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जलपंखिनी

jalpankhini

मुक्ता राजे

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जलपंखिनी

मुक्ता राजे

और अधिकमुक्ता राजे

    'चेखव हमारे यहाँ आए हैं! देखना चाहो तो तुरंत चली आओ!' यह चंद शब्द मैंने सैकड़ों बार पढ़ डाले पढ़ ही नहीं, पी डाले, बूँद-बूँद पी डाले! हज़ारों फूलों का सत्त, इत्र एक बूँद भर ही होता है न, वैसे ही केवल यही अक्षर ही नहीं दुनिया भर के सारे अक्षर इस समय मेरे लिए सिर्फ़ एक शब्द में सिमट आए—'चेखव'! बहन की भेजी छोटी-सी चिट एक बड़ा कॅनवस बन गई जिस पर मेरी कल्पनाओं के चेखव का चित्र उभर आया! आँखों में सिर्फ़ एक आकृति तैरने लगी चेखव की! कानों में सिर्फ़ एक शब्द टकराने लगा—चेखव! सारी चेतना-शक्ति अपने अतीत और वर्तमान सब को भुलाकर भविष्य के सिर्फ़ एक नन्हे-से क्षण में जा कर अटक-सी गई—वह क्षण जब मैं अपने प्रिय लेखक को देखूँगी। शायद हर साहित्य-प्रेमी, पाठक-पाठिका का कोई-न-कोई प्रिय लेखक ज़रूर होता होगा और उसे देखने की इच्छा भी उस के मन में ज़रूर होती होगी। पर ऐसा क्यों था मेरे साथ कि जिस की लालसा मन में जाने कब से संजोए थी, आज जब अप्रत्याशित ही वह क्षण आया तो मन अजब तरीक़े—से घबराने लगा! कैसे होंगे वे? क्या बातें करूँगी मैं उन से? वह मुझ से कुछ बात करना पसंद भी करेंगे या नहीं?...

    अच्छी तरह याद है मुझे—सन् था 1889 महीना था जनवरी का और तारीख़ थी 24 जिस दिन मैंने पहले-पहल चेखव को देखा था। मेरी बहन के घर का हॉल बड़े-बड़े साहित्यकारों और पत्रकारों से भरा था बीच मे टहल-टहल कर चेखव कुछ कह रहे थे। दरवाज़े पर ठिठकी खड़ी मैं मंत्रमुग्ध सी उन्हें देखती रह गई। वह जो कुछ बोल रहे थे वह अक्षर मेरे कानों से टकरा तो रहे थे पर मुझे सुनाई नहीं दे रहे थे। मेरे प्राणों की सारी शक्ति तो जैसे आँखों मे समा गई थी। थोड़ी ही देर बाद मैंने देखा, उन की निगाह मुझ पर पड़ी। वह ठिठक गए और अपने मेज़बान यानी मेरे बहनोई की ओर देखने लगे। मैं ने देखा उन की निगाह मे प्रश्न तैर गए थे। मेरे बहनोई सर्जी उन का सवाल समय गए और मेरी बाँह थामकर उन के पास ले गए, बोले, आइए, इन से आप का परिचय कराऊँ, ये है मिस फ्लोरा, यहाँ मेरे संरक्षण में ही है। चेखव ने आगे बढ़कर मुझ से हाथ मिलाया। मुझे लगा उन की निगाह में कुछ अजीब-सा था। शायद है कि मेरा नाम फ्लोरा उन्हें कुछ अजीब-सा लगा हो। असल में उन दिनो मेरा रंग बिल्कुल चंपई था और मैं लंबी-लंबी दो चोटियाँ गूँथा करती थी। इसलिए सभी मुझे दुलार में फ्लोरा कहा करते थे।

