‘शिष्य। स्पष्ट कह दूँ कि मैं ब्रह्मराक्षस हूँ किंतु फिर भी तुम्हारा गुरु हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला, किंतु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गई और मैं ब्रह्मराक्षस के रुप में यहाँ विराजमान रहा।’
‘नया ख़ून’ में जनवरी 1959 में प्रकाशित कहानी ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ मैंने बाबू साहेब से सुनी थी। बाबू साहेब यानी स्वर्गीय श्री गजानन माधव मुक्तिबोध, मेरे पिता, जिन्हें हम सभी, दादा-दादी भी बाबू साहेब कहकर पुकारते थे। यह उन दिनों की बात है जब हम राजनांदगाँव में थे दिग्विजय कॉलेज वाले मकान में। वर्ष शायद 1960। तब हमें बाबू साहेब यह कहानी सुनाते थे पूरे हावभाव के साथ। हमें मालूम नहीं था कि यह उनकी लिखी हुई कहानी है। वे बताते भी नहीं थे। कहानी सुनने के दौरान ऐसा प्रभाव पड़ता था कि हम एक अलग दुनिया में खो जाते थे। विस्मित, स्तब्ध और एक तरह से संज्ञा शून्य। अपनी दुनिया में तभी लौटते थे जब कहानी ख़त्म हो जाती थी और ब्रह्मराक्षस अंतरध्यान हो जाता था।
बचपन की कुछ यादें ऐसी होती हैं जो कभी भुलाई नहीं जा सकती। कितनी भी उम्र हो जाए वे अंतःकरण में ज़िंदा रहती हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है। अक्सर कोई न कोई याद ज़ोर मारने लग जाती है। अतीत को टटोलते हुए मन कुछ पल के लिए ही सही, हवा में उड़ने लगता है। ऐसा पिताजी को लेकर, माँ को लेकर होता है। बाबू साहेब को गुज़रे हुए अर्धशती बीत गई। 52 वर्ष हो गए। 11 सितंबर 1964 और माँ शांता मुक्तिबोध 8 जुलाई 2010। हम ख़ुशनसीब हैं कि हम पर माँ का साया लंबे समय तक बना रहा। पिताजी के गुज़रने के बाद लगभग 46 वर्षों तक वे हमारे लिए कवच का काम करती रहीं। हमारी शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-चाकरी, शादी-ब्याह, बहू-बेटी, पोते-पोतियों सभी को उन्होंने अपने वात्सल्य से एक सूत्र में बाँधे रखा। वात्सल्य का यह धागा अटूट हैं और हम सभी अभी भी साथ-साथ हैं और ज़िंदगी भर साथ-साथ रहने वाले हैं।
बहरहाल, पिताजी की याद करते हुए मैं कुछ सिलसिलेवार कहने की कोशिश करता हूँ इसलिए ताकि कुछ क्रमबद्धता आए। वरना छुट-पुट प्रसंगों को पहले भी शब्दों में पिरोया जा चुका है। कुछ यत्र-तत्र छपा भी हैं।
जहाँ तक मेरी यादें जाती हैं, शुरू करता हूँ नागपुर से। आज से क़रीब 60 बरस पूर्व, वर्ष शायद 1954-551 नागपुर की नई शुक्रवारी में हमारा किराए का कच्चा मकान। मिट्टी का। छत कवेलू की। फ़र्श गोबर से लिपा-पुता। घर में भाई-बहनों में मैं, दिलीप, ऊषा एवं सरोज। हमें नहीं मालूम था हमारा कोई बड़ा भाई भी है जो उज्जैन में दादा-दादी के पास रहता है। एक दिन जब वे नई शुक्रवारी के घर में आए तो पता चला बड़े भाई हैं—रमेश।
6-7 वर्ष की उम्र में कितनी समझदारी हो सकती है? इसलिए नई शुक्रवारी के उन दिनों को लेकर मन में कुछ ख़ास नहीं है। अलबत्ता मकान का स्वरूप और कुछ गतिविधियाँ ज़रूर ध्यान में आती हैं।
मसलन पिताजी आकाशवाणी में थे। रात में उन्हें घर लौटने में प्रायः विलंब हो जाता था। उनकी प्रतीक्षा में माँ घर के बाहरी दरवाज़े पर चौखट पर, घंटों बैठी रहती थी। कुछ टोटके भी करती थी, ताकि वे जल्दी घर लौटें। चुटकी भर नमक चौखट के दोनों सिरे पर बाएँ-दाएँ रखती थी। पता नहीं इस क्रिया में ऐसी क्या शक्ति थी। ज़ाहिर है विश्वास जो उन्हें ताक़त देता था। मनोबल बढ़ाता था। पिताजी देर रात लौटते। तब तक हम सो चुके होते। आँखों के सामने एक और दृश्य है दूर कुएँ से पिताजी रोज़ सुबह या शाम जब जैसी ज़रूरत पड़े, पानी भरकर लाते थे। दोनों हाथों में पीतल की दो बड़ी-बड़ी बाल्टियाँ लिए उनका चेहरा अभी भी आँखों के सामने हैं, पसीने से नहाया हुआ। बाल्टी से छलकता हुआ पानी, पसीने की बूँदें और तेज़ चाल।
उन दिनों की न भूलने वाली एक और घटना हैं— स्कूलिंग की। स्कूल में दाख़िले के वक़्त की। स्कूल का पहला दिन प्रायः सभी बच्चों के लिए भारी होता है। उनका जी घबराता है। रोना-धोना शुरू कर देते हैं। माँ-बाप का हाथ नहीं छोड़ते। शिक्षकों को उन्हें चुप कराने, मनाने में पसीना आ जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। बल्कि अपेक्षाकृत कुछ ज़्यादा ही। एक दिन पिताजी मुझे गोदी में उठाकर स्कूल ले गए। कक्षा पहिली में दाख़िले के लिए। कक्षा में जब तक वे साथ में थे, मैं दहशत में होने के बावजूद ख़ामोश था। वे मुझे पुचकारते हुए, दिलासा देते रहे और फिर कक्षा के बाहर निकल गए। कुछ पल मैंने इंतिज़ार किया और फिर ज़ोर की रुलाई फूट पड़ी। शिक्षक रोकते, इसके पूर्व ही मैं कक्षा से बाहर। सड़क पर दूर पिताजी जाते हुए दिख पड़े। मैं रोते हुए उनके पीछे। पता नहीं कितना सफ़र तय हुआ। न जाने किस अहसास से एकाएक वे पलटे और पीछे मुझे देखकर हैरान रह गए। लौटे, मुझे गोद में लिया, पुचकारा, चुप कराया और फिर नीचे उतारकर उँगली पकड़कर मुझे घर ले आए।
स्कूल न जाने का परिणाम यह निकला कि मेरी बड़ी बहन जो उसी स्कूल में कक्षा तीसरी में पढ़ती थी, उसे मेरे साथ पहली में बैठाया गया। आज बड़ी बहन भी दुनिया में नहीं है। पर उसका मासूम त्याग व बालपन की तसवीर दिलो-दिमाग़ में जस की तस है।
नई शुक्रवारी के बारे में और ज़्यादा कुछ याद नहीं। इतना ज़रूर है कि जाफ़रीनुमा कक्ष में बैठकें हुआ करती थी, चाय-पानी का दौर चलता था। बैठकों में शामिल होने वाले पिताजी के मित्रों में मुझे शैलेंद्र कुमार जी का स्मरण है। नागपुर नवभारत के संपादक। एक कारोबारी भी थे मोटेजी। विचारों से कामरेड। उनके यहाँ हमारा आना-जाना काफ़ी था। उनकी पत्नी वत्सलाबाई मोटे माँ की अच्छी सहेली थी। मुझे याद नहीं, स्वामी कृष्णानंद सोख्ता उस घर में आया करते थे। साप्ताहिक ‘नया ख़ून’ के संपादक। विशाल व्यक्तित्व और दबंग आवाज़। भैया बताते हैं—नई शुक्रवारी की उस मकान में हमारे यहाँ आने वालों में प्रमुख थे सर्वश्री स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, जीवनलाल वर्मा विद्रोही, प्रमोद वर्मा, शरद कोठारी, लज्जाशंकर हरदेनिया, के. के. श्रीवास्तव, श्रीकांत वर्मा, रामकृष्ण श्रीवास्तव, अनिल कुमार, मुस्तजर, भीष्म आर्य और नरेश मेहता।
स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के बारे में याद हैं वे हमारे गणेशपेठ के मकान में अक्सर आया करते थे। जीवनलाल वर्मा व्रिदोही, प्रमोद वर्मा, रम्मू श्रीवास्तव, हरिशंकर परसाई, टी.आर. लूनावत, भाऊ समर्थ और प्रभात कुमार त्रिपाठी (जबलपुर) इन विद्वानों के चेहरे याद हैं। लेकिन कांतिकुमार जैन जिनके संस्मरण बहुचर्चित माने जाते हैं, घर कभी नहीं आए। न नागपुर के दोनों मकानों में आए न राजनांदगाँव में। बहरहाल घर में होने वाली साहित्यिक बहसों में और भी लोग शामिल रहते थे, पर अधिक कुछ स्मरण नहीं। सोख्ता जी का स्मरण इसलिए कुछ ज़्यादा है क्योंकि वे आते ही हम लोग के साथ घुल मिल जाया करते थे। छोटे भाई दिलीप को कंधों पर बिठा लेते थे और इसी अवस्था में पिताजी के साथ चर्चा करते थे। चूँकि कच्ची उम्र दुनिया से बे-ख़बर वाली होती है इसलिए साप्ताहिक ‘नया ख़ून’ के बारे में हम विशेष कुछ जानते नहीं थे। यह उस समय का गंभीर वैचारिक साप्ताहिक पत्र था जिसकी महाराष्ट्र एवं महाराष्ट्र के बाहर, बुद्धिजीवियों की जमात में अच्छी पकड़ थी, प्रतिष्ठा थी।
गणेशपेठ निवास में दो घटनाएँ स्मृतियों में बेहतर तरीक़े से क़ैद है पहली मेरी छोटी बहन सरोज से जुड़ी हुई है। बहुत सुंदर थी, घुँघराले बाल थे उसके। एक बार उसे बुख़ार आया। पता नहीं कितने दिन चला। लेकिन एक दिन माँ ने देखा वह बिस्तर पर नहीं थी। ढूँढ़ा गया तो वह मकान से अलग-थलग, बाथरूम में फ़र्श पर दोनों घुटनों को मोड़कर, गठरीनुमा पड़ी हुई थी। शायद बुख़ार तेज़ था, बर्दाश्त नहीं हो रहा था, सो वह शरीर को ठंडा करने ग़ुसलख़ाने में पहुँच गई थी। वह नहीं रही। उसके न रहने का सदमा, कैसा और कितना गहरा था, मैं नहीं जानता था अलबत्ता माँ का रो-रोकर बुरा हाल था, और पिताजी गुमसुम से थे। अब सोचता हूँ उन्होंने किस क़द्र अपने आपको संयमित रखा होगा, कैसे इस अपार दुख से उबरने की कोशिश की होगी।
