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सर्वाधिक सम्मान केवल सम्राटों को? लंदन 1

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रामेश्वर टांटिया

रामेश्वर टांटिया

सर्वाधिक सम्मान केवल सम्राटों को? लंदन 1

रामेश्वर टांटिया

और अधिकरामेश्वर टांटिया

    संसार के सभी बड़े शहरों की अपनी-अपनी विशेषता होती है। कोई ऐतिहासिक है तो कोई आधुनिक। किसी का धार्मिक महत्त्व है तो कही चहल-पहल और चुहल है। लंदन में इन सभी बातों का समावेश है। मुझे ऐसा लगा, मानो इस का अपना एक निजी सौष्ठव है जो मास्को में देखने में आया पेरिस में। सेंट पाल्स केयेड्रल कल देख चुका था। आज ब्रिटेन का दूसरा बड़ा गिरजा और मठ वेस्टमिंस्टर एबे देखने गया। हज़ारो वर्ष पहले मठ या विहार के रूप में यह बना था। बाद में इसमें परिवर्तन होते गए। फिर भी लंदन की सब से पुरानी इमारतो में यह है।

    ईसाइयों में अपने एबे के प्रति बड़ी श्रद्धा रहती है। दरअसल, हमारे यहाँ के मठ या बौद्ध विहारो की ही तरह यह भी साधुओं का आवास है। अंतर केवल इतना है कि हमारे मठ या विहार ईसाइयों के एबे की तरह भव्य नहीं होते। एबे के बड़े-बड़े ऊँचे कक्ष और यहाँ के ईसाई संन्यासियों या साधुओं के पहनावे और चाल में हमें सहज और सरल भाव नहीं लगा जिस का होना वैरागियों या त्यागियों के लिए अपेक्षित है। फिर भी लगन, निष्ठा और कठोर अनुशासनप्रियता के कारण इन की मान्यता इस वैज्ञानिक युग के जनसमाज में भी है।

    वेस्टमिंस्टर एबे का प्रभुत्त्व इंग्लैंड के इतिहास और उस की राजनीति पर मध्य युग तक रहा है। शासकों को सदैव यहाँ के प्रधान धर्मयाजक की स्वीकृति लेकर शासन अथवा संविधान में परिवर्तन करना पड़ता था। उन के व्यक्तिगत जीवन और वैवाहिक संबंधों पर भी यदि एबे के कार्डिनल की सहमति नहीं मिलती थी तो स्थिति बड़ी समस्यापूर्ण हो जाती थी। जनता की दृष्टि में कार्डिनल देश के सर्वोच्च धर्माधिकारी थे। उधर सम्राट देश के शासक थे। सत्ता के लिए आपस में इन के संघर्ष होते रहते थे। हेनरी अष्टम के राज्यकाल में दोनों के आपसी संबंध बहुत कटु हो गए थे पर उस ने तलवार के सहारे समस्या सुलझा ली। कार्डिनल बैकेट की गर्दन उतरवा दी गई थी।

    यूरोप में गाइड बहुत महँगे पड़ते हैं इसलिए टोलियो में यात्री दर्शनीय स्थानों को देखने जाते हैं। मैं अकेला था इसलिए गाइड साथ नहीं लिया। फिर भी मुझे असुविधा नहीं हुई क्योंकि वहाँ के सहायक पादरी सब प्रकार की जानकारी दे रहे थे। प्राचीन गोथिक शैली पर बना हुआ यह भवन बहुत ही भव्य है। इस के प्रति ब्रिटेन के लोगों में इतनी श्रद्धा है कि सेंट पाल गिरजे की तरह यहाँ भी राष्ट्र के प्रमुख व्यक्तियों को समाधि देकर उन की स्मृति को गौरवान्वित किया जाता है। पिछले 600 वर्षों में सैकड़ों की संख्या में ब्रिटेन के सम्राट सेनापति, वैज्ञानिक यहाँ दफ़नाए गए है। यहीं मैंने हार्डी, लिटन, थेकरे, विलियम स्काट आदि प्रसिद्ध लेखकों की क़ब्रे देखीं। कवियों में किपलिंग, ब्राउनिंग, टेनिसन भी चिरनिद्रा में यहाँ सोए हुए है। मुझे पढ़ने का शोक वर्षों से रहा है। जिन प्रिय लेखकों को इतने समय से पढ़ता-सुनता रहा था, उन सभी की समाधि एक ही स्थान पर देखकर मन नाना प्रकार की भावनाओं से भर गया। श्रद्धांत होकर उन की समाधियों पर अपने साथ लाए फूल चढ़ाए।

    मेरा ख़याल था कि ब्रिटेन में सर्वाधिक मान सम्राटों के बाद राजनीतिज्ञों को मिलता रहा है। वेस्टमिंस्टर एबे देखने पर इस भ्रम का निवारण हुआ। राजनीतिज्ञ नेताओं से भी कहीं अधिक प्यार ओर इज़्ज़त ब्रिटेन में लेखकों, कवियों और सैनिकों को दी जाती रही है। यही कारण है कि वहाँ की धरती ने जहा शेक्सपीयर, बर्नार्ड शा जैसे साहित्यकार पैदा किए वही वेलिंग्टन और नेलसन जैसे रणबाकुरे भी।

