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मेरे मालवीय जी

mere malaviy ji

सीताराम चतुर्वेदी

सीताराम चतुर्वेदी

मेरे मालवीय जी

सीताराम चतुर्वेदी

और अधिकसीताराम चतुर्वेदी

    समस्त जाति जिसे अपनाने को व्याकुल हो, समग्र देश जिससे ममत्व जोड़ने का हठ करता हो, समूचा विश्व जिसे परम आत्मीय मानने पर अड़ा बैठा हो, उसे 'मेरे' के परम संकुचित, नितांत क्षुद्र और अत्यंत स्वार्थपूर्ण घेरे मे बाँध छोड़ना कितनी बड़ी डिठाई है, कितना बड़ा दुःसाहस है, कितनी बड़ी मूर्खता है यह सभी समझ सकते है। किंतु फिर भी इस ढिठाई, दु.साहस और मूर्खता के लिए न मुझे संकोच है, न भय है और न पश्चात्ताप ही है। परम संकट में पड़ा हुआ निराश्रित आत्ते जब उस अणु-परमाणु में व्याप्त परमात्म तत्त्व को 'मेरे भगवान्' कहकर उसके परम को 'मेरे' की सूक्ष्मतम सीमा में कस डालने का दुराग्रह करता है, उस समय उसके छोटे-से 'मेरे' में घिरा हुआ भगवान् सहसा बामन से त्रिविक्रम बनने लगता है और संपूर्ण सृष्टि का ममत्त्व उस एकाकी के 'मेरे' में इस प्रकार गूँजने लगता है मानो उसके 'मेरे' सहसा सबके 'मेरे' हो गए हो। उसी प्रकार यदि में भी उन पुण्य-श्लोक ब्रह्मर्षि को 'मेरे' कहकर अपना बताने का आग्रह करूँ तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए।

    अपने जीवन के अत्यंत संक्षिप्त अतीत के उस पुण्य दिवस को मैं भुलाए नहीं भूल सकता जब सन् 1920 के किसी मांगल्य मास में मुज़फ़्फ़रनगर जनपद या युक्त प्रांतीय राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन में पहली बार मैंने उन बह्मवचस-संयुक्त तेजस्वी महापुरुष के मंगलमय दर्शन किए थे और उनकी अनंत मधु-स्राविणी वाणी पर अपनी अबोध बाल्यावस्था में संचित संपूर्ण श्रद्धा-विभूति उनके चरणों में चुपचाप अर्पित कर दी थी। उसका परिणाम यह हुआ कि शनैः-शनैः एक रहस्यमयी संकल्प धारा मेरे मानस में निश्चित पथ बनाती हुई इतने प्रबल वेग से बहने लगी कि पूज्य मालवीयजी मेरे जीवन के, मेरी साधना के, मेरे विश्वास के और प्रत्ति के एकमात्र आलोक-दीप बन गए। इस दिव्य आलोक से में इतना प्रभावित हुआ कि में उनका प्रशंसक ही नहीं, श्रद्धालु भी बन गया, श्रद्धालु ही नही पुजारी भी बन गया पुजारी ही नहीं भक्त भी बन गया।

    हाई स्कूल की परीक्षा पास कर चुकने पर जब सभी लोग मुझे मेरठ कॉलिज में नाम लिखवाने के लिए उत्साहित कर रहे थे, उस समय माताजी के स्नेह, पिताजी के वात्सल्य, भाई बहनों की ममता, मित्रों के सौहार्द और घर की समीपता सब पर एक विशाल महत्त्वाकांक्षा अधिकार किए बैठी थी, वह थी काशी जाने की, काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने की, विश्वविद्यालय के कुलपति के संपर्क में आने की। महत्त्वाकांक्षा सफल होने वाली थी, क्योंकि पूज्य पिताजी की कृपा से में विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हो गया। विश्वविद्यालय के साथ मेरा पैतृक संबंध भी है; क्योंकि उसकी स्थापना के लिए जो महायज्ञ हुआ था उसके होताओं में मेरे पिताजी भी थे और फिर काशी मेरी जन्मभूमि, जन्मपुरी भी थी, यह भी कम आकर्षण नहीं था।