दूसरा प्रसंग—प्रायमरी में पढ़ता था। कक्षा याद नहीं। एक दिन स्कूल से लौटा। माँ ने खाना खाने बुलाया। रसोई में मैं और माँ खाना खाने बैठे। खाते-खाते माँ ने मुझे दाल परोसने के लिए गंजी में बड़ा चम्मच डाला तो उसमें एक मरी हुई छिपकली आ गई जो फूलकर काफ़ी मोटी हो गई थी। छिपकली को देखते ही माँ को मितली शुरू हो गई और भागकर ग़ुसलख़ाने में चली गई और उल्टियाँ करने लगी। मुझे पर मरी छिपकली का कोई असर नहीं हुई। मैं मज़े से कटोरी में परोसी हुई दाल खाता रहा जब तक माँ लौट न आई। मुझे उल्टियाँ नहीं हुई। कुछ भी विचित्र सा नहीं लगा। लेकिन तनिक स्वस्थ होने के बाद माँ हाथ पकड़कर उसी अवस्था में पैदल जुम्मा टैंक के निकट स्थित ‘नया ख़ून’ के दफ़्तर ले गई। पिताजी को बाहर बुलाया, बताया। और फिर मुझे मेयो हॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया। शरीर से विष निकालने के लिए डॉक्टरों ने क्या प्रयत्न किए नहीं मालूम। अलबत्ता मैं कुछ दिन तक अस्पताल में पड़ा रहा। दीन-दुनिया से बे-ख़बर। माँ-पिताजी की चिंता से बे-ख़बर। माँ को चूँकि उल्टियाँ हो गई थी इसलिए वे लगभग स्वस्थ थी। हालाँकि वे भी अस्पताल में भर्ती थी। मेरी चिंता उन्हें खाए जा रही थी। उन्हें इस बात का अफ़सोस था अँगीठी पर रखी दाल की गंजी खुली क्यों छोड़ी। कैसे पता नहीं लगा कि छिपकली कब गिरी। कब से उबल रही थी। बहरहाल यह घटना दिमाग से कभी नहीं गई। छिपकली को देखता हूँ, तो वह दिन याद आ जाता है। अब उसे देख घिन आने लगती है लेकिन मारने की कभी कोशिश नहीं करता। छिपकलियाँ तो घर की दीवारों पर चिपकी रहती ही हैं। इसलिए उन्हें भी ज़िंदगी के हिस्से के रूप में देखता हूँ क्योंकि वे यादें ताज़ा करती हैं। अच्छी-बुरी जैसी भी।
इसके पूर्व का एक और प्रसंग मकान—गणेशपेठ का ही। शुक्रवारी से कुछ बेहतर। पक्का खुला मकान। बड़ा सा आँगन। ऊपर छत। पतंगें उड़ाने के लिए और कटी पतंग को पकड़ने के लिए लगभग पूरा दिन हम छत पर ही बिताते थे। पतंगबाज़ी में ख़ूब मज़ा आता था। मैं और बड़े भैय्या रमेश। मेरा काम चक्री पकड़ने का रहता था, पतंगें वे उड़ाया करते थे, पैच लड़ाते, काटते-कटते। जब भी कोई कटी पतंग हमारे छत के ऊपर से गुज़रती थी, हम धागा पकड़ने के फेर में रहते थे। मुझे याद है एक बार जब ऐसी ही कटी पतंग को पकड़ने की कोशिश की, कुछ बड़े लड़के अपशब्दों की बौछार करते हुए घर में लड़ाई करने आ गए। वे काफ़ी उत्तेजित थे और मारने-पिटने पर उतारू थे। माँ ने किसी तरह समझाकर उन्हें विदा किया। हमें जो डाँट पड़ी, वह किस्सा तो अलग है। इस घटना का ऐसा असर हुआ कि हम कुछ दिन तक छत पर ही नहीं गए। न मंजा पकड़ा और न ही पतंगें उड़ाईं।
पिताजी आकाशवाणी में ही थे। नया मध्यप्रदेश बनने के बाद उनका भोपाल ट्रांसफ़र हो गया। इस ट्रांसफ़र को लेकर वे काफ़ी पसोपेश में थे। क्या किया जाए। जाएँ या नहीं। इस बीच सोख्ताजी के चक्कर यथावत थे। वे घर आते थे और पिताजी की अवस्था देखते थे। अंततः पिताजी ने भोपाल जाना तय किया। उनका बिस्तर बँध गया। एक छोटी पेटी के साथ रस्सी से बँधा उनका बिस्तर हाल में रख दिया गया। शायद दुपहर की कोई ट्रेन थी। हम सब हाल में इकट्ठे थे। इस बीच सोख्ताजी आ गए। पता नहीं उनके बीच क्या बातचीत हुई। नतीजा यह निकला कि बिस्तर खोल दिया गया, पेटी अंदर चली गई और सामान फिर अपनी जगह पर रख दिया गया। पता चला पिताजी ने आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दी और सोख्ताजी के अख़बार में संपादक बन गए। लिखने-पढ़ने के लिए उन्हें नया ठिकाना मिला। यह उनके मन के अनुकूल बात थी। अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि ‘नया ख़ून’ को नई प्रतिष्ठा मिली और वैचारिक पत्रकारिता को नया आयाम। साहित्य के अलावा ‘नया ख़ून’ सहित समय-समय पर साप्ताहिक पत्रों के लिए उनके द्वारा किया गया लेखन उन्हें श्रेष्ठ पत्रकार के रूप में भी स्थापित करता है।
नागपुर की यादें बस इतनी ही। उसके अंतिम दृश्य को याद करता हूँ। आज भी जब कभी नागपुर रेलवे स्टेशन से गुज़रता हूँ, या रुकता हूँ तो मुझे पिताजी सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए दिखाई देते हैं। हम लोग राजनांदगाँव जाने के लिए पैसेंजर ट्रेन के डिब्बे में बैठे हुए थे। ट्रेन छूटने को ही थी कि पिताजी सीढ़ियों पर दिखाई दिए। माँ की जान में जान आई। वे आए और ट्रेन चल पड़ी। वह दृश्य कैसे भुलाया जा सकता है?
अब बात सन् 1957-58 की। हम राजनांदगाँव के बसंतपुर में रहते थे। शहर से चंद किलोमीटर दूर बसा गाँव। राजनांदगाँव भी इन दिनों बड़ा गाँव जैसा ही था। कस्बाई जैसा जहाँ कॉलेज थे, अस्पताल था, शालाएँ थीं। शहरी चहल-पहल थी। शांत-अलसाया सा लेकिन सुंदर। दिल को सुकून देने वाली हवा बहती थी, लोगों में आपस में बड़ी आत्मीयता थी, भाईचारा था। पिताजी राजनांदगाँव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हुए थे और बसंतपुर से आना-जाना करते थे। कभी पैदल, कभी साइकिल से।
बसंतपुर में हमारा मकान था बढ़िया। बाहर परछी, परछी से सटा छोटा कमरा जो पिताजी की बैठक थी, दो लंबे कमरे और पीछे रसोई तथा रसोई के बाहरी दीवारों से सटा ख़ूब बड़ा बगीचा जिसमें फलों के झाड़ थे, सब्जियाँ उगाई जाती थीं। यह मकान चितलांगियाजी का था और बग़ीचा भी उनका। बसंतपुर के दिन वाक़ई बहुत ख़ूबसूरत थे। उसका सुखद अहसास अभी तक क़ायम है।
यहाँ रहते हुए कोई ऐसी घटना याद नहीं है जो पिताजी के व्यक्तित्व को नए ढंग से रेखांकित करती हो। अलबत्ता वे कितने पारिवारिक थे वह ज़रूर ज़ाहिर होता है। रात को कंदील की रोशनी में वे हमें पढ़ाते थे। क्लास लेते थे। वक़्त-वक़्त पर मेरे साथ शतरंज खेलते थे। जान-बूझकर मुझे जिताते थे। शाम को कॉलेज से घर भाले के बाद शायद ही कभी शहर जाते हो। यानी उसके बाद उनका पूरा समय हमारा था। हमारे साथ वक़्त बिताते। बाते करते या फिर हाथ में किताब या काग़ज़ क़लम लेकर लिखने बैठ जाते।
बसंतपुर में हम ज़्यादा दिन नहीं रहे। शायद साल-डेढ़ साल। राजनांदगाँव महाविद्यालय परिसर में अंतिम सिरे पर स्थित शीर्ण-जीर्ण लेकिन महलनुमा मकान में रंग-रोगन चल रहा था, हम यहीं शिफ़्ट होने वाले थे। एक दिन शिफ़्ट हो गए। पुराने ज़माने के बड़े-बड़े कमरों और मंज़िलों वाला नहीं था नया मकान। दरअसल राजनांदगाँव बहुत छोटी रियासत थी इसलिए महल भी साधारण थे। नीचे एक अलग-थलग कमरा जहाँ बड़े भैया रमेश पढ़ाई करते थे, दूसरे छोर पर प्रवेश कक्ष और ऊपर की मंज़िल पर तीन हालनुमा कमरे, एक रसोई और खुली बालकनी। खिड़कियाँ बड़ी-बड़ी व दरवाज़ों के पल्ले भी रंग-बिरंगे काँच से दमकते हुए। पिताजी ने जिस कक्ष में अपनी बैठक जमाई वहाँ छत पर जाने के लिए चक्करदार सीढ़ियाँ थी जो उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ प्रतीक के रुप में है। इसी कक्ष में वे लिखते-पढ़ते, आराम करते थे। जब कभी दादा-दादी राजनांदगाँव आते, उनका डेरा भी यही लगता था। दादाजी के लिए पलंग था, दादी फ़र्श पर बिस्तर लगाकर सोती थी। यहाँ उनकी उपस्थिति के बावजूद लिखते या पढ़ते वक़्त पिताजी की एकाग्रता भंग नहीं होती थी। शुरू-शुरू में दादाजी का पलंग प्रवेश द्वार यानी भूतल पर स्थित कक्ष में रखा गया था ताकि बाथरूम तक जाने के लिए उन्हें कष्ट न हो। लेकिन पिताजी के लिए यह भी एक प्रकार से मिनी बैठक ही थी।
वे देर रात तक लिखते और सुबह होने पहले उठ जाते। क़रीब 4 बजे। हमें भी जगाते थे ताकि हम पढ़ने बैठे। लिखने के लिए बैठने के पूर्व चाय उनके लिए बेहद ज़रूरी थी। कोयला रहता था तो सिगड़ी जलाते थे या फिर रद्दी काग़ज़ों को जलाकर ख़ुद चाय बनाते थे। कभी-कभी यह काम हम भी कर देते थे। सिगड़ी के आसपास बैठना, या फिर काग़ज़ जलाकर चाय बनाने में अलग आनंद था। आग की रोशनी में पिताजी का चेहरा दमकता रहता था। वे इत्मीनान से कंटर भर (पीतल का बड़ा गिलास) चाय पीते और फिर लिखने बैठ जाते थे। यह सिलसिला सुबह 8 बजे तक चलता था। फिर उनके कपड़े, इस्त्री करने का काम मेरा था। पैजामा-कुर्ता और कभी भी खादी की जैकेट भी।