    सर्जी कहते गए, 'इने आप को सारी कहानियाँ ज़ुबानी याद है। कौन सी किताब के किस पृष्ठ पर कौन सी कहानी छपी है, यह तक इसे याद है। फिर एक आँख दबाकर शरारत में बोले, 'इसने आपको सैकड़ो ख़त लिखे होंगे मगर पागल है बेहद, उन ख़तो को अजीब राज़ बनाए है। किसी को दिखाएगी जिस के लिए लिखे है उन तक भेजेगी ही। और एकाएक मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले, क्यों, एक आव भेजा भी था क्या? और मैं मारे लाज के गड़ी जा रही थी। अंदर से खीज भी रही थी। सर्जी को इतने लोंगो के बीच में यह क्या सूझा है। पर सच कहती हूँ, मुझे बिल्कुल याद है सर्जी की बातें सुनते समय चेखव की आँखें कुछ मुँद सी गई थी, थोड़ी सी देर के लिए वह बिल्कुल काठ की मूरत जैसे लगने लगे थे। गले में लटकती उनकी टाई तो सचमुच ऐसी ही लग रही थी कि जैसे किसी प्रतिमा के गले में झूल रही हो।

    अपने बहनोई की ओर क्रोधभरी दृष्टि से देखकर चेखव की ओर मुख़ातिब होकर लड़खड़ाती ज़ुबान से सर्द स्वरों में केवल इतना ही कह सकी—आप से मिल कर बहुत ख़ुशी हुई। अपनी भावनाओं के मुक़ाबले में कितना छिछला वाक्य कहा था मैंने। क्यों सिर्फ़ इतनी सादी इतनी हल्की सी ही बात कह सकी उस दिन मैं। और कुछ बोली क्यों नही अपने प्रथम परिचय के उन क्षणों में।

    उन दिनों यह अपने नाटक 'इवानोव' का अभिनय कराने के लिए पीटर्सबर्ग आए थे। नाटक खेलने वालों की अभिनय क्षमता से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी पर उनको दुःख यह था कि उन लोगों ने उनके सारे पात्र अपने अनुकूल बना लिए और चेखव को यह क़तई पसंद नहीं था कि उनके नाटक के पात्रों का व्यक्तित्व कहीं से काटा तराशा जाए। वह इस नाटक के प्रदर्शन की असफलता की कल्पना पहले से ही कर चुके थे और इतने अधिक चिंतित हो गए थे कि खाँसते समय उनके मुँह से ख़ून भी आने लगा था। उस दिन अपनी उस स्पीच में उन्होंने बड़ी दृढ़ता से ऐलान किया कि मैं क़सम खाता हूँ कि रंगमंच के लिए अब कभी नाटक नही लिखूँगा।

    भाषणों के बाद खाने की मेज़ पर चेखव मेरे पास ही बैठे। सर्जी उनसे बताते रहे कि फ्लोरा बहुत अच्छी कहानियाँ लिखती है। इसकी कहानियों में सामान्य रट से कुछ पृथक् एक मौलिक सूझ रहती है। चेखव ने मेरी ओर देखा और इस तरह मुस्कुराए जैसे बहुत दिनों के बिछुड़े दो मित्र मिल रहे हों और एक-दूसरे की उपलब्धियों की प्रशंसा सुनकर मगन हो रहे हों। जितनी देर भोजन चलता रहा हम लोग इधर की, उधर की तमाम साहित्यिक चर्चाएँ करते रहे। उस दिन की बातों में से एक बात तो ज्यो-की-त्यों आज तक मुझे याद है। चेखव ने कहा था, जीवित जाग्रत प्रतिभाएँ विचारों को जन्म दे सकती है किंतु कोरे विचार प्रतिभाओं को उत्पन्न नहीं कर सकते। जो कुछ देखो और अनुभव करो, बस उसी को पूरी ईमानदारी और सचाई के साथ लिख दो।

    हमारी बातचीत के बीच में सामने बैठे दूसरे लोग भी हिस्सा ले रहे थे। मैं तो उस दिन बहुत ही कम बोली थी—पर चेखव हर वाक्य इतनी आत्मीयता से कह रहे थे कि मुझे लगने लगा था कि इतनी सब बातें जैसे सिर्फ़ मेरे लिए ही हो रही हैं। पर आख़िर इतना आत्मीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं चेखव? कहीं इसलिए तो नहीं कि ये सचमुच मुझे कोई कुमारी फ्लोरा ही समझ रहे हों। मैंने सुन रखा था कि क्वाँरी छोकरियों की ओर यह सहज ही आकर्षित हो जाते हैं। मेरे मन ने कहा—नहीं, इन्हें इस भ्रम में नहीं रखना चाहिए। मैं सोच ही रही थी कि इन्हें कैसे बताऊँ कि इतने में चेखव ने अपने नाटक 'इवानोव' को देखने के लिए मुझे निमंत्रित किया तो मैंने उन्हें बता दिया कि सर्जी तो यूँ ही मज़ाक करते रहते है। मैं विवाहित हूँ और मेरे एक छोटा बच्चा भी है। मैं रात को उसे छोड़कर कैसे सकूँगी भला!...

