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आई लाईक यू दो आई हेट यू: मंटो

aai laik yu do aai het yooh manto

उपेन्द्रनाथ अश्क

उपेन्द्रनाथ अश्क

आई लाईक यू दो आई हेट यू: मंटो

उपेन्द्रनाथ अश्क

और अधिकउपेन्द्रनाथ अश्क

    मंटो मेरा दुश्मन समझा जाता था। हममें काफ़ी नोक-झोंक रहती थी और इसमें कोई संदेह नहीं कि जब तक हम साथ-साथ रहे, हमने एक-दूसरे को बड़ी कड़ी चोटें पहुँचाई। ‘कुतुब पब्लिशर्स बंबई’ ने एक पुस्तक माला निकाली थी—‘नए अदब के मेमार1, उसमें उर्दू के लेखकों ने एक-दूसरे के रेवा-चित्र लिखे थे। सआदत हसन मंटो पर कृष्णचंद्र ने जो स्केच लिखा, उसमें हमारी उस नोक-झोंक का भी कुछ इस तरह वर्णन किया कि हमारी यह ‘दुश्मनी’ एक कहानी बन गई। यहाँ तक कि एक मित्र ने उसी दुश्मनी की चर्चा करते हुए मुझसे आग्रह किया है कि यदि मैंने मंटो के बारे में लेख न लिखा तो वह मुझे परलोक में भी क्षमा न करेगा। लेकिन आज जब मंटो इस दुनिया में नहीं है, में सोचता हूँ-क्या हम सचमुच दुश्मन थे?...मैं जब पिछले पंद्रह-बीस वर्षों का जायज़ा लेता हूँ तो पाता हूँ कि यदि हमारे परिचय का श्रीगणेश ही दुश्मनी से न हुआ होता तो हम बड़े अच्छे मित्र होते।

    मंटो की और मेरी प्रकृति में आकाश-पाताल का अंतर था—वह लकड़पन ही से दीनू या फ़ज़लू कुम्हार की दुकानों के ऊपर चौबारों में जमने वाली जुए की महफ़िलों में शामिल होता था और रात को स्वप्न भी फ़्लाश ही के देखता था और मैंने कभी ताश को हाथ भी नहीं लगाया। वह रिंदेवलानोश 2था और मैंने शराब तो दूर रही, सिगरेट भी पहली बार 1942 में पिया, जब में बत्तीस वर्ष का था। कटरा धुन्नियाँ हो, हीरा मंडी हो या फ़ॉरस रोड—अमृतसर, लाहौर या बंबई-जहाँ-जहाँ वह रहा, ‘उस बाज़ार’ की उसने ख़ूब सैर की थी और मैंने उधर झाँककर भी नहीं देखा। बात यह है कि माँ ने बचपन ही से इन तीनों बातों के प्रति मेरे मन में असीम घृणा पैदा कर दी थी। पिताजी ने इन तीनों क्षेत्रों में जो कीर्ति अर्जित की थी, मेरा विचार है कि हमारे कुटुंब की भावी तीन पीढ़ियाँ इस सिलसिले में कुछ किए बिना ही उस पर गर्व कर सकती हैं। उनके इन्हीं कारनामों की वजह से घर की जैसी स्थिति हो गई और हमने जिस दारिद्र्य में बचपन के दिन काटे, उसने रक्त को कुछ ऐसा जमा दिया कि आज, जब में सिगरेट या शराब को उतना बुरा नहीं समझता, कभी खुल-खेलने का हौसला नहीं होता। पिताजी, जब एकाध पैग चढ़ा लेते थे, प्राय: नारा लगाते थे—‘कौड़ी न रख कफ़न के लिए’। वे वर्तमान में जीते थे और उन्होंने कभी भविष्य की चिंता नहीं की। इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने लड़कपन ही में जीवन का सारा ढाँचा बना लिया था—और मंटो को मेरे इस संयम, हिसाब-किताब, प्लानिंग, मितव्ययता और ठहराव से घृणा थी। अपनी इस घृणा को उसने कई बार कठोरतम शब्दों में प्रकट किया:

    ...मुझे मंटो ने ‘फ़िल्मिस्तान’ में काम करने के लिए बंबई बुलाया था। मेरे बंबई पहुँचने के दूसरे या तीसरे दिन की बात है। हम विक्टोरिया गाड़ी में आमने-सामने बैठे ग्रांट रोड को जा रहे थे। मंटो ने थोड़ी-सी पी रखी थी। अचानक उसने अंग्रेज़ी में कहा-'I like you, though I hate you!’3

    4...डेढ़ साल बाद हम ‘फ़िल्मिस्तान’ की कैंटीन में बैठे थे। लंच का समय था। मंटो की मेज़ पर नित्य की भाँति राजा मेहदी अली ख़ाँ, वाचा इत्यादि दो-एक मित्र थे। मैं बराबर की मेज़ पर अपनी यूनिट के दो-एक दोस्तों के साथ बैठा था। न जाने कैसे हिंदुओं के दाहकर्म-संस्कार और कपाल क्रिया की बात चली तो मंटो ने दाँत पीसकर कहा—‘अश्क जब मरेगा तो उसकी कपाल-क्रिया मैं करूँगा।’

    ...मैं के० ई० एम० अस्पताल (बंबई) में बीमार पड़ा था। डॉक्टरों ने टी० बी० का फ़तवा दे दिया था। राजा मेहदी अली ख़ाँ मुझसे मिलने आया तो उसने कहा—‘मंटो कहता है कि साला इस तरह पैसे न जोड़ता तो बीमार न पड़ता।’

    जब ग्रांट-रोड को जाते हुए मंटो ने मुझसे कहा था—‘तुम मुझे अच्छे लगते हो अगरचे मुझे तुमसे सख़्त नफ़रत है’ तो मैंने जवाब में कहा था कि यही हाल मेरा है। लेकिन वास्तव में मैंने जवाब ही के लिए यह जवाब दिया था। नहीं तो मंटो से मुझे दरअसल कभी नफ़रत नहीं हुई। रहा मंटो, तो इस नफ़रत के बावजूद, जिसे वह अकसर प्रकट किया करता था और उस विरोधाभास के चलते, जो हम दोनों की प्रकृतियों में था, में यह अच्छी तरह जानता हूँ कि हम दोनों गहरे दोस्त होते, यदि मैंने अपने फक्कड़पने में मंटो को बिना देखे, बिना जाने, बिना पढ़ें उसके बारे में एक सख़्त जुमला न कस दिया होता।

    बात शायद 1938 या 1939 के आस-पास की है। मंटो की एक कहानी ‘ख़ुशियाँ’ एक उर्दू पत्रिका में छपी थी। मैं और बेदी (राजेंद्र सिह) उस जमाने में साथ-साथ लिखा-पढ़ा करते थे। वह कहानी लिखता तो मुझे आकर सुनाना न भूलता और मैं लिखता तो उसे जा सुनाता। दोनों मिलकर समकालीन कहानीकारों की रचनाओं पर विचार-विनिमय करते और जैसा कि नौजवानी में होता है, हमारी सम्मतियाँ ख़ासी तेज़, तीखी और दो-टूक होती। बेदी ने ‘ख़ुशियाँ’ के बारे में मेरी राय पूछी।

