जोगेंद्र सिंह की कहानियाँ जब लोकप्रिय होना शुरू हुई तो उसके मन में इच्छा जगी कि वह प्रसिद्ध लेखकों और कवियों को अपने घर बुलाए और उनकी दावत करे। उसका ख़याल था कि इस तरह उसकी ख्याति और लोकप्रियता और भी बढ़ जाएगी।
अपने बारे में जोगेंद्र सिंह के बड़े अच्छे विचार थे। प्रसिद्ध लेखकों और कवियों को अपने घर बुलाकर और उनका आदर-सत्कार करने के बाद जब वह अपनी पत्नी अमृतकौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिल्कुल भूल जाता कि उसका काम डाकख़ाने में चिट्ठियों की देख-भाल करना है। अपनी तीन गज़ी पटियाला फ़ैशन की रंगी हुई पगड़ी उतारकर जब वह एक तरफ़ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उसके लंबे-लंबे काले बालों के नीचे जो छोटा सिर छिपा हुआ है, उसमें प्रगतिशील साहित्य कूट-कूटकर भरा है। इस एहसास से उसके दिल और दिमाग़ अहं की एक अजीब-सी भावना से ओत-प्रोत हो जाते और वह समझता कि दुनिया में जितने कहानीकार और उपन्यासकार हैं, सब-के-सब उससे एक बड़े ही मीठे रिश्ते में बँधे हैं।
अमृतकौर की समझ में यह बात न आती थी कि उसका पति लोगों को आमंत्रित करने पर उससे हर बार यह क्यों कहा करता है, अंबो, यह जो आज चाय पर आ रहे हैं, हिंदुस्तान के बड़े शायर हैं, समझीं, बहुत बड़े शायर! देखो उनकी आवभगत में कोई कसर बाक़ी न रहे।
आने वाला कभी हिंदुस्तान का बहुत बड़ा कवि होता था या बहुत बड़ा कहानीकार। इससे कम दर्ज़े के आदमी को वह कभी बुलाता ही न था। और फिर दावत में ऊँचे-ऊँचे सुरों में जो बातें होती थीं, उनका मतलब वह आज तक न समझ सकी थी। उस बात-चीत में प्रगतिशीलता की आम चर्चा होती थी। इस प्रगतिशीलता का मतलब भी अमृतकौर की समझ में न आता।
एक बार जोगेंद्र सिंह ने एक बहुत बड़े कहानीकार को चाय पिलाकर छुट्टी पाई और अंदर रसोई में आकर बैठा तो अमृतकौर ने पूछा, यह मुई प्रगतिशीलता क्या है?
जोगेंद्र ने पगड़ी सहित अपने सिर को एक हल्की-सी जुंबिश दी और कहा, प्रगतिशीलता...इसका मतलब तुम फ़ौरन ही न समझ सकोगी। प्रगतिशील उसको कहते हैं जो प्रगति यानी तरक़्क़ी पसंद करे। यह शब्द संस्कृत का है। अँग्रेज़ी में प्रगतिशील को 'प्रोग्रेसिव' कहते हैं। वे कहानीकार जो कहानियों में तरक़्क़ी चाहते हों, उनको तरक़्क़ी पसंद या प्रगतिशील कहानीकार कहते हैं। इस वक्त हिंदुस्तान में सिर्फ़ तीन-चार प्रगतिशील कहानीकार है, जिनमें मेरा नाम भी शामिल है।
जोगेंद्र सिंह की आदत थी कि वह अँग्रेज़ी शब्दों और वाक्यों के द्वारा अपने विचार प्रकट किया करता था। उसकी यह आदत पककर अब स्वभाव बन गया था। इसलिए वह बेझिझक एक ऐसी अँग्रेज़ी भाषा में सोचता था जो कुछ प्रसिद्ध अँग्रेज़ी उपन्यासकारों के अच्छे-अच्छे चुस्त फ़िक़रों पर आधारित थी। साधारण बात-चीत में वह पचास फ़ीसदी अँग्रेज़ी शब्द और अँग्रेज़ी पुस्तकों से चुने हुए वाक्य इस्तेमाल करता था। अफ़लातून को वह हमेशा प्लेटो कहता था। इसी तरह अरस्तू को एरिसटाटेल। डॉक्टर सिगमंड फ्रायड़, शोपेनहार और नित्शे की चर्चा वह अपने प्रत्येक महत्त्वपूर्ण वार्तालाप में किया करता था। साधारण बात-चीत में वह इन दार्शनिकों का नाम नहीं लेता था और पत्नी से बात करते समय वह इस बात का विशेष ध्यान रखता था कि अँग्रेज़ी शब्द और ये दार्शनिक न आने पाएँ।
