jhaaD aise lag rahe the mano thaur thaur aag ki lapten uth rahi hon. vyangy se bola, “ab in hinganiyon ke liye to hath nahin karogi? in mein gun hote to gaDariye kab chhoDte!
dulhan ne koi javab na diya. aboli baithi pihar ki baten sochne lagi. is dhani ke bharose ghar angan chhoDa. maan baap ka bichhoh saha. saheliyon ka sang, bhai bhatije, talab ki paal, geet, guDDe guDDiyan, jhurni, ankhmichauni sab chhoDkar is dhani ka haath thama. maan ki god chhoDkar paraye ghar se aas lagai. aur ye teej ke din shubh mahurat ki ghaDi binaj ke liye disavar jana chahte hain! phir behisab dhan kis sukh ke liye hai? jite ji kaam aata nahin. marne par kafan kathi ki garaj bhi sarti nahin. kis sukh ki aas mein inke pichhe i? kis adith sukh aur santokh ke bharose parai thaur ka nivas kabul kiya? kamai, binaj byaupar aur dhan maya phir kis din ke liye hain? is asli sukh ke badle teen lok ka raaj mile tab bhi kis kaam ka! duniya ki samuchi dhan sampat dekar bhi bita hua pal lautaya nahin ja sakta. adami paise ke liye hai ya paisa adami ke liye, bus yahi hisab samajhna hai. iske baad kaun sa hisab baqi rah jata hai. kanchan baDa ki kaya? saans baDi ki maya? iske javab mein hi manus ke tamam javab samaye hue hain.
dulha apne hisab mein phansa tha. dulhan apne khayalon mein Dubi thi. aur bail apni chaal mein magan the. jo chalega wo muqam par pahunchega hi. akhir seth ki haveli ke aage barat ruki. gaje baje Dhol Dhamankon ke saath dulhan ko badhakar andar liya. jisne bhi dekha, dekhta rah gaya. nazar utari. roop ho to aisa rang ho to aisa!
saanjh ko meDi mein ghi ke diye jale. ghaDi tinek raat Dhale dulha meDi mein aaya. aate hi seekh nasihton ki jhaDi laga di, “ghar ki izzat ka dhyaan rakhna. saas sasur ki seva karna. apni laaj apne haath. do din ke liye chaupaD pase ka chaska kyoon lagayen! do din ki angaraliyan paanch baras dukh dengi. baras bitte kya der lagti hai! dekhte dekhte paanch baras nikal jayenge. phir kaisi kami! yahi meDi. yahi diye. yahi raten. aur yahi sej. wo bilkul chinta na kare. palak jhapakte paanch baras beet jayenge.
seekh ki anmol baten dulhan chupchap sunti rahi. kuch kahna ya karna to uske bus mein tha nahin. jo dhani ki marji wo uski marji. jo bhayji ki marji wo bete ki marji. jo lichhmi ki marji wo bhayji ki marji. aur jo lobh ki marji wo lichhmi ki marji. seekh ki baton mein raat alop ho gai. raat ke saath jhilmilate navlakh tare bhi alop ho gaye.
aur udhar khejaDi ke thiye murchha tutne par bhoot ki ankhen khulin. chaupher dekha. suni kankaD. suni rindhrohi. ghani khejaDi. ghani chhaya. latakti sagariyan. kahan dulhan? kahan miragnain? kahan suhana mukhDa? kahan gulabi honth? kahin wo sapna to nahin tha? use laga ki uska kapti man seDau doodh mein nha gaya hai. aisa suraj to pahle kabhi nahin ugaa! gol gatt gulabi ghera. puri duniya mein ujala hi ujala. mand mand bayar. hava ki adith taniyon par jhulti aDhar hariyali. uska man anaginat roop dharkar qudrat ke kan kan mein sama gaya.
are, suraj is tarah to pahle kabhi nahin Duba. pachchham dis mein gulal hi gulal chha gaya. dharti par na chamachmata ujaas. na gagan mein chaand. na suraj aur na ek hi tara. na pura andhera. jaise qudrat ne jhina ghunghat nikala ho. chehra bhi dikhta hai. ghunghat bhi dikhta hai. ab qudrat ne chunari badli. navlakh tare jaDi sanvli chunari. dhundhli chehra dikhta hai. ghule rukh hariyali. jaise sapnon ka tana bana buna ja raha ho. qudrat pahle to kabhi itti suhani nahin lagi. ye dulhan ke roop ka chamatkar hai.
aur udhar dulhan ka bhartar us roop se munh moDkar disavar ke marag chal paDa. kamar se bandhi hire motiyon ki noli. kandhe par rakkhi. aur samne asman mein chamakta binaj ka akhanD suraj. sukh, laabh aur kamai ka kya paar!
chalte chalte wo usi khejaDi ke paas se nikla. bhoot ne use ader pahchan liya. adami ka roop dharkar us se jairamji ki. puchha, abhi to hathleve ki mehndi ka rang bhi phika nahin paDa, kankan DorDe bhi nahin khule, itti jaldi kahan chal diye?
seth ke bete ne kaha, “menhdi ko jab utarna hoga utar jayegi. aur kokan DorDe kya disavar mein nahin khul sakte?
bhoot uske saath ho liya. sari baten jaan leen. wo paanch baras disavar mein binaj karega. ye mahurat nikal jata to saat saal tak aisa mahurat nahin aata. seth ke bete ki boli chali aur uske svbhaav ki zarurat mutabik jankari karke ye dusre marag muD gaya. man hi man sochne laga ki seth ke bete ka roop dharkar haveli pahunch jaye to paanch baras tak koi puchhne vala nahin. ye chhinka to khoob tuta. aage ki aage dekhi jayegi. bhagvan ne vinti suni to sahi phir to us se ek pal bhi na ruka gaya. hubhu seth ke bete ka roop dharkar gaanv ki or chal paDa. man mein na khushi ka paar tha na anand ka.