    मैंने उस समय तक मंटो की कोई चीज़ न पड़ी थी, न उसे देखा था। उसने ह्यूगो अथवा दॉस्तोयस्की की किसी पुस्तक का अनुवाद किया था, जो ‘सरगुज़श्त-ए-असीर’ के नाम से उन्हीं दिनों छपा था, और मैंने किसी से सुना था कि यह रूसी कहानियों के तरजुमे बग़ल में दबाए किसी प्रकाशक की ख़ोज में लाहौर आया था। इस बात में कहाँ तक सचाई है, यह मैं नहीं जानता। फिर भी ‘ख़ुशियाँ’ के प्रकाशित होने के पूर्व मंटो के बारे में यही दो-एक बातें में जानता था। और क्योंकि लिखना मैंने कृष्ण, मंटो और बेदी से बहुत पहले शुरू कर दिया था, उम्र में भी मैं तीनों से बड़ा हूँ और उस समय तक मेरी कुछ प्रसिद्ध कहानियाँ—‘डाची’, ‘कोंपल’, पिंजरा’ थादि लिखी जा चुकी थीं और अनुवादक को मैं मौलिक लेखक से हेय समझता था, इसलिए मेरी दृष्टि में मंटो की कोई ख़ास वक़अत न थी। ज़ाहिर है कि ‘ख़ुशियाँ’ पढ़ते समय भी में पहले ही से लेखक के विपक्ष में था। ‘ख़ुशियाँ’ कहानी मुझे कुछ बहुत अच्छी भी नहीं लगी। यद्यपि मंटो की कहानियों में उसका महत्वपूर्ण स्थान है और उसके आधारभूत विचार को मंटो ने बड़ी सफ़ाई से निभाया है। फिर भी मुझे यह आपत्ति थी कि 'ख़ुशियाँ' यथार्थ चरित्र नहीं, बल्कि लेखक के दिमाग़ की उपज है। मेरे एक मित्र उन दिनों नियमित रूप से उसी ‘गली’ की सैर करते थे और उनके द्वारा मुझे उस गली के तौर-तरीकों को पूरी जानकारी प्राप्त थी। निम्न वर्ग की वेश्याओं के (जैसी कि ‘ख़ुशियाँ’ की कांता है।) दलाल प्राय: उनसे पहले ही शारीरिक रूप से परिचित हो लेते हैं, यह बात मुझे विश्वस्त रूप से ज्ञात थी। इसलिए मेरा ख़याल था कि ख़ुशियाँ का चरित्र एकदम अयथार्थ है। बेदी ने जब ख़ुशियाँ के बारे में मेरी राय पूछी तो उस समय अचेतन रूप में ये बातें मेरे दिमाग़ में थीं। वैसे भी फक्कड़पने के दिन थे। किसी चीज़ पर उतनी गंभीरता से विचार करने की आदत ना थी, जो मुँह में आया बक देते थे, इसलिए मैंने कहा—‘दो कौड़ी की कहानी है।’

    मैंने यह बात कही और भूल गया, लेकिन बेदी नहीं भूला। और जब कुछ समय बाद बेदी दिल्ली गया और वहाँ मंटो ने (जो उस समय ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली में आ गया था।) अपनी आदत के अनुसार उसे बहुत परेशान किया तो न जाने कैसे और न जाने किस सिलसिले में, बेदी ने ‘ख़ुशियाँ’ के वारे में मेरी राय मंटो को बता दी।

    दिल्ली से लौटकर वेदी ने मंटो से अपनी मुलाक़ात का हाल सुनाया और कहा कि मैंने मंटो तक तुम्हारी बात पहुँचा दी है। उस समय मैंने कभी सोचा भी न था कि मंटो और मैं कभी एक-दूसरे का रास्ता काटेंगे, इसलिए मैंने इस बात को सुनी-अनसुनी कर दिया, लेकिन 1940 में जब कृष्णचंद्र के बुलावे पर मैं दिल्ली रेडियो स्टेशन गया और वहाँ जाते ही नौकर हो गया तो मुझे पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि मेरा वह रिमार्क कहाँ तक पहुँच गया है। दोस्तों ने मेरी नौकरी पर इसलिए प्रसन्नता प्रकट की कि अब मंटो को अपना जवाब मिलेगा। अर्थात् यद्यपि मैं और मंटो कभी आमने-सामने भी न हुए थे, लेकिन यारों ने हमें एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी मान लिया था।

    दिल्ली में अपनी नौकरी पर आने के दूसरे दिन ही मुझे इस बात का पता चल गया और क्योंकि मैं एक बड़े ही कष्ट-प्रद और संघर्ष-भरे जीवन से गुज़रकर आया था, इसलिए यह सोचकर मेरी आत्मा सिहर उठी कि मुझे फिर किसी से मुक़ाबिला करना पड़ेगा। मैंने मन में निश्चय कर लिया कि मैं मौका पाते ही मंटो को समझाऊँगा कि लोग केवल तमाशा देखना चाहते हैं, लेकिन हम क्यों तमाशा बनें? पर एक तो यह कि रेडियो में उस समय मंटो की तूती बोलती थी, दूसरे वह पहले ही से मुझे नीचा दिखाने को उधार खाए बैठा था, इसलिए मेरे सारे प्रयत्न विफल रहे।

    रेडियो का दफ़्तर उन दिनों अलीपुर रोड की एक बड़ी कोठी में था। बड़े कमरे स्टेशन डायरेक्टर, प्रोग्राम डायरेक्टर और संगीत विभाग के पास थे। छोटे कमरों में से (जो शायद कोठी के बाथरूम रहे होंगे) एक में राशिद, दूसरे में कृष्ण और तीसरे में मंटो बैठते थे।5  ये कमरे साथ-साथ थे। मुझे अच्छी तरह याद है, मैं कृष्ण के कमरे में बैठा था। कृष्ण स्टूडियों में (जो सड़क के दूसरी ओर एक कोठी में बना था) गया हुआ था और मैं कोई फ़ीचर लिख रहा था कि मंटो टहलता हुआ आया और इधर-उधर की बात करके उसने ‘ख़ुशियाँ’ की बात छेड़ी।

    ‘मुझे मालूम हुआ है कि तुम्हें मेरी कहानी ‘ख़ुशियाँ’ पसंद नहीं आई।’ वह बोला।

    मैंने टालने की कोशिश की। लेकिन मंटो यों छोड़ने वाला न था, ‘तुम्हें उसमें क्या पसंद नही आया?’ उसने पूछा।

    मैंने उसे समझाया कि मैं यहाँ हिंदी सलाहकार की हैसियत से आया हूँ। मेरा-तुम्हारा कोई मुक़ाबिला नहीं। तुम मज़े में काम करो और मुझे भी करने दो। फ़जूल के बहस-मुबाहिसे में मत पड़ो। लोग तमाशा देखना चाहते हैं, हम क्यों तमाशा बनें?...

    लेकिन मंटो ने मुझे बात पूरी नहीं करने दी। उसने हाथ से हवा को नहीं, जैसे मेरी बात को काटते हुए वही सवाल दोहराया। और शायद कोई सख्त वात भी कही। लाचार हो मैंने कहा— ‘कहानी वह अच्छी है, लेकिन हक़ीक़ी6 नहीं।’

    ‘क्यों हक़ीक़ी नहीं?’