दुपहर हो, शाम हो या फिर रात। लिखते-लिखते जब वे थक जाते, मुझसे जासूसी किताब माँगा करते तनाव मुक्त होने के लिए। मुझे उन दिनों जासूसी किताबें पढ़ने का इतना शौक़ था कि दिन में एक किताब ख़त्म हो जाती। जासूसी दुनिया, जासूसी पंजा, रहस्य, जे.बी. जासूस, गुप्तचर, मनोहर कहानियाँ आदि। लेखकों में इब्ने सफी बी.ए., ओमप्रकाश शर्मा, निरंजन चौधरी, बाबू देवकीनंदन खत्री आदि। जासूसी दुनिया के लेखक इब्ने सफी बी.ए. उन्हें पसंद थे और उनके पात्र कर्नल विनोद, कैप्टन हमीद को वे याद करते थे। वेदप्रकाश कांबोज के भी जासूसी उपन्यास उन्हें अच्छे लगते थे। हिंदी में रहस्य रोमांच के उपन्यासों के अलावा वे अँग्रेज़ी के डिटेक्टिव नॉवेल भी ख़ूब पढ़ा करते थे। पैरी मेसन, आर्थर कानन डायल और भी बहुत सी किताबें वे पढ़ने के लिए कहीं से लाते थे। मेरे लिए उनकी यह पसंद एक सुरक्षित व्यवस्था थी क्योंकि मुझे जासूसी किताब को कॉपी के भीतर छिपाकर पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। माँ की डाट-फटकार से भी, मैं बचा रहता था। मुझे तब और अच्छा लगता था जब वे मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर रेखाओं को पढ़ने की कोशिश करते। मेरी हथेली की रेखाएँ बहुत कटी-पिटी हैं और अँगूठा काफ़ी चौड़ा। मेरी माँ के अँगूठे जैसा। वे तल्लीन होकर देखते थे, बताते कुछ नहीं थे। ज़ाहिर है ज्योतिष भी उनकी रुचि का विषय था, साइंस की तरह।
पिताजी प्रायः रोज़ सुबह-सुबह, अख़बार के आते ही, नीचे उतर आते थे और दादाजी को अख़बार की ख़बरें पढ़कर सुनाया करते थे। ख़बरों पर लंबी-लंबी बाते होती थीं। घंटे दो घंटे कैसे निकल जाते थे, पता ही नहीं चलता था। कॉलेज से लौटने के बाद शाम को भी वे दादाजी के पास बैठते थे। बातें करते थे। हमारी दादी को पढ़ने का बहुत शौक़ था। पिताजी कॉलेज की लायब्रेरी से उनके लिए उपन्यास-कहानी संग्रह लेकर आते थे। मुझे पढ़ने का चस्का दादीजी की वजह से हुआ। किताबें आती थी, मैं भी देखता-परखता था। कुछ-कुछ पढ़ता भी था। बंकिम चटर्जी, शरतचंद्र, प्रेमचंद, कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, आचार्य चतुरसेन, वृंदावन लाल वर्मा और यशपाल भी मेरे प्रिय लेखक थे।
बसंतपुर के तुलना में दिग्विजय कॉलेज के दिन और भी बेहतर थे। मित्रों के साथ साहित्यिक चर्चाओं का सिलसिला तेज़ हो गया था। दूसरे शहरों से आने वालों में प्रमुख थे शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकांत वर्मा, हरिशंकर परसाई, आग्नेश्का कोलावस्का सोनी व विजय सोनी। प्रायः रोज आने वालों में ये प्रमुख थे डा. पार्थ सारथी, अँग्रेज़ी साहित्य के प्राध्यापक। कॉलेज में एकमात्र वे ही थे जिनसे प्रायः अँग्रेज़ी में वैचारिक बहस हुआ करती थी। डा. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी व उनका परिवार भी पास ही में रहता था पर वे शायद ही कभी आए। अलबत्ता पिताजी कभी-कभी उनके यहाँ जाया करते थे। वे भी हिंदी पढ़ाते थे। शरद कोठारी, रमेश याग्निक, जसराज जैन, विनोद कुमार शुक्ल, निरंजन महावर, कन्हैयालाल अग्रवाल, अटल बिहारी दुबे, कॉमरेड क़िस्म के कुछ और लोग, जिनके नाम याद नहीं, आया जाया करते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल किशोरीलाल शुक्ल भी घर आते थे। महफ़िल जमती थी, बातें ख़ूब होती थी। प्रायः शाम के बाद। पिताजी धार्मिक कर्मकांड पर कितना विश्वास रखते थे, मुझे नहीं मालूम। उन्हें मंदिर जाते न मैंने देखा न सुना। अलबत्ता दादाजी की ग़ैर-हाज़िरी में या अस्वस्थ होने पर वे घर में पूजा ज़रूर करते थे, पूरे मंत्रोच्चार के साथ। होलिका दहन के दिन होली घर के बाहर सजाकर होली पूजा भी वे करते थे, बाक़ायदा धवल वस्त्र यानी धोती पहनकर। इसलिए वे नास्तिक तो नहीं थे, कितने आस्तिक वह थे, यह अब कौन तय कर सकता है? इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा से सहमत होने का अर्थ नास्तिक होना नहीं है। ईश्वर में आस्था सबकी होती है, भले ही कोई कुछ भी कहे।
बहरहाल राजनांदगाँव में जितना समय भी बीता था, सुखद था, बहुत सुखद। अभावग्रस्तता कभी इतनी विकट नहीं थी कि फाके करने की नौबत आए। वरन यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि राजनांदगाँव में अर्थाभाव चिंतात्मक नहीं था। काम चल रहा था, मज़े से चल रहा था। पिताजी ख़ुश थे और हम सभी भी। छोटे थे, पढ़ते थे, खेलते-कूदते थे। सारा दिन ख़ुशी-ख़ुशी बीत जाता था। हमारे घर के आजू-बाजू में दो बड़े तालाब थे, हैं, जो अब और भी ख़ूबसूरत हो गए हैं। पिताजी हमें सुबह तालाब में नहाने-तैरने ले जाते थे। तैरना हमने उन्हीं से सीखा। ख़ुद अच्छे तैराक थे, दूर तक जाते थे। लौटने के बाद एक-एक करके हम भाई-बहनों को तैरना सीखाते थे। कभी-कभी साथ में माँ भी हुआ करती थी। घंटे दो घंटे कैसे निकल जाते थे, पता ही नहीं चलता था।
चाय और बीड़ी के बाद पिताजी को भोजन में यदि सबसे अधिक प्रिय कोई चीज़ थी तो वह थी दाल। तुवर दाल। दाल के बिना उनका भोजन पूर्ण नहीं होता था। वे दाल ख़ूब खाते थे। अंडे को कच्चे निगल लेते थे क्योंकि सवाल दूध की उपलब्धता का था।
उन्हें जब कभी समय मिलता, लिखने बैठ जाते थे। एक बैठक के बाद जब वे उठते थे, नीचे फ़र्श पर कटे-पिटे काग़ज़ों का ढेर पड़ा रहता था जिन्हें वे सहेजकर रद्दी की टोकरी में डाल देते थे। मेरी लिखावट कुछ बेहतर थी इसलिए कई बार अपनी कविताओं की कॉपी करने देते थे। लंबी-लंबी कविताएँ। कार्बन काफ़ी तैयार की जा सकती थी लेकिन इसके लिए पैसे की ज़रूरत होती है। लिहाज़ा पत्र-पत्रिकाओं को हस्तलिखित कविताएँ भेजने के बाद शायद कोई दूसरा ड्राफ़्ट नहीं रहता होगा। यह भी संभव है प्रकाशन के लिए स्वीकार न किए जाने की स्थिति में कविताएँ लौटकर न आती हों। प्रकाशक ने वापस न भेजी हों। नागपुर में उनके एकमात्र उपन्यास का ड्राफ़्ट, जैसा कि मैने सुना, खोने का संभवतः यह भी एक कारण रहा होगा।
बहरहाल उन्हीं दिनों 1962-63 में मुझे दमे की शिकायत हो गई। पिताजी के सामने नई चिंता। मेरा इलाज शुरू हो गया। पिताजी की आदत थी, जब कभी उन्हें ज़ोर-शोर से अपनी कविताओं का पाठ करना होता था, वे हम में से किसी एक को गोद में बैठा लेते थे। चूँकि मैं बीमार रहता था अतः वे प्रायः मुझे गोद में लिटाकर कविताएँ पढ़ते थे। आगे पीछे डोलते हुए। हमें नींद लग जाती थी, उठते थे तो देखते थे हम बिस्तर पर हैं।
चूँकि घर के आजू-बाजू तालाब था रानी सागर और बूढ़ासागर। लिहाजा ठंड के दिनों में ठंडी हवाएँ ख़ूब चलती थी। वातावरण में हमेशा आर्द्रता रहती थी। यह समझा गया कि मेरे दमे की एक वजह हवा में पसरी हुई ठंडक हो सकती है। फलतः शहर से दूर जैन स्कूल में मेरे रहने का प्रबंध किया गया। गर्मी के दिन थे, स्कूल में छुट्टियाँ थी। मैं कुछ दिन माँ के साथ वहीं रहा। बाद में लेबर कॉलोनी में मेरे लिए अलग से छोटा सा मकान किराए पर लिया गया जहाँ मैं और बड़े भैय्या रहने लगे। कॉलेज छूटने के बाद पिताजी रोज़ अपने किसी न किसी मित्र को लेकर मुझे देखने आते थे। धीरे-धीरे मेरी तबीयत ठीक होती गई और शायद जनवरी 1964 में मैं फिर से कॉलेज वाले घर में आ गया। लेकिन पिताजी बीमार पड़ गए। उन पर अकस्मात पैरालिसिस का अटैक हुआ। शायद कॉलेज से लौटते हुए वे गिर गए। उनका आधा शरीर निर्जीव हो गया, अलबत्ता चेहरा अछूता था। लेकिन शब्द टूटने लगे थे। बहुत धीमे बोल पाते थे।
वे बीमार पड़ गए। मैं ठीक होता गया। इतिहास का वह क़िस्सा मुझे याद आने लगा कि कैसे बादशाह बाबर ने अपने बीमार बेटे हुमायूँ की ज़िंदगी बचाने के लिए प्रार्थनाएँ की जो क़बूल हुई। हुमायूँ ठीक हो गए। बादशाह बीमार पड़ गए और अंततः चल बसे।
क्या मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होने वाला था? यह बात तर्कसंगत यह भले न लगे पर मैं इतिहास के उस किस्से को अपने साथ जोड़ ही सकता हूँ। दरअसल एक दिन मैं घर की बड़ी सी खिड़की पर बैठा हुआ था। घर की खिड़कियाँ कमरे के भीतर से इतनी चौड़ी रहती थी कि कोई भी उस पर आराम से बैठ सकता था। रात हो चली थी, पिताजी आए। वे अपने साथ पासपोर्ट साइज की जैकेट से वाली तस्वीर लेकर आए थे। फ़ोटो उन्होंने कब और किससे खिंचवाई थी मुझे याद नहीं। वह फ़ोटो उन्होंने मुझे देखने के लिए दी। किंतु उनका फ़ोटो देखकर न जाने क्यों मेरा मन रुआँसा हो गया। क्या यह कोई संकेत था?