do teen ghaDi din baqi tha, tab bhi achchha khasa andhera ho gaya. kali pili uttradi andhi ke got par got ghumaDte dikhe. andhi tar tar unchi uthti gai. tar tar andhera bana hota gaya. suraj ke rahte andhera! haath ko haath nahin soojh raha tha. qudrat ko bhi kaise kaise sapne aate hain! qudrat ke is sapne ke bina dharti par bichhi paanv tale ki dhool ko suraj dhakne ka mauqa kab milta! dharti par pasri ret asman mein pahunch gai. hava khen khen bajne lagi. pahaD ke pahaD uthal de aisi andhi! thothi akaDvale jangi rookh charaD charaD tutne ukhaDne lage. namnevali lochdar jhaDiyan kabhi idhar jhuktin kabhi udhar, par unka kuch nahin bigDa. panvon tale rondi janevali ghaas ka to baal bhi banka nahin hua. khemakushal puchhti, dularti, sahlati andhi upar se nikal gai. sari vanray jaise palne mein jhulne lagi. patte patte aur kompal kompal ki saar sanbhal ho gai. baDe pachhiyon ke jhapiD uDne lage. chhote panchhi Daliyon se chipakkar baith gaye. uDna dubhar ho gaya. samuche asman par andhi ka raaj tharap gaya. charon mer soon soon, khen khen. suraj ke tap tej ko dharti ki dhool nigal gai! azab hai andhi ka ye naach! azab hai ret ki ye ghumar samuchi qudrat is tanDav se Dhank gai. sara virmanD ekmekh ho gaya na asman dikh raha hai na suraj na pahaD na vanray. aur na dharti. nirakar agochar qudrat ki is nakuchh ubasi ke aage na manus ke gyaan ki koi hasti hai, na uske aape ki auqat, na uske guman ka koi jor, na uski khatpat ki koi bisat.
qudrat ki kavaD ka dusra chitram haule haule phir ujala hone laga. haath ko haath sujhne laga. tar tar ujale ka aapa pasarne laga. haule haule qudrat ki chhavi saaf dikhne lagi. pahaD ki thaur pahaD sone ke paat jaisa gol gol suraj. runkh ki thaur runkh. jhaDiyon ki thaur jhaDiyan hava ki thaur hava ye kaisi maya! ki sahsa taD taD taD baDi baDi bunden barasne lagin. boond se boond takrane lagi. parnalon meh barasne laga. qudrat snaan kar rahi hai. uska royan royan dhul gaya. nale khale bahne lage. jal thal ek ho gaya. jalbamb hi jalbamb nahati qudrat ko niharkar suraj ka ujala sarthak hua.
thoDi hi der mein kya se kya ho gaya! dekhkar bhi bhoot ko bharosa na hua. qudrat ki ye kaisi dillgi hai? ye kya hua? kaise hua? kahin uske man ki andhi hi to bahar prakat nahin hui? qudrat ka ye kautuk uske man mein hi dubka hua to nahin tha? is bharam ki jhonk mein wo tej tej chalne laga.
sidhe haveli na jakar pahle wo peDhi par gaya. hisab karte seth ne bete ko dekha tab bhi ekayek man nahin mana. disavar gaya beta vapas aaya to aaya hi kaise? pahle to kabhi uska kaha nahin tala! byaah ke baad adami kisi kaam ka nahin rahta. jaldi byaah rachakar raam jane sethani ne kis janam ka badla liya? hai ho chuki kamai! ya to binaj ki hajri baja lo ya lugai ki.
baap ke honthon tak i baat wo bina kahe hi samajh gaya. haath joDkar bola, pahle meri baat sun len! binaj ki salah soot karne ke liye hi vapas aaya hoon. aapka hukam nahin hoga to ghar gaye bina hi leet jaunga. marag mein samadhi lagaye ek mahatma ke darsan hue. pure sharir par dimak jami hui thi. mainne suthrai se mati hatai. kuen se pani sinchkar snaan karaya. pani pilaya. khana khilaya. meri seva se prasann hokar mahatma ne vardan diya ki mujhe roz taDke palang se utarte hi paanch mohren milengi. disavar mein ye vardan nahin phalega. ab pharmayen aapka kya hukam hai?
aise achite vardan ke baad jo hukam hona tha vahi hua. seth khushi khushi maan gaya. sethani ki khushi ka to kahna hi kya iklauta beta ankhon ke aage rahega. aur kamai ki thaur kamai ka jugaD bhi ho gaya. dulhan ko khushi ke saath saath achraj aur guman bhi hua ki ye roop chhoDkar koi disavar ja sakta hai bhala! tisre din hi vapas aana paDa.
dukan ke saude soot, hisab aur byalu se nipatkar wo ghaDi do ghaDi raat meDi mein aaya. charon konon mein ghi ki piljoten jal rahi theen. hinglu sej par phool bichhe hue the. is intज़aar se baDhkar koi anand nahin. rimjhol ki runjhun sunai di. is rankar se baDhkar koi naad nahin. solah singar se saji dulhan meDi mein i. is nazar se baDhkar koi jot nahin. samuchi meDi itr phulel se mahak uthi. is sauram se baDhkar koi gandh nahin. isi mahak ne khejaDi ke thiye man mein aag lagai thi. aur aaj meDi mein pratyaksh nazron ka milan! itti jaldi kamna phalegi ye to sapne mein bhi nahin socha tha.
dulhan nisankoch uski bagal mein baith gai. ghunghat kya hataya jaise teen lok ka param anand jagmaga utha. is roop ki to chhaya bhi dip dip karti hai. dulhan ne muskrakar kaha, main janti thi ki aap beech raah se laut ayenge. ye taron jaDi raat aisi sait mein aage nahin baDhne deti. aisa hi jom tha to meri ichha ke khilaf gaye hi kyoon? akhir meri mannat phali.
bhoot ke man mein bavanDar sa utha. is seDau doodh mein kichaD kaise milaye. ise chhalne se baDa koi paap nahin. ye to asli dhani samajhkar itti khush hui. par is se adham jhooth aur kya hoga ye to jhooth ki had hai. is abujh preet se baat kaise kare. preet ke paras se bhuton ka man bhi ghul jata hai. koi barabari ka ho to chhal bal ka jor bhi bataye. par neend mein soe hue ka gala suntane se to talvar ka maan bhi ghatta hai.
bhoot thoDa door sarakte hue bola, kaun jane mannat phali ki nahin! achchhi tarah tapas to kar lo! koi dusra adami tumhare dhani ka roop dharkar to nahin aa gaya?