जोगेंद्र सिंह से जब उसकी पत्नी ने प्रगतिशीलता का मतलब समझा तो उसे बड़ी निराशा हुई, क्योंकि उसका विचार था कि प्रगतिशीलता कोई बहुत बड़ी चीज़ होगी जिस पर बड़े-बड़े कवि और कहानीकार उसके पति के साथ मिलकर बहस करते रहते हैं। लेकिन जब उसने यह सोचा कि भारत में सिर्फ़ तीन-चार प्रगतिशील कहानीकार हैं तो उसकी आँखों में चमक पैदा हो गई। यह चमक देखकर जोगेंद्र सिंह के मूँछों भरे ओठ एक दबी दबी-सी मुस्कुराहट के कारण कँपकपाए, अंबो, तुम्हें यह सुनकर ख़ुशी होगी कि हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा आदमी मुझसे मिलने की इच्छा रखता है। उसने मेरी कहानियाँ पढ़ी हैं और बहुत पसंद की हैं।
अमृतकौर ने पूछा, यह बड़ा आदमी कोई सचमुच बड़ा आदमी है या आपकी तरह सिर्फ़ कहानियाँ लिखने वाला है।
जोगेंद्र सिंह ने जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाला और उसे अपने दूसरे हाथ की पीठ पर थपथपाते हुए कहा, कहानीकार तो है ही, लेकिन इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी, जो इसकी न मिटने वाली ख्याति का कारण है, और ही है।
क्या ख़ूबी है?
वह एक आवारागर्द है।
आवारागर्द?
हाँ, वह एक आवारागर्द है जिसने आवारागर्दी को अपनी ज़िंदगी का उद्देश्य बना लिया है।...वह सदा घूमता रहता है...कभी काश्मीर की ठंडी घाटियों में होता है और कभी मुलतान के तपते मैदानों में...कभी लंका में तो कभी तिब्बत में...।
अमृतकौर की दिलचस्पी बढ़ गई, मगर वह करता क्या है।
गीत इकट्ठे करता है...हिंदुस्तान के हर हिस्से के गीत—पंजाबी, गुजराती, मराठी, पेशावरी, सरहदी, काश्मीरी, मारवाड़ी...हिंदुस्तान में जितनी ज़बानें बोली जाती हैं, उनके जितने गीत उसको मिलते हैं, इकट्ठे कर लेता है।
इतने गीत इकट्ठे करके क्या करेगा?
किताबें छापता है, लेख लिखता है ताकि दूसरे भी ये गीत पढ़ सकें। कई अँग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं में उसके लेख छप चुके हैं। गीत इकट्ठे करना और सलीक़े के साथ उनको पेश करना कोई मामूली काम नहीं है। वह बहुत बड़ा आदमी है अंबो, बहुत बड़ा आदमी! और देखो, उसने मुझे कैसा ख़त लिखा है।
यह कहकर जोगेंद्र सिंह ने अपनी पत्नी को वह ख़त पढ़कर सुनाया जो हरेंद्रनाथ परमार्थी ने उसको अपने गाँव से डाकख़ाने के पते से भेजा था। उस ख़त में हरेंद्र परमार्थी1 ने बड़ी मीठी भाषा में जोगेंद्र सिंह की कहानियों की प्रशंसा की थी और लिखा था कि आप भारत के प्रगतिशील कहानीकार हैं। यह वाक्य जोगेंद्र सिंह ने पढ़कर कहा, लो देखो, परमार्थी साहब भी लिखते हैं कि मैं प्रगतिशील हूँ।
जोगेंद्र सिंह ने पूरा ख़त सुनाने के बाद एक-दो निमिष अपनी पत्नी की ओर देखा और इसका असर मालूम करने के लिए पूछा, क्यों?
