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देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद

deshratn Dau. rajendr parsad

पुरुषोत्तम दास टंडन

पुरुषोत्तम दास टंडन

देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद

पुरुषोत्तम दास टंडन

और अधिकपुरुषोत्तम दास टंडन

    1935 का वर्ष था। इलाहाबाद क्रिश्चियन कॉलेज में अपना कृश शरीर साधारण वस्त्रों से आच्छादित किए एक दीर्घकाय व्यक्ति छात्रों को ईमानदारी और रचनात्मक कार्य का महत्त्व समझा रहा था। उसके कृषक जैसे मुख-मंडल पर दो विशाल नेत्र चमक रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था मानो वे नेत्र हमारे हृदयों के भीतर झाँक रहे हों। उसकी गंभीर भाषण-शैली सभी के हृदयों में यह विश्वास उत्पन्न कर रही थी कि वह जो कुछ कहता है, उसे अपने जीवन में कार्यान्वित भी करता है। यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं वरन् देशरत्न डॉ. राजेंद्रप्रसाद थे। इस महान् एकनिष्ठ गाँधीवादी के लिए भारत के प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में अपार श्रद्धा और सम्मान है। वे अत्यंत विनम्र है और कभी-कभी तो उनकी यह विनम्रता लोगों को उलझन में डाल देती है। प्रायः लोग यह भी कहते देखे जाते है कि यह ढीले व्यक्ति हैं और सरलतापूर्वक दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं। यह सत्य है कि झगड़ा करना उनके वश का नहीं और वे दूसरों पर अपनी सम्मति लदना भी नहीं चाहते, परंतु यह कि वे किसी बात को बिना सोचे समझे मान लेते है, असत्य है। हाल ही में उनके एक मित्र ने कहा था कि राजेंद्र बाबू शक्ति नहीं लगाते और जो कुछ नेहरू जी अथवा सरदार पटेल कहते अथवा करते हैं, उसको स्वीकार कर लेते है। सम्भवतः किसी सीमा तक यह कथन सत्य है। परंतु इसमें सभी अधिकांशतः एकमत होंगे कि यदि कभी किन्हीं बातों पर अपना मतभेद होते हुए भी उनकी मान लेते हैं, तो वे ऐसा अनुशासन सुदृढ़ रखने के उद्देश्य से करते है। परंतु राष्ट्र इस महान् गाँधीवादी से यह आशा रखता है कि वह गाँधीजी की उच्च परंपराओं को स्थिर रखे और किसी व्यक्ति से चाहे वह छोटा हो या बड़ा, मौलिक मतभेद होने पर बिना किसी झिझक के स्पष्ट शब्दों में उसे व्यक्त करें और बलपूर्वक मनवाने का प्रयत्न करे।

    डॉ. राजेंद्रप्रसाद केवल एक राजनीतिज्ञ ही नहीं, वरन् एक प्रकांड विद्वान् भी है। बाल्यावस्था से ही उनकी साहित्य तथा अन्य विषयों के प्रति प्रगाढ़ रुचि रही है और उन पर उनका पूर्ण अधिकार है। वे कई भाषाएँ जानते हैं और सरलतापूर्वक उनमें लिख-बोल सकते हैं। हिंदी में उनकी आत्मकथा हिंदी साहित्य को उनकी एक अपूर्व देन है। आत्मकथा पढ़ते समय उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की गुरुता की झलक मिलती है। उनकी भाषा सरल और सुस्पष्ट है तथा विचारों की अभिव्यक्ति में ईमानदारी है। सरदार पटेल ने इस पुस्तक के विषय में लिखा था कि उनकी आत्मकथा के प्रत्येक पृष्ठ पर राजेंद्र बाबू की सरलता और विनम्रता की स्पष्ट छाप है। उनकी आत्मकथा भारतीय जन-आंदोलन के गत 30 वर्षों का इतिहास है।

