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जेल के दिन

jel ke din

अज्ञेय

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    समय की दूरी सभी अनुभवों को मीठा कर देती है, तात्कालिक परिस्थिति में भले ही वे कितनी ही तीखी और कटु हो। इसलिए आज यह कहना अनुचित होगा कि जेल की मेरी स्मृतियाँ मधुर ही मधुर है—उन अनुभवों की भी जो तब भी मीठे थे, और उन की भी जो उस समय अपनी कटुता के कारण तिलमिला देते थे या आग की एक लकीर सी मन में खींच देते थे। और शायद यह कहना भी ठीक होगा कि स्मृतियाँ—कम से कम अधिकांश-कुछ धुँधली भी हो गई है और शायद यह धुँधलापन भी माधुर्य का एक तत्त्व होता है क्योंकि जो आज भी पूर्ववत् उज्ज्वल या गहरी हैं उन्हें ठीक मधुर कहना शायद अनुचित हो—शायद उतना ही अनुचित जितना उन्हें कटु कहना गहराई का एक आयाम होता है जो अनुभूति को कड़वी-मीठी की परिधि से परे ले जाता है।

    चार सौ क़ैदियों के लिए बनी हुई जेल में भरे हुए अठारह सौ क़ैदियों में से एक जब देखता है कि उस के कुछ साथी भूख हड़ताल करते हैं, छिपकर मेवा-बादाम खाते हैं और ग्लूकोज का शरबत पीते है, और जेल का डॉक्टर उन्हें सहानुभूति देकर भी परेशान है कि उन का वज़न घटने की बजाए बढ़ता ही जाता है, तब उसे हँसी भी आती है और ग्लानि भी होती है, आज स्मृति में दोनों ही मधुर है। नए क़ैदियों को पुराने पकड़कर जेल की कचरा भट्टी के सामने मंदिर कह कर माथा टेकने ले जाते है—यह भी उसी कोटि का अनुभव है जैसे कॉलेज-जीवन में 'फ़र्स्ट ईअर फूल' की खिसियाहट के अनुभव। ऐसा ही है अफ़ीम का चोर-व्यापार करने वाले एक ऍग्लो इंडियन द्वारा बिना जाल के पेड़ पर बैठी चिड़िया पकड़ना सिखाया जाना। दिल्ली जेल में लाया जाने पर 'गोरा बारक' में उसे साथी पाकर उस से नई अ‌द्भुत बातें सीखी थी जिन में मुख्य यह तो अहाते के आम के पेड़ पर साँझ को बूलबुल आकर बसेरा करते थे और रात को हम मोमबत्ती के सहारे उन्हें खोज कर हाथ से पकड़ लेते थे। पहले मुझे विश्वास नही होता था कि ऐसा संभव है और शायद मुझ से जान कर पाठक को भी हो, लेकिन मैं ने कई बुलबुल ऐसे पकड़ कर पाल लिए और उन की बोली ने मेरे एकांत में एक अत्यंत प्रीतिकर व्याघात डाल दिया। —इसी प्रसंग में यह भी याद आता है कि जेल के दारोगा आए और बुलबुल देखकर जलभुन कर खाक हो गए, लेकिन नए क्रांतिकारी बंदी को यह कहने का साहस भी बटोर सके कि वह पक्षी पालने देंगे—उस बंदी ने दो-तीन दिन पहले शिनाख़्त के लिए आए मुख़बिर को और उस का बचाव करने के लिए बीच में पड़े मज़िस्ट्रेट को पीट दिया था। (बाद मे स्वयं भी पिटा था पर क़ैदी की कौन आबरू जाती है—कहीं दारोग़ा को चाँटा पड़ गया तो बस!) इस लिए दारोग़ा साहब खीसें निपोर कर 'अपने बच्चों के लिए' बुलबुल माँग ले गए थे—पर अगली परेड पर फिर नए पक्षी वहाँ बैठे हुए थे! अंततोगत्वा मुझी को दफ़्तर बुलाकर वहाँ से एक काल-कोठरी में भेज दिया गया।