अमृतकौर अपने पति की तीक्ष्ण दृष्टि के कारण कुछ झेंप गई और मुस्कुराकर कहने लगी, मुझे क्या मालूम। बड़े आदमियों की बातें बड़े ही समझ सकते हैं।
जोगेंद्र सिंह ने अपनी पत्नी की इस अदा पर ग़ौर नहीं किया। वह दरअसल हरेंद्र परमार्थी को अपने घर बुलाने और उसे कुछ दिन ठहराने के बारे में सोच रहा था, अंबो, मैं कहता हूँ परमार्थी साहब को दावत दे दी जाए। क्या ख़याल है तुम्हारा....लेकिन मैं सोचता यह हूँ कि क्या पता वे इंकार कर दें! बहुत बड़ा आदमी है। हो सकता है वह हमारी इस दावत को ख़ुशामद समझे।
ऐसे मौक़ों पर वह पत्नी को अपने साथ शामिल कर लिया करता था ताकि दावत का बोझ दो आदमियों में बँट जाए। इसलिए जब उसने 'हमारी' कहा तो अमृतकौर ने, जो अपने पति जोगेंद्र सिंह की तरह बेहद भोली थी, हरेंद्र परमार्थी में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी। हालाँकि उसका नाम ही उसके लिए न समझ में आने वाला था और यह बात भी उसकी समझ से बाहर थी कि एक आवारागर्द गीत जमा करके कैसे बहुत बड़ा आदमी बन सकता है। जब उससे यह कहा गया था कि परमार्थी गीत इकट्ठे करता है तो उसे अपने पति की एक बात याद आ गई थी कि विलायत में लोग तितलियाँ पकड़ने का काम करते हैं और इस तरह काफ़ी रुपया कमाते हैं। इसलिए उसका यह ख़याल था कि शायद परमार्थी ने गीत जमा करने का काम विलायत के किसी आदमी से सीखा होगा।
जोगेंद्र सिंह ने फिर अपनी आशंका प्रकट की, हो सकता है वह हमारी इस दावत को ख़ुशामद समझे।
इसमें ख़ुशामद की क्या बात है। और भी तो कई बड़े आदमी आपके पास आते हैं। आप उनको ख़त लिख दीजिए। मेरा ख़याल है वह आपकी दावत ज़रूर क़बूल कर लेंगे। और फिर उनको भी तो आपसे मिलने का बहुत शौक़ है। हाँ, यह तो बताइए क्या उनके बीवी-बच्चे हैं?
बीवी-बच्चे? जोगेंद्र सिंह उठा। ख़त का मजमून अँग्रेज़ी भाषा में सोचते हुए उसने कहा, होंगे, जरूर होंगे। हाँ हैं। मैंने उनके एक लेख में पढ़ा था, उनकी बीवी भी है और एक बच्ची भी है।
यह कहकर जोगेंद्र सिंह उठा। ख़त का मज़मून उसके दिमाग़ में पूरा हो चुका था। दूसरे कमरे में जाकर उसने छोटे साइज़ का पैड निकाला, जिस पर वह ख़ास-ख़ास आदमियों को ख़त लिखा करता था, और हरेंद्र परमार्थी के नाम उर्दू में दावत नामा लिखा। यह उस मजमून का अनुवाद था जो उसने अपनी पत्नी से बात करते समय अँग्रेज़ी में सोचा था।
तीसरे दिन परमार्थी का उत्तर आ गया। जोगेंद्र सिंह ने धड़कते हुए दिल से लिफ़ाफ़ा खोला। जब उसने पढ़ा कि उसकी दावत मंज़ूर कर ली गई है तब उसका दिल और भी धड़कने लगा। उसकी पत्नी अमृतकौर धूप में अपने छोटे बच्चे के केसों में दही डालकर मल रही थी कि जोगेंद्र सिह लिफ़ाफ़ा हाथ में लेकर उसके पास पहुँचा।
उन्होंने हमारी दावत क़बूल कर ली है। कहते है कि वे लाहौर में वैसे भी एक ज़रूरी काम से आ रहे थे। अपनी नई किताब छपवाना चाहते हैं...और हाँ, उन्होंने तुमको प्रणाम लिखा है।
अमृतकौर को इस ख़याल से बड़ी ख़ुशी हुई कि इतने बड़े आदमी ने, जिसका काम गीत इकट्ठे करना है, उसको प्रणाम कहा है। उसने मन-ही-मन वाहे गुरू को धन्यवाद दिया कि विवाह ऐसे आदमी से हुआ जिसको भारत का हर बड़ा आदमी जानता है।