    इतना सुनना था कि सर्जी तो एकदम जल-भुन गए और मुझे डपटते हुए बोले, क्या वाहियात बकती रहती हो! बच्चे को सुला आना! वह अब इतना छोटा नहीं कि उसे तुम तीन घंटे के लिए भी छोड़ सको। और चेखव से बोले, देखिए, इन की बहानेबाज़ी मत सुनिए और इन्हे ज़रूर बुलाइएगा!

    और उस समय चेखव ने मेरी आँखों में जाने कौन-सी दृष्टि से झाँका था और कहा था, हो, तुम्हारे एक पुत्र भी है। कितने सुख की बात है यह! उस दृष्टि मैं जाने वहाँ क्या था कि उस ने बड़े रेशमी बंधनों में जकड़ लिया मुझे! और मैं ऐसी बावली कि समझ भी नही पाई कि उस क्षण से मुझ में कुछ नया जाग गया है। किसी घटना के सच्चे अर्थों को जान लेना और उस की ठीक-ठीक व्याख्या कर देना शायद बहुत कठिन होता है। पर सच तो यह है कि यहाँ कोई घटना घटी ही नहीं। हम ने तो एक-दूसरे की आँखों में बस केवल एक विशिष्ट गहराई से देखा भर था। मगर उफ़ रे वह दृष्टि! मेरी अंतरात्मा में जाने कौन-सा नक्षत्र उगा गई थी—दमदम दमकता नक्षत्र! मुझे अपने चारों ओर बहुत उजाला नज़र आने लगा था उस क्षण से!..

    जब घर वापस आई तो देखा, मेरा बच्चा ल्योवुश्का कुछ चिढ़ा हुआ—सा है जैसे मानो अब रोया कि तब रोया। मगन-मन मैंने आते ही उसके गालों को प्यार से मसल कर कहा, ओहो मेरे एक पुत्र भी है। कितने सुख की बात है यह। मेरा मन कह रहा था, अपनी कल्पना के परों को हवा में तौलूँ और दूर-दूर तक की उड़ान भर आऊँ। कि इतने में माइकेल दूसरे कमरे से आए—(माइकेल मेरे पति) छूटते ही बोले, ज़रा शीशे में अपना मुँह तो देखो, कितना सूखा हुआ है। बाल बिखरे हुए है। हूँ, कितना भद्दा ढंग है यह बाल बनाने का। शायद यह सब अपने उसी चेखव को प्रसन्न करने के लिए चोंचले किए गए हैं। ल्योवुश्का यहाँ रो-रो कर जान दिए दे रहा है और उस की माताजी किसी साहित्यिक महानुभाव के साथ आवारागर्दी कर रही है।

    और, मुझे लगा कि मेरी दुनिया में सुख और संतोष की जो रोशनी फैलने लगी थी, उसने अपने पक्ष सिमेट लिए है—सब कुछ जैसे एक गहरे अँधेरे की पर्त के नीचे दब गया।