    ऐसे हलके-फुलके अनुभव और भी है। किंतु गहरे भी अनेक है। कुछ तो इतने गहरे कि अभी तक भी उन से यह अलगाव नहीं स्थापित कर सका हैं जो उन्हें साहित्य की वस्तु बना दे; अभी तक भी वे मेरे ही अनुभव अधिक है। जिन से तटस्थता पा सका हूँ उन मे से कुछ 'शेखर' में गए है—कुछ प्रकाशित दूसरे भाग मे, कुछ अप्रकाशित तीसरे में, कुछ शायद पाठकों को स्मरण भी हो। कुछ कहानियों में भी गए है। बूढ़े बाबा मदनसिंह, फक्कड़ मोहसिन, फाँसी पाने वाला राम जी : ये सब नाम सच भी है, झूठ भी, क्योंकि अगर काल्पनिक नहीं हैं तो पात्रान्तरित है—यानी एक मदन सिंह से भी मेरा परिचय हुआ था, एक मोहसिन से भी, एक राम जी से भी पर मेरे परिचय के यथार्थ व्यक्ति और मेरी पुस्तक के पात्र अलग-अलग है, पात्रों के साथ जो घटित हुआ वह वास्तव में भी कहीं किसी के साथ तो घटा पर उस नाम के व्यक्ति के साथ नहीं, और प्रायः सब-कुछ एक ही व्यक्ति के साथ नहीं। साहित्य-रचना में चयन भी है, संपुंजन भी, सघनीकरण भी क्योंकि सागर के विस्तार को एक आलोक-वेष्टित बूँद से विकिरित आलोक के छोटे से दायरे में दिखा सकना ही रचना का काम है, लेखक का वह गुण है जिसे 'दृष्टि' कहा जा सके। 'शेखर' की भूमिका में और अन्यत्र मैं ने कहा है कि दुःख वह दृष्टि देता है, पर ऐसा है तो 'दुःख' किसी भी तीव्र अनुभूति का नाम है—ऐसी अनुभूति जो संवेदना को, चेतना को, घनीभूत आलोक रूप दे देती है। रचनाकार की प्रतिभा ढाके की मलमल का पचास हाथ का थान बुनने में नहीं है, उसे अँगूठी में से गुज़ार देने मे ही है, यद्यपि शिल्पी होने के नाते वही मलमल भी बुनता है और अँगूठी तो उस की है ही। मेरे पास रचनाकार होने के नाते क्या है, क्या नही है, यह कहना मेरा काम नहीं, मेरा आदर्श मैं ने बता दिया।

    पर यहाँ आदर्शों की नहीं, घटनाओं की ही बात कहूँ, जिन्हे आदर्श की चलनी में से छाना जाता है।

    एक हमारे मित्र थे जिन्होंने आरंभ में हमारी बहुत सहायता की, सौहार्द स्थापित करने के बाद हमें एक कैमरा भी चोरी से ला दिया कि हम लोग अपने फ़ोटो खींचकर बाहर भेज दें क्योंकि क्या जाने क्या होने वाला है, भावी इतिहासकार को सामग्री तो मिल जाए। और इस सब में उन का असली मक़सद गया था? कि सारे फ़ोटो पाकर एक सेट पुलिस को दे दें जिस से शिनाटन के काम में सुविधा हो जाए और हमारे मित्र को इतनी तरक़्क़ी मिल जाए कि वह 'क़ैदी स्टोर-क्लक' से बढ़कर 'क़ैदी दफ़्तर क्लर्क' हो जाएँ—दफ़ा 420 में वह चार साल की क़ैद काट रहे थे और अनेक सुविधाएँ प्राप्त रहने पर भी उन्हें वह परिस्थिति खलती थी जिस में अपनी चार सौ बीसी प्रतिभा का कोई उपयोग वह कर सकें स्टोर-क्लर्की में कुछ गुंजाइश तो थी, पर ऐसे पढ़े-लिखे प्रतिभाशाली ठग के लिए वह अयथेष्ट थी—दफ़्तर की बलों में तो अनेक संभावनाएँ भरी थी। हमारे साथ उन्हें सफलता नही मिली, क्योंकि हम ने उन्हें बताने के पूर्व फ़ोटो लेकर फ़िल्म आदि सब पहले अन्य साधनों से बाहर भेज दिए और तब कैमरा उन्हें लौटाया कि 'उस से कुछ काम नही हो सकता, बारक में फ़ोटो लेना जोख़िम का काम है।' वह ऐसा खिसियाये कि घंटे-भर बाद ही हमारी तलाशी हो गई शायद उन्होंने सोचा हो कि फ़िल्म अभी जेल में ही है। पर विचारे तरक़्क़ी पाने से रह गए।

    एक और घटना याद आती है वह दूसरी कोटि की है। उस पर हँसा भी जा सकता है, और उसे जुगुप्सा-जनक भी माना जा सकता है, पर मैं हँसता नहीं हैं, झिझकता हूँ गहरी मानव अनुभूति में अपनी एक अक्षुण्ण अभ्रश्य पवित्रता होती है जिसे दर्शक की क्षुद्रताएँ छू नहीं सकती।