    तब मैंने अपनी आपत्ति बताई —‘तुम्हें एक ख़्याल सूझा’, मैंने कहा, ‘और तुमने अपने आपको उस दलाल के रूप में रखकर, वैसी स्थिति में अपनी प्रतिक्रिया का ख़ाका खींच दिया। यथार्थ जीवन में यदि ‘ख़ुशियाँ’ सचमुच दलाल होता और कांता उसके सामने यों नंगी हो जाती तो वह उसे वहीं दबोच लेता। तुमने जो कुछ लिखा, वह एक पढ़ा-लिखा शायर या लेखक सोच सकता है, अपढ़ दलाल नहीं।’

    कुछ इसी तरह की बात बड़े ज़ोरों से मैंने कही। मंटो क्षण भर चुप रहा, फिर तिलमिलाकर बोला—‘हाँ, हाँ, मैं वह दल्लाल हूँ, मंटो वह दल्लाल है। तुम्हें कहानी लिखने का शऊर भी है? तुम ख़ुद क्या लिखते हो?’

    लेकिन उस समय कृष्ण आ गया या मुझे अडवानी साह्य (स्टेशन डायरेक्टर) ने बुला लिया या न जाने क्या हुआ, कुछ भी हो, वह बात वहीं ख़त्म हो गई।

    ...लेकिन वह बात कभी खत्म नहीं हुई। दिल्ली में जो नोंक-झोंक इसके बाद रही, सो रही, मंटो मेरी इस आपत्ति को कभी न भूल सका। ‘नकुश’ (लाहौर) के कहानी-अंक (जनवरी 1954) में उर्दू लेखकों का एक सिम्पोजियम छपा और इस समय, जब उर्दू में कोई नई कहानी लिखे हुए मुझे आठ वर्ष हो रहे हैं (इधर मेरी जो कहानियाँ उर्दू में छपी हैं, वे एक तरह हिंदी से अनूदित हुई हैं) और मेरे मित्र और उर्दू के पाठक तक मुझे भूल गये हैं, मंटो को मैं याद रहा। ‘ख़ुशियाँ’ के बारे में मेरी आपत्ति और मेरे जवाब की चर्चा करना वह उस सिम्पोजियम में भी नहीं भूला।

    इसके बाद यद्यपि मैंने बड़ा प्रयास किया कि मंटो से मेरी कोई नोक-झोंक न हो, मैं अपनी मेज भी उठाकर दूसरी मंजिल पर ले गया, लेकिन मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हुए। मैं जब भी नीचे उतरता, दोस्तों में जाता, मंटो सख्त हिकारत भरी नज़र से मुझे देखता और किसी-न-किसी ढंग से अपनी घृणा का प्रदर्शन भी कर देता।

    उन दिनों की बड़ी साफ़ तस्वीर मेरे दिमाग़ के पर्दे पर अंकित है। मंटो रेडियो के लिए ड्रामे लिखने पर नियुक्त था। कृष्णचंद्र ड्रामे का इंचार्ज था, मैं हिंदी सलाहकार था और क्योंकि उस व्यवस्था में हिंदी को कोई विशेष महत्व न दिया जाता था, इसलिए कुछ ज़्यादा काम न था और मैं अवकाश के समय एकाध नाटक भी लिख दिया करता था।

    मंटो का ढंग यह था कि उर्दू का टाइपराइटर लेकर बैठ जाता और कृष्ण से पूछता—‘बोलो भई, काहे पर लिखा जाए?’ विषय सुनते ही तुरंत टाइप करना शुरू कर देता और शाम तक मसौदा कृष्ण को दे देता। मंटो को इस बात का गर्व था और इसका ऐलान वह प्राय: खुले आम किया करता था कि वह जिस चीज़ पर चाहे ड्रामा लिख सकता है। रेडियो के ड्रामा-आर्टिस्ट—ग़ुलाम मुहम्मद, रंधीर, (जो अब फ़िल्म ऐक्टर हैं) ताज मुहम्मद आदि उसे अकसर घेरे रहते थे। मंटो लिखते-लिखते उन्हें ड्रामा सुनाया भी करता था और सुनकर वे ‘मंटो साहब, आप ड्रामे के बादशाह हैं’, कहते हुए मंटो के पैसों से चाय उड़ाया करते थे। ‘जावेद’ और ‘हसरत साह्न’ से उसका पीने-पिलाने का नाता था और अडवानी साहब उससे इसलिए दबते थे कि मंटो के कोई संबंधी सूचना और प्रसारण विभाग के सेक्रेटरी थे। रेडियो स्टेशन पर हर समय ‘मंटो साब’, मंटो साब’ होती रहती और हर मामले में मंटो की राय आख़िरी समझी जाती और मंटो चापलूसों या मित्रों में घिरा रहता। लंच के समय कभी उसके और कभी कृष्ण के कमरे में महफ़िल जमती। मैं भी कभी-कभी आ खड़ा होता। मंटो कभी मुझे बात न करने देता। मेरे बारे में कोई-न-कोई अपमानजनक ‘रिमार्क’ ज़रूर पास करता और यद्यपि मेरे मामले में लोग उसका साथ न देते, लेकिन मुझे बड़ी कोफ़्त होती।

    आख़िर एक दिन मैंने कृष्ण से कहा—‘देखो भाई, तुम मंटो को समझा दो, वह मुझे ख़ाहमख़ाह तंग करता है, मैं तरह दे जाता हूँ।’

    ‘तुम भी उसे तंग करो!’ कृष्ण ने कहा, ‘मेरे समझाने से वह क्या समझेगा?’ उस दिन में दफ़्तर गया तो मैंने तय कर लिया कि मैं आज मंटो को परेशान करूँगा। कुछ दिन पहले उसकी कहानी ‘धुआँ’ दिल्ली के रिसाले ‘साक़ी’ में छपी थी। कहानी मुझे पसंद थी। मंटो ने सेक्स संबंधी एक बड़े ही नाजुक विषय पर सुंदर और सफल कहानी लिखी थी। लेकिन मैं तो शरारत पर तुला हुआ था और क्योंकि मैं इस बीच उसके अहं के हर पहलू को जान चुका था इसलिए मैंने कार्यक्रम सोच लिया था। दफ़्तर पहुँचकर मैं मंटो के कमरे में गया। वह अभी आकर बैठा ही था कि मैंने कहा, ‘मैंने तुम्हारी कहानी ‘धुआँ’ पढ़ी।’

    ‘कैसी लगी?’

    ‘अच्छी है। अब तुम चपटी पर लिखो।’

    मंटो क्षण भर को चुप रहा। फिर उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें लगभग बाहर निकालते हुए पूछा—‘क्या मतलब है तुम्हारा?’