दूसरी घटना—भोपाल रेलवे स्टेशन की। हमीदिया अस्पताल में उनकी सेहत सुधरती न देखकर उन्हें नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती कराने की व्यवस्था की गई थी। हम रेलवे स्टेशन पर थे। एक कंपार्टमेंट में बर्थ पर पिताजी अर्धचेतनावस्था में लेटे हुए थे। आसपास के वातावरण से एकदम बे-ख़बर। माँ साथ में थी और पिताजी के मित्रगण परसाई जी, प्रमोद वर्मा जी और भी कई। पिताजी की ऐसी अवस्था देखकर मन फिर भीग गया। लगा जैसे कि यह उनका अंतिम दर्शन है। वाक़ई मेरे लिए वह अंतिम दर्शन ही था। उनसे मिलने हम दिल्ली जा नहीं पाए। पिताजी 11 सितंबर 1964 को विदा हो गए। हुमायूँ का क़िस्सा मुझे लगता है, मेरे लिए हक़ीक़त बन गया। मेरे लिए, मेरे जीवन का यह सबसे बड़ा सत्य हैं।
मुझे याद नहीं पिताजी कभी बीमार पड़े हो। ऊँचे पूरे, स्वस्थ और सुदर्शन व्यक्तित्व। हमेशा प्रसन्न रहने वाले। मैंने उन्हें ग़ुस्से में कभी नहीं देखा। अलबत्ता कभी-कभी विषाद और चिंताएँ उनकी बेचैनी भरी चहलक़दमी से महसूस की जा सकती थीं। स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के रोड एक्सीडेंट में मारे जाने की ख़बर जब उन्हें मिली तो वे बेहद दुखी हुए। इसी तरह भोपाल के हमीदिया अस्पताल में बिस्तर पर पड़े-पड़े जीवन के प्रति उनकी निराशा को चेहरे पर देखा-पढ़ा जा सकता था। हालाँकि इलाज के चलते उनकी तबीयत में कुछ सुधार हुआ था। सहारा लेकर वे कुछ क़दम चलने-फिरने लगे थे लेकिन इलाज का प्रभाव सीमित ही रहा। मुझे लगता है दो बड़ी घटनाओं ने उन्हें तगड़ा मानसिक आघात दिया जिसका असर उनकी सेहत पर पड़ा। पहली घटना जब तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार के पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार की गई उनकी किताब ‘भारत इतिहास और संस्कृति’ पर प्रतिबंध लगा, संघ समर्थकों ने जगह-जगह किताब की होली जलाई और दूसरी घटना बीमारी के दौरान उनके लिए की गई आर्थिक सहायता की अपील। धर्मयुग में प्रभाकर माचवेजी का लेख और मदद की अपील ने उन्हें बहुत विचलित किया। स्वाभिमान पर ऐसी चोट उनके जैसा संवेदनशील कवि कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उन्होंने इस अभियान को पसंद नहीं किया किंतु उसे रोक नहीं पाए। शारीरिक अवस्था ऐसी नहीं थी कि प्रतिकार किया जाए। पर वे बहुत दुखी थे।
पिताजी को गुज़रे 52 वर्ष हो गए। आधी शताब्दी बीत गई। हम, उम्रदराज़ हो गए, एक को छोड़ तीनों भाई 60 के पार। इस बीच माँ नहीं रही, विवाहिता बहन नहीं रही, भाभी नहीं। कितना कुछ बदल गया लेकिन नहीं बदला तो घर का वातावरण। वह अभी भी वैसा ही है जैसा हमारे नागपुर में नई शुक्रवारी, गणेश पेठ, राजनांदगाँव में बसंतपुर व दिग्विजय कॉलेज परिसर वाले मकान में था। पिताजी की सशरीर मौजूदगी वहाँ थी और अब रायपुर में हमारे घर में उनकी अदृश्य उपस्थिति, हमारी आत्मा में उपस्थिति मौजूद हैं। इसलिए हमेशा यह महसूस होता हैं, वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे।
shishya. aspasht kah doon ki main brahmarakshas hoon kintu phir bhi tumhara guru hoon. mujhe tumhara sneh chahiye. apne manav jivan mein mainne vishv ki samast vidya ko math Dala, kintu durbhagya se koi yogya shishya na mil paya ki jise main samast gyaan de pata. isliye meri aatma is sansar mein atki rah gai aur main brahmarakshas ke rup mein yahan virajman raha.
naya khoon mein janavri 1959 mein prakashit kahani brahmarakshas ka shishya mainne babu saheb se suni thi. babu saheb yani svargiy shri gajanan madhav muktibodh, mere pita, jinhen hum sabhi, dada dadi bhi babu saheb kahkar pukarte the. ye un dinon ki baat hai jab hum rajnandganv mein the digvijay kaulej vale makan mein. varsh shayad 1960. tab hamein babu saheb ye kahani sunate the pure havbhav ke saath. hamein malum nahin tha ki ye unki likhi hui kahani hai. ve batate bhi nahin the. kahani sunne ke dauran aisa prabhav paDta tha ki hum ek alag duniya mein kho jate the. vismit, stabdh aur ek tarah se sangya shunya. apni duniya mein tabhi lautte the jab kahani khatm ho jati thi aur brahmarakshas antradhyan ho jata tha.
bachpan ki kuch yaden aisi hoti hain jo kabhi bhulai nahin ja sakti. kitni bhi umr ho jaye ve antःkaran mein zinda rahti hain. mere saath bhi kuch aisa hi hai. aksar koi na koi yaad zor marne lag jati hai. atit ko tatolte hue man kuch pal ke liye hi sahi, hava mein uDne lagta hai. aisa pitaji ko lekar, maan ko lekar hota hai. babu saheb ko guzre hue ardhashti beet gai. 52 varsh ho ge. 11 sitambar 1964 aur maan shanta muktibodh 8 julai 2010. hum khushansib hain ki hum par maan ka saya lambe samay tak bana raha. pitaji ke guzarne ke baad lagbhag 46 varshon tak ve hamare liye kavach ka kaam karti rahin. hamari shiksha diksha, naukari chakari, shadi byaah, bahu beti, pote potiyon sabhi ko unhonne apne vatsalya se ek sootr mein bandhe rakha. vatsalya ka ye dhaga atut hain aur hum sabhi abhi bhi saath saath hain aur zindagi bhar saath saath rahne vale hain.
baharhal, pitaji ki yaad karte hue main kuch silsilevar kahne ki koshish karta hoon isliye taki kuch krambaddhta aaye. varna chhut put prsangon ko pahle bhi shabdon mein piroya ja chuka hai. kuch yatra tatr chhapa bhi hain.
jahan tak meri yaden jati hain, shuru karta hoon nagpur se. aaj se qarib 60 baras poorv, varsh shayad 1954 551 nagpur ki nai shukrvari mein hamara kiraye ka kachcha makan. mitti ka. chhat kavelu ki. farsh gobar se lipa puta. ghar mein bhai bahnon mein main, dilip, uusha evan saroj. hamein nahin malum tha hamara koi baDa bhai bhi hai jo ujjain mein dada dadi ke paas rahta hai. ek din jab ve nai shukrvari ke ghar mein aaye to pata chala baDe bhai hain—ramesh.
6 7 varsh ki umr mein kitni samajhdari ho sakti hai? isliye nai shukrvari ke un dinon ko lekar man mein kuch khaas nahin hai. albatta makan ka svarup aur kuch gatividhiyan zarur dhyaan mein aati hain.
masalan pitaji akashvani mein the. raat mein unhen ghar lautne mein praayः vilamb ho jata tha. unki prtiksha mein maan ghar ke bahari darvaze par chaukhat par, ghanton baithi rahti thi. kuch totke bhi karti thi, taki ve jaldi ghar lauten. chutki bhar namak chaukhat ke donon sire par bayen dayen rakhti thi. pata nahin is kriya mein aisi kya shakti thi. zahir hai vishvas jo unhen taqat deta tha. manobal baDhata tha. pitaji der raat lautte. tab tak hum so chuke hote. ankhon ke samne ek aur drishya hai door kuen se pitaji roz subah ya shaam jab jaisi zarurat paDe, pani bharkar late the. donon hathon mein pital ki do baDi baDi baltiyan liye unka chehra abhi bhi ankhon ke samne hain, pasine se nahaya hua. balti se chhalakta hua pani, pasine ki bunden aur tez chaal.
un dinon ki na bhulne vali ek aur ghatna hain skuling ki. skool mein dakhile ke vaqt ki. skool ka pahla din praayः sabhi bachchon ke liye bhari hota hai. unka ji ghabrata hai. rona dhona shuru kar dete hain. maan baap ka haath nahin chhoDte. shikshkon ko unhen chup karane, manane mein pasina aa jata hai. mere saath bhi kuch aisa hi hua. balki apekshakrit kuch zyada hi. ek din pitaji mujhe godi mein uthakar skool le ge. kaksha pahili mein dakhile ke liye. kaksha mein jab tak ve saath mein the, main dahshat mein hone ke bavjud khamosh tha. ve mujhe puchkarte hue, dilasa dete rahe aur phir kaksha ke bahar nikal ge. kuch pal mainne intzaar kiya aur phir zor ki rulai phoot paDi. shikshak rokte, iske poorv hi main kaksha se bahar. saDak par door pitaji jate hue dikh paDe. main rote hue unke pichhe. pata nahin kitna safar tay hua. na jane kis ahsas se ekayek ve palte aur pichhe mujhe dekhkar hairan rah ge. laute, mujhe god mein liya, puchkara, chup karaya aur phir niche utarkar ungli pakaDkar mujhe ghar le aaye. skool na jane ka parinam ye nikla ki meri baDi bahan jo usi skool mein kaksha tisri mein paDhti thi, use mere saath pahli mein baithaya gaya. aaj baDi bahan bhi duniya mein nahin hai. par uska masum tyaag va balapan ki tasvir dilo dimagh mein jas ki tas hai.
nai shukrvari ke bare mein aur zyada kuch yaad nahin. itna zarur hai ki japhrinuma kaksh mein baithken hua karti thi, chaay pani ka daur chalta tha. baithkon mein shamil hone vale pitaji ke mitron mein mujhe shailendr kumar ji ka smran hai. nagpur navbharat ke sampadak. ek karobari bhi the moteji. vicharon se kamareD. unke yahan hamara aana jana kafi tha. unki patni vatslabai mote maan ki achchhi saheli thi. mujhe yaad nahin, svami krishnanand sokhta us ghar mein aaya karte the. saptahik naya khoon ke sampadak. vishal vyaktitv aur dabang avaz. bhaiya batate hain—nai shukrvari ki us makan mein hamare yahan aane valon mein pramukh the sarvashri svami krishnanand sokhta, jivanlal varma vidrohi, pramod varma, sharad kothari, lajjashankar hardeniya, ke. ke. shrivastav, shrikant varma, ramkrishn shrivastav, anil kumar, mustjar, bheeshm aarya aur naresh mehta.