    हमारे बाहरी में—जो हथियारबंद अतिरिक्त पुलिस से बदल कर दिए गए सिपाही थे—एक युवक था जो गाता था। प्रायः ड्यूटी पर वह कोई तान छेड़ देता उस का गला मीठा था और उसमें यह गुण पर्याप्त मात्रा में था जिसे 'सोज़' कहते हैं। हमारी बारक के साथ ही ज़नाना वार्ड का पिछवाड़ा था और वार्डर को दौड़ दोनों के बीच होती थी। ज़नाना वार्ड में एक 'पगली' थी जिस की चीख़-चिल्लाहट हम प्रायः सुनते थे। इसी से हम उसे पगली जानते थे। यद्यपि हो सकता है कि वह केवल एक दबंग विद्रोहिणी नारी रही हो। जो हो, वार्डर का गाना सुनने ही वह शांत हो जाती थी और कभी-कभी उत्तर में गाने भी लगती थी।

    हम लोग इस 'रोमांस' का रस लेते थे रस कहाँ भी लिया जा सकता है पर जेल में दूसरों के रोमांस में कुछ अतिरिक्त दिलचस्पी हो जाना स्वाभाविक है। क्रमशः बात फैल गई, अंत में वार्डर को बदली की आज्ञा गई। अपनी अंतिम ड्यूटी पर जब उस के जवाब में वह स्त्री गाने लगी, तो उस ने पुकार कर कहा जब क्या गाना—आज रुख़सत है। इतना हम लोगों ने भी सुना, उस के बाद सन्नाटा रहा और हम ने बात ख़त्म समझो। पर थोड़ी देर बाद बाहर गुलगपाड़ा सुनकर हम लोग अहाते में निकल आए। शोर जनाना बारक के भीतर से रहा था। हमें उस की बाहरी दीवार और ऊपर दो-एक रोशनदान दीखते थे। जो कुछ हम समझ सके वह इन्हीं से छन कर आने वाले शोर से, और जो देख सके, उससे।

    वह स्त्री भीतर जाने कैसे रोशनदान तक चढ़ गई थी और उस के सीखचे पकड़कर और एक टाँग भी उन मे अड़ा कर लटक रही थी। अपनी साड़ी को कदाचित् उस ने कमंद के काम में लगा दिया था। भीतर नीचे वार्डरानियाँ और दूसरी क़ैदिने चिल्ला रही थीं, और वह मानो इन सब से असम्पृक्त बाहर को देख रही थी। वार्डर नीचे था, स्त्री ने उसे आवाज़ दी, सीखचों से हाथ बाहर बढ़ाया पर वह पहुँच से बहुत दूर था, फिर सहसा उस ने झटके से अपनी चोली फाड़ कर बाहर गिरा दी। वार्डर ने उसे उठा लिया और दोनों एक-टक एक-दूसरे को देखते रहे। तभी भीतर शायद सीढ़ी मँगा ली गई थी—स्त्री को पीछे खींच लिया गया। शब्द से हम पहचान सके कि उसे पेटियों से पीटा जा रहा है।

    उसी रात वार्डर की बदली हो गई, दो-एक दिन बाद स्त्री भी कहीं भेज दो गई—शायद उसे सज़ा हो गई।

    घटना इतनी ही है और इस के बारे में कुछ कहना आसान है, उचित, इतना ही कि मेरे निकट यह भी वैसी एक सोने की अँगूठी है जिस में से गजों मलमल गुज़ारी जा सकती है, और उस मलमल से बड़ा लंबा-चौड़ा प्रपंच फैलाया जा सकता है। पर घटना में निहित जो मानवीय भावना का सत्य है उस का और कुछ नहीं किया जा सकता सिवा उस को चुपचाप स्वीकार करने के। विज्ञान में किसी वस्तु को हलका करने के लिए उसे विरल करते हैं और तब वह उड़ सकती है, पर मानवीय संवेदना में उस की सघनता ही उसे एक स्तर पर ले जातो है जब वह धरातल से उठ कर एक दिव्य वस्तु हो जाती है।

    मैंने कहा कि समय की दूरी पर सभी मीठा है क्योंकि सभी कुछ धुँधला भी कुछ है—पर जो धुँधला नहीं है, उसे मीठा कहना उतना ही ठीक या बेठीक है जितना उसे कड़वा कहना वह प्रोज्ज्वल है और इन छोटे रसों से परे है—जीवन का रस कड़वा-मीठा कुछ नहीं है, वह रामरस है जिस में सब समाए हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ज्ञानोदय (पृष्ठ 586)
    • संपादक : लक्ष्मीचंद्र जैन
    • रचनाकार : अज्ञेय
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1957

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