    पार्लियामेंट हाउस वेस्टमिंस्टर के पास ही है। उन दिनों सब चल नहीं रहा था इसलिए यहाँ बैठक देखने की इच्छा दबी रह गई। बहरहाल, इस पर लगी विश्वविख्यात विशाल बड़ी 'बिगबेन' को देखकर ही संतोष कर लेना पड़ा। पार्लियामेंट भवन भी गोथिक वास्तु शेली पर बना है। आकर्षक और प्रभावपूर्ण लगता है पर हमारे भारतीय संसद भवन की तरह बड़ा और शानदार नहीं।

    दोपहर हो आई थी। लंच के लिए इंडिया हाऊस चला गया। यो तो लंदन में भारतीय ढंग का निरामिप भोजन कई जगह मिल जाता है, पर सस्ते और बढ़िया भोजन की व्यवस्था इंडिया हाऊस (भारतीय दूतावास) में ही है। लंच के समय भारतीय यहाँ काफ़ी संख्या में मिल जाते है। इन की संख्या इतनी अधिक है कि मिलने पर एक-दूसरे के प्रति उतने आकृष्ट नहीं होते जितने कि विदेशो में दूसरी जगह।

    इन दिनों उत्तर भारत में जिस तरह इडली, डोसे के प्रति लोगों की रुचि बढ़ती जा रही है उसी तरह यहाँ भी दक्षिण भारतीय इडली, डोसे को मैंने प्रचलित पाया। भारतीयों के अलावा यूरोपीय भी स्वाद बदलने के लिए यहाँ आते है। मिरचों के झाल से उन का 'शीशी' करना देखते ही बनता है। सांभर और रसम के साथ मैंने कई दिनों बाद पेटभर खाया। बिल बना लगभग दस रुपए का स्वदेश के हिसाब से यह ऊँचा ज़रूर था मगर यहाँ के कोहिनूर, ताज आदि रेस्टोरेटों के मुक़ाबले बहुत कम था।

    लंदन में तीन दिन रहने का प्रोग्राम था। अतएव इस छोटा-सा अवधि में इस महानगरी के दर्शनीय स्थान देखना चाहता था। खाना खाकर टेम्स के किनारे 700 वर्ष पहले बने हुए टावर ऑफ़ लंदन को देखने गया। टेम्स का नाम स्कूली जीवन से ही सुनता रहा था। अँग्रेज़ मित्रों से भी इसकी चर्चा सुनी थी। गंगा, गोदावरी या यमुना के प्रति हमारी जो भक्ति भावना है, भले ही उस प्रकार की भक्ति टेम्स के प्रति अँग्रेज़ों में हो फिर भी उन में पंजाबियों के दिल का जैसा यही प्यार है जो झेलम के जल में मुसकराता है। यूँ औसत भारतीय इसे देख कर ज़रूर कह देगा, 'नाम बड़े दर्शन छोटे।' हमारी गंगा से इस की लंबाई तो बहुत कम है ही, चौड़ाई भी चौथाई से अधिक होगी। शायद गहराई ज़्यादा है क्योंकि सैकड़ों छोटे-बड़े जहाज़ इस में चल रहे थे।

    टावर ऑफ़ लंदन के बारे में ब्रिटिश इतिहास तथा उपन्यासों में इतनी बार ज़िक्र चुका था कि देखने पर कुछ नयापन नहीं लगा। फिर भी टेढ़े-मेढ़े पत्थरों की बनी मोटी दीवारें, ज़ंग खाए लोहे से जड़े लकड़ी के बड़े-बड़े फाटकों से अंदर गुज़रते समय ऐसा लगता है कि बीते इतिहास की कहानी कहने के लिए ये दोनों ओर खड़े है। अंदर के सीलनभरे कमरों से आती हुई हवा कानों में जाने कितनी आहे, चीख़-पुकार भरने लग जाती है। इसी एक स्थान पर ब्रिटेन के सैकड़ों बड़े-बड़े सामंतों के सिर काटे गए। सर टॉमस मूर, सम्राट अष्टम हेनरी की दो रानिया, महारानी एलिजाबेथ के प्रेमी एसेक्स के अर्ल, जाने और भी कितने ही। राजद्रोह और देशद्रोह के अपराधी दंडित हो तो कारण समझ में सकता है पर आज जो राजारानी का कृपाभाजन है वही कल कोपभाजन बनकर सूली पर चढ़ा दिया जाए तो उन की कृपा से दूर रहने में ही कल्याण है। शाही मुहब्बत की क़ीमत बहुत ही महँगी पड़ी है, हर देश और हर समय में जनता की निंदा के बिना परवा किए जिस सिर को गोद में रखकर जाने कितनी राते महारानी एलिजाबेथ ने गुज़ारी थी, उसी लार्ड एसेक्स के सिर को प्रेयसी रानी ने कुल्हाड़ी से कटवा दिया। वही कुल्हाड़ी और सिर रखने की अर्ध चंद्राकार लकड़ी की वेदी कितनी जाने लेकर भी वहाँ निर्जीव पड़ी है। जाने क्यों मुझे भय और कपकपी सी हो आई। मैं उस स्थान से हट आया।