svami krishnanand sokhta ke bare mein yaad hain ve hamare ganeshpeth ke makan mein aksar aaya karte the. jivanlal varma vridohi, pramod varma, rammu shrivastav, harishankar parsai, ti. aar. lunavat, bhau samarth aur parbhat kumar tripathi (jabalpur) in vidvanon ke chehre yaad hain. lekin kantikumar jain jinke sansmran bahucharchit mane jate hain, ghar kabhi nahin aaye. na nagpur ke donon makanon mein aaye na rajnandganv mein. baharhal ghar mein hone vali sahityik bahson mein aur bhi log shamil rahte the, par adhik kuch smran nahin. sokhta ji ka smran isliye kuch zyada hai kyonki ve aate hi hum log ke saath ghul mil jaya karte the. chhote bhai dilip ko kandhon par bitha lete the aur isi avastha mein pitaji ke saath charcha karte the. chunki kachchi umr duniya se be khabar vali hoti hai isliye saptahik naya khoon ke bare mein hum vishesh kuch jante nahin the. ye us samay ka gambhir vaicharik saptahik patr tha jiski maharashtr evan maharashtr ke bahar, buddhijiviyon ki jamat mein achchhi pakaD thi, pratishtha thi.
ganeshpeth nivas mein do ghatnayen smritiyon mein behtar tariqe se qaid hai pahli meri chhoti bahan saroj se juDi hui hai. bahut sundar thi, ghunghrale baal the uske. ek baar use bukhar aaya. pata nahin kitne din chala. lekin ek din maan ne dekha wo bistar par nahin thi. DhunDha gaya to wo makan se alag thalag, bathrum mein farsh par donon ghutnon ko moDkar, gathrinuma paDi hui thi. shayad bukhar tez tha, bardasht nahin ho raha tha, so wo sharir ko thanDa karne gusalkhane mein pahunch gai thi. wo nahin rahi. uske na rahne ka sadma, kaisa aur kitna gahra tha, main nahin janta tha albatta maan ka ro rokar bura haal tha, aur pitaji gumsum se the. ab sochta hoon unhonne kis kadar apne aapko sanymit rakha hoga, kaise is apar dukh se ubarne ki koshish ki hogi.
dusra prsang—prayamri mein paDhta tha. kaksha yaad nahin. ek din skool se lauta. maan ne khana khane bulaya. rasoi mein main aur maan khana khane baithe. khate khate maan ne mujhe daal parosne ke liye ganji mein baDa chammach Dala to usmen ek mari hui chhipkali aa gai jo phulkar kafi moti ho gai thi. chhipkali ko dekhte hi maan ko mitli shuru ho gai aur bhagkar gusalkhane mein chali gai aur ultiyan karne lagi. mujhe par mari chhipkali ka koi asar nahin hui. main maze se katori mein parosi hui daal khata raha jab tak maan laut na aai. mujhe ultiyan nahin hui. kuch bhi vichitr sa nahin laga. lekin tanik svasth hone ke baad maan haath pakaDkar usi avastha mein paidal jumma taink ke nikat sthit naya khoon ke daftar le gai. pitaji ko bahar bulaya, bataya. aur phir mujhe meyo hauspital mein bharti kar diya gaya. sharir se vish nikalne ke liye Dauktron ne kya prayatn kiye nahin malum. albatta main kuch din tak aspatal mein paDa raha. deen duniya se be khabar. maan pitaji ki chinta se be khabar. maan ko chunki ultiyan ho gai thi isliye ve lagbhag svasth thi. halanki ve bhi aspatal mein bharti thi. meri chinta unhen khaye ja rahi thi. unhen is baat ka afsos tha angithi par rakhi daal ki ganji khuli kyon chhoDi. kaise pata nahin laga ki chhipkali kab giri. kab se ubal rahi thi. baharhal ye ghatna dimag se kabhi nahin gai. chhipkali ko dekhta hoon, to wo din yaad aa jata hai. ab use dekh ghin aane lagti hai lekin marne ki kabhi koshish nahin karta. chhipakaliyan to ghar ki divaron par chipki rahti hi hain. isliye unhen bhi zindagi ke hisse ke roop mein dekhta hoon kyonki ve yaden taza karti hain. achchhi buri jaisi bhi.
iske poorv ka ek aur prsang makan—ganeshpeth ka hi. shukrvari se kuch behtar. pakka khula makan. baDa sa angan. uupar chhat. patangen uDane ke liye aur kati patang ko pakaDne ke liye lagbhag pura din hum chhat par hi bitate the. patangbaji mein khoob maza aata tha. main aur baDe bhaiyya ramesh. mera kaam chakri pakaDne ka rahta tha, patangen ve uDaya karte the, paich laDate, katte katte. jab bhi koi kati patang hamare chhat ke uupar se guzarti thi, hum dhaga pakaDne ke pher mein rahte the. mujhe yaad hai ek baar jab aisi hi kati patang ko pakaDne ki koshish ki, kuch baDe laDke apshabdon ki bauchhar karte hue ghar mein laDai karne aa ge. ve kafi uttejit the aur marne pitne par utaru the. maan ne kisi tarah samjhakar unhen vida kiya. hamein jo Daant paDi, wo kissa to alag hai. is ghatna ka aisa asar hua ki hum kuch din tak chhat par hi nahin ge. na manja pakDa aur na hi patangen uDain.
pitaji akashvani mein hi the. naya madhyaprdesh banne ke baad unka bhopal transfar ho gaya. is transfar ko lekar ve kafi pasopesh mein the. kya kiya jaye. jayen ya nahin. is beech sokhtaji ke chakkar yathavat the. ve ghar aate the aur pitaji ki avastha dekhte the. antatः pitaji ne bhopal jana tay kiya. unka bistar bandh gaya. ek chhoti peti ke saath rassi se bandha unka bistar haal mein rakh diya gaya. shayad duphar ki koi tren thi. hum sab haal mein ikatthe the. is beech sokhtaji aa ge. pata nahin unke beech kya batachit hui. natija ye nikla ki bistar khol diya gaya, peti andar chali gai aur saman phir apni jagah par rakh diya gaya. pata chala pitaji ne akashvani ki naukari chhoD di aur sokhtaji ke akhbar mein sampadak ban ge. likhne paDhne ke liye unhen naya thikana mila. ye unke man ke anukul baat thi. ab ye kahne ki zarurat nahin ki naya khoon ko nai pratishtha mili aur vaicharik patrakarita ko naya ayam. sahitya ke alava naya khoon sahit samay samay par saptahik patron ke liye unke dvara kiya gaya lekhan unhen shreshth patrakar ke roop mein bhi sthapit karta hai.
nagpur ki yaden bas itni hi. uske antim drishya ko yaad karta hoon. aaj bhi jab kabhi nagpur relve steshan se guzarta hoon, ya rukta hoon to mujhe pitaji siDhiyon se niche utarte hue dikhai dete hain. hum log rajnandganv jane ke liye paisenjar tren ke Dibbe mein baithe hue the. tren chhutne ko hi thi ki pitaji siDhiyon par dikhai diye. maan ki jaan mein jaan aai. ve aaye aur tren chal paDi. wo drishya kaise bhulaya ja sakta hai?
ab baat san 1957 58 ki. hum rajnandganv ke basantpur mein rahte the. shahr se chand kilomitar door basa gaanv. rajnandganv bhi in dinon baDa gaanv jaisa hi tha. kasbai jaisa jahan kaulej the, aspatal tha, shalayen theen. shahri chahl pahal thi. shaant alsaya sa lekin sundar. dil ko sukun dene vali hava bahti thi, logon mein aapas mein baDi atmiyata thi, bhaichara tha. pitaji rajnandganv ke digvijay mahavidyalay mein pradhyapak niyukt hue the aur basantpur se aana jana karte the. kabhi paidal, kabhi saikil se.
basantpur mein hamara makan tha baDhiya. bahar parchhi, parchhi se sata chhota kamra jo pitaji ki baithak thi, do lambe kamre aur pichhe rasoi tatha rasoi ke bahari divaron se sata khoob baDa bagicha jismen phalon ke jhaaD the, sabjiyan ugai jati theen. ye makan chitlangiyaji ka tha aur bagicha bhi unka. basantpur ke din vaqii bahut khubsurat the. uska sukhad ahsas abhi tak qayam hai.
yahan rahte hue koi aisi ghatna yaad nahin hai jo pitaji ke vyaktitv ko ne Dhang se rekhankit karti ho. albatta ve kitne parivarik the wo zarur zahir hota hai. raat ko kandil ki roshni mein ve hamein paDhate the. klaas lete the. vaqt vaqt par mere saath shatranj khelte the. jaan bujhkar mujhe jitate the. shaam ko kaulej se ghar bhale ke baad shayad hi kabhi shahr jate ho. yani uske baad unka pura samay hamara tha. hamare saath vaqt bitate. bate karte ya phir haath mein kitab ya kaghaz qalam lekar likhne baith jate.
basantpur mein hum zyada din nahin rahe. shayad saal DeDh saal. rajnandganv mahavidyalay parisar mein antim sire par sthit sheern jeern lekin mahalanuma makan mein rang rogan chal raha tha, hum yahin shift hone vale the. ek din shift ho ge. purane zamane ke baDe baDe kamron aur manzilon vala nahin tha naya makan. darasal rajnandganv bahut chhoti riyasat thi isliye mahl bhi sadharan the. niche ek alag thalag kamra jahan baDe bhaiya ramesh paDhai karte the, dusre chhor par pravesh kaksh aur uupar ki manzil par teen halanuma kamre, ek rasoi aur khuli balakni. khiDkiyan baDi baDi va darvazon ke palle bhi rang birange kaanch se damakte hue. pitaji ne jis kaksh mein apni baithak jamai vahan chhat par jane ke liye chakkardar siDhiyan thi jo unki prasiddh kavita andhere men pratik ke rup mein hai. isi kaksh mein ve likhte paDhte, aram karte the. jab kabhi dada dadi rajnandganv aate, unka Dera bhi yahi lagta tha. dadaji ke liye palang tha, dadi farsh par bistar lagakar soti thi. yahan unki upasthiti ke bavjud likhte ya paDhte vaqt pitaji ki ekagrata bhang nahin hoti thi. shuru shuru mein dadaji ka palang pravesh dvaar yani bhutal par sthit kaksh mein rakha gaya tha taki bathrum tak jane ke liye unhen kasht na ho. lekin pitaji ke liye ye bhi ek prakar se mini baithak hi thi.