    फिर सब कुछ पूर्ववत् था—वही घर और वही ज़िंदगी का क्रम।

    चेखव से प्रथम परिचय के वह क्षण—लगातार तीन बरस तक मेरी यादों में स्वयं को दोहराते रहे। अब तक मेरे दो बच्चे और हो चुके थे—लोड्या और नीना। अक्सर माइकेल कहा भी करते थे अच्छा तो 'माता जी', अब बच्चों ने आप के पंख काट ही दिए न। मुझे उनकी बात चुभती तो ज़रूर थी पर यह भी कैसे कह दूँ कि झूठ थी। मुझे याद है, 'रशन थॉट' के संपादक गोल्वेज़ ने जब सुना था कि मेरी शादी होने जा रही है तब यह बहुत उदास हो गए थे और उन्होने कहा था, अब तुम कभी लेखिका नहीं बन सकोगी। तुम्हारी कला सूख जाएगी अब। तब मैंने उन्हें चैलेंज दिया था कि गृहस्थी मेरे लेखन में बाधक नही बन सकेगी। पर सचमुच अब मेरे पंख कट गए थे। पंख ऐसे कटे कि मुझे अब उनके कट जाने की तकलीफ़ तक महसूस नहीं हो पाती थी। अगर बच्चे बीमार होते और घर का काम ठीक-ठीक चलता रहता तो मैं ख़ुश भी रहती ही थी। 'ख़ुश'। कैसा खोखला निर्जीव शब्द है यह।

    पर सब कुछ होते हुए भी जाने क्यों मन तीन साल पहले को यादों में बँधा-बँधा रहता था। कैसे है ये बंधन? कौन से ये पंख है जो अपनी जड़ें जमाते जा रहे है माइकेल तो कहते हैं, मेरे पंख बच्चो ने काट दिए हैं।

    जनवरी 1892 में सर्जी अपने पुत्र की पंचीसवी वर्षगाँठ मना रहे थे। घरेलू इंतज़ामों में, मैं भी लगी थी। अकस्मात ही मैंने सीढ़ियों पर चढ़ते हुए दो आदमियों का अक्स सामने के आदमकद शीशे में देखा। कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी एक दृश्य को सारी ज़िंदगी के लिए यादों में बसा देने की एक झलक ही काफ़ी होती है। आज भी मेरी याद में ताज़ा है सुत्तोरिन का भद्दा सा सिर और उसके पास ही चेखव का किशोर मधुर चेहरा। वह अपने दाहिने हाथ की पतली उँगलियों से अपने माथे पर पड़ी एक शोख लट को पीछे कर रहे थे। अधखुली-सी थीं उन की आँखें और ओंठ रह-रह कर बड़े सहज ढंग में हिल रहे थे। वह कुछ बोल रहे होंगे जो मैं सुन नहीं पा रही थी। मेरे मन में वहीं तीन साल पहले की सिहरन कसमसा गई। मैं पेसोपेश में पड़ गई, पता नहीं वह मुझे पहचानेंगे भी या नहीं? उन्हें याद भी होगा या नहीं कि तीन साल पहले उन्होंने बड़ी आत्मीयता से किसी से बातें की थीं। ख़ैर, यह तो भला वह नहीं ही जानते होंगे कि उन की वह आत्मीयता मेरी नस-नस में बस चुकी है!

    जाने किस सम्मोहन से खिंची-खिंची मैं उन के पास गई। अभिवादन किया और कहा, मुझे उम्मीद नहीं थी कि आप के दर्शन होंगे। उन्होंने उसी सहज मुसकान से कहा, किंतु मुझे तो थी। कहो कैसी हो? मैंने तुम से कहा था कि अपनी कहानियाँ मेरे पास भेज देना, मैं देख कर लिखूँगा, पर तुम ने भेजी ही नहीं! मैं कुछ बोलूँ-बोलूँ कि ख़ुद ही बोले, लड़‌कियाँ बड़ी ज़ाहिल होती है। मेहनत तो तुम लोगों के वश की बात ही नहीं। जब कि बड़ा लेखक बनने के लिए परिश्रम बहुत ज़रूरी होता है। ख़ूब लिखना चाहिए और उसे फिर-फिर माँजना चाहिए, माँजते-माँजते दस पृष्ठों के तीन पृष्ठ कर देने चाहिए। तब जा कर चीज़ बढ़िया बनती है। अरे, तुम लोग तो ऊन के गोले-के-गोले बुनती-उधेड़ती हो, तुम में तो यह धैर्य और अधिक होना चाहिए।