    ‘मैंने कुछ नहीं कहा और वही बात दोहरा दी 'बस अब तुम चपटी पर लिखो।’

    उस समय तक अस्मत चग़ताई ने अपनी कहानी ‘लिहाफ़’ न लिखी थी। मंटो चिढ़ गया। वह कहना चाहता था कि तुम ख़ुद क्या ख़ाक कहानी लिखते हो, लेकिन कुछ दिन पहले वह इस बात का ऐलान कर चुका था कि उसने कभी मेरी कोई कहानी नहीं पढ़ी, इसलिए उसने कहा—‘तुम क्या झख मारते हो? मैंने तुम्हारे ड्रामे पढ़े हैं।’

    और यद्यपी उस समय उर्दू में मेरा एकांकी संग्रह ‘पापी’ प्रकाशित हो चुका था और मैं कुछ बहुत अच्छे नाटक लिख चुका था, लेकिन मुझे लड़ने की कला ख़ूब आती है, इसलिए तरह देकर मैंने कहा—‘मैं तो ड्रामा लिखना अभी सीख रहा हूँ, इसलिए मेरे ड्रामों की बात छोड़ो, लेकिन तुम जो ड्रामे के बादशाह कहलाते हो, जैसी झख मारते हो वह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। ‘करवटें’ में तुमने ‘मॉम’ की कहानी ‘रेन’ का प्लाट चुरा लिया है। ‘रूह का नाटक’ पूरे-का-पूरा अनुवाद कर दिया है और हवाला तक नहीं दिया। मैं अच्छे नाटक नहीं लिखता, लेकिन ओरिजिनल तो लिखता हूँ। मेरी अच्छी-बुरी चीज़ मेरी अपनी है, किसी दूसरे की चुराई तो नहीं।’

    मंटो झल्ला उठा। लेकिन मैं वहाँ नहीं रुका। कृष्णचंद के कमरे में आ गया। मंटो ड्रामा लिखने जा रहा था, लेकिन ड्रामा लेकिन ड्रामा लिखना तो दूर रहा, अपने कमरे में बैठना तक उसके लिए मुश्किल हो गया। वह मेरे पीछे-पीछे कृष्ण के कमरे में आया। उसने फिर मुझसे कहानी-कला को लेकर बात करने की कोशिश की, लेकिन मैं फिर तरह देकर निकल गया और स्टूडियो चला गया। मंटो ने स्टूडियो में मेरा पीछा किया, लेकिन मैं फिर टाल गया।

    उसी शाम कवि विश्वमित्र ‘आदिल’ अपने मित्र और बहनोई श्री मदनमोहन भल्ला के साथ मंटो से मिलने गया। उसने आकर बताया कि मंतों ने उन्हें अपना नया कहानी-संग्रह दिया और मुझे अनगिनत गालियाँ दीं कि अश्क साला अपने आपको क्या समझता है? उसको कहानी कला की अलिफ़-बे का भी ज्ञान नहीं। ‘अदबे-लतीफ़’ में उसने कहानी-कला पर जो लेख लिखा था, वह बकवास है, इत्यादि इत्यादि...

    तीन दिन तक मंटो मुझे गालियाँ देता रहा। मैं ऊपर अपने कमरे में बैठा वह सब सुनता रहा, क्योंकि तमाशा देखने वाले बड़े प्रसन्न थे और मंटो क्या कहता है वे मुझे राई-रत्ती बताना न भूलते थे। लेकिन मैं चुप रहा और दिल-ही-दिल में हँसता भी रहा कि जैसा मैंने सोचा था, वैसा ही हुआ और खेद भी करता रहा कि न चाहते हुए भी मुझे वह सब करना पड़ रहा है।

    मैं मंटो की कहानियाँ पसंद करता था। ‘ख़ुशियाँ’ के बाद मैंने मंटो की कई बहुत अच्छी कहानियाँ पढ़ी थीं। ‘नया कानून’, ‘मंत्र’, ‘शोशो’, ‘डरपोक’, ‘मौसम की शरारत’, ‘हतक’ और ‘मिसेज डी० कास्टा’ मुझे बहुत पसंद आई थीं। लेकिन जब तक मैं दिल्ली में रहा, मैंने कभी मंटो के सामने उसकी कहानियों की तारीफ़ नहीं की। मंटो की नज़र काफ़ी तेज़ थी, इसलिए चापलूसी से यद्यपि उस समय वह ख़ुश होता था, लेकिन चापलूस के लिए उसके मन में कोई सम्मान न रहता था। वह अजीब बात है कि कृष्ण ने मुझे दिल्ली बुलाकर मंटो के सामने ला खड़ा किया, लेकिन जब भी हम में झगड़ा हुआ, उसने हमेशा मंटो की तरफ़दारी की। मंटो उस तरफ़दारी का फ़ायदा उठा लेता था, लेकिन कृष्ण के प्रति उसके मन में कोई इज़्ज़त न थी। वह उसे भी गालियाँ देता था, चूँकि जैसा मैंने पहले कहा, उन दिनों मंटो को हर समय चापलूस लोग घेरे रहते थे, इसलिए मेरी उस सच्ची तारीफ़ को भी वह चापलूसी समझे, यह मेरे अहं को स्वीकार न था। मैं जान-बूझकर मंटो की अच्छी कहानियों की चर्चा छोड़ जाता और उसकी कमज़ोर कहानियों की आलोचना बड़े ज़ोरों से करता। सारांश यह कि काफ़ी चपकलश रहती थी।

    उन दिनों अश्लील चीजें लिखने को प्रगतिशीलता समझा जाता था। अहमद अली, अस्मत और मंटो उस लेखन-शैली के अगुवा थे। कृष्ण खुलकर न खेलता था, लेकिन उसने भी अपनी कहानियों का एक फ़ार्मूला बना रखा था, जिसमें वह रोमान और प्रगतिशील व्यंग्य में थोड़ी-सी अश्लीलता का पुट दे देता था। मेरा कहना था कि औरतों की अस्मत-फ़रोशी और बलात्कार के अलावा भी बीसियों समस्याएँ हैं, जो उतनी ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन न जाने क्यों, उस समय प्रगतिशील लेखकों का रुझान नग्नता को चित्रित करने की ओर अधिक था और उनके मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे युवक-पात्र घटिया श्रेणी की वेश्याओं के चौबारों पर अपनी कुंठा को मिटाते घूमते थे। जब मैं कृष्ण से कहता कि यह प्रगतिशीलता नहीं है तो वह कहता कि चूँकि तुम यह सब लिख नहीं सकते, इसलिए तुम्हें मंटो, अस्मत (इन दोनों के साथ वह अपने को भी शामिल कर लेता) से ईष्यों होती है। एक दिन मंटो ने भी कुछ ऐसी ही बड़ हाँकी तो मैंने तय किया कि मैं भी एक ऐसी ही कहानी लिखूँगा। यह याद नहीं कि किसी ने विषय चुना था या हमने अपने आप लिखा, लेकिन हम दोनों ने एक ही विषय यानी नौकरों के सामने मालिकों की यौन संबंधी बेपरवाही कर कहानियाँ लिखीं। मंटो ने ‘ब्लाउज़’ और मैंने ‘उबाल’। दोनों कहानियाँ ‘साक़ी’ दिल्ली के एक ही अंक में (शायद किसी नव-वर्षाक में) छपी। ‘उबाल’ को मित्रों ने बहुत पसंद किया। कृष्ण ने उस समय तक की मेरी कहानियों में उसे सर्वश्रेष्ठ माना। बाद में उसका अंग्रेज़ी अनुवाद छपा तो यह भी काफ़ी पसंद किया गया। ‘ब्लाउज़’ और ‘उबाल’ उस समय की मेरी और मंटो की कला का प्रतिनिधित्व करती हैं। अश्लीलता दोनों कहानियों में एक जैसी है, मालिकों की यौन संबंधी बेपरवाही का प्रभाव भी दोनों कहानियों के नौकरों पर एक जैसा पड़ता है, लेकिन जहाँ ‘ब्लाउज़’ के अंत की वास्तविकता कोरी वास्तविकता है, वहाँ ‘उबाल’ के नौकर की ट्रैजिडी में सामाजिक ट्रैजिडी भी निहित है और कहानी सामाजिक यथार्थ का नमूना पेश करती है। कहानीकार को यथार्थ का सच्चा ख़ाका खीचने तक ही अपनी लेखनी को सीमित रखना चाहिए या उस यथार्थ की पृष्ठभूमि में समाज का भी जायज़ा लेना चाहिए, यह विवाद लंबा और बे-मज़ा है और वे लेखक जो कला का उद्देश्य मात्र कला समझते हैं अथवा वे जो कला द्वारा जीवन को प्रतिबिंबित देखना चाहते हैं, सदा इस पर बहस करते रहेंगे। बहरहाल, मंटो के साथ चलने वाली नोक-झोंक में मैंने भी वैसी ही एक कहानी लिखी और यद्यपि उसकी बड़ी प्रशंसा हुई, लेकिन फिर मैंने उस तरफ़ का रुख़ नहीं किया। इसलिए नहीं कि वैसी कहानियाँ लिखना मैं कुछ अच्छा नहीं समझता, बल्कि इसलिए कि वे मेरे स्वभाव और प्रकृति से मेल नहीं खातीं।