    यहाँ दूसरे बहुत सारे तरह-तरह के औज़ार भी देखे जिन से अपराधियों को दंड दिया जाता था। बहुत-सी कालकोठरियाँ भी देखीं, जिन में क़ैदी तो बैठ सकता है और लेट ही सकता है। यहाँ तक कि सीधे खड़ा होना भी संभव नहीं। इन्हें देखकर रोमांच हो आता है। मैं यही सोचने लगा कि संसार के सामने आख़िर किस बूते पर अँग्रेज़ अपने को सभ्य कहते रहे हैं। बड़ा ताज्जुब इस बात पर होता है कि अपने आराध्य ईसा मसीह को वे सूली पर बिधा हुआ पूजते रहे है। शारीरिक यातना देना बहुत बड़ा पाप है, इसका बड़ी-बड़ी तस्वीरों, साहित्य और रंगमच द्वारा हज़ारों वर्षों से ये प्रचार करते रहे है। फिर क्रॉस से भी कहीं अधिक यंत्रणादायक इन अस्त्रों का वे भला किस प्रकार प्रयोग करते होंगे।

    उन अँधेरी, सड़ी कोठरियों से बाहर आया। पास ही एक स्टॉल पर जल्दी से जाकर एक लमनेड लिया। यहीं के एक बुर्ज़ुगनुमा कक्ष में ब्रिटेन के सम्राटो के राजमुकुट, आभूषण और जवाहरात संग्रहीत हैं। इन्हें देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सदियों तक ब्रिटेन किस तरह भारत, एशिया और अफ़्रीका से बेशुमार धनदौलत लूटता रहा है। जिस ग्रेट ब्रिटेन की ज़मीन अपने बेटों के मुँह में भरपेट दाना तक देने में असमर्थ है, वहाँ यह बेशुमार दौलत कैसे आई होगी? इस का अंदाज़ तो भारत, बर्मा और अफ़्रीका के देशों की कराहती जर्जर काया से ही लग सकता है।

    ब्रिटिश ताज में लगाया गया विश्व का सबसे बड़ा और वजनी हीरा 'स्टार ऑफ़ अफ़्रीका' देखा। इस का वज़न 516 कैरेट है। इसके पास ही हमारा चिर-परिचित कोहनूर भी दमक रहा था जिसकी चमक के सामने दूसरे हीरो की आबरू फीकी पड़ रह थी। वहाँ तरह-तरह के छोटे-बड़े मुकुट रखे थे जिन में नाना प्रकार के अनमोल रत्न लगे थे। मगर कोहेनूर देखते ही मेरा मन अपने देश की 150 वर्ष पहले की बातों पर चला गया।

    पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह की सद्य विधवा रानी झिंदा और उसके मासूम बच्चें से दिलीपसिंह की तस्वीर आँखों के सामने गई। बेबसी की हालत में इन से जबरन कोहिनूर छीना गया था। महाराजा रणजीतसिंह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को उसके बुरे दिनों में सहायता की थी। इस उपकार का उत्तर दिया गया उन का राज्य हड़पकर, कोहिनूर लूटकर और उनके अबोध बच्चे को लंदन ले जाकर शिक्षित करने के बहाने ईसाई बनाकर बाहर निकल आया और टावर ब्रिज पर बड़ा होकर टेम्स का दृश्य देखने लगा। पुल के नीचे मालवाही छोटे-छोटे बोट खड़े थे। इनमें मैले कपड़े पहने हुए मल्लाह शोरबे, मछलियाँ और मांस के बड़े-बड़े टुकड़ों के साथ मोटी-मोटी रोटिया खा रहे थे। मैं मन ही मन इस विडंबना पर मुस्कुरा उठा कि पास ही टावर ऑफ़ लंदन में बेशुमार दौलत को क़ैद कर अँग्रेज़ अपने गौरव को बढ़ा कोशिश कर रहे हैं जबकि क़रीब में उन्हीं के दर्शवासी इस अभावपूर्ण ज़िंदगी के लिए मजबूर है। विषमता सारे संसार में है, भ्रातृत्व और समता का दम तो ज़माने के फ़ैशन के मुताबिक भरा जाता है। इसके झूठे प्रचार की होड़ में जो जीतता है वही सबसे अधिक सभ्य, उदार या समाजवादी समझा जाता है।