wo chaunki. hinglu sej par baithe manus ko sar se paanv tak gaur se dekha. vahi shakal surat vahi rang roop vahi nazar vahi boli ader samajh gai ki dhani uske sat ki parakh karna chahta hai. muskan ka ujala chhitrate hue boli, “sapne mein bhi paraye manus ko apni chhaya na chhune doon, phir khuli ankhon ye kaise ho sakta hai! dusra adami hota to mere sat ke jor se kab ka bhasm ho jata.
pahle to ye baat use chubhi. honthon tak aaye bol turant vapas nigal gaya ki tab to uska sat khota hai. wo bhasm ho jata to uska sat khara tha. vastav mein dusra adami hote hue bhi wo bhasm nahin hua to uska sat khota hai. par agle hi chhin baat ke dusre pahlu ka dhyaan jate hi uski kheejh nithar gai. ulta raji hua. fakat shakal surat se kya hota hai! sachcha dhani hota to lugai ki ye maya chhoDkar jata bhala! kya vichhoh ke liye hi chanvari mein haath thamkar apne pichhe laya tha? koi andha bhi roop ki is jhani ko nahin thukrata. tab wo deeth ke rahte kaise andha bana! saat phere khaye to kya, uski preet sachchi kahan! aur usne bhoot hokar is se sachchi preet ki. chhal karte ji chhatpatata hai. uski preet sachchi hai. uska neh khara hai. tabhi to donon ka sat bach gaya. phir bhi aapas mein durav rakhne se preet ki marjad ghategi. saanch ko anch lagegi. sachchi baat bataye bina wo is meDi mein saans bhi nahin le sakta. vapas paas sarakte hue kahne laga, sachmuch dusra adami hote hue bhi tumhara sat khara hai. kyonki meri preet sachchi hai. saat phere ke asli dhani ki preet jhuthi hai. tabhi to is roop se munh moDkar wo disavar chala gaya.
par dulhan sach jhooth ki pahchan kaise kare? kuch bhi palle na paDa. khu maan baap jise apna beta samajhte hain, hubhu surat vale is bande ko apna dhani manne mein kaisi jhijhak surat aur rang roop hi to rishte naton ki sabse baDi pahchan hai.
phir bhoot ne use ek ek baat byaurevar batai ki khejaDi ke niche uska roop niharkar uski kya haalat hui. uske adith hote hi kaise bechet hua. vapas kab hosh aaya. disavar jate thani se usne kya baten keen. phir uska roop dharkar kaise yahan aane ka phaisla kiya. raah mein i andhi barsat ki baat bhi nahin chhipai. dulhan kaath ki putli ki nai sunti rahi. kya yahi sachchai sunne ke liye vidhata ne use kaan diye?
uski kalai sahlate hue wo aage kahne laga, maan baap ko to nit hames paanch mohron ke saath peDhi ke laabh ki darkar hai. asliyat se unhen koi vasta nahin. par tum se sach baat chhipata to preet ke chehre par kalikh put jati mein bhed nahin batata to tumhein paanch baras tak sapne mein bhi sachchai ka pata na chalta. tum to asli dhani samajhkar hi gharvas karti. par mera man na mana. main apne man se sachchai kaise chhipata! is se pahle bahut si lugaiyon ko laga. unhen bahut dukh diya. par meri aisi haalat kabhi nahin hui. raam jane itti daya maya mere man mein kahan oti hui thee? tis par bhi tumhari ichha nahin hogi to main isi pal vapas chala jaunga. jite ji is or munh bhi nahin karunga tumhein piDa pahunchakar mujhe preet ka anand nahin chahiye. tab bhi akhiri saans tak tumhara ehsaan manunga. tumhare karan mere hivDe ka vish imrat mein badal gaya. nari ke roop aur purush ke prem ki yahi to sachchi maryada hai.
roop ki putli ke honth khule, samajh nahin paDta ki ye bhed chhupa rahta to achchha tha ya prakat ho gaya to achchha hua. kabhi pahli baat theek lagti hai to kabhi dusri. ”
dulhan ki ankhon mein ankhen pirokar bhoot kahne laga, baanjh aurat jachcha ki piDa kya jane! is piDa mein hi kukh ka anand chhipa hua hai. saanch aur kookh ke prasav ki piDa ek sarikhi hoti hai. is saanch ko chhipane mein na to piDa thi, na anand. wo to fakat saanch ka bharam hota. anand ka svaang hota. mein kai lugaiyon ko laga tab kahin asliyat ko jaan paya mein kai aisi sati sadhviyon ko janta hoon jo angaraliyon ki bela ghani ke chehre mein apne vaar ka chehra khojti hain. yoon kahne ko to ve paraye marad ki chhaya bhi nahin chhutin, par dhani ke bahane dusre purush ke dhyaan mein kitna sat hai, iski asliyat jitti mein janta hoon utti mata bhi nahin janti. sati savitriyon ke charit ka dikhava mainne bahut dekha hai. Dar to bus loklaj ka hota hai. kisi ko pata na chale to svayan bhagvan bhi paap karne se na chuken. ab jo tumhari marji ho bata do. mainne to bhoot hokar bhi kuch nahin chhupaya.
aisi paheli kabhi kisi aurat ko suljhani nahin paDi hogi. thaur kutir munD marne ki kise havas nahin hoti? parai aurat aur paraye adami ke liye kiska ji nahin lalchata? par laukik ke Dar se Dhakkan hataye nahin banta. Dhakkan ke bhitar jo pakta hai, wo to pakta hi hai. soch vicharkar aisi baton ka javab dena kitta mushkil hai! wo is tarah gumdham baithi rahi mano bolna bisar gai ho.
