मेरे मालवीय जी
समस्त जाति जिसे अपनाने को व्याकुल हो, समग्र देश जिससे ममत्व जोड़ने का हठ करता हो, समूचा विश्व जिसे परम आत्मीय मानने पर अड़ा बैठा हो, उसे 'मेरे' के परम संकुचित, नितांत क्षुद्र और अत्यंत स्वार्थपूर्ण घेरे मे बाँध छोड़ना कितनी बड़ी डिठाई है, कितना बड़ा