    दिनभर पैदल घूमता रहा। पैर दुखने लगे। टावर देखने पर मन कुछ खिन्न हो गया सोचा, 'भारत' में अंग्रेज़ी फ़िल्मे तो आती रहती है, क्यो यहाँ का रंगमच देख लिया जाए। गाइड बुक में देख कर एक थिएटर के साढ़े छः बजे वाले शो में जा बैठा। कॉमिक ड्रामा था। काफ़ी चहलबाज़ी थी, जिसे हमारी भारतीय दृष्टि से अश्लील कहा जाएगा। दर्शक मज़ा ले रहे थे, तालिया बज रही थी, पहले अंक का दृश्य सामने आया। पत्नी के प्रेमी को पति ने संदूक में छिपा पकड़ा है और उसे पीट रहा है। पत्नी पास में सहमी सी खड़ी है। अधिकांश दर्शक महिलाएँ उस प्रेमी के पक्ष में आहे भरने लगी। उनमें से कुछ के पति उनके पास ही बैठे चुपचाप देख रहे थे। मै लक्ष्य कर रहा था कि आज के यूरोपीय समाज में स्वच्छंदता किस हद तक जा पहुँची है। अभिनय रंगमच की सज्जा और आरकेस्ट्रा का स्तर अच्छा था, इस पर संदेह नहीं।

    दूसरा दिन लंदन के म्यूज़ियम देखने के लिए सुरक्षित रखा। यहाँ बहुत से संग्रहालय है। इसलिए सुबह जल्दी ही नाश्ता कर सबसे पहले ब्रिटिश म्यूज़ियम गया। यह विश्व के चार बड़े संग्रहालयों में माना जाता है। प्राचीनकाल से अब तक के इतिहास के नाना प्रकार के साक्षी यहाँ बहुत ही करीने से रखे गए है। सर हैस सैलोने नाम के एक करोड़पति डॉक्टर का सन् 1753 में देहांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उसने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति, ऐतिहासिक संग्रह और पचास हज़ार पुस्तकों को देश के इस शर्त पर दे दिया कि एक बड़ा म्यूज़ियम स्थापित किया जाए।

    अपनी संतान के भरण पोषण के लिए उसने केवल दो लाख रुपए सरकार से लिए। यहीं से ब्रिटिश म्यूज़ियम की नीव पड़ी है। आगे चलकर यह विश्व का सर्व मान्य संग्रहालय बन गया। यहाँ हज़ारों व्यक्ति प्रतिदिन शिक्षा और ज्ञानवर्धन के लिए आते रहते है। पृथ्वी के प्रागैतिहासिक युग से आज तक मानव ने किस प्रकार अपना विकास किया है, इसका सिलसिलेवार दिग्दर्शन मूर्तियों और यत्नों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। जिज्ञासुओं अवशेषकों की तो यह एक प्रकार से तीर्थ स्थली है। दिन के साढ़े ग्यारह बजे से तीन बजे तक विद्वान प्रोफ़ेसरों द्वारा विभिन्न विषयों पर प्रतिदिन व्याख्यान होते है। इसे अच्छी तरह देखने के लिए महीनों का समय चाहिए। मेरे पास कम समय था, फिर भी दो एक घंटे में जो कुछ देख पाया उससे मुझे कुछ जानकारी मिली।

    प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय (नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम) में कीट-पंतग, पशु-पक्षी आदि को उनके आकार का बनाकर स्वभाविक परिवेश में रखा गया है। प्रागैतिहासिक युग विशालकाय डिनोसोरस, ब्रांटोसोरस नाना प्रकार के प्राणी यहाँ देखने में आए। उसी काल के वृक्ष और पौधे भी देखे। कितना परिश्रम और धैर्य इनके अन्वेषण में लगा होगा। इसमें संदेह नहीं कि परिश्रम अँग्रेज़ों का जातीय गुण है। आज अमरीका या रूस अथवा विश्व के अन्य देश भले ही ब्रिटेन से शक्ति और क्षमता में आगे बढ़ जाए, फिर भी यह मानना पड़ेगा कि ज्ञानवर्धन की प्रेरणा उन्हें बहुत अरसों में अँग्रेज़ों से ही मिली है। पृथ्वी के प्रागैतिहासिक युग का, गिरिकंदराओं का आदिमानव किस प्रकार आत्मरक्षा और संघर्ष करता हुआ आज टेलीविज़न सैट के सामने बैठ सका है, इसका सिलसिलेवार दिग्दर्शन यत्नों और मूर्तियों के माध्यम से कराया गया है। राहुल जी की 'विस्मृति के गर्भ में' पुस्तक में दैत्याकार डिनोसोरसों के बारे में पढ़ा था, आज उनके कंकालों को यहाँ प्रत्यक्ष देखा।

    विक्टोरिया अलबर्ट म्यूज़ियम में विश्व के सारे देशों की तरह-तरह की पोशाकें, बर्तन, गहने आदि रखे है। यहाँ मैंने भारतीय मुग़ल बादशाहों, नवाबों और बेग़मों की शाही पोशाकें आभूषण देखे। औरंगज़ेब के हाथों से स्वर्णाक्षरों में लिखी कुरान देखी। कहना होगा ये सब यहाँ कैसे पहुँचें होंगे, क़ीमत तो इंग्लैंड ने शायद ही अदा की होगी। वारेन हेस्टिंग्स और क्लाइव की लूट ऐतिहासिक प्रमाण है। रही-सही कसर लार्ड कर्ज़न ने पूरी कर दी।