    बहुत-से लोग आए हुए थे। तमाम बड़े-बड़े लेखक, आलोचक, कवि और पत्रकारों से घर भरा था। चेखव मेरे साथ एक खिड़की के पास अलग जा कर बैठ गए—मैंने कहा, हमें इस तरह अलग नहीं बैठना चाहिए, यहाँ तो सभी लोग आप को जानते होंगे। मेरे सवाल का जवाब उन्होंने नहीं दिया और जाने कहाँ खोए-खोए से बोले, क्या तुम ने एक बात महसूस की थी? पिछली बार तीन साल पहले जब हम पहली बार मिले थे तो हमारा परिचय एकदम नया ही हुआ था लेकिन लग ऐसा रहा था कि जाने कब के बिछुड़े हुए हम मिले हैं! मैं उन्हें जवाब देने लायक अपने पास कोई शब्द ढूँढ़ सकी। केवल सिर हिलाकर, आँखें झुकाकर मैंने उन्हें स्वीकार-भाव जता दिया। तो बोले, मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ। ऐसा भाव एक-दूसरे के प्रति दोनों के मन में एक साथ ही उठ सकता है। मैंने ज़िंदगी में पहली बार किसी के लिए वैसा अनुभव किया था। इसीलिए मैं उस अनुभव, उस स्फुरण को भुला नहीं सका। वह याद आज भी मेरे दिमाग़ में ताज़ा है। पर देखो तो, कितनी विचित्र है यह बात कि हम एक-दूसरे के बारे में बिल्कुल नहीं जानते।

    मैंने कहा, लेकिन यह भूलिए कि यह इस जीवन का अलगाव नहीं है, किसी पहले जनम की बात है जो बहुत समय पूर्व भुलाई जा चुकी है। शायद कई जनम बीत गए है जब हम एक साथ थे।

    चेखव का कहानीकार जैसे जाग उठा बोले, भला यह तो बताओ कि उस जनम में हमारा तुम्हारा क्या नाता रहा होगा?

    मैंने जल्दी से जवाब दिया, इतना तो निश्चित है कि कम से-कम पति और पत्नी का तो संबंध नहीं ही होगा। हम दोनों ही हँस पड़े। कितनी निश्छल थी उन की वह हँसी। कितनी शिशुवत्।

    पर दूसरे ही क्षण फिर वह अपनी ख़्याली दुनिया में खो गए। स्वप्न देखते-देखते जैसे बोल रहे हो—कहने लगे, लेकिन हम एक-दूसरे को बेइंतिहा प्यार ज़रूर करते थे। हम अभी किशोर ही थे हमारी मृत्यु हो गई थी एक जहाज़ टूट जाने से मैंने भी उन की ख़याली दुनिया में प्रवेश कर के कहा, हाँ-हाँ, मुझे भी कुछ-कुछ याद रहा है वह बोले, अरे-अरे रुको, देखो मुझे सब साफ़ याद रहा है। बहुत देर तक हम लहज़े से जूझते रहे थे तुम्हारी बाँहें मेरी गर्दन में माला जैसी लिपटी थी हाँ-हाँ, मैं बहुत डर गई थी। तभी तो ऐसा किया था मैंने। तुम जानते हो न, मैं अच्छी तरह तैरना नही जानती। सचमुच मुझे याद रहा है, तुम्हारे डूब जाने का कारण मैं ही थी। मैं होती तो तुम पार हो गए होते।

    भई, सच बात तो यह है कि मैं भी कोई अच्छा तैराक नही हूँ। बहुत मुमकिन है कि यह हुआ होगा कि पहले मैं डूबा होऊँगा और तब तुम को भी अपने पीछे खींच लाया होऊँगा।

    जाने दो, इसके लिए मैं तुम्हें दोषी नही ठहराती। और फिर सब से सुखद बात तो यह है कि अब हम फिर मित्र रूप में एक दूसरे को मिल गए है।

    पर, क्या अब भी तुम मुझ में उतना ही विश्वास रखती हो?

    मैंने अपने स्वरों में शरारत भर कर कहा, भला तुम्हारा विश्वास कैसे कर सकती हूँ मैं। बचाने के बजाए तुमने डुबो जो दिया था मुझे।

    तो तुमने मेरी गर्दन क्यों नहीं छोड़ी थी?