    हिंदू विश्वविद्यालय में पहुँचने पर मैं किस ऐतिहासिक क्रम से उनके समीप, समीपनर और समीपनम पहुँच गया, यह मैं स्वयं नहीं कह सकता, किंतु पहुँचकर उनका वात्सल्य-भाजन और विश्वास पात्र बन गया, यह मैं कह सकता हूँ और बड़े गर्व से कह सकता हूँ। कल्पना के नेत्रों से में देख रहा हूँ कि वे व्यासपीठ पर बैठे है, पलयी जमाएँ चारों ओर, अध्यापक, छात्र और छात्राओं का विशाल समूह एक दृष्टि होकर उनके दर्शन कर रहा है, एकाग्र होकर उन्हें मुन रहा है। और मैं कल्पना के कानों से अब भी सुन रहा हूँ—विदुला का पुत्र युद्ध से लौटकर चला अध्या। विदुला ने पूछा—क्या विजय लेकर लौटे हो? उसने कहा—नहीं, मैं वृद्ध नहीं करना चाहता, मैं व्यर्थ इतने प्राणियों का संहार नहीं करना चाहता। राज्य जाता है तो जाए। विदुला कड़ककर गरज उठी कायर! मेरी कोख से, क्षत्रिया की कोख से जन्म लेकर तू इस प्रकार की, भगोड़ेपन की, निर्वीयता की बात करना है, तुझे धिक्कार है। यदि तू क्षत्रिय का पुत्र है तो जा, तत्काल चला जा युद्ध-क्षेत्र में, लड़ते-लड़ते प्राण भी देन्दे तो भी श्रेय है—

    'क्षणं प्रज्वलितं श्रेयं—
    न च धूमाथितं चिरम्।

    —क्षण-भर के लिए भी भभककर जलना अच्छा है किंतु बहुत दिनों तक धुआँ देते हुए धीरे-धीरे सुलगना अच्छा नहीं है। चला गया विदुला का पुत्र और लौटा विजय लेकर।

    मैं फिर सुन रहा हूँ उनकी वाणी। वे कहते जा रहे है महाभारत की कथा, और अर्जुन का प्रसंग आते ही सहसा अपने मधुर स्वर को ऊँचा उठाने हुए कहने लगते है—विद्यार्थियों और विद्यार्थिनियों! अर्जुन की दो प्रति-जाए थी—न मैं दीनता के साथ किसी के आगे गिड़गिड़ाऊँगा और न पीठ दिखाकर भागूँगा। 'अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वै न दैन्य न पलायनम्।' आप लोग भी ऐसे ही बनो। कभी किसी के आगे अपना सिर न झुकने दो और जो आवे उसे ललकार दो। उसी धारा में उपसंहार करते हुए वे कहते है—

    संत्येन ब्रह्मचर्येण व्यायामेना च विद्यया। 
    देशभक्त्यात्मत्यागेन-सम्मानार्ह सदा भव॥

    [सत्य से, ब्रह्मचर्य से, व्यायाम से, विद्या से, देशभक्ति से आत्म-त्याग से सदा सम्मान पाओ।]

    मैं फिर देख रहा हूँ कि संध्या समय बिड़ला-छात्रावास में वे घूम रहे हैं। उनके साथ हैं आचार्य आनंदशंकर, बापू भाई ध्रुवजी और उनके पीछे-पीछे चले जा रहे है श्रीलक्ष्मणदामजी इंजीनियर। एक छात्र भीतर की कोठरी में बैठा पढ़ रहा है। वह इन्हें देखकर सकपकाकर उठ खड़ा होता है। और ये अपनी लोक-विद्युत स्वाभाविक मुस्कान के साथ कहते है, 'अरे! इतना पढ़ते हो। बुद्धि तो बढ़नी ही चाहिए पर शरीर भी बढ़ना चाहिए। क्या करोगे बहुत बुद्धि लेकर जब कोई आकर तुम्हें उठाकर पटक देगा। देखो एक दोहा कंठस्थ कर लो—

    दूध पियो कसरत करो, नित्य जपो हरि नाम। 
    मन लगाइ विद्या पढो, पूरे हों सब काम॥'

    कहो दोहे को। वह विद्यार्थी भी दोहा कहने लगता है। आचार्य ध्रुवजी अपनी छड़ी दोनों हाथों से पकड़े हुए, उसकी गोल मूठ कंधे पर जमाए देख रहे है हिंदू-विश्वविद्यालय के कुलपति की शिक्षा-प्रणाली।

    विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के अवसर पर उनके उपदेशों की ध्वनि आजतक में स्पष्ट सुन रहा हूँ—सत्यं वद। धर्म चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्यदेवो भव। और दीक्षांत भाषण में वे कहते जा रहे है—हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना इसलिए की गई है कि यहाँ के छात्र विद्या भी प्राप्त करें और साथ ही अपने धर्म और अपने देश के भी सच्चे सेवक बनें। यह विश्वविद्यालय दोनों के लिए है। यहाँ के द्वार सबके लिए खुले हुए है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ आकर कोई लौटकर न जाए। सच्चरित्रता हमारे विश्वविद्यालय का मूल मंत्र है और यही हमारी शोभा है। केवल डिग्री देने के लिए तो बहुत-से विश्वविद्यालय बने हुए है। हम प्रत्येक छात्र को शुद्ध सात्विक, तेजस्वी और वीर मनुष्य बनाना चाहते है जो ईश्वर में विश्वास करे, प्रत्येक प्राणी का आदर करे, वीरता के साथ अन्याय का विरोध करे और आत्म-सम्मान के साथ सुवाई के साथ जीविका चलाता हुआ अपना, समाज का और देग का कल्याण कर सके।
    आज वे दिन नहीं रहे और वे मालवीयजी भी नहीं रहे—

    नैनन में जो सदा रहते—तिनकी अव कान कहानी सुन्यौ करे

    किंतु उनके न रहने पर भी उनके उपदेश चिंरजीवी हैं, उनके आदर्श अमर है, उनकी रचनाएँ सुचिर प्रतिष्ठित हैं। भावी जाति में दृढ़ संकल्पता, अध्यवसाय, लोक-कल्याण और आत्मत्याग की सजीव भावना भरने के लिए उनका हिंदू विश्वविद्यालय शतशः स्वरूप लेकर उनकी अमर कीर्ति का गुणगान कर रहा है; किंतु फिर भी मालवीयजी की स्मृति हटती नहीं है। उनकी अनुपस्थिति निरंतर खटकती जा रही है। क्योंकि जिस आत्मभाव से विश्वविद्यालय के प्रत्येक छात्र के हृदय में, विश्वविद्यालय की ईंट-ईंट मे, वृक्ष-वृक्ष में, कण-कण में वे व्याप्त थे, वह आत्मभाव कहीं देखने को नहीं मिल रहा है। यों तो राम गए और कृष्ण भी गए और फिर भी संसार चला ही जा रहा है, हँसता-खेलता, रोता-गाता, किंतु प्रश्न यह है कि क्या वह उसी प्रकार चला जा रहा है जैसे चाहिए था? इसका उत्तर शुद्ध नकारात्मक है। और इसीलिए बार-बार स्रष्टा की स्मृति प्रबल होकर मानस को विक्षुब्ध किए डाल रही है, मथे डाल रही है।

    पुण्यश्लोक मालवीयजी के गुणानुकीर्त्तन के लिए, उनकी सर्वतोमुखी क्रियाओं की व्याख्या के लिए, उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं की सरणि बनाने के लिए जिस योग्यता की अपेक्षा होनी चाहिए उसके सर्वथा अभाव में वाणी सहसा मूक हो जाती है और 'नेति' का सीधा-सा, सरल-सा, आधार लेकर मौन रहने के अतिरिक्त कोई दूसग माँग नहीं रह जाता। व धर्मनिष्ठ पुरुष ये आचार में भी विचार में भी। यदि व्यासजी के अनुसार लोककल्याण को ही हम धर्म की कसौटी मान ले तो मालवीयजी की रेखा उस पर सबसे अधिक प्रदीप्त दिखाई देगी। शिक्षा के क्षेत्र में जिन फोवेल, मौन्तेसारी रूसो, पैस्तालौजी आदि शिक्षा-शास्त्रियों की नामावली ने संसार को प्रभावित कर रखा है, वे सब एकत्र होकर भी मालवीयजी तक नहीं पहुँच सकते, क्योंकि इन सबने जो सिद्धांत प्रतिपादित किए है उन सब का लक्ष्य सामाजिक दृष्टि से मनुष्य के बच्चे को जीने योग्य मनुष्य बना देना-भर है। किंतु मालवीयजी की शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के बच्चे को केवल मनुष्य ही नहीं वरन् देवता बना देने का है, जिसकी संसार पूजा करे, जिससे शक्ति, उत्साह और प्रेरणा का वरदान माँगे, जिसके आशीर्वाद में जीवन के संपूर्ण देवी तत्त्व प्राप्त कर सके। किस शिक्ष-शास्त्री ने यह कल्पना की है? केवल मनोविज्ञान का एक झूठा ढोंग खड़ा करके अव्यावहारिक सिद्धांतों के इंद्र-जाल में लोकवृत्ति को फँसाने का एक मोहक जाल-भर विदेशी शिक्षा-शास्त्रियों ने फैला दिया है पर वास्तव में उसमें तत्त्व कुछ नहीं, उसका परिणाम कुछ नहीं।