    बारी साहब7 के बारे में मंटो ने लिखा है कि वे बड़े रणछोड़ किस्म के आदमी थे8 लेकिन मंटो को जैसा मैंने देखा, मेरा ख़याल है कि बारी साहब का कुछ प्रभाव उस पर भी था। यह दूसरी बात है कि अपने चरित्र के इस पहलू से यह स्वयं नितांत अनभिज्ञ हो। जिन परिस्थितियों में अचानक एक दिन मंटो दिल्ली से ग़ायब हो गया, लगभग उन्हीं परिस्थितियों में वह बंबई से पाकिस्तान भाग गया। दिल्ली से उसके पलायन का कारण मैं था और बंबई से नज़ीर अजमेरी और शाहिद लतीफ़। लेकिन असलियत यह है कि मंटो स्वयं उस पलायन का कारण था। क्योंकि लड़ाई में जब तक वह मारता चला जाता था, ख़ुश रहता था और जब दूसरे उसी के हथियारों को उस पर आज़माने लगते थे तो यह मैदान छोड़कर भाग जाता था। बंबई से भागने के बारे में नज़ीर अजमेरी के विरोध की चर्चा करते हुए मंटो ने लिखा है:

    ‘मैंने बहुत ग़ौर किया, कुछ समझ में न आया। आख़िर मैंने अपने आपसे कहा—मंटो भाई—आगल रास्ता नहीं मिलेगा। कार मोटर रोक लो, उधर बाज़ू की गली से चले जाओ! और में बाज़ू की गली से पाकिस्तान चला आया।’9

    10दिल्ली से अचानक मंटो ग़ायब हो गया तो मैं हैरान रह गया था। यद्यपि यह अफ़वाह उड़ी थी कि उसे फ़िल्म-कंपनी में नौकरी मिल गई है, लेकिन दो साल बाद उसने स्वयं मुझे बताया कि वह किसी नौकरी के बिना दिल्ली से चला आया था—बाजू़ की गली से—आगल रास्ता न मिलने पर बिल्कुल वैसे ही, जैसे कुछ वर्ष बाद वह बंबई छोड़ गया।

    मेरे पिताजी ज़िंदगी भर लड़ते रहे। ‘कौड़ी न रख कफ़न के लिए’ के साथ-साथ जो दूसरा नारा वे लगाया करते थे, वह था—‘सर कायम, जंग दायम’—और वे अपने लड़कों को भी यही नेक सलाह दिया करते थे। चूँकि उनका ख़याल था कि उनका कोई-न-कोई लड़का शहर का सबसे बड़ा लड़ाका होगा, इसलिए वे सबको लड़ने के ढंग बताया करते थे। सबसे अधिक ज़ोर वे इस बात पर दिया करते थे कि जो आदमी पिट सकता है, वही पीट भी सकता है। पीटने से पिटना मुश्किल है—पिटो, लेकिन पीटने वाले को न छोड़ो मेरा स्वास्थ्य तो लड़कपन ही से ख़राब था। अपने पिता या छोटे भाइयों की तरह तो मैं क्या लड़ता, लेकिन यह बात ज़रूर मन में बैठ गई और जीवन-संघर्ष में जहाँ-जहाँ रण छिड़ा है, मैंने पिटकर अंत में पीटने वाले को पीट दिया है।

    मंटो से दो बार मेरा सामना हुआ। एक बार दिल्ली में और दूसरी बार बंबई में। दिल्ली में मैंने उसे परास्त कर दिया, लेकिन बंबई में हमारा जोड़ बराबर रहा।

    ‘धुआँ’ के सिलसिले में हममें जो नोंक-झोंक हुई, उसके बाद मेरे और उसके बीच तनाव और भी बढ़ गया। क्योंकि मंटो ज़ोर में था और कृष्ण यद्यपि मुझे कुछ न कहता था, लेकिन हर बार मंटो के लिए ढाल बन जाता था, इसलिए मेरा बार ओछा पड़ता था, लेकिन इस दौरान में मंटो अपने ज़ोम में ‘राशिद’ से भी बिगाड़ कर बैठा। राशिद आज़ाद-नज़्म के बानी समझे जाते थे और मंटो को आज़ाद-नज़्म से चिढ़ थी। उन्हीं दिनों ‘राशिद’ की कविताओं का संग्रह ‘मावरा’ के नाम से प्रकाशित हुआ, जिस पर कृष्णचंद्र ने भूमिका लिखी। मंटो ने दोनों का मज़ाक उड़ाया। उसने ‘नीली रंग’ के नाम से एक नाटक भी लिखी जिसमें राशिद की कविताओं से शब्द लेकर उसका मज़ाक उड़ाया। नाटक आज़ाद नज़्म से शुरू होता है। दो संवाद देखिए:

    सईद(शायर) कृष्ण, तुमने कभी किसी औरत के ठंडे हाथ अपने हाथों में दबाए हैं।

    कृष्ण: ठंडे हाथ...

    सईद: ठहरो, मुझे अपना फ़िकरा दुरुस्त कर लेने दो—बताओ, क्या तुमने किसी अजनबी औरत के ठंडे हाथ अपने हाथों में दबाए हैं।—ऐसे हाथ जो चाँद की तरह खुनक11 हों—किसी अजनबी औरत के हाथ, जो तुम्हारी ज़िंदगी में यों दाख़िल हों, जैसे रात के सुनसान अँधेरे में कोई जुगनू भटकता आ निकले।

    कृष्ण: (मज़ाक के तीर पर)—अपनी दुम से लालटेन बाँधे—नहीं, चाँद की डली चूसता हुआ इधर आ निकले। तुम्हें आज क्या हो गया है सईद? यह ठंडी यख़ औरत तुम्हारी ज़िंदगी में कब दाख़िल हुई?