    डॉ. राजेंद्रप्रसाद स्वभावतः झेंपू हैं और उन्हें किसी पर क्रोध नहीं आ सकता। उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वयं लिखा है कि मैं बचपन ही से दब्बू रहा हूँ और किसी बड़े मामले में मैं तुरंत कोई फ़ैसला नही कर पाता। जब गोखले ने राजेंद्रप्रसाद को भारत-सेवक मंडल (सर्वेट्स आव इंडिया सोसाइटी) में सम्मिलित होने के लिए लिखा तो वे इसके लिए तुरंत उद्यत हो गए, परंतु बड़े भाई की सम्मति की उपेक्षा करने की न तो उनकी इच्छा थी और न साहस ही था। तथापि उन्होंने अपने भाई को एक अत्यंत विनम्रतापूर्ण पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने 'भारत सेवक-मंडल' में सम्मिलित होने की अनुमति देने की प्रार्थना की, जिससे उन्हें देश-सेवा का पूरा अवसर मिल सके। इस पत्र से उनके महान् व्यक्तित्व का पता चलता है। उन्होंने लिखा—भाई साहब, भावुक होने के कारण आपके सामने बात करने की मेरी हिम्मत नही। आपको कठिनाई और परेशानी में डालकर चला जाना कृतघ्नता होगी, परंतु 30 करोड़ जनता के लिए में कुछ त्याग करना चाहता हूँ। श्री-गोखले की संस्था में सम्मिलित होकर व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई त्याग नही करना पड़ेगा। मुझको ऐसी शिक्षा मिली है कि मैं जिस भी परिस्थिति में रहूँ अपने को उसी के अनुकूल बना सकता हूँ। मेरा रहन-सहन सरल है और इसीलिए मुझे किसी विशेष सुविधा की आवश्यकता नहीं। जो कुछ भी मुझे संस्था से मिलेगा वही मेरे लिए पर्याप्त होगा। परंतु मैं यह नहीं कह सकता कि आपको त्याग नही करना पड़ेगा। आपको बड़ी-बड़ी आणाएँ थी और एक क्षण में उन पर पानी फिर जाएगा। परंतु इस क्षणभंगुर संसार में धन, पद और सम्मान सभी नष्ट हो जाते हैं। जितना ही धन बढ़ता है, उतनी ही आवश्यकता बढ़ती जाती है। यद्यपि लोग कह सकते है कि उनको धन से संतोष मिलता है, तथापि जिन्हें थोड़ा बहुत भी ज्ञान है, वह जानने है कि संतोष हृदय की वस्तु है, बाहर से नहीं प्राप्त होती। करोड़पति की अपेक्षा एक ग़रीब आदमी अपने थोड़े पैसे से अधिक संतुष्ट रहता है। ऐसी स्थिति में हमें ग़रीबों से घृणा नही करनी चाहिए। विश्व के महान् व्यक्ति सबसे ग़रीब रहे है। यद्यपि आरंभ में लोगों ने उन्हे यातनाएँ दी और उनको घृणा की दृष्टि से देखा। परंतु हँसी उड़ाने वाले और यातना देनेवाले धूल में मिल गए, उनका कोई अस्तित्व नहीं, उनकी कोई बात भी नहीं करता, परंतु जिन लोगों ने यातनाएँ भोगी और घृणा के पात्र बने, वे करोड़ों लोगों के मन और ध्यान में बसते हैं। यदि जीवन की मेरी कुछ भी आकांक्षा है तो यह है, कि मैं देश की सेवा में लगूँ। मुझमें मातृभूमि की सेवा के अतिरिक्त कोई भी महत्त्वाकांक्षा नहीं है। कौन राजा अथवा साधारण व्यक्ति है जो गोखले-सा प्रभावशाली है अथवा उसको उनका-सा ऊँचा दर्जा और सम्मान मिला है? फिर भी क्या वे ग़रीब व्यक्ति नहीं है? यह पत्र इस बात का प्रमाण है कि बाल्यावस्था में ही डॉ. राजेंद्रप्रसाद ने अपनी मातृभूमि की सेवा करने की उत्कट अभिलाषा थी और उन्होंने इसे सत्य करके दिखा दिया है। आपके भाई इस प्रार्थना को स्वीकार करने में असमर्थ रहे और एक छोटे भाई की भाँति आपने अपने बड़े भाई के आदेश को शिरोधार्य किया और उक्त संस्था में सम्मिलित होने के लिए पूना नहीं गए।