    भूगर्भ ट्रेन से डाटी स्ट्रीट पर आया। मुझे प्रसिद्ध उपन्यासकार चार्ल्स डिकेस का मकान देखना था। इसे उसकी स्मृति में संग्रहालय बना दिया गया है। अब तक जिन बड़े-बड़े म्यूज़ियमों को देखकर रहा था, उन की तुलना में यह बहुत ही छोटा है। फिर भी इसका अपना आकर्षण और महत्त्व है। इस महान लेखक ने अपनी क़लम से लोगों के दिल को छूआ था। उसके पाठकों में अँग्रेज़ ही नहीं बल्कि विभिन्न देशों के लोग है। आज भी शरत और प्रेमचंद की तरह चार्ल्स डिकेस यूरोपीय जनसमाज की श्रद्धा और स्नेह का भाव है। इसीलिए यह छोटा सा भवन साहित्यकों का तीर्थ बन गया है। शेक्सपीयर के स्टाफ़र्ड एवेन के स्मारक के बाद विदेशी पर्यटक और साहित्यिक इसे निश्चित रूप से देखते है। यहाँ डिकेस कुछ काल तक रहा था। उसके उपन्यासों की पांडुलिपियाँ भी यहाँ रखी है।

    मुझे ख़याल गया 'डेविड कापरफ़ील्ड' पढ़ते समय मेरी आँखें भीग गई थीं। किसी मित्र ने कहा कि ऐसी किताबें क्यों पढ़ी जाए जिन से मन में दुख हो। पर आज भी जब दूसरे कामों में मन नहीं लगता तो शरत की 'शेष प्रश्न' अथवा डिकेस को 'डेविड कापरफ़ील्ड' पढ़ने लग जाता हूँ। वे मुझे हमेशा नई लगती है। दिल की गहराई को वे छू लेती है। ग़ज़ब का जादू है डिकेस की क़लम में। खड़ा हुआ उसकी पांडुलिपि देख रहा था, एकएक करके डेविड, मर्डस्टोन, एमिली, मिकावर आदि चरित्र जैसे सामने आकर मेरे परिचित वाक्य बोलते से लगे।

    सोचने लगा, हमारे यहाँ भी तो वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी, भूषण आदि महान कवि हो गए हैं। हम ने उन के स्मारक क्यों नहीं बनाए? शायद पठन-पाठन से ही उनकी स्मृति बनाए रखने की परंपरा हमारे यहाँ रही हो या नश्वरता के प्रति हम सदैव उदासीन रहे हैं। इसी कारण से ब्रिटिश काल के पूर्व तक के व्यक्तियों के स्मारक नहीं बनाए गए मुग़ल बादशाहों या नवाबों और फ़क़ीरपीरों की क़ब्रों या क़िलों के रूप में ज़रूर कुछ स्मारक मिल जाते है। जो भी हो, स्मारकों का भी अपना महत्व कम नहीं है।

    दोपहर का भोजन किया भारतीय विद्यार्थी क्लब में ब्रिटेन में हज़ारों की संख्या में भारतीय विद्यार्थी पढ़ रहे है। अपनी सुविधा के लिए इन्होंने लंदन में कोआपरेटिव के तौर पर यह कैंटीन चला रखी है। चीज़ें अच्छी मिलती है और दाम बहुत ही कम। भीड़ इतनी रहती है कि बैठने की जगह आसानी से नहीं मिलती।

    भोजन के बाद ट्राफ़ल्गर स्क्वायर की नेशनल आर्ट गैलरी देखने गया। बहुत विशाल भवन है। इस में पिछले 500 वर्षों के बड़े-छोटे चित्रों का सुंदर-संग्रह है। ये चित्र विश्व के प्रसिद्ध चित्रकारों के बनाए हुए है। चित्रों के संकलन का शौक़ सभी देशों को है। इसके लिए बड़ी-बड़ी धनराशियाँ ख़र्च की जाती है। रोम के वेटिकन और फ़्रांस के लुब्रे के संग्रह के बाद बाक़ी बचे हुए नामी चित्रों के लिए विश्व के देशों में होड़ सी लगी रहती है। इस दिशा में अमरीका से टक्कर लेना कठिन है।

    फिर भी ब्रिटेन के धनी और संपन्न व्यक्ति उदारतापूर्वक अलभ्य चित्रों को ख़रीदते रहते हैं और अपने अमूल्य संग्रह इस गैलरी को भेंट कर देते हैं। यही कारण है कि यह विश्व की चुनी हुई आर्ट गैलरियों में मानी जाती है।

    ब्रिटेन में मृत्यु कर की दर बहुत अधिक है, पर कला की वस्तुओं पर छूट है। इसलिए यहाँ के धनी मरने से पहले अपनी संपत्ति से दुर्लभ चित्रों को ख़रीद लेते है। समय पाकर उनके उत्तराधिकारियों द्वारा वे चित्र इस गैलरी को भेंटकर दिए जाते हैं। इससे उन की स्मृति बनी रहती है और राष्ट्र का गौरव भी बढ़ता है।