dulhan ki samajh mein achita sota phuta. sochne lagi, uske janam par thaal ki thaur soup baja. gharvalon ko koi khaas khushi nahin hui. beta hota to achchha tha. maan baap ki nazar mein ghura baDhte der lage to beti baDi hote der lage. dasvan baras utarte na utarte maan baap use haath pile karke paraye ghar pahunchane ki chinta karne lage. na angan mein samati thi, na asman mein chhaachh aur laachh mangne mein kaisa sankoch! rishte par rishte aane lage. uske roop ki khyati chaupher hava mein ghuli hui thi. solah baras bitane dubhar ho gaye. maan ki kookh mein sama gai, par ghar angan mein na samai. tabhi is haveli se nariyal aaya. uske baDbhag jo maan baap ne sava kabul kar liya. koi dusri ghar gavaDi hoti tab bhi use to jana hi tha. dhani binaj aur lekhe jokhe mein hi magan hai. uski nazar mein hanDi ke painde aur lugai ke chehre mein koi farak nahin. darakta yauvan aur darakti mati donon ek sarikhi. na bahal mein lugai ke man ki baat samjha, na meDi mein. meDi aur sej suni chhoDkar binaj ke liye chala gaya. ek baar muDkar bhi na dekha aur aaj bhoot ki preet ka ujala hua to suraj bhi phika paD gaya. hathleve ka byahta jabran chala gaya tab bhi uska bus na chala. bhoot ki preet ke aage bhi uska bus kahan chala! janevale ko rok na saki to meDi mein aaye ko kaise roke! ye preet ki baat karta hai to kanon mein tel kaise Dale! dhani hokar yoon majdhar mein chhoD gaya, bhoot hokar yoon preet darsai! kaise barje? kyoon barje?
sapnon par koi bus chale to aisi preet par bus chale. wo sudh budh bisrakar uski god mein luDhak gai.
kahin ye uske man ka bhoot hi to nahin, jo sakar roop dharkar prakat hua? phir apne man se kaisi laaj! jahan vani atakti hai, vahan maun kaam sarata hai. uske upraant kuch bhi kahna sunna baqi na raha. aap hi ek dusre ke antas ki baat samajh gaye. diye ka ujaas lop ho gaya. aur andhera ujaas bankar jagmagane laga. sej ke kumhlaye phulon ki kali kali khil gai. meDi ka ujala dhany hua. meDi ka andhera dhany hua. asman ke taron ka ujaas duna ho gaya.
aisi anmol raton mein bakhat bitte kya der lagti hai! chutkiyon mein din phisalne lage. khoob binaj baDha. khoob len den baDha. khoob jas baDha maan baap khush the so to the hi, sare ilake ke log bhi seth ke bete se bahut khush the. bakhat bebkhat sab ke kaam aata tha. dusre baniyon ki tarah gala nahin katta tha. langot ka sachcha. peDhi par i lugai ki or dekhta tak nahin tha. chhoti ko bahan aur baDi ko maan sarikhi samajhta tha. uska naam lete to logon ke munh mein misri ghul jati. us mein khami bus ek hi thi. disavar se seth ke bete ka kaghaz aata to phaDkar phenk deta. vapas koi javab nahin.
is anand aur jas ke palne mein dekhte dekhte teen baras beet gaye. jaise mitha sapna bita ho. bhoot bhi haveli mein ralmil gaya. mano seth ka saga beta ho. bahu bhi meDi ke nashe mein Dubi hui thi. raat ke intज़aar mein din ugte hi Doob jata. meDi mein palak jhapakte raat Dhal jati.
bahu ke aasa thahri. tisra mahina utarnevala tha. khu seth ne apne haath se sava man guD banta. logon ne sava man sona samajhkar kabul kiya. seth ne umar mein pahli baar datari dikhai thi. aaj haath khula hai to aage bhi khulega. bete bahu ne chupke chupke khoob daan punn kiya. harakh ke navlakh taron mein naya chaand juDega! kookh ka chaand asman ke chaand se hamesha baDhkar hota hai.
dhani lugai donon ko beti ki baDi chaah thi. bahut khushiyan manaenge. beta kaun sarag le jata hai! raam jane kiske jaisa hoga? bachche ke janm ki bajay uski aas mein zyada anand hai. kookh mein bachche ke saath saath sapne palte hain.
din sarpat dauDne lage. paanch mahine bite saat mahine sampurn hue. ye nauva mahina utarnevala hai. bahu raat din meDi mein soi rahti. teen teen daiyan hazri mein har ghaDi jaag rahtin.
dhani ki god mein soi gharni ankhen munde munde hi boli, kai baar sochti hoon, yadi us din khejaDi ke niche visram karne nahin rukte to mere ye chaar saal kaise bitte? shayad bitte hi nahin.
bhoot ne kaha, “tumhare din to jyu tyu kat jate, par mera kya hota? jhaDi jhaDi khejaDi khejaDi bhoot ki june puri karta. us din sumat sujhi jo tumhein nahin laga. mujhe to ab bhi vishvas nahin hota ki sachmuch jine ka anand bhog raha hoon ya sapna dekh raha hoon!
udhar door disavar mein bahu ka byahta taDke ghaDi raat rahte utha. aalas maroDa. ubasi khakar divDi se thanDa pani piya. charon mer ek sarikha andhera chhaya hua tha. timtimate hue ek sarikhe tare. kahin kisi disha mein ujala nahin. raat aur chhoti hoti to kitta achchha rahta! kya zarurat hai itti baDi raat ki sone sone mein aadhi umar nikal jati hai. neend mein binaj byaupar to hone se raha! varna duni kamai hoti. tab bhi maya kam nahin joDi bhayji bahut khush honge.
beech beech mein aas paDaus ke sahukar milte rahte the. use vahan dekhkar unhen bahut achanbha hota. puchhte ki wo gaanv se kab aaya? ye sunkar use bhi kam achanbha nahin hota. kahta ki usne to gaanv ki or munh hi nahin kiya. ve pagal to nahin ho gaye. tab unhonne jor dekar puri baat khulasa karke samjhai. phir bhi use vishvas nahin hua. wo to yahan se hila hi nahin, tab vahan kaise pahunch sakta hai? kamai dekhi nahin jati isliye ulti sulti sunakar duvidha mein Dalna chahte hain. par wo itta bhola nahin. unke kaan katre jaisa hai. kamai aur binaj mein zyada man lagane laga.
par aaj all savere ek khaas paDosi ne samachar diya ki bahu ke bachcha honevala hai. shayad ho gaya ho.
wo beech hi mein bola, aisi baat hoti to gharvale mujhe zarur khabar karte. mainne paanch saat kaghaz diye, par vapas ek ka bhi javab nahin.
paDosi ne kaha, “bhale manus, zara socho to. . . ve kyoon khabar karte? kise khabar karte? unka beta to tisre din hi vapas aa gaya. ek mahatma ke diye mantar se sethji ko nit paanch mohren deta hai. haveli mein raam raji hai. sab maje mein hain. meDi mein ghi ke diye jalte hain. haan, ab pata chala. sethji ke bete ki shakal hubhu aap se milti hai. vidhata ki karigari! khu sethji dekhen tab bhi pahchan na saken. ab malum hua ki shakal to zarur milti hai, par aap dusre hain.