ve der raat tak likhte aur subah hone pahle uth jate. qarib 4 baje. hamein bhi jagate the taki hum paDhne baithe. likhne ke liye baithne ke poorv chaay unke liye behad zaruri thi. koyala rahta tha to sigDi jalate the ya phir raddi kaghzon ko jalakar khud chaay banate the. kabhi kabhi ye kaam hum bhi kar dete the. sigDi ke asapas baithna, ya phir kaghaz jalakar chaay banane mein alag anand tha. aag ki roshni mein pitaji ka chehra damakta rahta tha. ve itminan se kantar bhar (pital ka baDa gilas) chaay pite aur phir likhne baith jate the. ye silsila subah 8 baje tak chalta tha. phir unke kapDe, istri karne ka kaam mera tha. paijama kurta aur kabhi bhi khadi ki jaiket bhi.
duphar ho, shaam ho ya phir raat. likhte likhte jab ve thak jate, mujhse jasusi kitab manga karte tanav mukt hone ke liye. mujhe un dinon jasusi kitaben paDhne ka itna shauk tha ki din mein ek kitab khatm ho jati. jasusi duniya, jasusi panja, rahasya, je. bi. jasus, guptachar, manohar kahaniyan aadi. lekhkon mein ibne saphi bi. e., omaprkash sharma, niranjan chaudhari, babu devkinandan khatri aadi. jasusi duniya ke lekhak ibne saphi bi. e. unhen pasand the aur unke paatr karnal vinod, keptan hamid ko ve yaad karte the. vedaprkash kamboj ke bhi jasusi upanyas unhen achchhe lagte the. hindi mein rahasya romanch ke upanyason ke alava ve angrezi ke Ditektiv nauvel bhi khoob paDha karte the. pairi mesan, arthar kanan Dayal aur bhi bahut si kitaben ve paDhne ke liye kahin se late the. mere liye unki ye pasand ek surakshit vyavastha thi kyonki mujhe jasusi kitab ko kaupi ke bhitar chhipakar paDhne ki zarurat nahin paDti thi. maan ki Daat phatkar se bhi, main bacha rahta tha. mujhe tab aur achchha lagta tha jab ve mera haath apne haath mein lekar rekhaon ko paDhne ki koshish karte. meri hatheli ki rekhayen bahut kati piti hain aur angutha kafi chauDa. meri maan ke anguthe jaisa. ve tallin hokar dekhte the, batate kuch nahin the. zahir hai jyotish bhi unki ruchi ka vishay tha, sains ki tarah.
pitaji praayः roz subah subah, akhbar ke aate hi, niche utar aate the aur dadaji ko akhbar ki khabren paDhkar sunaya karte the. khabron par lambi lambi bate hoti theen. ghante do ghante kaise nikal jate the, pata hi nahin chalta tha. kaulej se lautne ke baad shaam ko bhi ve dadaji ke paas baithte the. baten karte the. hamari dadi ko paDhne ka bahut shauq tha. pitaji kaulej ki layabreri se unke liye upanyas kahani sangrah lekar aate the. mujhe paDhne ka chaska dadiji ki vajah se hua. kitaben aati thi, main bhi dekhta parakhta tha. kuch kuch paDhta bhi tha. bankim chatarji, sharatchandr, premchand, kanhaiyalal manik laal munshi, acharya chatursen, vrindavan laal varma aur yashpal bhi mere priy lekhak the.
basantpur ke tulna mein digvijay kaulej ke din aur bhi behtar the. mitron ke saath sahityik charchaon ka silsila tez ho gaya tha. dusre shahron se aane valon mein pramukh the shamsher bahadur sinh, shrikant varma, harishankar parsai, agneshka kolavaska soni va vijay soni. praayः roj aane valon mein ye pramukh the Da. paarth sarthi, angrezi sahitya ke pradhyapak. kaulej mein ekmaatr ve hi the jinse praayः angrezi mein vaicharik bahs hua karti thi. Da. padumlal punnalal bakhshi va unka parivar bhi paas hi mein rahta tha par ve shayad hi kabhi aaye. albatta pitaji kabhi kabhi unke yahan jaya karte the. ve bhi hindi paDhate the. sharad kothari, ramesh yagnik, jasraj jain, vinod kumar shukl, niranjan mahavar, kanhaiyalal agarval, atal bihari dube, kaumreD qism ke kuch aur log, jinke naam yaad nahin, aaya jaya karte the. kaulej ke prinsipal kishorilal shukl bhi ghar aate the. mahfil jamti thi, baten khoob hoti thi. praayः shaam ke baad. pitaji dharmik karmkanD par kitna vishvas rakhte the, mujhe nahin malum. unhen mandir jate na mainne dekha na suna. albatta dadaji ki ghairhaziri mein ya asvasth hone par ve ghar mein puja zarur karte the, pure mantrochchar ke saath. holika dahan ke din holi ghar ke bahar sajakar holi puja bhi ve karte the, baqayda dhaval vastra yani dhoti pahankar. isliye ve nastik to nahin the, kitne astik wo the, ye ab kaun tay kar sakta hai? itna zarur kaha ja sakta hai ki vampanthi vicharadhara se sahmat hone ka arth nastik hona nahin hai. iishvar mein astha sabki hoti hai, bhale hi koi kuch bhi kahe.
baharhal rajnandganv mein jitna samay bhi bita tha, sukhad tha, bahut sukhad. abhavagrastta kabhi itni vikat nahin thi ki phake karne ki naubat aaye. varan ye kahna zyada theek hoga ki rajnandganv mein arthabhav chintatmak nahin tha. kaam chal raha tha, maze se chal raha tha. pitaji khush the aur hum sabhi bhi. chhote the, paDhte the, khelte kudte the. sara din khushi khushi beet jata tha. hamare ghar ke aaju baju mein do baDe talab the, hain, jo ab aur bhi khubsurat ho ge hain. pitaji hamein subah talab mein nahane tairne le jate the. tairna hamne unhin se sikha. khud achchhe tairak the, door tak jate the. lautne ke baad ek ek karke hum bhai bahnon ko tairna sikhate the. kabhi kabhi saath mein maan bhi hua karti thi. ghante do ghante kaise nikal jate the, pata hi nahin chalta tha.
chaay aur biDi ke baad pitaji ko bhojan mein yadi sabse adhik priy koi cheez thi to wo thi daal. tuvar daal. daal ke bina unka bhojan poorn nahin hota tha. ve daal khoob khate the. anDe ko kachche nigal lete the kyonki saval doodh ki uplabdhata ka tha.
unhen jab kabhi samay milta, likhne baith jate the. ek baithak ke baad jab ve uthte the, niche pharsh par kate pite kaghzon ka Dher paDa rahta tha jinhen ve sahejkar raddi ki tokari mein Daal dete the. meri likhavat kuch behtar thi isliye kai baar apni kavitaon ki kaupi karne dete the. lambi lambi kavitayen. karban kafi taiyar ki ja sakti thi lekin iske liye paise ki zarurat hoti hai. lihaja patr patrikaon ko hastalikhit kavitayen bhejne ke baad shayad koi dusra Draaft nahin rahta hoga. ye bhi sambhav hai prakashan ke liye svikar na kiye jane ki sthiti mein kavitayen lautkar na aati hon. prakashak ne vapas na bheji hon. nagpur mein unke ekmaatr upanyas ka Draaft, jaisa ki maine suna, khone ka sambhvatः ye bhi ek karan raha hoga.
baharhal unhin dinon 1962 63 mein mujhe dame ki shikayat ho gai. pitaji ke samne nai chinta. mera ilaaj shuru ho gaya. pitaji ki aadat thi, jab kabhi unhen zor shor se apni kavitaon ka paath karna hota tha, ve hum mein se kisi ek ko god mein baitha lete the. chunki main bimar rahta tha atः ve praayः mujhe god mein litakar kavitayen paDhte the. aage pichhe Dolte hue. hamein neend lag jati thi, uthte the to dekhte the hum bistar par hain.
chunki ghar ke aaju baju talab tha rani sagar aur buDhasagar. lihaja thanD ke dinon mein thanDi havayen khoob chalti thi. vatavran mein hamesha ardrata rahti thi. ye samjha gaya ki mere dame ki ek vajah hava mein pasri hui thanDak ho sakti hai. phalatः shahr se door jain skool mein mere rahne ka prbandh kiya gaya. garmi ke din the, skool mein chhuttiyan thi. main kuch din maan ke saath vahin raha. baad mein lebar kauloni mein mere liye alag se chhota sa makan kiraye par liya gaya jahan main aur baDe bhaiyya rahne lage. kaulej chhutne ke baad pitaji roz apne kisi na kisi mitr ko lekar mujhe dekhne aate the. dhire dhire meri tabiyat theek hoti gai aur shayad janavri 1964 mein main phir se kaulej vale ghar mein aa gaya. lekin pitaji bimar paD ge. un par akasmat pairalisis ka ataik hua. shayad kaulej se lautte hue ve gir ge. unka aadha sharir nirjiv ho gaya, albatta chehra achhuta tha. lekin shabd tutne lage the. bahut dhime bol pate the.
ve bimar paD ge. main theek hota gaya. itihas ka wo qissa mujhe yaad aane laga ki kaise badashah babar ne apne bimar bete humayun ki zindagi bachane ke liye prarthnayen ki jo qabul hui. humayun theek ho ge. badashah bimar paD ge aur antatः chal base.
kya mere saath bhi aisa hi kuch hone vala tha? ye baat tarksangat ye bhale na lage par main itihas ke us kisse ko apne saath joD hi sakta hoon. darasal ek din main ghar ki baDi si khiDki par baitha hua tha. ghar ki khiDkiyan kamre ke bhitar se itni chauDi rahti thi ki koi bhi us par aram se baith sakta tha. raat ho chali thi, pitaji aaye. ve apne saath pasport saij ki jaiket se vali tasvir lekar aaye the. foto unhonne kab aur kisse khinchvai thi mujhe yaad nahin. wo foto unhonne mujhe dekhne ke liye di. kintu unka foto dekhkar na jane kyon mera man ruansa ho gaya. kya ye koi sanket tha?
dusri ghatna—bhopal relve steshan ki. hamidiya aspatal mein unki sehat sudharti na dekhkar unhen nai dilli ke akhil bharatiy ayurvigyan sansthan (ems) mein bharti karane ki vyavastha ki gai thi. hum relve steshan par the. ek kampartment mein barth par pitaji ardhchetnavastha mein lete hue the. asapas ke vatavran se ekdam be khabar. maan saath mein thi aur pitaji ke mitrgan parsai ji, pramod varma ji aur bhi kai. pitaji ki aisi avastha dekhkar man phir bheeg gaya. laga jaise ki ye unka antim darshan hai. vaqii mere liye wo antim darshan hi tha. unse milne hum dilli ja nahin pae. pitaji 11 sitambar 1964 ko vida ho ge. humayun ka qissa mujhe lagta hai, mere liye haqiqat ban gaya. mere liye, mere jivan ka ye sabse baDa satya hain.