    हम दोनों दूसरी ही दुनिया में उड़ रहे थे कि एक महोदय हाथ में प्लेट लिए हुए हमारी तरफ़ आए और चेखव से बोले, मैं अपनी साथी से अभी तुम्हारी ही कहानियों की चर्चा कर रहा था कि वह बहुत दिलचस्प होती हैं। वॉन-वॉन जैसे मीठी।

    इस वॉन-वॉन शब्द पर सब लोग बड़ी देर तक हँसते रहे। वह महोदय चले गए तो कुछ देर बाद अचानक ही मैंने याद करते हुए कहा, 'मैं तुम्हारी कितनी-कितनी प्रतीक्षा करती थी मेरा मतलब है, इस जन्म में। जब मैं मास्को में थी—अपने विवाह से पहले?

    दूने अचरज से चेखव बोले, भला मेरी प्रतीक्षा क्यों करती थी?

    इसलिए कि मैं तुम से परिचय प्राप्त करना चाहती थी। एक तो तुम्हारी कहानियों के जादू ने मेरे मन को अपने वश में कर लिया था, ऊपर से मेरे भाई के एक मित्र थे पौपोव। वह कहते थे कि तुम उनके लँगोटिया यार हो। तुम्हारी तारीफ़ें भी वह इस क़दर करते थे कि कुछ पूछो मत। उन्होंने मुझसे यह भी कहा था कि अगर वह मेरी ओर से तुम्हे निमंत्रण देंगे तो तुम आओगे ज़रूर! मैंने कितनी प्रतीक्षा की किंतु तुम कभी आए तो नहीं।

    अपने उन पौपोव महोदय से, जिनसे मेरी कभी कोई मित्रता नहीं रही, कभी मैं उनसे मिला ही था, कह देना कि वे मेरे सब से बड़े दुश्मन है जाने कैसी गंभीर उदासी से उन्होंने कहा।

    फिर हम मास्को, पीटर्सबर्ग, गोल्तसेव और रशन थॉट के बारे मे तमाम बातें करते रहे। बातें करते-करते अचानक जैसे कुछ याद गया हो, वे बोले, तुम्हारी उम्र क्या है?

    अट्ठाईस साल।

    और मैं बत्तीस का हूँ। जब हम पहले-पहल मिले थे तो अब से तीन वर्ष छोटे थे, यानी पच्चीस और उन्तीस! ओहो, तब हमारी कितनी हसीन उम्र थी!...

    इतने में क्या देखती हूँ कि माइकेल उधर से रहे हैं। मेरे पास आकर ज़रा तीखेपन से वह बोले, मैं घर जा रहा हूँ। तुम?

    मैं ज़रा ठहरूँगी। मेरा इतना कहना था कि चेखव की ओर देखकर अजब तल्खी से वह बोले, हाँ, हाँ, वह तो तुम करोगी ही।

    पहली बार वह चेखव के सामने थे। मैं परिचय कराती तो असभ्यता होती। अजब से खिंचाव-तनाव की स्थिति में ही मैंने दोनों का परिचय कराया। दोनों ने औपचारिक ढंग से हाथ मिलाए। माइकेल के मुँह पर केवल उदासीनता ही नहीं बल्कि शत्रुता का-सा भाव था। उसे देखकर मुझे कुछ बहुत अचरज भी नहीं हुआ। मगर मैंने आश्चर्य देखा कि चेखव ने पहले मुस्कुराने की चेष्टा की मगर मुस्कुरा सके। और एक विचित्र अभिमान के-से भाव से उन्होंने अपने सिर को झटका दिया। दोनों एक-दूसरे से कुछ नही बोले। माइकेल फ़ौरन ही लौट भी गए। माइकेल का रुख देखकर मैं समझ गई कि आज घर पर हंगामा ज़रूर मचेगा। पर जितने की कल्पना मैंने की थी—उस से कही अधिक बवाल हुआा। चेखव से ईर्ष्या करने वाले साहित्यकारों की भी कमी नहीं थी। उन्ही में से किसी एक साहित्यकार नाम के छोटे दिल के महोदय ने माइकेल को जड़ दिया कि जब वह चले आए तो चेखव ने बड़ी डीगें हाँकी और कहा कि लीडिया को वह तलाक़ दिलवा लेंगे और उस से शादी कर के ही रहेंगे। तमाम लोगों ने उन्हे सहायता का वचन भी दिया तो मारे ख़ुशी के चेखव ने लीडिया को कंधों पर उठा लिया। ऐसी बेसिर-पैर की बातें सुनकर माइकेल का गर्म होना भी स्वाभाविक ही था। माइकेल को तो मैंने जैसे-तैसे समझा लिया कि यह सब उन से कम प्रतिभाशाली लेखकों की ईर्ष्या और द्वेष के कारण है। चेखव से साहित्य में टक्कर ले नही पाते तो लोग अपनी खीझ इसी तरह उतारते है। माइकेल मान भी गए। लेकिन स्वयं मेरे ही मन में एक काँटा-सा कसका कि कहीं किसी समय शराब अधिक पी जाने पर उन्होंने कुछ अंट-शंट कहा ही तो नहीं है। यह सोचकर मैंने उन्हें एक ख़त लिखा। उसका उत्तर वापसी डाक से आया।