“bhala mein dusra kaise hua? lagta hai, kal parson hi jana paDega.
so seth ke bete ne binaj baupar sameta, munim ko bhulavan di aur apne gaanv ki or chal paDa. vahi jeth ka mahina luon ke khenkhaD baj rahe the. keron par laal laal Dhalu dekhkar us din ki baat yaad aa gai. jab bahu ki yahin pasand hai to apna kya jata hai! na heeng lage na phitakDi! pake hue Dhalu toDkar gam mein baandh liye.
wo haveli pahuncha us bakhat vahan lugaiyon ka mela laga hua tha. seth sethani ghabraye hue mannat par mannat bol rahe the. bhutvala dhani meDi ke bahar khaDa tha. chehre par havaiyan uDi hui theen. bahu sauri mein tasak rahi thi. bachcha atak gaya tha. daiyon apne hunar mein lagi theen.
is chakchak ke beech chaivri ka byahta dhool se ata hua, bejhijhak chauk mein aa khaDa hua. kandhe par Dhaluon ka gamchha latak raha tha. maan baap ke charn chhue. ye kaisa tamasha? hubhu bete se shakal milti hai! khankh se sana hai to kyaa! koi thag to nahin? behad achraj bhi gunga hota hai. maan baap chahkar bhi kuch bol na sake. lugaiyon ki chakchak ka raag badal gaya. haay daiya, ek hi shakal ke do dhani! kaun sachcha kaun jhutha? ye kaisi lila? ye kaisa kautuk? koi idhar bhagi, koi udhar sauri mein lugai ka tasakna sunkar wo ader sari baat samajh gaya. khabar ghalat nahin thi. aisa chhal kisne kiya? kaise ho iski pahchan? log kiske kahe par bharosa karenge? tabhi meDi ke bahar khaDe manus par uski nazar paDi. hubhu uska rangrup! chhaliya ke chhal ko kaun jaan saka hai! nason ka lahu jam gaya. bhala ye kya hua?
pritvale dhani ke kanon mein fakat jachcha ki tasak goonj rahi thi. aur kisi baat ka use chet na tha. hava tham gai thi. suraj tham gaya tha. kab ye tasakna band ho aur kab qudrat ka penkhDa chhute!
bete ne baap se kaha, main to chaar baras se disavar tha, phir bahu ke paanv kaise hue? aapne kuch to socha hota?
seth ne man hi man sara hisab laga liya. bola, tu hai kaun? mera beta to tisre din hi vapas aa gaya tha. yahan teri daal nahin galegi.
uske achraj ka paar na raha. chup rahne se baat bigaD jayegi turant bola, “kya main isliye kamai karne disavar gaya tha ki lautun to aap pahchanne se hi mana kar den? aapne hi to zabardasti bheja tha.
seth ne kaha, nahin chahiye mujhe aisi kamai. tu mujhe kamai ka kya rob dikhata hai? jidhar se aaya hai, udhar hi chalta ban! nahin to khaal mein bhusa bharva dunga.
bhayji ka sar phir gaya lagta hai. usne maan ki or muDkar puchha, maan, kya tu bhi apne bete ko nahin pahchanti?
maan kya javab deti! aise saval ka javab kya koi maan de bhi sakti hai? shayad ab tak kisi bete ne apni maan se aisa saval nahin kiya hoga. uski jeebh talu se chipak gai. wo dug dug dhani ko dekhne lagi. maan ko aboli dekhkar wo gatagham mein paD gaya. tabhi use Dhaluon ka dhyaan aaya. kanpte hathon se gamchha khola. laal laal Dhalu bhavji ko dikhate hue bola, bahu ko us din ke Dhaluon ki baat yaad dilaiye. wo sab bata degi. us din usne khu Dhalu toDkar khaye the. aaj mein toDkar laya hoon. usse puchhkar to dekho! aap kahen to main bahar se poochh loon seth ka chehra tamtama gaya. taish mein aakar bola, pagal kahin ka! ye Dhaluon ki baat puchhne ka bakhat hai! bahu ko to jaan ki paDi hai aur tujhe Dhaluon ki lagi hai! door hata apne Dhaluon ko main to ye phoohD baat sunte hi samajh gaya ki mayapati seth ki bahu ganvaron ki tarah khu toDkar Dhalu khayegi? khair chahta hai to chupchap chala ja. nahin to ise jute paDenge ki ginnevala nahin milega.
bete ne kaha, baap ke juton ki parvah nahin, par us din mainne bhi bahal mein yahi baat kahi thi.
sauri mein bahu usi tarah tasak rahi thi. daiyon ne ghaDi ghaDi bachche ko katkar nikalne ki baat kahi, par wo taiyar na hui. akhir marte marte baDi mushkil se chhutapa hua. bahu ki ankhon ke aage kabhi andhera chha jata, kabhi bijliyan kandhane lagtin.
chauk se bhagi lugaiyon ke munh se do dhaniyon ki baat aisi ufni ki ghar ghar mein kachakchata mach gaya. dekhte dekhte seth ki haveli ke ird gird logon ka mela lag gaya. aisi anhoni baat ka svaad jeebh ko barson se milta hai. harek ki jeebh ko mano pankh lag gaye ! ek hi surat ke do dhani. ek to chaar baras pahle meDi chaDh gaya aur ek aaj apna hak jatane aaya hai. bahu sauri mein jape ki piDa se usak rahi hai. ajab tamasha hua! dekhen, seth kaise baat sanvarte hain. kaise Dhanpate hain! bhala aisi baton ko Dhanpne kaun dega? log us baat ko chaba chabakar phir chabate.
