एक खिलाड़ी की कुछ यादें
ek khilaDi ki kuch yaden
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
60 साल की बात करने से पहले मैं कुछ साल और पीछे जाना चाहता हूँ। लाहौर को याद करना चाहता हूँ, जब मैं बैडमिंटन चैंपियन था। स्कूल ग्राउंड में एक दिन ध्यानचंद को हॉकी खेलते देखा। उसके बाद मैं हॉकी का ही हो गया। यह बताता है कि बड़े खिलाड़ी को देखना आप पर कितना असर डालता है।
1948 ओलंपिक से पहले हालात बहुत ख़राब थे। हमें भी लाहौर से भागना पड़ा था। किसी तरह बंबई (मुंबई) में कैंप लगा। सब कुछ बिखरा हुआ था। हमारी टीम में कोई घर ऐसा नहीं था जहाँ कोई ट्रैजडी न हुई हो। दिमाग़ खेल से ज़्यादा भारत-पाकिस्तान के अलगाव और ट्रैजडी पर था।
हम लंदन पहुँचे। वहाँ भी विश्व युद्ध के बाद के हालात थे। शहर सँभल नहीं पाया था। बिल्डिंग में गोलियों के निशान दिखाई देते थे। ओलंपिक ड्रॉ निकला। भारत और पाकिस्तान अलग-अलग हॉफ़ में थे। सबको यही लग रहा था कि इन्हीं दोनों मुल्कों का फ़ाइनल होगा। सेमीफ़ाइनल में एक दिन हमें हॉलैंड और पाकिस्तान को इंग्लैंड से खेलना था। वेंबली स्टेडियम था जहाँ आमतौर पर फ़ुटबॉल होता था। बारिश के बीच हम बड़ी मुश्किल से हॉलैंड को 2-1 से हरा पाए। इंग्लैंड ने
पाकिस्तान को हरा दिया। अब इंग्लैंड से फ़ाइनल था। क्वीन मौजूद थीं। हमने इंग्लैंड को 4-0 से हराया। हमारी टीम में कोई ऐसा नहीं था जिसकी आँख में आँसू न हों। उसी मुल्क में आकर हम जीते थे, जिसने हम पर राज किया। उसी के घर में हराया था। पहली बार विश्व स्तर पर कहीं जन-गण-मन बजा। हमें गर्व है कि यह इंग्लैंड में हुआ। इससे बड़ा लम्हा नहीं हो सकता। सारे दु:ख-दर्द भूल गए थे। आज़ाद भारत ने पहली बार दुनिया को दिखाया था कि वह क्या कर सकता है।
मुझे अफ़सोस है कि उसके बाद हॉकी का स्तर गिरा है। गिरावट सिर्फ़ हॉकी में ही नहीं, कई खेलों में है। कुल मिलाकर टीम गेम की हालत ख़राब हुई है। व्यक्तिगत खेलों में ज़रूर सफलताएँ मिली हैं। विश्वनाथन आनंद हैं, सानिया मिर्ज़ा हैं। लेकिन उन्हें ऊपर लाने में कोई सिस्टम काम नहीं आया। यह उनकी अपनी मेहनत और परिवार के सपोर्ट का नतीजा है। मैं यही कहना चाहता हूँ कि सिस्टम गड़बड़ है। इसे ठीक करना पड़ेगा। बेसिक सुविधाएँ देनी ही पड़ेगी। जैसे, आपको हॉकी खेलने के लिए सिंथेटिक टर्फ ज़रूर चाहिए। लेकिन हमारे मुल्क में कितने हैं।
अँग्रेज़ों के समय में एक बात अच्छी थी कि हर स्कूल में खेल बहुत ज़रूरी था। तब खेलना उतना ही ज़रूरी था, जितना पढ़ना। लेकिन यह बदला। खेल ख़ास जगह नहीं पा सका। कुछ बदलाव है। लेकिन इतना काफ़ी नहीं है। हर स्कूल में मैदान ज़रूरी है। आबादी के साथ खेल की जगह ख़त्म होती जा रही है। हमारे समय में कोचिंग ज़रूर आज जैसी नहीं थी। सीनियर खिलाड़ी एक तरह से कोच होते थे। लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा कोचिंग और तकनीक के इस्तेमाल का क्या वाक़ई हमें फ़ायदा हुआ है? मेरा
मतलब यह है कि खिलाड़ियों में जज़्बा ज़रूरी है। शूटिंग में भारत ने तरक़्क़ी की है। क्रिकेट में कुछ सफलताएँ मिली हैं। लेकिन 60 साल में हम हॉकी सहित उन खेलों में पिछड़े हैं जिनमें सबसे आगे थे। जिनमें आगे आए हैं, वहाँ सबसे आगे नहीं हैं।
(देश के बेहतरीन हॉकी खिलाड़ियों में एक श्री केशवदत्त 1948 और 1952 की स्वर्ण विजेता ओलंपिक टीम का हिस्सा थे। इस समय वह कोलकाता में रहते हैं।)
- पुस्तक : दुर्वा (भाग-3) (पृष्ठ 60)
- रचनाकार : केशवदत्त
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 2008
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