    'तुम्हारे पत्र ने मुझे बड़े कष्ट और भ्रम में डाल दिया है। इम सब का मतलब आख़िर क्या है? मुझ में इतना आत्मसम्मान अवश्य है कि मैं अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं कहूँगा। किंतु जो कुछ तुम ने लिखा है, उस से मालूम यही होता है कि किसी ने मेरे बारे में झूठी बातें गढ़कर फैला दी हैं। और कुछ कह कर मैं तुम से केवल एक सवाल पूछता हूँ कि क्या तुम मेरा उतना भी विश्वास नही करती जितना उन लोगों का कर रही हो जो मेरे बारे में मनगढ़ंत बातें फैला रहे हैं। पीटर्सबर्ग में जो कोई जो कुछ भी कह दे उस का सहज ही विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। और अगर उन बातों का विश्वास किए बिना तुम से रहा नहीं जाता तो फिर जो-जो कुछ मेरे बारे में कहा जाता है, सब पर विश्वास कर लो। यक़ीन कर लो कि मेरा विवाह एक राजकुमारी से हो गया है और मेरे जितने भी मित्रों की पत्नियाँ हैं सब मेरी प्रियाएँ हैं।

    ख़ैर, अफ़वाहों के विरुद्ध अपनी सफ़ाई क्यों पेश करूँ? व्यर्थ होता है यह सब। मैं तो तालाब में जमी बर्फ़ को अपने हाथों से काट रहा हूँ और वहीं खड़ा हूँ। मैंने ख़ूब सोच-समझकर यह निश्चय कर लिया है कि इस जन्म में अब कभी पीटर्सबर्ग नही जाऊँगा।

    कैसी विडंबना है नियति की। यह था मेरे और चेखव के पत्र व्यवहार का प्रारंभ। वह अब कभी पीटर्सबर्ग नहीं आएँगे—मेरे 'सुखी पारिवारिक जीवन' में अब कभी कोई भँवर नहीं आएगी। कभी-कभी क़िस्मत कैसी अजीब गलियों में भटका देती है जहाँ से निकासी का द्वार तो मिलता ही नही, उलटे जहाँ से प्रवेश किया था उन रास्तों को भी अथाह अँधेरा निगल जाता है। मन बेचारा सिर्फ़ पिरा ही तो सकता है न, सो पिराया करता है। पर इस दर्द की कोई सार्थकता भी होती है क्या? पता नहीं। सिर्फ़ इतना पता है, अब मैं चेखव के प्रति स्वयं को पूर्णतया प्रतिश्रुत अनुभव करने लगी थी। उन्हें बराबर ख़त भी भेजती रहती थी। यों मैंने माइकेल को बता दिया था कि हमारे ख़त आते-जाते हैं पर ख़त मैं घर के पते पर मँगाकर सीधे डाकघर से ही ले आती थी। कितनी प्रेरणा और कितनी शांति देते थे उनके ख़त। पर मन कितना आकुल-व्याकुल रहता था यह सोचकर कि चेखव ने पीटर्सबर्ग आने की क़सम खा ली है। और मैं उन तक पहुँचूँ तो भला कैसे पहुँचूँ?