bheeD bhaDakka dekhkar seth aape se bahar ho gaya. thook uchhalte hue bola, hamare ghar ki baat hai. hum aap nipat lenge. ganvvale kyoon panchayti karte hain? main kahta hoon baad mein anevala jhutha hai. main dhakke dekar nikalva dunga. din dahaDe luchchai nahin chal sakti.
beta chillaya, “aap kya pagalpan kar rahe hain? suraj ko tava aur tave ko suraj bata rahe hain? aap jaise chahen chhanabin kar len. ye to sarasar annyaye hai.
mayapati seth ki panchayti ka aisa mauka kab milega! logabag aD gaye ki khara nyaay hona chahiye. doodh ka doodh aur pani ka pani. kasurvar ko pura danD mile. yoon do dhaniyon ka rivaj kaise chalega! amiron ka to kuch nahin, hum gharibon ka jina haram ho jayega. basti se alag nahin tal sakte. kitta hi dhan ka jor ho, kandha denevale bhai par nahin ayenge.
mamla uljha par uljhaa! koi jhukne ko taiyar na tha na seth, na basti ke log. logon ke munh the aur bahu ke kaan. so use sauri mein hi sare samanchar mil gaye.
lugai ka jivan mila hai to raam jane kya kya sunna hoga! kya kya hazri uthani hogi! kya kya ramat dekhni hogi! akhir ek din to ye hona hi tha. chaar baras to sapne ki nai alop ho gaye. bhala sapne ka kaisa thavas! aur kitti uski jaD gahri.
khanDhar mein manDrati chamgadaDon ki tarah log idhar udhar chakkar lagane ye panchayti salte bina kaur bhi gale na utrega.
sauri ka kivaD ughaDkar daiyon ne samchar diya ki bahu ke laDki hui hai. maut ki wicket ghati tal gai. maut mein kya kasar rah gai thee! bach gai so baDbhag. sauri ke bahar bhinbhinati lugaiyon ko balsad sunai diya. meDi ki dehri par khaDe dhani ko ab kahin chet hua. par chet hone par jo baat uske kanon mein paDi usse kaleje mein achiti surang chhuti. sudh budh par pala paD gaya. ek baras pahle ye gaaj kaise giri?
seth sethani munh latkaye khaDe the. pure gaanv mein halla mach gaya. kaisi ajani aafat i! nagkhadhe ne jane kis janam ka badla liya? baat to bigaDti hi chali ja rahi hai. kaise sanvare? kaun jane kisne daanv ghaat kiya? meDi to pichhle chaar baras se abad hai. ise nazarandaj karne par to haveli ki naak kat jayegi. Dhaluvala maan jaye to baat dab sakti hai. munhmanga alal hisab dene ko taiyar hain. aur kya chahiye?
na Dhaluvala mana, na basti ke log. adal nyaay hona chahiye. biradri mein kahin munh dikhane layak na rahenge. chaar yaras upraant kukh upDi to ek aur dhani aa tapka! raam jane kaun sachcha hai? ek to jhutha hai hi gaanv chinachinate chaDh gaya, jaise barron ka chhatta zamin par aa gira ho. Dhaluvale ki tarafadar nahin ki to mamla tanya tanya fiss ho jayega. sara maja kirkira ho jayega. ye sochkar har vekti aap hi Dhaluvale ki taraf ho gaya.
seth haath joDkar bhaye sur mein bola, “meri pagDi uchhalne se aap logon ko kya milega? saath baithe bhai hain. bakhat bebkhat ek dusre ke kaam aate hain. mere bete ke gun aapse chhipe nahin hain. uske haath se kiska bhala nahin hua? isi jaldi gunchor mat bano. meri pagDi aapke charnon mein hai. kisi bhi tarah baat bitha do. ye Dhaluvala jali hai. ise dhakke dekar gaanv se nikal do!
baDe bujurgo ne kaha, sethji, dikhti makkhi kaise niglen! bakhat aane par sar dene ko taiyar hain, par pani ki gathri kaise bandhe! ye baar baar kah raha hai, bahu Dhaluon ki baat puchhvaiye to sahi! ismen kya haraz hai?
aisi baat kaun puchhe? kaise puchhe? tab kuch bhali Dokariyan aage i. bakhat par adami hi adami ke kaam aata hai! sauri ka kivaD ughaDkar bhitar gai. jachcha ke pet mein tisen uth rahi theen. par ab jo baat uske kanon mein paDi to wo jape ka darad bhool gai. ye darad us se kahin zyada tha. daant bhinchkar baDi mushkil se bol pai, “koi marad puchhta to use haan na ka javab bhi deti. lugai hokar ye baat puchhne ki tumhari himmat kaise hui? mujhe apne haal par chhoD do. tumhein tang karne ka yahi bakhat mila? dhany hai tumhari himmat!
aise maukon par hi to akl ke dhaar lagti hai. soot buri tarah ulajh gaya. baDe buDhon ne phir matha laDaya, yah nyaay rajaji hi nipta sakte hain. kisi aur ne is mein taang aDai to pure gaanv ko danD milega. apna bhala bura to sochna hi paDta hai. donon dhaniyon ko rajaji ke havale kar den. phir darbar janen aur sethji janen hum beech mein tik lik kyoon karen. phir basti raam hai jo sabko theek lage wo karo.
jo basti ne chaha vahi hua. bhala wo apna raam pad kaise chhoDti. donon dhaniyon ko rassi se baandh diya. meDi ke bahar khaDe dhani ko bandhne lage tab use chet hua ki pani sar se guzar chuka hai usne koi na nukar nahin ki siDhiyan utarte hue kaleja honthon tak lakar bola, “ek baar sauri mein jane do! maan beti ki kushal to poochh loon.
par log na mane, “nyaay nipatne ke baad sari umar kushal puchhni hi hai! itti jaldi kya hai?