    डॉ. राजेंद्रप्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1885 को हुआ था। आपके पिता का नाम मुंशी महादेव प्रसाद था, वे एक ज़मीदार थे। राजेंद्र बाबू अपने माता-पिता के पाँचवें और सबसे छोटे लड़के थे। आप बहुत ऊँचे कायस्थ वंश में उत्पन्न है। उन दिनों उनके गाँव में यह प्रसिद्ध था कि जो मदिरा-पान करेगा वह कोढ़ी हो जाएगा। राजेंद्र बाबू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनके परिवार के किसी सदस्य ने कभी मद्यपान नहीं किया और अब तक इस परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है। आप 1893 में छपरा के स्कूल में भर्ती किए गए और 1902 में कलकत्ता विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा में सर्वप्रथम रहे। आप सर्वप्रथम बिहारी छात्र थे, जिन्हें यह विशिष्ट सफलता मिली। बिहार की तत्कालीन प्रमुख मासिक पत्रिका इंडियन रिव्यू ने राजेंद्र बाबू की प्रतिभा से प्रभावित होकर लिखा—तरुण राजेंद्र हर प्रकार से एक प्रतिभाशाली छात्र है। आशा है कि वह विश्वविद्यालय में अपनी पूर्ण सफलता के स्तर को स्थिर रख सकेगा। और एक दिन आवेगा जब वह प्रांत के हाईकोर्ट में उचित पद प्राप्त करेगा। यह आशा अवश्य पूर्ण होती यदि राजेंद्र बाबू गाँधीजी के प्रभाव में आकर राजनीतिक आंदोलन में न कूदते। वकालत से उनकी आय बहुत अच्छी थी और सारे वकीलों के हृदय में उनके प्रति बहुत अधिक सम्मान था। उन्होने अपने निर्मल चरित्र और ईमानदारी से सभी को प्रभावित कर रखा था। उन्होंने बहुत धन कमाया परंतु आय का अधिकांश वे ग़रीबों, दुखियों और लोकहित के कार्यों को आर्थिक सहायता देने में व्यय कर देते थे। जब वकालत छोड़कर वे असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हुए तब उनके पास बैंक में केवल 15) शेष रह गाए थे। सन् 1906 मे आपने बी. ए. पास करके एम. ए. में अँग्रेज़ी ली और प्रत्येक परीक्षा में सर्वप्रथम रहे। वकालत आरंभ करने के पूर्व वे मुज़फ़्फ़रपुर में कुछ समय तक प्रोफ़ेसर रहे।

    राजेंद्र बाबू जब पाँचवीं कक्षा में थे, तभी 12 वर्ष की अल्प आयु में उनका विवाह कर दिया गया था। उस समय उन्हें विवाह के वास्तविक महत्त्व का कुछ भी ज्ञान नही था, जिसका उल्लेख उन्होने अपनी आत्मकथा में किया है।

    चंपारन-आंदोलन ने बिहार और राजेंद्र बाबू का नाम अमर कर दिया है। ब्रिटिश अत्याचारों से त्रस्त नील की खेती करनेवालों की ओर से गाँधी जी के नेतृत्व में चंपारन में आंदोलन आरंभ हुआ। आंदोलन सफल रहा और सरकार को घुटने टेकने पड़े। जनता को विजय मिली और गाँधी जी को मिले राजेंद्रप्रसाद, जो आगे चलकर गाँधीजी के प्रमुख सहयोगी बने। स्वर्गीय श्रीसत्यमूर्ति ने राजेंद्र बाबू की प्रशंसा में लिखा था, भारत में उनकी कोटि के बहुत कम व्यक्ति है और यदि भारत के राजनीतिक जीवन का दिव्य उत्तराधिकार आवश्यक समझा जाए तो मेरा विचार है कि महात्मा गाँधी का उत्तराधिकारी अगर कोई बन सकता है, तो वह राजेंद्र बाबू के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता।

    राजेंद्र बाबू कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं और उसके जेनरल सेक्रेटरी के पद पर भी काम कर चुके है। जब आप कलकत्ता में पढ़ते थे तब वे उस समय 1906 को 22 वें कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलिन हुए थे। राजेंद्र बाबू ने स्वयंसेवक के रूप में उक्त अधिवेशन का कार्य किया। 1934 में सर्वसम्मति से आप कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित किए गए। तदनंतर जब कभी कोई कठिनाई उपस्थित हुई तो उसे दूर करने में आपका सहयोग लिया गया। त्रिपुरा कांग्रेस के पश्चात् सभी की आँखें आपकी ही ओर लगी हुई थी और एक लंबे आवेषपूर्ण वाद-विवाद के अनंतर आप कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। आप कांग्रेस महासमिति के 1912 से और कार्यसमिति के 1922 से निरंतर सदस्य रहे हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् आप भारत सरकार के खाद्य-मंत्री बनाए गए। इस पद पर आपने सफलतापूर्वक कार्य किया और अपने समस्त सहयोगियों को प्रभावित किया। इस समय आप भारत के राष्ट्रपति है और आपको सभी का विश्वास और सम्मान प्राप्त है। राजेंद्र बाबू को देखकर बहुत कम व्यक्तियों को यह विश्वास होगा कि वह विदेश-भ्रमण भी कर चुके है। वास्तविकता यह है कि उन्होने विदेशों का बहुत भ्रमण किया है। वह जर्मनी, इटली इत्यादि बहुत देशों की यात्रा कर चुके हैं। आस्ट्रेलिया के पेज नगर में एक शांतिवादी सम्मेलन में राजेंद्र बाबू ने अहिंसात्मक प्रतिरोध के विषय में भारतीय दृष्टिकोण रखना चाहा; परंतु फासिस्ट गुंडों ने सम्मेलन को बैठक में मार-पीट मचा दी, जिसमे राजेंद्र बाबू को गहरी चोटे आई। 