    इस गैलरी के एक कक्ष में भारत के कागड़ा, किशनगढ़, राजपूत, मुग़ल और पटना शैली के अलभ्य चित्र देखे। मैं चित्रकला का पारखी तो नहीं हूँ पर देखने में ये मुझे बहुत ही बेहतरीन लगे। अन्य देशों से इन में बारीक़ी और रंगों के संतुलन का सम्मिश्रण अधिक स्पष्ट लगा। अधिकाश चित्र कृष्ण और राधा की पौराणिक कथाओं पर आधारित है ऋतु और रागमालाओं के चित्रों का भी अच्छा संग्रह है। क्यूरेटर से बातें करने पर पता चला कि भारतीय तूलिका के संबंध में उनको यथेष्ट ज्ञान है। उनसे यह भी पता चला कि बहुत से चित्र भारत से ख़रीदकर मँगाए गए है कुछ भेट स्वरूप भी आए है।

    मैंने सुना था कि बहुत से चित्र तो हमारे राजे-महाराजों ने बहुत सस्ते दामों पर बेच दिए थे या फिर अँग्रेज़ों को ख़ुश करने के लिए भेट में दिए थे। अपने देश के गौरव की बुद्धि के प्रति हमारे यहाँ की उदासीन मनोवृति का परिचय पाकर ग्लानि सी हुई। आज भी बहुत से चित्र मंदिरों में पड़े हैं या रईसों, राजेरजवाड़ों के पास बेकार पड़े हैं। उन्हें यदि काशी विश्वविद्यालय के भारत कला भवन या दिल्ली की नेशनल गैलरी को दे दिया जाए तो भारतीय चित्रकला के प्रति बहुत बड़ा उपकार हो सकता है।

    गैलरी देखकर फाटक के बाहर आया सामने ही एडमिरल लाई नेलमन की बहुत ही बडी मूर्ति ऊँचे चबूतरे पर खड़ी है। सन् 1792 में 1805 ईसवी तक सारा यूरोप नेपोलियन के युद्धों से आतंकित हो उठा था। उस की सेनाएँ यूरोप के प्रायः सभी देशों को रौंद चुकी थी। केवल ब्रिटेन अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बचा हुआ था। नेपोलियन ने बड़ी ज़बरदस्त तैयारी से ब्रिटेन की चौतरफ़ा नाकेबंदी की। सन् 1805 में एक बहुत बड़े जहाज़ी बेड़े को लेकर उस ने ट्राफ़ल्गर की खाड़ी में ब्रिटेन की नौशक्ति को ख़त्म करने के लिए हमला कर दिया। ब्रिटेन का जहाज़ी बेडा छोटा था, पर नेलसन की निपुण रणचातुरी के कारण फ्रांस की अजेय सेना को हार खानी पड़ी। उस की हिम्मत पूरी तौर से पस्त हो गई।

    इतिहासकारों का कहना है कि इतनी बड़ी समुद्री लड़ाई पहले कभी नहीं हुई थी। इस युद्ध में ब्रिटेन जीता ज़रूर मगर उसे नेलसन को खोना पड़ा। नेलसन के मुँह में मृत्यु के समय निकले ये शब्द अमर हो गए, 'हे प्रभु, तुम्हारी कृपा से अपने कर्तव्य का पालन पूरी तौर पर कर सका।' इसी युद्ध का परिणाम था कि पिछले महायुद्ध तक ब्रिटेन की नौशक्ति का लोहा दुनिया में सभी मानते थे।

    कलकत्ता की तरह सदन में टैक्सियों की कमी नहीं है। फिर भी यहाँ आमतौर पर लोग बसों या भूगर्भ ट्रेनों से यात्रा करते है। यहाँ के टैक्सी ड्राइवर मुझे रूखे से लगे। किराए के अलावा टिप देने की परिपाटी यहाँ है। इस वज़ह से विदेशियों को बड़ी परेशानी होती है क्योंकि उन्हें मालूम नहीं रहता कि किस हिसाब से देना चाहिए। अधिकांश टैक्सी वाले ऐसी स्थिति में रूखा सा व्यवहार करते हैं, ख़ास तौर से उनके साथ जो गोरे रंग के नहीं होते। मुझे एक बार इस प्रकार का व्यक्तिगत अनुभव हो चुका था। इसलिए मैंने सदन में दोबारा टैक्सी नहीं की।