सर्दियों का मौसम था। नवंबर के शुरू के दिन थे। जोगेंद्र सिंह सुबह सात बजे जाग गया और देर तक बिस्तर में आँखें खोले पड़ा रहा। उसकी पत्नी अमृतकौर और उसका बच्चा दोनों लिहाफ़ में लिपटे हुए पास वाली चारपाई पर पड़े थे। जोगेंद्र सिह ने सोचना शुरू किया— परमार्थी से मिलकर उसे कितनी ख़ुशी होगी। और ख़ुद परमार्थी को भी उससे मिलकर निश्चय ही बड़ी ख़ुशी होगी क्योंकि वह भारत का युवा कहानीकार और प्रगतिशील लेखक है। परमार्थी से वह हर विषय पर बात करेगा। गीतों पर, देहाती बोलियों पर, कहानियों पर और युद्ध की नई स्थिति पर। वह उनको बताएगा कि दफ़्तर का एक मेहनती क्लर्क होने पर भी वह कैसे अच्छा कहानीकार बन गया। क्या यह अजीब-सी बात नहीं कि डाकख़ाने में चिट्ठियों की देख-भाल करने वाला आदमी स्वभावतः कलाकार हो।
जोगेंद्र सिंह को इस बात पर बड़ा नाज़ था कि डाकख़ाने में छः-सात घंटे मज़दूरों की तरह काम करने के बाद भी वह इतना समय निकाल लेता है कि एक मासिक पत्रिका का संपादन करता है और दो-तीन पत्रिकाओं के लिए हर महीने एक कहानी भी लिखता है। मित्रों को हर महीने जो लंबे चौड़े पत्र लिखे जाते थे, वे अलग।
देर तक वह बिस्तर पर लेटा कल्पना-ही-कल्पना में हरेंद्र परमार्थी से अपनी पहली भेंट की तैयारियाँ करता रहा। जोगेंद्र सिंह ने उसकी कहानियाँ और लेख पढ़े थे और उसका फोटो भी देखा था। और किसी की कहानियाँ पढ़कर और फोटो देखकर वह आमतौर पर यही महसूस किया करता था कि उसने उस आदमी को अच्छी तरह जान लिया है। लेकिन हरेंद्र परमार्थी के मामले में उसको अपने ऊपर विश्वास न होता था। कभी उसका दिल कहता कि परमार्थी उसके लिए बिल्कुल अजनबी है। उसके कहानीकार दिमाग़ में कभी-कभी परमार्थी एक ऐसे आदमी के रूप में सामने आता था जिसने कपड़ों के बदले अपने शरीर पर काग़ज़ लपेट रखे हों और जब वह काग़ज़ों के बारे में सोचता था तो उसे अनारकली की वह दीवार याद आ जाती थी जिस पर सिनेमा के पोस्टर ऊपर-तले इतनी संख्या में चिपके हुए थे कि एक और दीवार बन गई थी।
जोगेंद्र सिंह बिस्तर पर लेटा देर तक सोचता रहा कि यदि वह ऐसा ही आदमी निकला तो उसको समझना कठिन हो जाएगा। लेकिन बाद में जब उसको दूसरों को तत्काल समझ लेने की अपनी प्रतिभा का ख़याल आया तो उसकी मुश्किलें आसान हो गईं और वह उठकर परमार्थी के स्वागत की तैयारियों में लग गया।
पत्र-व्यवहार से यह तय हो गया था कि परमार्थी स्वयं जोगेंद्र सिंह के मकान पर चला आएगा, क्योंकि परमार्थी यह निश्चय न कर सका था कि वह लारी से सफ़र करेगा या रेल से। फिर भी यह बात तो निश्चित रूप से तय हो गई थी कि जोगेंद्र सिंह सोमवार को डाकख़ाने से छुट्टी लेकर सारे दिन अपने मेहमान का इंतज़ार करेगा।
नहा-धोकर और कपड़े बदलकर जोगेंद्र सिंह देर तक रसोई में अपनी पत्नी के पास बैठा रहा। दोनों ने चाय देर से पी, इस ख़याल से कि शायद परमार्थी आ जाए। लेकिन जब वह न आया तो उन्होंने केक आदि संभालकर अलमारी में रख दिए और स्वयं ख़ाली चाय पीकर मेहमान के इंतिज़ार में बैठ गए।