    कुछ दिन मंटो आज़ाद-शायरी का, राशिद की अनोखी उपमाओं का, अजनबी की सनक का मज़ाक उड़ाता रहा, फिर उसने कोई दूसरा विषय ढूँढ़ लिया और बात आई-गई हो गई।

    लेकिन राशिद उसे नहीं भूले।

    इसके बाद एक दिन मंटो ने कोई नाटक लिखा और राशिद को पढ़ने के लिए दिया। राशिद टाइप की हुई पांडुलिपि अपने कमरे में ले गए और कुछ देर बाद लौटकर उन्होंने पांडुलिपि वापस कर दी।

    ‘कैसा है?’ मंटो ने पूछा।

    ‘निहायत अच्छा टाइप हुआ है!’ राशिद ने उस व्यंग्यमय मुस्कान के साथ कहा जो उनकी अपनी चीज़ थी।

    और मंटो अपने ही शब्दों में ‘कबाब हो गया’। इसके बाद मंटो हफ़्तों राशिद और उनकी नज़्मों को कोसता रहा। अपने किसी दोस्त से उसने राशिद की नज़्मों पर एक लेख भी लिखवाया।

    हिंदी परामर्शदाता की हैसियत से मैं अधिकांश समय राशिद के साथ बिताता था और क्योंकि मंटो और राशिद में चलने लगी थी, राशिद मेरे पड़ोसी भी थे, इसलिए मंटो मुझे अधिक हानि न पहुँचा सकता था। फिर भी मुझे परेशान करने में मंटो ने कोई कसर न उठा रखी।

    फिर संभवत: 1942 के अंत में या 1943 के आरंभ में (ठीक सन मुझे याद नहीं) अचानक एक दिन राशिद तरक्की करके प्रोग्राम डायरेक्टर (आज के प्रोग्राम एग्जिकिटिव) हो गए। प्रोग्राम डायरेक्टर उस ज़माने में रेडियो स्टेशन की धुरी था और उसे बड़े अधिकार प्राप्त थे। राशिद ने चार्ज लेते ही पहला काम यह किया कि कृष्ण की अनुपस्थिति में उसकी बदली लखनऊ करा दी। बात दरअसल यह थी कि राशिद को छोड़कर दिल्ली के रेडियो स्टेशन पर प्रोग्राम असिस्टेंटों में कृष्ण सबसे योग्य था और बाक़ी जितने प्रोग्राम असिस्टेंट थे, वे अपना शेड्यूल बनाने में कृष्ण से सहायता लेते थे और इसी कारण उसका कहना मानते थे। प्रोग्राम डायरेक्टर तक बीसों वातों में कृष्ण से मदद लेते थे, इसलिए उसके काम में दखल न देते थे और कृष्ण बहुत-सी बातें सीधे डायरेक्टर से मनवा लेता था। राशिद के स्वभाव में काफ़ी तानाशाही थी। उन्हें यह पसंद न था कि कृष्ण उनको नज़र-अंदाज़ कर जाए। इसलिए उन्होंने उसको लखनऊ भिजवा दिया। लेकिन कृष्ण की तब्दीली जिन परिस्थितियों में हुई (राशिद ने उसकी अनुपस्थिति में उसके ख़िलाफ़ कुछ आरोप लगाये और क्योकि बुखारी साहब तक राशिद की सीधी पहुँच थी, इसलिए तुरंत बदली करा दी) उससे मुझे रज हुआ और मैंने राशिद से अपना यह आक्रोश प्रकट भी किया। राशिद को आशा थी कि मैं उनका समर्थन करूँगा, लकिन जब मैंने कृष्ण का पक्ष लिया तो इसके बावजूद कि हम बराबर के घरों में रहते थे और मेरी पत्नी तथा वेगम राशिद में बड़े घनिष्ठ संबंध थे, रोज़ का मिलना-बैठना था, राशिद मुझसे नाराज़ हो गए।

    राशिद प्रोग्राम डायरेक्टर हो गये और कृष्ण लखनऊ चला गया तो मंटो ने कुछ ही दिनों में दूसरे प्रोग्राम डायरेक्टर (सुरेंद्र चोपड़ा) को गाँठ लिया। उसके जन्म दिन पर मंटो ने एक बढ़िया सूट उसे भेंट किया और इस प्रकार उसे अपनी तरफ़ मिला लिया। अडवानी साहब क्योंकि मुझसे प्रसन्न थे, इसलिए उन्होंने मुझे नए प्रोग्राम असिस्टेंट के आने तक कृष्ण की जगह सँभालने को कहा। मंटो का ड्रामा शेड्यूल पर था। मैंने प्रोड्यूस भी किया। मुझे अच्छी तरह याद है कि मंटो उसकी रिहर्सलों में स्टूडियों भी आता रहा, हालांकि वह कभी ही अपने ड्रामों में दिलचस्पी लेता था।
    इस बीच में लखनऊ से हिंदी का एक प्रोग्राम-असिस्टेंट कृष्ण की जगह लेने पहुँचा—अत्यंत कुरूप, लंबा तगड़ा, चपटी नाक वाला युवक। आडवानी ने सुबह उसे और मुझे अपने कमरे में बुलाया और उससे कहा कि वह कुछ दिन तक मुझसे काम सीखे। कृष्ण के कमरे में एक मेज़ और दो कुर्सियों के अलावा अधिक जगह न थी। मैं मीटिंग के बाद कृष्ण बाली कुर्सी पर जा बैठा और उस दिन का काम निबटाने लगा। लेकिन मीटिंग के बाद ही मंटो ने उस लखनवी पी० ए० (प्रोग्राम असिस्टेंट) को समझाया कि वह प्रोग्राम असिस्टेंट है और उसे कृष्ण वाली कुर्सी पर बैठना चाहिए। वह अपने आपको समझता भी बहुत कुछ था। काम सीखने की बात भी उसे अच्छी न लगी थी। उसने राशिद से पूछा तो राशिद ने भी उससे यही कहा कि ड्रामा डिपार्टमेंट की सब ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। अश्क तो आर्टिस्ट है, कोई भी गड़बड़ हो, जवाबदेह प्रोग्राम असिस्टेंट ही होगा। मुझे इन सब बातों का पता न था। मैं कृष्ण वाली कुर्सी पर बैठा मज़े में काम कर रहा था कि मंटो उस लखनवी पी० ए० के साथ आया। मेरा ध्यान लिखने में लगा था कि मंटो ने मेरी कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए उससे कहा—‘यह आपकी कुर्सी है।’ साथ ही उस पी० ए० ने मेरे सामने पड़ी कुर्सी की ओर संकेत करते हुए मुझसे कहा—आप इधर आ जाइए!’