mujhe yaad nahin pitaji kabhi bimar paDe ho. uunche pure, svasth aur sudarshan vyaktitv. hamesha prasann rahne vale. mainne unhen ghusse mein kabhi nahin dekha. albatta kabhi kabhi vishad aur chintayen unki bechaini bhari chahalaqadmi se mahsus ki ja sakti theen. svami krishnanand sokhta ke roD eksiDent mein mare jane ki khabar jab unhen mili to ve behad dukhi hue. isi tarah bhopal ke hamidiya aspatal mein bistar par paDe paDe jivan ke prati unki nirasha ko chehre par dekha paDha ja sakta tha. halanki ilaaj ke chalte unki tabiyat mein kuch sudhar hua tha. sahara lekar ve kuch qadam chalne phirne lage the lekin ilaaj ka prabhav simit hi raha. mujhe lagta hai do baDi ghatnaon ne unhen tagDa manasik aghat diya jiska asar unki sehat par paDa. pahli ghatna jab tatkalin madhyaprdesh sarkar ke pathypustak ke roop mein svikar ki gai unki kitab bharat itihas aur sanskriti par pratibandh laga, sangh samarthkon ne jagah jagah kitab ki holi jalai aur dusri ghatna bimari ke dauran unke liye ki gai arthik sahayata ki apil. dharmyug mein prabhakar machveji ka lekh aur madad ki apil ne unhen bahut vichlit kiya. svabhiman par aisi chot unke jaisa sanvedanshil kavi kaise bardasht kar sakta tha? unhonne is abhiyan ko pasand nahin kiya kintu use rok nahin pae. sharirik avastha aisi nahin thi ki pratikar kiya jaye. par ve bahut dukhi the.
pitaji ko guzre 52 varsh ho ge. aadhi shatabdi beet gai. hum, umradraj ho ge, ek ko chhoD tinon bhai 60 ke paar. is beech maan nahin rahi, vivahita bahan nahin rahi, bhabhi nahin. kitna kuch badal gaya lekin nahin badla to ghar ka vatavran. wo abhi bhi vaisa hi hai jaisa hamare nagpur mein nai shukrvari, ganesh peth, rajnandganv mein basantpur va digvijay kaulej parisar vale makan mein tha. pitaji ki sashrir maujudgi vahan thi aur ab raypur mein hamare ghar mein unki adrishya upasthiti, hamari aatma mein upasthiti maujud hain. isliye hamesha ye mahsus hota hain, ve kahin ge hain, bas aate hi honge.
shishya. aspasht kah doon ki main brahmarakshas hoon kintu phir bhi tumhara guru hoon. mujhe tumhara sneh chahiye. apne manav jivan mein mainne vishv ki samast vidya ko math Dala, kintu durbhagya se koi yogya shishya na mil paya ki jise main samast gyaan de pata. isliye meri aatma is sansar mein atki rah gai aur main brahmarakshas ke rup mein yahan virajman raha.
naya khoon mein janavri 1959 mein prakashit kahani brahmarakshas ka shishya mainne babu saheb se suni thi. babu saheb yani svargiy shri gajanan madhav muktibodh, mere pita, jinhen hum sabhi, dada dadi bhi babu saheb kahkar pukarte the. ye un dinon ki baat hai jab hum rajnandganv mein the digvijay kaulej vale makan mein. varsh shayad 1960. tab hamein babu saheb ye kahani sunate the pure havbhav ke saath. hamein malum nahin tha ki ye unki likhi hui kahani hai. ve batate bhi nahin the. kahani sunne ke dauran aisa prabhav paDta tha ki hum ek alag duniya mein kho jate the. vismit, stabdh aur ek tarah se sangya shunya. apni duniya mein tabhi lautte the jab kahani khatm ho jati thi aur brahmarakshas antradhyan ho jata tha.
bachpan ki kuch yaden aisi hoti hain jo kabhi bhulai nahin ja sakti. kitni bhi umr ho jaye ve antःkaran mein zinda rahti hain. mere saath bhi kuch aisa hi hai. aksar koi na koi yaad zor marne lag jati hai. atit ko tatolte hue man kuch pal ke liye hi sahi, hava mein uDne lagta hai. aisa pitaji ko lekar, maan ko lekar hota hai. babu saheb ko guzre hue ardhashti beet gai. 52 varsh ho ge. 11 sitambar 1964 aur maan shanta muktibodh 8 julai 2010. hum khushansib hain ki hum par maan ka saya lambe samay tak bana raha. pitaji ke guzarne ke baad lagbhag 46 varshon tak ve hamare liye kavach ka kaam karti rahin. hamari shiksha diksha, naukari chakari, shadi byaah, bahu beti, pote potiyon sabhi ko unhonne apne vatsalya se ek sootr mein bandhe rakha. vatsalya ka ye dhaga atut hain aur hum sabhi abhi bhi saath saath hain aur zindagi bhar saath saath rahne vale hain.
baharhal, pitaji ki yaad karte hue main kuch silsilevar kahne ki koshish karta hoon isliye taki kuch krambaddhta aaye. varna chhut put prsangon ko pahle bhi shabdon mein piroya ja chuka hai. kuch yatra tatr chhapa bhi hain.
jahan tak meri yaden jati hain, shuru karta hoon nagpur se. aaj se qarib 60 baras poorv, varsh shayad 1954 551 nagpur ki nai shukrvari mein hamara kiraye ka kachcha makan. mitti ka. chhat kavelu ki. farsh gobar se lipa puta. ghar mein bhai bahnon mein main, dilip, uusha evan saroj. hamein nahin malum tha hamara koi baDa bhai bhi hai jo ujjain mein dada dadi ke paas rahta hai. ek din jab ve nai shukrvari ke ghar mein aaye to pata chala baDe bhai hain—ramesh.
6 7 varsh ki umr mein kitni samajhdari ho sakti hai? isliye nai shukrvari ke un dinon ko lekar man mein kuch khaas nahin hai. albatta makan ka svarup aur kuch gatividhiyan zarur dhyaan mein aati hain.
masalan pitaji akashvani mein the. raat mein unhen ghar lautne mein praayः vilamb ho jata tha. unki prtiksha mein maan ghar ke bahari darvaze par chaukhat par, ghanton baithi rahti thi. kuch totke bhi karti thi, taki ve jaldi ghar lauten. chutki bhar namak chaukhat ke donon sire par bayen dayen rakhti thi. pata nahin is kriya mein aisi kya shakti thi. zahir hai vishvas jo unhen taqat deta tha. manobal baDhata tha. pitaji der raat lautte. tab tak hum so chuke hote. ankhon ke samne ek aur drishya hai door kuen se pitaji roz subah ya shaam jab jaisi zarurat paDe, pani bharkar late the. donon hathon mein pital ki do baDi baDi baltiyan liye unka chehra abhi bhi ankhon ke samne hain, pasine se nahaya hua. balti se chhalakta hua pani, pasine ki bunden aur tez chaal.
un dinon ki na bhulne vali ek aur ghatna hain skuling ki. skool mein dakhile ke vaqt ki. skool ka pahla din praayः sabhi bachchon ke liye bhari hota hai. unka ji ghabrata hai. rona dhona shuru kar dete hain. maan baap ka haath nahin chhoDte. shikshkon ko unhen chup karane, manane mein pasina aa jata hai. mere saath bhi kuch aisa hi hua. balki apekshakrit kuch zyada hi. ek din pitaji mujhe godi mein uthakar skool le ge. kaksha pahili mein dakhile ke liye. kaksha mein jab tak ve saath mein the, main dahshat mein hone ke bavjud khamosh tha. ve mujhe puchkarte hue, dilasa dete rahe aur phir kaksha ke bahar nikal ge. kuch pal mainne intzaar kiya aur phir zor ki rulai phoot paDi. shikshak rokte, iske poorv hi main kaksha se bahar. saDak par door pitaji jate hue dikh paDe. main rote hue unke pichhe. pata nahin kitna safar tay hua. na jane kis ahsas se ekayek ve palte aur pichhe mujhe dekhkar hairan rah ge. laute, mujhe god mein liya, puchkara, chup karaya aur phir niche utarkar ungli pakaDkar mujhe ghar le aaye. skool na jane ka parinam ye nikla ki meri baDi bahan jo usi skool mein kaksha tisri mein paDhti thi, use mere saath pahli mein baithaya gaya. aaj baDi bahan bhi duniya mein nahin hai. par uska masum tyaag va balapan ki tasvir dilo dimagh mein jas ki tas hai.
nai shukrvari ke bare mein aur zyada kuch yaad nahin. itna zarur hai ki japhrinuma kaksh mein baithken hua karti thi, chaay pani ka daur chalta tha. baithkon mein shamil hone vale pitaji ke mitron mein mujhe shailendr kumar ji ka smran hai. nagpur navbharat ke sampadak. ek karobari bhi the moteji. vicharon se kamareD. unke yahan hamara aana jana kafi tha. unki patni vatslabai mote maan ki achchhi saheli thi. mujhe yaad nahin, svami krishnanand sokhta us ghar mein aaya karte the. saptahik naya khoon ke sampadak. vishal vyaktitv aur dabang avaz. bhaiya batate hain—nai shukrvari ki us makan mein hamare yahan aane valon mein pramukh the sarvashri svami krishnanand sokhta, jivanlal varma vidrohi, pramod varma, sharad kothari, lajjashankar hardeniya, ke. ke. shrivastav, shrikant varma, ramkrishn shrivastav, anil kumar, mustjar, bheeshm aarya aur naresh mehta.
svami krishnanand sokhta ke bare mein yaad hain ve hamare ganeshpeth ke makan mein aksar aaya karte the. jivanlal varma vridohi, pramod varma, rammu shrivastav, harishankar parsai, ti. aar. lunavat, bhau samarth aur parbhat kumar tripathi (jabalpur) in vidvanon ke chehre yaad hain. lekin kantikumar jain jinke sansmran bahucharchit mane jate hain, ghar kabhi nahin aaye. na nagpur ke donon makanon mein aaye na rajnandganv mein. baharhal ghar mein hone vali sahityik bahson mein aur bhi log shamil rahte the, par adhik kuch smran nahin. sokhta ji ka smran isliye kuch zyada hai kyonki ve aate hi hum log ke saath ghul mil jaya karte the. chhote bhai dilip ko kandhon par bitha lete the aur isi avastha mein pitaji ke saath charcha karte the. chunki kachchi umr duniya se be khabar vali hoti hai isliye saptahik naya khoon ke bare mein hum vishesh kuch jante nahin the. ye us samay ka gambhir vaicharik saptahik patr tha jiski maharashtr evan maharashtr ke bahar, buddhijiviyon ki jamat mein achchhi pakaD thi, pratishtha thi.
ganeshpeth nivas mein do ghatnayen smritiyon mein behtar tariqe se qaid hai pahli meri chhoti bahan saroj se juDi hui hai. bahut sundar thi, ghunghrale baal the uske. ek baar use bukhar aaya. pata nahin kitne din chala. lekin ek din maan ne dekha wo bistar par nahin thi. DhunDha gaya to wo makan se alag thalag, bathrum mein farsh par donon ghutnon ko moDkar, gathrinuma paDi hui thi. shayad bukhar tez tha, bardasht nahin ho raha tha, so wo sharir ko thanDa karne gusalkhane mein pahunch gai thi. wo nahin rahi. uske na rahne ka sadma, kaisa aur kitna gahra tha, main nahin janta tha albatta maan ka ro rokar bura haal tha, aur pitaji gumsum se the. ab sochta hoon unhonne kis kadar apne aapko sanymit rakha hoga, kaise is apar dukh se ubarne ki koshish ki hogi.