जोगेंद्र सिंह रसोई से उठकर अपने कमरे में चला गया। आईने के सामने खड़े होकर जब उसने अपनी दाढ़ी के बालों में लोहे के छोटे-छोटे क्लिप अटकाने शुरू किए कि वे नीचे की ओर तह हो जाए तो बाहर दरवाज़े पर दस्तक हुई। दाढ़ी को वैसे ही अपूर्ण अवस्था में छोड़कर उसने ड्योढ़ी का दरवाज़ा खोला। जैसा कि उसको मालूम था, सब से पहले उसकी नज़र परमार्थी की काली घनी दाढ़ी पर पड़ी जो उसकी अपनी दाढ़ी से बीस गुना बड़ी थी, बल्कि उससे भी कुछ ज़्यादा।
परमार्थी के ओठों पर जो बड़ी-बड़ी मूँछों के अंदर छिपे हुए थे, मुस्कुराहट पैदा हुई। उसकी एक आँख, जो ज़रा टेढ़ी थी, ज़्यादा टेढ़ी हो गई थी और बालों की लटों को एक तरफ़ झुकाकर उसने अपना हाथ, जो किसी किसान का हाथ मालूम होता था, जोगेंद्र सिंह की ओर बढ़ा दिया।
जोगेंद्र सिंह ने जब उसके हाथ की मज़बूत गिरफ़्त महसूस की और उसको परमार्थी का वह चमड़े का थैला नज़र आया जो किसी गर्भवती स्त्री के पेट की तरह फूला हुआ था तो वह बड़ा प्रभावित हुआ और सिर्फ़ इतना कह सका, परमार्थी जी आपसे मिलकर मुझे बेहद ख़ुशी है।
परमार्थी को आए अब पंद्रह दिन हो चुके थे। उसके आने के दूसरे दिन ही उसकी पत्नी और बच्ची भी आ गई थीं। ये दोनों परमार्थी के साथ ही गाँव से आयी थीं, पर दो दिन के लिए मज़ंग में दूर के एक रिश्तेदार के यहाँ ठहर गई थीं और क्योंकि परमार्थी ने उस रिश्तेदार के पास उनका अधिक देर तक ठहरना ठीक नहीं समझा था, इसलिए उसने उन्हें अपने पास बुलवा लिया था। परमार्थी अपने साथ सिवा उस फूले हुए बैग के कुछ न लाया था। सर्दियों के दिन थे, इसलिए दोनों कहानीकार एक ही बिस्तर में सोए। जोगेंद्र सिंह का ख़याल था कि परमार्थी की बीवी बिस्तर ले आएगी, पर जब वह केवल एक कंबल लाई, जो उन माँ-बेटी के लिए भी नाकाफ़ी था, तो जोगेंद्र सिंह ने पूर्ववत् परमार्थी के साथ एक ही लिहाफ़ में सोते रहने का निश्चय कर लिया और अपने इस फ़ैसले पर गर्व भी महसूस किया।
पहले चार दिन बड़ी दिलचस्प बातों में बीते। परमार्थी से अपनी कहानियों की तारीफ़ सुनकर जोगेंद्र बहुत ख़ुश होता रहा। उसने अपनी एक कहानी, जो अप्रकाशित थी, परमार्थी को सुनाई, जिसकी परमार्थी ने बड़ी प्रशंसा की। दो अपूर्ण कहानियाँ भी सुनाईं जिनके बारे में परमार्थी ने अच्छी राय ज़ाहिर की। प्रगतिशील साहित्य पर वाद-विवाद भी होते रहे। विभिन्न कहानीकारों की कला के दोष निकाले गए। नई और पुरानी शायरी का मुक़ाबिला किया गया। सारांश यह कि ये चार दिन बड़ी अच्छी तरह कटे और जोगेंद्र सिंह हरेंद्र परमार्थी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ। उसकी बात-चीत का ढंग, जिसमें एक ही समय में बचपना और बुढ़ापा था, जोगेंद्र को बहुत पसंद आया। उसकी लंबी दाढ़ी, जो उसकी अपनी दाढ़ी से बीस गुना बड़ी थी, उसके विचारों पर छा गयी और उसके बालों की लंबी-लंबी लटें, जिनमें देहाती गीतों का प्रवाह था, हर समय उसकी आँखों के सामने रहने लगीं। डाकख़ाने में चिट्ठियों की देख-भाल करने के दौरान में भी परमार्थी के सिर की वे काली-काली लंबी लटें उसे न भूलतीं।