    मैंने निगाहें उठाईं। पी० ए० की आँखों में आदेश था और मंटो की आँखों में विजय की चमक। मुझे मामला समझने में देर न लगी। मैंने कहा—मैं ऊपर अपने कमरे में जाता हूँ। आपको मेरी ज़रूरत हो तो वहीं आ जाइएगा।

    और मैं चला गया। मेरी आँखों के आगे मारे क्रोध के अँधेरा छा गया। राशिद से मैंने चर्चा की तो मालूम हुआ कि लखनवी पी० ए० उनसे मिल चुका है। यह भी पता चल गया कि वे चाहते हैं, उनके प्रोग्राम असिस्टेंट स्वयं ग़लतियाँ करके सीखें। वास्तव में उन्हें यह बात पसंद न आयी थी कि अडवानी साहब ने बिना उनसे पूछे मुझे कृष्ण की जगह काम करने को कह दिया। मैं इसका इच्छुक भी न था। क्योंकि एक बार श्री जुगुल ने, जो थे तो असिस्टेंट डायरेक्टर, लेकिन बुखारी साहब के दाएँ हाथ थे, मुझे पी० ए० की जगह ‘ऑफ़र’ की थी तो मैंने इंकार कर दिया था। लेकिन एक बार जब मैं उस कुर्सी पर जा बैठा तो इस तरह उठना और वह भी मंटो के सामने, उसकी शह पर, मुझे खल गया। पहले ख़याल आया कि अडवानी साहब के पास जाऊँ, क्योंकि उन्होंने ही मुझे भेजा था, लेकिन फिर सोचा कि अडवानी कुछ न कर सकेंगे। मंटो की आँखों का विजयोल्लास मेरे दिल में दूर तक घाव करता चला गया। उसी गुस्से में निमिष-भर को विचार आया कि त्यागपत्र दे दूँ, फिर आप ही इस विचार पर हँसी आ गई। झल्लाया हुआ ऊपर अपने कमरे में जा बैठा। मंटो की आँखों की वही चमक फिर सामने आ गई।—भगवान साक्षी है कि यदि मंटो उस लखनवी पी० ए० के साथ न आया होता और उसकी आँखों में वह चमक न होती तो मैं वह सब कुछ न करता जो मैंने किया और जिसके कारण मंटो को दिल्ली छोड़नी पड़ी और जिसका मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा।

    उस समय कमरे में जाकर बैठा तो काम करना मेरे लिए असंभव हो गया। बार-बार अपने अपमान का ख़याल आने लगा। राशिद पर ग़ुस्सा आता, उस लखनवी पी० ए० पर ग़ुस्सा आता, लेकिन सबसे अधिक गुस्सा आता मंटो पर। उसकी आँखों में जो चमक थी, उससे पता चाल गया था कि मेरी हतक करने वाला न वह पी० ए० है, न राशिद —मंटो है और मैंने तय कर लिया कि मंटो को इस षड्यंत्र का मज़ा चखाऊँगा। मेरे क्रोध का एक कारण यह भी था कि जितने दिन मैंने कृष्ण की जगह काम किया, उनमें एक शब्द भी न काटूँ और वह अच्छे-से-अच्छा प्रस्तुत हो। कुछ पहले का ग़ुस्सा और कुछ ताज़े अपमान का घाव, काम-वाम छोड़कर मैं बस कोहनियाँ मेज़ पर टिका, हथेलियों पर ठोढ़ी रखकर बैठ गया।

    जाने पूर्वजो में किसी ने महर्षि चाणक्य के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की थी या हमारे कुल का उनसे कोई संबंध था या बचपन ही से पिताजी से उस महर्षि के कारनामे में सुन-सुनकर मैंने उसी की भाँति सोचना सीख लिया था। कुछ भी हो, हमेशा मुझ पर जब मुसीबत आई, मेरी समझ और सोच की शक्ति और भी तेज़ी से काम करने लगी और अपमान करने वाले को यदि मेरे बराबर का या मुझसे ऊँचा है, मैंने कभी माफ़ नहीं किया, जब तक कि उसने माफ़ी नहीं माँगी (और यह बात कितनी भी बुरी क्यों न हो) उससे बदला ज़रूर लिया और न केवल हर संकट से निकला, बल्कि एक क़दम आगे भी बढ़ा।

    सोचने पर मुझे लगा कि यह लखनवी प्रोग्राम असिस्टेंट वज्र मूर्ख है। यह ठीक है कि मंटो ने उसे भड़काया, लेकिन जो मंटो के कहने में आ गया, उसकी मूर्खता में क्या संदेह हो सकता है। उस समय भी हिंदी में मेरा काफ़ी नाम था। उसने मेरा नाम न सुना हो, ऐसी बात नहीं। वह समझदार होता तो मुझे अलग ले जाकर बात कर लेता और यों आदेशपूर्ण स्वर में मुझसे कुछ न कहता। सोचा कि इस मूर्ख को ही अस्त्र बनाया जाए। और कुछ देर बाद में नीचे गया। वे हज़रत सीना ताने, चपटी नाक चढ़ाए, नथुने फुलाए, लखनऊ के अपने क़िस्से सुना रहे थे कि कैसे चिब साहब (जो उस लखनऊ के स्टेशन डायरेक्टर थे) उन्हें चाहते हैं और कैसे-कैसे उन्होंने वहाँ शानदार कारनामे सर-अंजाम दिए हैं। और मंटो (अपनी आदत के ख़िलाफ़) चुपचाप पाँव कुर्सी पर रखे, घुटने बाँहों में दबाए उनकी गप्पें सुन रहा था। मैं जाकर खड़ा हो गया। कुर्सी तो दूसरी थी नहीं कि बैठता। दोनों ने एक नज़र मुझे देख लिया। कुछ देर के बाद मंटो को चोपड़ा साहब का चपरासी बुलाकर ले गया तो मैंने उन लखनवी हज़रत से कहा—‘मुझे अभी मालूम हुआ है कि आप हिंदी के आदमी हैं। इस स्टेशन पर हिंदी के एक प्रोग्राम असिस्टेंट की बड़ी ज़रूरत है।’ और उसके आने पर ख़ुशी प्रगट करते हुए मैंने उसे शाम को घर पर चाय के लिए आमंत्रित किया।

    मैं उन दिनों तीसहज़ारी में रहता था। वहाँ पास ही छोटी-सी पहाड़ी और मनोरम जंगल है। बरसात की शाम थी। चाय पिलाकर मैं उस लखनवी उजबक को ‘रिज’ (Ridge) पर ले गया। बादल घिरे थे। हल्की फुहार पड़ रही थी, वह लगातार अपनी तारीफ़ करता रहा कि किस तरह उसने ड्रामे लिखे, किस तरह चिब साहब ने कहा कि वैसी स्क्रिप्ट हिंदी में कोई नहीं लिखता और किस तरह उन्होंने उसकी सिफ़ारिश करके उसे प्रोग्राम असिस्टेंट बना दिया। मैंने भी उसे ख़ूब चंग पर चढ़ाया। उसके व्यक्तित्व की प्रशंसा की। उसे समझाया कि अगर शुरू से ही उसने अपना सिक्का जमा दिया तो सब उससे भयभीत रहेंगे, नहीं तो रेडियो आर्टिस्ट अच्छे-से-अच्छे को बुद्ध बनाकर रख देते हैं। मैंने उससे यह भी कहा कि पी० ए० का काम है कि जो ड्रामे ब्रॉडकास्ट हों, उन्हें अच्छी तरह पढ़, वेट (Vett) करे। उसने कहा कि वह एक भी चीज पढ़े और वेट किये बिना ब्रॉडकास्ट न होने देगा। ‘अब जब आप आ गए हैं और हिंदी जानते हैं’, मैंने कहा, ‘तो मैं भविष्य में आपकी सुविधा के लिए हिंदी लिपि में ही नाटक लिखूँगा। बाक़ी नाटक तो उर्दू स्क्रिप्ट ही में आएँगे, वे सब आप मुझसे सुनकर वेट किया कीजिए और यों अच्छी तरह देखकर ब्रॉडकास्ट कीजिए क्योंकि ख़राब नाटक ब्रॉडकास्ट हो तो उत्तरदायित्व आप ही पर होगा और मीटिंग में डाँट आप ही को पड़ेगी।’ इस पर उसने अपनी योग्यता के बारे में मेरे ज्ञान को और बढ़ाया और बड़ा ख़ुश-ख़ुश वापस हुआ।