    राजनीतिक क्षेत्र में उन्होंने जिस अध्यवसाय, जिस साहस और जिस आत्म-त्याग का प्रदर्शन किया है वह उनका अलौकिक कार्य है। शब्दों की शक्ति उस तक पहुँचने में भी अगक्त हो रही है। किंतु सबसे अधिक प्रभावशाली उनका व्यक्तित्व था, वे स्वयं थे।

    प्रत्येक व्यक्ति को सदा यह अधिकार था कि वह उनसे जब चाहे जाकर मिले, चाहे जितनी देर तक उनसे बातचीत करे और चाहे जिस काम के लिए उनसे पत्र लिखवा ले। और वे—अतुलित धैर्य के साथ सबकी बातें एकाग्र होकर सुनते, दुःखी के दुख में स्वयं भी रोने लगते और जिस प्रकार भी हो सकता उसे निराश न लौटने देते। न जाने कितनी बार ऐसा हुआ है कि केवल सहायता और लोक-कल्याण के लिए उन्होंने नियमों की भी चिंता नहीं की। एक बार एक छात्र इंटर की परीक्षा में एक विषय मे 13 अंकों से अनुत्तीर्ण हो गया। वह विलायत डॉक्टरी पढ़ने जाने वाला था, उसे प्रवेश भी मिल गया था। किंतु इस अनुत्तीर्णता ने उसकी संपूर्ण आकांक्षाओं पर पानी फेर दिया। मैंने पूज्य मालवीयजी से सब घटना कही। उन्होंने तत्काल रजिस्ट्रार को बुलाकर अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके उम बालक को उत्तीर्ण घोषित करने की आज्ञा दे दी। रजिस्ट्रार महोदय ने कहा कि यदि यह छात्र उत्तीर्ण कर दिया जाएगा तो लगभग 36 विद्यार्थी और भी उत्तीर्ण करने पड़ेगे। पूज्य मालवीय जी ने तत्काल कहा—तो डरते क्या हो। करो सबको उत्तीर्ण। हमारे विश्वविद्यालय में एक भी छात्र अनुत्तीर्ण नही होना चाहिए।

    मनुष्यता ही उनका नियम था और देवत्व उनका गुण था। कभी सुना करते थे—

    गायन्ति देवा किल गीतिकानि, धन्यास्तु ये भारतभूमि भागे। 
    स्वर्गापवर्गस्य च हेतु भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।

    (देवता लोग यह गीत गाते है कि वे धन्य है जो स्वर्ग और अपवर्ग के लिए सहायक भारतवर्ष में मनुष्य होकर जन्म लेते है।

    मालवीयजी भी ऐसे ही कोई देवता थे जो हम लोगों के महापुण्य के कारण यहाँ आए और हमें शक्ति देकर, साधन देकर, अंतर्धान हो गए और अंतर्धान होने के पूर्व संपूर्ण देश को और हिंदू-समाज को जो उन्होंने दिव्य संदेश और आदेश दिया है वह उनकी स्मृति को चिरस्थायी करने को अकेला ही पर्याप्त है।

    यदि मैं उनसे अपने निकटतम संपर्क को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाऊँ तब भी उनके देवत्व का ध्यान करके मैं भक्त की तन्मयना से साहस, शक्ति और स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए ही उन्हें पुकार सकता हूँ—'मेरे मालवीयजी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संस्मरण और आत्मकथाएँ (पृष्ठ 97)
    • रचनाकार : सीताराम चतुर्वेदी

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