चार दिन में परमार्थी ने जोगेंद्र सिंह को मोह लिया। वह उसका भक्त हो गया। उसकी टेढ़ी आँख में भी उसको ख़ूबसूरती नज़र आने लगी, बल्कि एक बार तो उसने सोचा, अगर उसकी आँख में टेढ़ापन न होता तो उसके चेहरे पर यह महात्मापन कभी न पैदा होता।
परमार्थी के मोटे-मोटे ओठ अब उसकी घनी-मूँछों के पीछे हिलते तो जोगेंद्र ऐसा अनुभव करता कि झाड़ियों में पक्षी चहक रहे हैं। परमार्थी हौले-हौले बोलता था और बोलते-बोलते जब वह अपनी लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरता तो जोगेंद्र के दिल को बड़ा सुख मिलता। वह समझता था कि उसके अपने दिल पर प्यार से हाथ फेरा जा रहा है।
चार दिन तक जोगेंद्र ऐसी फ़िजा में रहा, जिसको अगर वह अपनी किसी कहानी में भी बयान करना चाहता तो न कर सकता। लेकिन पाँचवें दिन एकाएकी परमार्थी ने अपना चमड़े का थैला खोला और उसको अपनी कहानियाँ सुनानी शुरू की और दस दिन तक लगातार वह उसको अपनी कहानियाँ सुनाता रहा। इस बीच में परमार्थी ने जोगेंद्र को कई किताबें सुना दीं।
जोगेंद्र सिंह तंग आ गया। अब उसको कहानियों से नफ़रत पैदा हो गई। परमार्थी का चमड़े का थैला, जिसका पेट बनिए की तोंद की तरह फूला हुआ था, उसके लिए एक स्थायी यंत्रणा की वस्तु बन गया। रोज़ शाम को दफ़्तर से लौटते हुए उसे इस बात का खटका रहने लगा कि कमरे में दाख़िल होते ही उसकी परमार्थी से भेंट होगी, इधर-उधर की कुछ सरसरी बातें होंगी, वह चमड़े का थैला खुलेगा और उसको एक या दो लंबी कहानियाँ सुना दी जाएँगी।
जोगेंद्र सिंह प्रगतिशील था। यह प्रगतिशीलता अगर उसके अंदर न होती तो वह साफ़ शब्दों में परमार्थी से कह देता—बस परमार्थी जी बस। मुझमें अब आपकी कहानियाँ सुनने की शक्ति नहीं रही। पर वह सोचता—नहीं नहीं, मैं प्रगतिशील हूँ। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। दरअसल यह मेरी कमज़ोरी है कि अब उनकी कहानियाँ मुझे अच्छी नहीं लगतीं। उनमें ज़रूर कोई-न-कोई गुण होगा इसलिए कि उनकी पहली कहानियाँ मुझे ख़ूबियों से भरी दिखती थीं।...मैं...मैं...पक्षपात करने लगा हूँ।
एक हफ़्ते से अधिक समय तक जोगेंद्र सिंह के प्रगतिशील दिमाग़ में यह कशमकश चलती रही और वह सोच-सोच कर हद तक पहुँच गया जहाँ सोच-विचार हो ही नहीं सकता। तरह-तरह के ख़याल उसके दिमाग़ में आते, पर वह ठीक तौर से उनकी जाँच-पड़ताल न कर सकता। उसकी मानसिक अफ़रा-तफ़री धीरे-धीरे बढ़ती गई और वह ऐसा महसूस करने लगा कि एक बहुत बड़ा घर है, जिसमें अनगिनत खिड़कियाँ हैं। उस मकान के अंदर वह अकेला है। आँधी आ गयी है, कभी इस खिड़की के पट बजते हैं, कभी उस खिड़की के और उसकी समझ में नहीं आता, वह इतनी खिड़कियों को एकदम कैसे बंद करे।
जब परमार्थी को उसके घर आए बीस दिन हो गए तो उसे बेचैनी महसूस होने लगी। परमार्थी अब शाम को नई कहानी लिखकर जब उसे सुनाता तो जोगेंद्र को ऐसा लगता कि बहुत-सी मक्खियाँ उसके कानों के पास भनभना रही हैं। वह किसी और ही सोच में डूबा होता।