    शाम हो रही थी। मै लंदन का प्रसिद्ध बाग हाइड पार्क देखने निकल गया। बीच में सरपेंटाइन झील है। पृथ्वी के दूसरे किसी भी शहर में इतना बड़ा मैदान शहर के बीच में नहीं होगा। कलकत्ते के क़िले का मैदान काफ़ी विस्तृत माना जाता है पर वह भी इस के मुक़ाबले में छोटा है। वैसे तो लंदन में रीजेंट, सेट जेम्स, कैसिंगटन आदि अन्यान्य पार्क भी है पर हाइड पार्क की तो बात ही न्यारी है। शाम के समय बीसियों सिरफिरे स्टूल पर खड़े होकर व्याख्यान देते यहाँ मिल जाएँगे। श्रोता भी जुट जाते हैं। मनोरंजन के सिवा कुछ ध्यान देकर सुनने वाले भी रहते है। बीच-बीच में हँसी-मज़ाक कर लेते है। वक्ता जिस विषय पर चाहे बोल सकता है, कोई रोकटोक या कानूनी पाबंदी नहीं है। एक जगह में भी खड़ा होकर सुनने लगा। श्रोताओं की संख्या लगभग साठ-सत्तर रही होगी। वक्ता कह रहा था स्त्रियाँ बदतमीज़ होती जा रही है। इनको यदि समय रहते नहीं संभाला गया तो ब्रिटिश जाति का पतन हो जाएगा। आप मुझ जैसा फटेहाल देख रहे हैं उस का कारण है स्त्रियों की स्वच्छंदता। मेरी एक प्रेयसी है, ख़ूबसूरत है, लाजवाब है।

    मुसीबत पड़ी है कि उस की बुढ़िया चाची मेरे ऊपर डोरे डाल रही है। बुढ़िया दौलतमद है। नाना प्रकार के उपहार रोज़ मेरे पास भेज देती है। नतीज़ा क्या हो सकता है, इसे आप ख़ुद समझ सकते है। यानी मै बदनसीबी का मारा उस खूँसट बुढ़िया के चंगुल में फस गया हूँ। इधर मेरी प्रेयसी मुझ से रूठ गई है। अब आप ही बताए मैं क्या करूँ।

    मैंने देखा वहाँ खड़ी औरते उसकी बातों में हँस-हँसकर रस ले रही थी। दो-एक ने उससे कहा, महाशय, आप उन दोनों का पता बताएँ। हम बुढ़िया को समझाकर आप की प्रेमिका को मना लेंगी।

    कुछ दूर आगे बढ़कर देखा, एक व्यक्ति भारत के विरोध में अनर्गल प्रचार कर रहे है। बड़ा आश्चर्य हुआ और ख़ेद भी। बाद में पता चला कि पाकिस्तान ने अपने कई विद्यार्थियों तथा अन्य व्यक्तियों को नियमित रूप से इस ढंग के प्रचार के लिए लगा रखा है।

    कहीं एक कोने में अणुबम विरोधी भाषण सुनने में आया तो कहीं इंग्लैंड की विदेश नीति की कटु आलोचना भाषण सुनते-सुनते लगभग आठ बज गए लौटने लगा तो देखा पिंप (औरतों के दलाल) चक्कर लगा रहे है। इन की चाल और हावभाव से पता चल जाता है कि वे दलाल हैं। इन के इर्द-गिर्द दो-एक लड़कियाँ घूमती-फिरती या बैठी रहती है। यो तो लंदन में कानूनन वेश्यावृत्ति बंद है पर ग्राहक को अपने साथ घर ले जाने की छूट है।

    पार्क में एक जगह बैंच पर जाकर बैठ गया। आस-पास की बैंचों पर पुरुषों और लड़कियों की उपस्थिति का अर्थ स्पष्ट हो गया। सोचने लगा, हमारे यहाँ अत्यधिक गरीबी से अधिकतर स्त्रियाँ मजबूर होकर अपने तन का सौदा करती है, मगर इस प्रकार सार्वजनिक पार्कों में ऐसी हरकते नहीं होती। ब्रिटेन के लोग अपनी सभ्यता और शालीनता की डींग एशियाई मुल्कों में हाँकते रहते है पर उनकी असलियत की कलई तो हाइड पार्क में ही खुलती है। चुंबन और आलिंगन में आगे के दृश्य भी यहाँ देखने में आए। रूम को छोड़कर यूरोप के प्रायः सभी देशों में यह है।

    थोड़ी देर वहाँ विश्राम कर अपने होटल वापस आया। दिनभर की थकान का बोझ था। नींद नहीं रही थी। तरह-तरह के विचार मन में आते गए। हमारे देश में विदेशी यात्री कम क्यों आते हैं? इसका एक बड़ा कारण शायद यह भी हो सकता है कि विदेशियों को मौजबहार की वह छूट हमारे यहाँ नहीं मिलती जो अन्यान्य देशों में है। पर हम ख़ुश हैं कि पेरिस, वेनिम और लंदन की तरह-तरह अनैतिक और कामोत्तेजक मनोरजनों द्वारा पैसे बटोरना हम ने या हमारी सरकार ने अच्छा नहीं माना है।

    मैं जिस होटल में ठहरा था वह साधारण ढंग का था। यहाँ नाश्ते के लिए क्यों में खड़ा होना पड़ता है वैसे तो लंदन में रेस्तराँ बहुत है। पर होटल के किराए में नाश्ता भी शामिल था इसलिए पेटभर नाश्ता कर सारे दिन के लिए छुट्टी पा जाता था। विदेशों में पैसों की बचत का यदि विशेष ध्यान रखा जाए तो बहुत कम ख़र्च में काम चल सकता है।