    एक दिन बिना किसी पूर्व सूचना के ही मेरी बहन मेरे घर आई और बड़ी शरारत से मुस्कुरा कर बोली, आज शाम को मेरे घर अकेली ही आना। ध्यान रखना, माइकेल साथ हो। मैंने कहा, अरे, यह कैसी शर्त? क्या हुआ? बोली, हुआ कुछ नहीं। अच्छा बता, मैं क्या सोच रही हूँ? शर्त लगा ले, तू अंदाज़ नहीं लगा सकती। एक बोरिंग कहानी है।

    बोरिंग कहानी? क्या मतलब?

    हाँ-हाँ, 'ए बोरिंग स्टोरी' तू ने नहीं पढ़ी?

    पढ़ी हूँ, मगर उस से तुम कहना क्या चाहती हो?

    उस में तुझे याद है—एक शैंपेन की बोतल है, पनीर है और...

    अरे तो तेरे यहाँ चेखव रहे हैं क्या री? कहने को तो मैं कह गई पर दूसरे क्षण ही लाज से दोहरी हो गई। मुझे आज भी वह संवेदन याद है। जाने कैसी अंजानी पुलक से मेरे गालों पर सुर्ख़ी दौड़ गई थी। मैंने अपने कानों को कोर-पर कुछ गुनगुनी सी, सुरसुरी-भी महसूस की थी। इस सूचना मात्र से ही मैं स्वयं को बहुत छोटी, बहुत नई-नई लगने लगी थी!

    शाम को जब मैं बहन के घर गई तो देखा, वह बाहर के कमरे में बैठी कुछ लिख रही थी। उस ने अभी शाम के कपड़े भी नहीं पहने थे। ड्रेसिंग गाउन लपेटे बैठी थी और आँखों में वही शरारत-भरी चमक। चेखव अभी आए नहीं थे पर उन के आने में मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट की ही देर होगी और यह अभी तैयार भी नहीं हुई। ऐसा तो पहले कभी नहीं करती थी। इतने में ही घंटी बजी। नाड्या उसी शरारत से मुस्कुरा कर बोली, अरी लीडो, मैं तो अभी तैयार भी नहीं हुई। जा, ज़रा तू ही उन का स्वागत कर, मैं अभी आयी! अब समझी मैं ड्रेसिंग गाउन का रहस्य। उसके सुर्ख़ गालों को चुटकी से मसल कर मैं द्वार पर गई।

    मेरे पाँवों में बड़ा अजब कंपन हो रहा था। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था, वह अलग! ऐसा लग रहा था जैसे मानो दिल और पैरों में कोई होड़ लगी थी कि किस के स्पंदन ज़्यादा द्रुत है। पर शीघ्र ही मैंने स्वयं को संयत कर लिया। परस्पर अभिवादन के बाद, पहले मैं ही बोली, क्यों साहब, आपने तो पीटर्सबर्ग आने की क़सम खा ली थी!

    भई, मैं बड़ा असंयत और कमज़ोर इच्छा-शक्ति का आदमी हूँ। पर तुम कुछ घबराई-सी नज़र रही हो! तबियत तो ठीक है न?

    मैंने स्वयं को और भी संभाला और ओठों पर ज़बरन हँसी बिखेर कर कहा, नहीं, नहीं, मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ।

    हाँ तो, मैं पीटर्सबर्ग में हूँ। और भी बात बताऊँ। तुम्हें याद है न, मैंने कभी नाटक लिखने की क़सम खाई थी, पचासों व्यक्तियों के सामने ऐलान कर दिया था कि अब कभी नाटक नहीं लिखूँगा। याद है?

    मैंने कहा, हाँ, याद तो है।

    तो कहने लगे, मैं एक नया नाटक लिखने जा रहा हूँ। उस का नाम भी अभी से सोच लिया है—सीगल!

    स्रोत :
    • पुस्तक : ज्ञानोदय (पृष्ठ 603)
    • संपादक : लक्ष्मीचंद्र जैन
    • रचनाकार : मुक्ता राजे
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1962
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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