एक दिन परमार्थी ने जब उसको अपनी ताज़ा कहानी सुनाई, जिसमें किसी स्त्री और पुरुष के यौन संबंधों की चर्चा थी तो यह सोचकर उसके दिल को धक्का-सा लगा कि पूरे इक्कीस दिन अपनी पत्नी के पास सोने के बदले वह एक लमदढ़ियल के साथ एक ही लिहाफ़ में सोता रहा है। इस ख़याल ने जोगेंद्र के दिल और दिमाग़ में क्षण भर के लिए हलचल-सी पैदा कर दी। 'यह कैसा मेहमान है जो जोंक की तरह चिमटकर रह गया है, यहाँ से हिलने का नाम ही नहीं लेता और और मैं उनकी श्रीमती जी को तो भूल ही गया था। और उनकी बच्ची...सारा घर उठकर चला आया है। ज़रा सा भी ख़याल नहीं कि एक ग़रीब आदमी का कचूमर निकल जाएगा...मैं डाकख़ाने में नौकर हूँ, सिर्फ़ पचास रुपए महीना कमाता हूँ। आख़िर कब तक उनकी आवभगत करता रहूँगा। और फिर कहानियाँ, उसकी कहानियाँ जो कि ख़त्म होने में ही नहीं आतीं। मैं इंसान हूँ कोई लोहे का ट्रंक नहीं, जो हर रोज़ उसकी कहानियाँ सुनता रहूँ...और कैसा गज़ब कि इतने दिनों में अपनी पत्नी के पास तक नहीं गया... सर्दियों की यह रातें बेकार हो रही हैं।'
इक्कीस दिनों के बाद जोगेंद्र सिंह परमार्थी को एक नई रोशनी में देखने लगा। अब उसको परमार्थी की हर चीज़ में ऐब नज़र आने लगा। उसकी टेढ़ी आँख, जिसमें जोगेंद्र पहले सुंदरता देखता था, अब सिर्फ़ एक टेढ़ी आँख थी। उसकी काली लटों में भी अब जोगेंद्र को वह कोमलता नहीं दिखती थी, और उसकी दाढ़ी देखकर अब वह सोचता था कि इतनी लंबी दाढ़ी रखना बहुत बड़ी मूर्खता है।
जब परमार्थी को उसके यहाँ आए पच्चीस दिन हो गए तो उसकी मनोदशा विचित्र-सी हो गई। वह अपने आप को अजनबी समझने लगा। उसे ऐसा महसूस होने लगा कि जैसे वह कभी जोगेंद्र सिंह को जानता था, पर अब नहीं जानता। अपनी पत्नी के बारे में वह सोचता—जब परमार्थी चला जाएगा और सब ठीक हो जाएगा तो मेरी नए सिरे से शादी होगी...मेरी वह पुरानी ज़िंदगी, जिसको टाट की तरह ये लोग इस्तेमाल कर रहे हैं, लौट आएगी...मैं फिर अपनी पत्नी के साथ सो सकूँगा...और...
इसके आगे जब जोगेंद्र सिंह सोचता तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते और उसके गले में कोई कड़वी-सी चीज़ फँस जाती। उसका जी चाहता कि दौड़ा-दौड़ा अंदर जाए और अमृतकौर को, जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी, अपने गले से लगा ले और रोना शुरू कर दे। पर ऐसा करने की उसमें हिम्मत नहीं थी, क्योंकि वह प्रगतिशील कथाकार था।
कभी-कभी जोगेंद्र सिंह के दिल में यह ख़याल दूध के उबाल की तरह उठता कि प्रगतिशीलता की जो रज़ाई उसने ओढ़ रखी है, उतार फेंके और चिल्लाना शुरू करदे—परमार्थी, प्रगतिशीलता की ऐसी की तैसी। तुम और तुम्हारे इकट्ठे किए हुए गीत बकवास हैं। मुझे अपनी बीवी चाहिए...तुम्हारी सारी इच्छाएँ तो गीतों में जज़्ब हो चुकी हैं, मगर में अभी नौजवान हूँ...मेरी हालत पर रहम करो।...ज़रा सोचो तो, मैं जो एक मिनट अपनी बीवी के बिना नहीं रह सकता था, पचीस दिनों से तुम्हारे साथ एक ही रज़ाई में सो रहा हूँ...क्या यह ज़ुल्म नहीं?