    नाश्ते के बाद सब में पहले बकिंघम महल देखने गया। महल के प्रति मेरा कोई विशेष आकर्षण नहीं या पर यहाँ प्रहरियों के पानी बदली का दृश्य बड़ा शानदार रहता है, उसे देखना था। मेरी तरह वहाँ बहुत से लोग उस विशेष समय की प्रतिक्षा में खड़े थे।

    ब्रिटेन की विशेषता यह रही है कि वहाँ अपनी परंपरा के प्रति श्रद्धा है। अँग्रेज़ों ने समाज के ढाँचे का बहुत कुछ बदल दिया है पर ऐतिहासिक परंपरा को आज भी सावधानी से संजोए हुए हैं। सैकड़ों वर्ष पहले जिस ढंग की पोशाक में राजा के महलों में प्रहरी तैनात रहते थे, आज भी उसी प्रकार तैनात रहते है। रात के पहरेदार सुबह जब बदलते हैं तो एक ख़ास कवायद के साथ। बड़ा प्रभावपूर्ण दृश्य लगता है। सब की पोशाक एक सी, एक से अस्त्र-शस्त्र में लैस, एक से घोड़े, एक सी चाल, चेहरे पर गंभीर निर्विकार भाव। बच्चों को देखा, बड़ी उत्सुकता से मगर आँखों में कुछ डर लिए, पहरेदारी की बदली देख रहे थे।

    यहाँ से थोड़ी दूरी पर इंग्लैंड के प्रधान मंत्री का 10 डाईनिंग स्ट्रीट नाम का सरकारी निवास है। तीन मंज़िलों का छोटा-सा पुराने ढंग का मकान है। इस में बाग है, लॉन है। वर्षों से यहाँ इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रहते आए हैं। देखकर आश्चर्य होता है कि इतने संपन्न और विशाल ब्रिटिश साम्राज्य के प्रधानमंत्री का घर भी यहीं और दफ़्तर भी। और हमारे यहाँ? हम गरीब हैं, दुनिया के सामने हाथ भी पसारते है। मगर हमारे मंत्रियों के सरकारी निवास। वे तो कहीं शानदार और सजीले है। वैसे, हम गाँधीजी के आदर्शों की दुहाई देते रहते है।

    मैडम तुसान के संग्रहों का उल्लेख स्वर्गीय राहुल जी ने एक बार मुझ में किया था। लंदन पर लिखी गई अन्य पुस्तकों में भी इस का ज़िक्र पढ़ा या वास्तव में अपने का यह एक नायाब संग्रह है। मोम की बनी 300 आदमकद प्रतिमाएँ यहाँ है। उतनी स्वाभाविक है कि मानों जीवित व्यक्ति के सामने हम बड़े हैं और ऐसा लगता है कि अब ये कुछ बोलेंगे। विश्व के प्रायः सभी देशों के शीर्ष लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक, राजारानी और राजनीतिक नेताओं की मूर्तियाँ यहाँ देखीं।

    महात्मा गाँधी और नेहरू जी की मूर्तियों को देखकर लगा कि चलो अँग्रेज़ों ने इसे माना तो सही कि विश्व को दिशादान देने में भारत का भी योग रहा है।

    टावर ऑफ़ लंदन में जिन दंडशालाओं और दंड देने के औज़ारो का ज़िक्र आया है, उन की झाँकी यहाँ देखने में आई। कही जीवित व्यक्तियों को जलाया जा रहा है तो कहीं लाल तपी सलाखों में उनकी आँखें फोड़ी जा रही है। कहीं सिर तोड़ा जा रहा है तो कहीं काटे गड़ाए जा रहे है। बड़े भयकर और वीभत्स दृश्य देखने में आए।

    मध्यकालीन यूरोप के इतिहास में पढ़ने में आता है कि उन दिनों बड़े अमानुषिक तरीकों में वध किया जाता था और लोग इसे देखने के लिए इकट्ठे होते थे। पेरिस और रोम में तो वध के स्थान पर हज़ारों की भीड़ लग जाती थी। स्त्री-पुरुष सज-धजकर देखने आते थे। बैठने के स्थानों के आरक्षण का चार्ज रहता था। ड्यूमा के 'काउंट ऑफ़ माटेक्रिस्टों' में इसका अच्छा वर्णन है। भारत में मुग़लकाल में क्रूरता के साथ वध करने के दृष्टांत है, पर जनता की रुचि मनोरंजन के लिए ऐसे नज़ारे देखने की रही है, यह कहीं भी नहीं मिलता, पता नहीं सभ्य यूरोप और हमारे यहाँ यह अंतर कैसे रह गया?

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व यात्रा के संस्मरण (पृष्ठ 168)
    • रचनाकार : रामेश्वर टांटिया
    • प्रकाशन : दिल्ली प्रेस
    • संस्करण : 1969
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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