logon ka bavanDar aage baDha. donon dhani saath bandhe the. seth bhi khur ragaDte hue saath chal raha tha. pagDi bikhar gai thi. lambe araj ki hava patte patte ko phampheDti khen khen baj rahi thi. chalte chalte achanak usi khejaDi par bhoot ki nazar paDi. eDi se choti tak bijli dauD gai. paanv jahan ke tahan gaD gaye. matha sunn ho gaya. kanon mein sanya sanya gunjne lagi ankhon ke aage yadon ke chitr ghumne lage tabhi rassi ka jhatka paDa. paanv aap hi harkat mein aa gaye. danya banya banya danya. adami ke mathe mein yadon ka laphDa nahin hota to kitta achchha rahta. ye yaad to jaan hi le legi.
saath bandhe binajvale dhani ka man to jaag raha tha. aaj saanch ko ye kaisi anch i? ye khu bharam mein paD gaya. ye kaisi lila hai? ye adami to aisa lagta hai jaise wo aarsi mein apni chhavi dekh raha ho. isse puchhkar to dekhen shayad koi surag mil jaye. uske gale mein atke sabad baDi mushkil se bahar nikle, bhai, nyaay to raam jane kya hoga, par tu achchhi tarah janta hai ki sethji ka beta main hoon, chanvari ka asli byahta. par tu kaun hai, ye to bata? ye kaisa mayajal hai? baithe thale kis jhanjhat mein phans gaya? bata, mujhe to bata ki tu hai kaun?
tha to bhoot. nyaay karnevale panchon ki garadnen ek saath maroD sakta tha. kai lilayen kar sakta tha. kisi ko lag jaye to chhathi ka doodh yaad dila den. par chaar baras ki preet se uska antas badal gaya. jhooth bolna chahne par bhi bol na saka. aur sach kahe to kaise! priya ki laaj to rakhni hi thi. judhisthar vali aan nibhai. bola, main lugaiyon ki gram ke bhitar ka sookshm jeev hoon unki preet ka svami. binaj aur kamai ki bajay mujhe het preet ki zyada lalsa hai.
saat pheron ke dhani ne adhir hokar beech hi mein toka, dusri bakvas kyoon karta hai! saaf saaf bata, kya tune chanvari mein hathleva joDa tha?
kore more hathleve se kya hota hai? chanvari ki dhauns sari umar nahin chalti. binaj chijon ka hota hai, preet ka nahin. tum to preet ka bhi binaj karne lage! is binaj mein aisi hi barkat hoti hai.
seth ke bete ka kaleja tiron se bindh gaya. ye to usne kabhi socha hi nahin. sochne ka mauka hi kab mila aur aaj mauka mila to aise sankat men!
panchon ka bavanDar rajadarbar ke nyaay ki aas mein tej tej chala ja raha tha ki raste mein revaD charata ek gaDariya mil gaya. haath mein lamba taDa. khichDi daDhi. khichDi baal. kasunbal gol sapha. hathon mein chandi ke kaDe. khoob lamba reenchh ki tarah pure sharir par ghane baal. ghani bhaunhen kanval bhi khoob lambe pile daant aaDe taDe se raah rokkar daity ke lahje mein puchha, “itte log ikatthe hokar kahan ja rahe ho? mausar khane ke liye?
do teen baar samjhaya tab kahin baat uski samajh mein i. munphaD ki baju se hansi chhalkate hue kahne laga, itti si baat ke liye bechare raja ko kyoon taklif dete ho! ye nyaay to main yahin salta dunga. tumhein ankhon ki kasam jo ek qadam bhi aage rakha. nadi ka thanDa pani pio thoDa sustao khoob naam Duboya apne gaanv ka! koi mai ka laal ye nyaay na nipta saka? khur ragaDte hue sidhe raja ke paas chal diye.
logon ne bhi socha, abhi rajadarbar bahut door hai. is ganvar ki akl se mamla salat jaye to kya haraz hai! nahin to rajaji ke paas to jana hai hi. ve maan gaye. tab gaDariye ne bari bari se donon ko dhyaan se dekha. hubhu ek si surat hava bhar bhi pharak nahin. vemata bhi kaisi kaisi khurafat karti hai!
donon ke bandhan kholte hue bola, “bhale adamiyo, inhen bandha kyoon? itte logon ke beech ye bhagkar kahan jate!
phir mukhiya se puchha, ye gunge bahre to nahin hain?
mukhiya ne javab diya, nahin, ye to farrate se bolte hain.
gaDariya thathakar hansa, phir isi taklif kyoon uthai? yahin poochh lete. donon mein se ek to jhutha hai hee!
panch man hi man hanse. ye gaDariya to nira bauDam hai. ye sach bolte to phir rona hi kya tha! bus ho chuka isse nyaay! nyaay karne layak akl hoti to bheDon ke pichhe Dharar Dharar karta kyoon Dolta?
rassi samette hue gaDariye ne kaha, samajh gaya, samajh gaya. bolna to jante hain, par jhooth bolna bhi seekh gaye hain. koi baat nahin. sach ugalvana to mere bayen haath ka khel hai. gale mein taDa khasolkar anton mein uljha sach abhi bahar la patakta hoon. der kis baat ki khejaDi ki tahniyan bhi iske aage nahin thahar sakti, phir bechare sach ki kya bisat! bolo, pahle kiske gale mein taDa khasolun? jo pahle munh kholega vahi sachcha!
bhoot ne socha, akele ki baat hoti to kaisi bhi jokhim aur dukh utha leta. par ab bhed khula to meDi ki dhaniyani musibat mein paD jayegi. aisa janta to khejaDi ke kanton mein hi uljha rahta. bhuton ke chhal bal mein to wo parangat tha, par adami ke daanv ghaat ka use til bhar bhi ilam nahin tha. adami ke munh se jo bhi sunta, sach maan leta. taDe se uske gale ka kya bigaDta hai! aise sau taDe bhi uska baal banka nahin kar sakte. uski preet hargiz jhuthi nahin ho sakti. ismen itta sochna kyaa! wo jhat munh phaDta hi nazar aaya. seth ke bete ne to honth hi nahin khole. gavdi gaDariye ko sila par bantakar chatni bana de. par kaha kuch nahin.
munh phaDne vale ki peeth thonkte hue gaDariya bola, shabas re patte! tere jaise sachche manus ko in murkhon ne itta tang kiya ! phir bhi do parakh aur karunga. nyaay to ab jo hona hai, vahi hoga. par man ki tasalli baDi baat hai. rai ratti bhi vahm kyoon rakhna?