जोगेंद्र सिंह बस खौल के रह जाता। परमार्थी उसकी दशा से बेख़बर हर रोज शाम को एक नई कहानी उसे सुना देता और उसके साथ रजाई में सो जाता। जब एक महीना बीत गया तो जोगेंद्र सिंह के धैर्य का बाँध टूट गया। मौक़ा पाकर बाथरूम में वह अपनी पत्नी से मिला—धड़कते हुए दिल के साथ, इस डर के मारे कि परमार्थी की पत्नी न आ जाए, उसने जल्दी से उसका यों चुंबन लिया जैसे डाकख़ाने में चिट्ठियों पर मोहर लगाई जाती है और कहा—आज रात तुम जागती रहना। मैं परमार्थी से यह कहकर बाहर जा रहा हूँ कि रात के ढाई बजे वापस आऊँगा। लेकिन में जल्दी आ जाऊँगा, बारह बजे पूरे बारह बजे। मैं हौले-हौले दस्तक दूँगा। तुम चुपके से दरवाज़ा खोल देना और फिर हम...ड्योढ़ी बिल्कुल अलग-अलग है। लेकिन तुम सावधानी के तौर पर वह दरवाज़ा, जो बाथरूम की तरफ़ खुलता है, बंद कर देना।
पत्नी को अच्छी तरह समझाकर वह परमार्थी से मिला और उससे विदा होकर चला गया। बारह बजने में चार सर्द घंटे बाक़ी थे, जिनमें से दो जोगेंद्र सिंह ने अपनी साइकिल पर इधर-उधर घूमने में काटे। उसको सर्दी के तीखेपन का बिल्कुल एहसास न हुआ इसलिए कि पत्नी से मिलने का ख़याल काफ़ी गर्म था।
दो घंटे साइकिल पर घूमने के बाद वह अपने मकान के पास मैदान में बैठ गया और महसूस करने लगा कि वह रूमानी हो गया है। जब उसने सर्द रात की धुंधियाली ख़ामोशी का ख़याल किया तो उसे यह एक जानी-पहचानी चीज़ मालूम हुई। ऊपर ठिठुरे हुए आकाश पर तारे चमक रहे थे, जैसे पानी की मोटी-मोटी बूंदें जमकर मोती बन गई हों। कभी-कभी रेलवे इंजन की चीख़ ख़ामोशी को छेड़ देती और जोगेंद्र सिंह का कहानीकार दिमाग़ यह सोचता कि ख़ामोशी बर्फ़ का बहुत बड़ा ढेला है और सीटी की आवाज़ कील है जो उसकी छाती में धँस गई है।
बहुत देर तक जोगेंद्र एक नए क़िस्म के रूमान को अपने दिल और दिमाग़ में फैलाता रहा और रात की अँधियाली सुंदरताओं को गिनता रहा। सहसा इन विचारों से चौंककर उसने घड़ी में समय देखा तो बारह बजने में दो मिनट बाक़ी थे। उठकर उसने घर का रुख किया और दरवाज़े पर हौले से दस्तक दी। पाँच सेकेंड बीत गए। दरवाज़ा नहीं खुला।
एक बार फिर उसने दस्तक दी।
दरवाज़ा खुला। जोगेंद्र सिंह ने हौले से कहा—अम्बो...! और जब नज़रें उठाकर उसने देखा तो अमृतकौर की जगह परमार्थी खड़ा था। अँधेरे में जोगेंद्र सिंह को ऐसा मालूम हुआ कि परमार्थी की दाढ़ी इतनी लंबी हो गई है कि ज़मीन को छू रही है। उसको फिर परमार्थी की आवाज़ सुनाई दी—तुम जल्दी आ गए... चलो यह भी अच्छा हुआ...! मैंने अभी-अभी एक कहानी ख़त्म की है... आओ सुनो।
- पुस्तक : मंटो: मेरा दुश्मन (पृष्ठ 231)
- संपादक : उपेन्द्रनाथ अश्क
- रचनाकार : मंटो
- प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
- संस्करण : 1956
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.