    तब शेड्यूल तो तीन महीना पहले बन जाता था और वह कृष्ण बनाकर गया था। मैं महीने दूसरे महीने ड्रामा लिखता था और मंटो के दो-तीन ड्रामे हर महीने होते थे। अगला ड्रामा मंटो का ही था। नाम था (जहाँ तक मुझे याद है) ‘आवारा’। कथानक आदि मुझे सब भूल गया है। इतना याद है कि वह ड्रामा भी मंटो के उन दिनों लिखे अधिकांश ड्रामों की भाँति एक दिन में लिखा गया था। दूसरे ही दिन उस लखनवी पी० ए० ने उसकी पांडुलिपि निकाली और मुझे बुलाया। मैं उसे स्टूडियों में ले गया और वहाँ जाकर उसे नाटक सुनाने लगा। उसको नाटक की तकनीक अथवा भाषा आदि की ख़ाक समझ न थी। ड्रामा सुनते-सुनते मैं कहता, ‘क्यों साहब, इस शब्द की जगह यह शब्द हो तो कैसा रहे?’ और वह कहता, ‘हाँ, हाँ, यह ठीक है, मैं ख़ुद यही सुझाने वाला था।’ इसी तरह मैं लाल पेंसिल से शब्द और मुहाविरे बदलता चला गया। दो-चार जगह मैंने गोल निशान लगा दिए। मैंने उन हज़रत से कहा कि राशिद साहब इन शब्दों के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। उनके साथ साल-डेढ़ साल काम करके नै जान गया हूँ। मैं इनको नहीं बदलता। वे स्वयं बदल देंगे। और इस तरह इस सारे संशोधन की ज़िम्मेदारी उनकी हो जाएगी। ड्रामे का अंत मैंने काट दिया और उसकी जगह तीन अंत सुझा दिए।

    जैसा कि मैंने सोचा था वैसा ही हुआ। उस लखनवी पी० ए० ने राशिद पर बड़ा रौब जमाया कि उसने मंटो का ड्रामा पढ़ा है। बड़ा त्रुटिपूर्ण है। उसने बड़ी मेहनत से उसे वेट किया है। राशिद उसका मसौदा देखकर पास करें तो वह ब्रॉडकास्ट हो। राशिद तो पहले ही मंटो से जले बैठे थे। उनको अपना पुराना बदला चुकाने का मौक़ा मिल गया और उन्होंने वे कुछ शब्द भी, जिनको मैंने लाल पेंसिल से गोल घेरे में कर दिया था, बदल डाले।

    जब मंटो को मालूम हुआ कि उसका ड्रामा वेट हुआ है तो उसके सिर पर ख़ून सवार हो गया। वह डायरेक्टर के कमरे में गया और उसने राशिद और उस लखनवी पी० ए० को बे-भाव की सुनाईं और कहा कि ड्रामा होगा तो बिना एक शब्द कटे होगा, नहीं होगा।

    मैं ऊपर अंग्रेज़ी विभाग के फक्कड़ एनाउंसर नौबी क्लार्क की मेज़ के साथ मेज़ लगाए बैठा करता था। अडवानी साहब के कमरे का रोशनदान मेरी आँखों के सामने पड़ता था। नीचे उनके कमरे में मंटो कुछ इतने ज़ोर से चिल्ला रहा था कि मैं उठकर रोशनदान के पास चला गया और भीतर का दृश्य देखने लगा। राशिद कह रहे थे कि उन्होंने ख़ुद ड्रामा पढ़ा है और होगा, नहीं तो नहीं होगा और डेविएशन12 की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं होगी। जब हम बाहर वालों की चीज़ वेट कर सकते हैं तो अपने आर्टिस्टों की क्यों नहीं कर सकते? और मंटो पिंजरे में बंद शेर की तरह तिलमिला रहा था और लगभग दहाड़ते हुए कह रहा था कि ड्रामा होगा तो इसी रूप में होगा, नहीं तो नहीं होगा।

    मुझे मंटो की उस तिलमिलाहट को देखकर कुछ अजीब-सी शैतानी ख़ुशी हुई। मंटो ने मुझे जितनी गालियाँ दी थीं, मेरी उन्नति के मार्ग में जो रुकावटें डाली थीं, उर्दू का टाइपराईटर बेचते हुए जो चालीस रुपए झूठ बोलकर मुझसे ज़्यादा ले लिए थे और ऊपर से मुझे बनाया था—और भी जितना मुझे सताया था, उस सब का बलिदान उन कुछ क्षणों में मुझे मिल गया। ‘सुनार दी ठक-ठक, लोहार दी इक्को सट्ट!’ मैंने मन-ही-मन पंजाबी का मुहाविरा दोहराया और वापस अपने कमरे की ओर पलटा।

    मुझे याद नहीं, अडवानी ने क्या फ़ैसला दिया था। शायद उन्होंने राशिद पर सब कुछ छोड़ दिया था और प्रोग्राम डायरेक्टर के काम में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था। कुछ भी हो, कुछ अजीब से दानवी-उल्लास में विभोर मैं वापस कुर्सी पर आ बैठा और टाँगें मेज़ पर फैलाकर मैंने संतोष की साँस ली। लेकिन उस उल्लास और संतोष के बावजूद कुछ अजीब-सी तकलीफ़ और उदासी का भाव मेरे मन-प्राण पर छा गया—आँखों के सामने मंटो की तिलमिलाहट, उसके सुंदर माथे पर खड़ी हुई लकीरें, उसकी बाहर को निकली पड़ती आँखें—सब-कुछ घूम गया। और इस तिलमिलाहट का कारण मैं था—मैं, जो वास्तव में उसे चाहता था, उसके पास बैठना चाहता था, उसकी कहानियों का उसके तथाकथित प्रेमियों से कहीं अधिक प्रशंसक था— मैं, जिसने दो-एक महीना पहले अपने नाटकों का दूसरा संग्रह ‘चरवाहे’ उसके नाम सर्मापत किया था।

    ‘चरवाहे’ की एक प्रति आज भी मेरे पास पड़ी है। मंटो के नाम किया हुआ समर्पण मेरे सामने है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अश्क 75 द्वितीय भाग (पृष्ठ 74)
    • रचनाकार : उपेन्द्रनाथ अश्क
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1986

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