uski bheDen door door char rahi theen. unki or haath ghumate hue bola, main saat tali bajaun tab tak jo in bheDon ko is khejaDi ke niche ikDi kar dega, vahi sachcha!
gaDariye ko kahte der lagi aur bhoot ne bavanDar ka roop dharkar panchavi tali bajne se pahle pahle sab bheDon ko ikattha kar diya. seth ka beta munh latkaye khaDa raha. thaur se hila hi nahin jaisi gaDariyon ki moti akl vaisa hi phoohD unka nyaay! manna na manna to uske haath mein hai.
gaDariye ne kaha, vaah, kya baat hai! bhala sachche ghani ke alava itta hausla kiska ho sakta hai. ek mamuli si parakh aur karunga tab tak thoDa susta lo.
phir taDa bagal mein dabakar divDi ka munh khola. ek hi saans mein sara pani pi gaya. jor se Dakar li. phir pet par haath pherte hue bola, saat chutkiyon mein jo is divDi ke bhitar ghus jayega, vahi meDi ka sachcha dhani hai. mera nyaay na manne vale ka gala taDe ke ek jhatke mein chaak kar dunga. ”
logon ne taDe ke ankoDiye ki or dekha. dhaar laga hua. tikha tachch. dusre atke ka kaam hi nahin munDi dhool chatti nazar ayegi.
logon ko ankoDiye ki aant dekhte der lagi, par bhoot ko divDi mein ghuste koi der nahin lagi. ye kartab to wo janam se janta hai. ganvar gaDariye ne laaj rakh li. bhoot ke andar ghuste hi gaDariye ne ek chhin bhi Dheel nahin ki ader divDi ka munh band karke kassa khinchkar baandh diya. phir panchon ki or dekhkar guman se bola, nyaay karne mein ye der lagi divDi to meri bhi mufatkhate mein jayegi, par nyaay niptane ka zimma kuch sochkar hi liya tha. chalo ab sab milkar is divDi ko nadi mein phenk ayen. aata patan gaigat karti nadi ise aap hi meDi ki sej par pahuncha degi. bolo, hua ki nahin adal nyaay?
sabne ek saath sar dhuna. seth ke bete ki na khushi ka paar tha na anand ka. byaah se bhi hazar guna uchhaah uske hiye mein thaten marne laga. antas ka anand chhalakkar honthon se jharne laga. haDbaDi mein nag jaDi anguthi nikalkar gaDariye ki or baDhai gaDariya bina kahe hi uske man ki baat samajh gaya. par anguthi qabu nahin ki. khichDi daDhi mein pile danton ki muskan chhitrate hue bola, “main raja nahin jo nyaay ka mol loon. mainne to atka kaam nikal diya. aur ye anguthi mere kis kaam ki na anguliyon mein aati hai, na taDe mein. meri bheDen bhi meri tarah abujh hain. loong khati hain, par sona sunghti bhi nahin. ye faltu chizen tum amiron ko hi phabti hain.
ab kahin bhoot ko gaDariye ke ujjah nyaay ka pata chala. par bekar baat bus ke bahar ho gai thi. phir bhi jor se kuka, devasi, teri minDki gaay hoon, ek baar bahar nikal de. jiunga tab tak tera revaD charaunga.
ab bhala bhoot ki kaun sunta! khushi se jhumte hue nadi ke kinare pahunche. divDi kal kal bahti nadi ke havale kar di. preet ke kshanai ko akhir nadi ki atan patan bahti sej mili. uska jivan safal hua. uski maut sarthak hui.
phir ganvvale, seth aur seth ka beta dune veg se gaanv ki or chale.
haveli mein ghuste hi beta sidha sauri mein gaya. ek dai beti ke loi kar rahi thi. dusri chandan ki kanghasi se jachcha ke kesh suljha rahi thi. gaDariye ke adal nyaay ki ek ek baat ka khulasa karke hi use chain paDa. ek ek sabad ke saath jachcha ke kaleje par charaD charaD Daam lagta. jape ki piDa se bhi ye piDa hazar guna zyada thi. par wo na to taski aur na chuskara hi kiya. pakhan putli ki nai chupchap sunti rahi.
sari ramayan udheDne ke upraant wo aage kahne laga, “par tumhara chehra k uttar gaya? janam denevale maan baap bhi nahin pahchan sake to tum kaise pahchantin? is mein tumhara koi kasur nahin par harami bhoot mein lachchhan mutabik khoob biti! divDi mein bandi bana bahut chillaya, bahut giDgiDaya, par phir to raam ka naam japo. hum aise bhole kahan! akhir nadi mein phenkne se pichha chhuta aur uska chikhna chillana band hua. chanDal phir kabhi chhal karega!
uske baad gharvalon ne jaisa kaha, jachcha ne vaisa hi kiya. kabhi kisi baat ka palatkar javab nahin diya. saas ne jitti suvavaD banai, usne chupchap kha li. jab saas ne kaha tab snaan kiya. baal sanvare. suraj puja baman ne hom kiya. lugaiyon ne geet gaye guD ki manglik lapsi bani. saas ke kahne par jalva puji. pila pomcha oDa. beti ko pili oDhni mein jhulaya. parinDa puja. kunkun ke manDane ukere. menhdi lagai. jaisa kaha vaisa singar kiya. gahne ganthe pahne. aisi sulachchhni bahu baDe bhagya se milti hai!
jalva pujan ki raat bahu pila oDhkar jhanmar jhanmar karti hui meDi chaDhi. bagal mein chhori. hanchal mein doodh. suni ankhen suna hivDa. mathe mein jaise anaginat bug bhanabhna rahe hon. bahu ke intज़aar mein dhani hinglu sej par baitha tha. is ek hi meDi mein use raam jane kitte jivan bhugatne honge? par hanchal chunghati vitiya baDi hokar lugai ki aisi zindagi na jiye to maan ki sari piDa sarthak ho jaye. yoon to Dhor Dangaron ko bhi unki marji ke khilaf nahin barat sakte. ek baar to sar dhunte hi hain. par lugai ki apni marzi hoti hi kahan hai? masan na pahunche tab tak meDi aur meDi se sidhe masan!
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।