    राजेंद्र बाबू महान् संघटनकर्ता है। संघटन करने की उनकी शक्ति की परीक्षा बिहार-भूकंप के समय में हुई। कारागार में जब आप अत्यधिक अस्वस्थ हो गए तो उपचार करने के लिए मुक्त कर दिए गए। भूकंप ने बिहार को ध्वस्त कर डाला था। पीड़ितों के करुण कंदनों से आप विचलित हो उठे और अपने गिरे हुए स्वास्थ्य की ओर बिना ध्यान दिए हुए ही तन-मन-धन से सहायता-कार्य में जुट गए और भूकंप पीड़ितों की जो अनुपम सेवा की, उसकी सारे देश में प्रशंसा हुई। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में राजेंद्र बाबू के विषय में लिखा है—देखने में वे असली बिहारी किसान जान पड़ते है और जब तक उनकी सरलतापूर्ण आँखों और ईमानदारी से भरे हुए चेहरे पर ध्यान न दीजिए तब तक पहली बार की मुलाक़ात में वे प्रभावित नहीं करते। कोई भी व्यक्ति उनकी आँख और चेहरे को नहीं भूल सकता। उनसे होकर सत्य झाँकता है, इसमें संदेह का स्थान नहीं। आधुनिक दुनियादारी के हिसाब से वह एक देहाती, कुछ संकुचित दृष्टिकोण वाले प्रतीत होते है, परंतु उनकी असाधारण प्रतिभा, उनकी निश्छल बात, उनकी कर्मठता और भारतीय स्वतंत्रता के प्रति उनकी लगन ऐसे गुण है, जिनके कारण केवल उनके प्रांत में ही नहीं, बल्कि समस्त देश में लोग उनका सम्मान करते है। किसी भी राज्य में किसी को नेतृत्व का ऐसा भारी गौरव नही प्राप्त है, जैसा कि बिहार में राजेंद्र बाबू को मिला है। राजेंद्र बाबू के अतिरिक्त ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति है, जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि गाँधी जी के संदेश को उन्होंने पूर्ण रूप से अपनाया है।

    डॉ. राजेंद्र प्रसाद बहुत अच्छे साथी हैं। उनके साथ रहकर आप सदैव ईमानदारी से भरी सहायता और सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। उनके मुख पर कुछ ऐसी आध्यात्मिक क्रांति है जो प्रेरणा और सहायता प्रदान करती है। वह कभी भी पदों के इच्छुक नहीं रहे, परंतु ऊँचे पद उनके चरणों पर गिरते है और वे कर्तव्य समझकर उनको सँभालते हैं। वे अत्यंत उदार-हृदय और क्षमाशील हैं और विश्वास की ज्योति सदैव उनके हृदय में जलती रहती है। उनके स्वभाव में उष्णता और तीक्ष्णता का नाम एवं निशान नहीं। उन्होंने अपने गुरु महात्मा गाँधी का पूर्ण रूप से अनुसरण किया है और जब कभी उनसे मतभेद भी हुआ तब भी राजेंद्र बाबू ने उनकी बात को स्वीकार किया, क्योंकि आप को यह विश्वास था कि बापू की ग़लती न करने की आदत है। आपने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मुझे विश्वास हो गया था कि बापू बहुत ही दूरदर्शी हैं। इसलिए मैंने अपने दृष्टिकोण को उनके सामने रखना नियम बना लिया है और यदि उन्होंने उसको मान लिया तो ठीक ही है अन्यथा में ही उनकी सलाह को स्वीकार कर लेता हूँ।

    डॉ. राजेंद्र प्रसाद आज अपना 65वाँ वर्ष पूरा कर चुके है। स्वर्गीय श्रीमती नायडू ने डॉ. प्रसाद के विषय में लिखा था कि बाबू राजेंद्रप्रसाद के भव्य व्यक्तित्व के बारे में स्वर्ण लेखनी को मधु में डुबोकर लिखना होगा। उनकी असाधारण प्रतिभा उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और आत्म-त्याग के महान् गुणों ने संभवतः उन्हे हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में मैं इससे अधिक क्या कह सकती हूँ कि गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है, जो ईसा मसीह के निकट सेट जान का था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संस्मरण और आत्मकथाएँ (पृष्ठ 71)
    • रचनाकार : पुरुषोत्तमदास टंडन

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