dusra prsang—prayamri mein paDhta tha. kaksha yaad nahin. ek din skool se lauta. maan ne khana khane bulaya. rasoi mein main aur maan khana khane baithe. khate khate maan ne mujhe daal parosne ke liye ganji mein baDa chammach Dala to usmen ek mari hui chhipkali aa gai jo phulkar kafi moti ho gai thi. chhipkali ko dekhte hi maan ko mitli shuru ho gai aur bhagkar gusalkhane mein chali gai aur ultiyan karne lagi. mujhe par mari chhipkali ka koi asar nahin hui. main maze se katori mein parosi hui daal khata raha jab tak maan laut na aai. mujhe ultiyan nahin hui. kuch bhi vichitr sa nahin laga. lekin tanik svasth hone ke baad maan haath pakaDkar usi avastha mein paidal jumma taink ke nikat sthit naya khoon ke daftar le gai. pitaji ko bahar bulaya, bataya. aur phir mujhe meyo hauspital mein bharti kar diya gaya. sharir se vish nikalne ke liye Dauktron ne kya prayatn kiye nahin malum. albatta main kuch din tak aspatal mein paDa raha. deen duniya se be khabar. maan pitaji ki chinta se be khabar. maan ko chunki ultiyan ho gai thi isliye ve lagbhag svasth thi. halanki ve bhi aspatal mein bharti thi. meri chinta unhen khaye ja rahi thi. unhen is baat ka afsos tha angithi par rakhi daal ki ganji khuli kyon chhoDi. kaise pata nahin laga ki chhipkali kab giri. kab se ubal rahi thi. baharhal ye ghatna dimag se kabhi nahin gai. chhipkali ko dekhta hoon, to wo din yaad aa jata hai. ab use dekh ghin aane lagti hai lekin marne ki kabhi koshish nahin karta. chhipakaliyan to ghar ki divaron par chipki rahti hi hain. isliye unhen bhi zindagi ke hisse ke roop mein dekhta hoon kyonki ve yaden taza karti hain. achchhi buri jaisi bhi.
iske poorv ka ek aur prsang makan—ganeshpeth ka hi. shukrvari se kuch behtar. pakka khula makan. baDa sa angan. uupar chhat. patangen uDane ke liye aur kati patang ko pakaDne ke liye lagbhag pura din hum chhat par hi bitate the. patangbaji mein khoob maza aata tha. main aur baDe bhaiyya ramesh. mera kaam chakri pakaDne ka rahta tha, patangen ve uDaya karte the, paich laDate, katte katte. jab bhi koi kati patang hamare chhat ke uupar se guzarti thi, hum dhaga pakaDne ke pher mein rahte the. mujhe yaad hai ek baar jab aisi hi kati patang ko pakaDne ki koshish ki, kuch baDe laDke apshabdon ki bauchhar karte hue ghar mein laDai karne aa ge. ve kafi uttejit the aur marne pitne par utaru the. maan ne kisi tarah samjhakar unhen vida kiya. hamein jo Daant paDi, wo kissa to alag hai. is ghatna ka aisa asar hua ki hum kuch din tak chhat par hi nahin ge. na manja pakDa aur na hi patangen uDain.
pitaji akashvani mein hi the. naya madhyaprdesh banne ke baad unka bhopal transfar ho gaya. is transfar ko lekar ve kafi pasopesh mein the. kya kiya jaye. jayen ya nahin. is beech sokhtaji ke chakkar yathavat the. ve ghar aate the aur pitaji ki avastha dekhte the. antatः pitaji ne bhopal jana tay kiya. unka bistar bandh gaya. ek chhoti peti ke saath rassi se bandha unka bistar haal mein rakh diya gaya. shayad duphar ki koi tren thi. hum sab haal mein ikatthe the. is beech sokhtaji aa ge. pata nahin unke beech kya batachit hui. natija ye nikla ki bistar khol diya gaya, peti andar chali gai aur saman phir apni jagah par rakh diya gaya. pata chala pitaji ne akashvani ki naukari chhoD di aur sokhtaji ke akhbar mein sampadak ban ge. likhne paDhne ke liye unhen naya thikana mila. ye unke man ke anukul baat thi. ab ye kahne ki zarurat nahin ki naya khoon ko nai pratishtha mili aur vaicharik patrakarita ko naya ayam. sahitya ke alava naya khoon sahit samay samay par saptahik patron ke liye unke dvara kiya gaya lekhan unhen shreshth patrakar ke roop mein bhi sthapit karta hai.
nagpur ki yaden bas itni hi. uske antim drishya ko yaad karta hoon. aaj bhi jab kabhi nagpur relve steshan se guzarta hoon, ya rukta hoon to mujhe pitaji siDhiyon se niche utarte hue dikhai dete hain. hum log rajnandganv jane ke liye paisenjar tren ke Dibbe mein baithe hue the. tren chhutne ko hi thi ki pitaji siDhiyon par dikhai diye. maan ki jaan mein jaan aai. ve aaye aur tren chal paDi. wo drishya kaise bhulaya ja sakta hai?
ab baat san 1957 58 ki. hum rajnandganv ke basantpur mein rahte the. shahr se chand kilomitar door basa gaanv. rajnandganv bhi in dinon baDa gaanv jaisa hi tha. kasbai jaisa jahan kaulej the, aspatal tha, shalayen theen. shahri chahl pahal thi. shaant alsaya sa lekin sundar. dil ko sukun dene vali hava bahti thi, logon mein aapas mein baDi atmiyata thi, bhaichara tha. pitaji rajnandganv ke digvijay mahavidyalay mein pradhyapak niyukt hue the aur basantpur se aana jana karte the. kabhi paidal, kabhi saikil se.
basantpur mein hamara makan tha baDhiya. bahar parchhi, parchhi se sata chhota kamra jo pitaji ki baithak thi, do lambe kamre aur pichhe rasoi tatha rasoi ke bahari divaron se sata khoob baDa bagicha jismen phalon ke jhaaD the, sabjiyan ugai jati theen. ye makan chitlangiyaji ka tha aur bagicha bhi unka. basantpur ke din vaqii bahut khubsurat the. uska sukhad ahsas abhi tak qayam hai.
yahan rahte hue koi aisi ghatna yaad nahin hai jo pitaji ke vyaktitv ko ne Dhang se rekhankit karti ho. albatta ve kitne parivarik the wo zarur zahir hota hai. raat ko kandil ki roshni mein ve hamein paDhate the. klaas lete the. vaqt vaqt par mere saath shatranj khelte the. jaan bujhkar mujhe jitate the. shaam ko kaulej se ghar bhale ke baad shayad hi kabhi shahr jate ho. yani uske baad unka pura samay hamara tha. hamare saath vaqt bitate. bate karte ya phir haath mein kitab ya kaghaz qalam lekar likhne baith jate.
basantpur mein hum zyada din nahin rahe. shayad saal DeDh saal. rajnandganv mahavidyalay parisar mein antim sire par sthit sheern jeern lekin mahalanuma makan mein rang rogan chal raha tha, hum yahin shift hone vale the. ek din shift ho ge. purane zamane ke baDe baDe kamron aur manzilon vala nahin tha naya makan. darasal rajnandganv bahut chhoti riyasat thi isliye mahl bhi sadharan the. niche ek alag thalag kamra jahan baDe bhaiya ramesh paDhai karte the, dusre chhor par pravesh kaksh aur uupar ki manzil par teen halanuma kamre, ek rasoi aur khuli balakni. khiDkiyan baDi baDi va darvazon ke palle bhi rang birange kaanch se damakte hue. pitaji ne jis kaksh mein apni baithak jamai vahan chhat par jane ke liye chakkardar siDhiyan thi jo unki prasiddh kavita andhere men pratik ke rup mein hai. isi kaksh mein ve likhte paDhte, aram karte the. jab kabhi dada dadi rajnandganv aate, unka Dera bhi yahi lagta tha. dadaji ke liye palang tha, dadi farsh par bistar lagakar soti thi. yahan unki upasthiti ke bavjud likhte ya paDhte vaqt pitaji ki ekagrata bhang nahin hoti thi. shuru shuru mein dadaji ka palang pravesh dvaar yani bhutal par sthit kaksh mein rakha gaya tha taki bathrum tak jane ke liye unhen kasht na ho. lekin pitaji ke liye ye bhi ek prakar se mini baithak hi thi.
ve der raat tak likhte aur subah hone pahle uth jate. qarib 4 baje. hamein bhi jagate the taki hum paDhne baithe. likhne ke liye baithne ke poorv chaay unke liye behad zaruri thi. koyala rahta tha to sigDi jalate the ya phir raddi kaghzon ko jalakar khud chaay banate the. kabhi kabhi ye kaam hum bhi kar dete the. sigDi ke asapas baithna, ya phir kaghaz jalakar chaay banane mein alag anand tha. aag ki roshni mein pitaji ka chehra damakta rahta tha. ve itminan se kantar bhar (pital ka baDa gilas) chaay pite aur phir likhne baith jate the. ye silsila subah 8 baje tak chalta tha. phir unke kapDe, istri karne ka kaam mera tha. paijama kurta aur kabhi bhi khadi ki jaiket bhi.
duphar ho, shaam ho ya phir raat. likhte likhte jab ve thak jate, mujhse jasusi kitab manga karte tanav mukt hone ke liye. mujhe un dinon jasusi kitaben paDhne ka itna shauk tha ki din mein ek kitab khatm ho jati. jasusi duniya, jasusi panja, rahasya, je. bi. jasus, guptachar, manohar kahaniyan aadi. lekhkon mein ibne saphi bi. e., omaprkash sharma, niranjan chaudhari, babu devkinandan khatri aadi. jasusi duniya ke lekhak ibne saphi bi. e. unhen pasand the aur unke paatr karnal vinod, keptan hamid ko ve yaad karte the. vedaprkash kamboj ke bhi jasusi upanyas unhen achchhe lagte the. hindi mein rahasya romanch ke upanyason ke alava ve angrezi ke Ditektiv nauvel bhi khoob paDha karte the. pairi mesan, arthar kanan Dayal aur bhi bahut si kitaben ve paDhne ke liye kahin se late the. mere liye unki ye pasand ek surakshit vyavastha thi kyonki mujhe jasusi kitab ko kaupi ke bhitar chhipakar paDhne ki zarurat nahin paDti thi. maan ki Daat phatkar se bhi, main bacha rahta tha. mujhe tab aur achchha lagta tha jab ve mera haath apne haath mein lekar rekhaon ko paDhne ki koshish karte. meri hatheli ki rekhayen bahut kati piti hain aur angutha kafi chauDa. meri maan ke anguthe jaisa. ve tallin hokar dekhte the, batate kuch nahin the. zahir hai jyotish bhi unki ruchi ka vishay tha, sains ki tarah.
pitaji praayः roz subah subah, akhbar ke aate hi, niche utar aate the aur dadaji ko akhbar ki khabren paDhkar sunaya karte the. khabron par lambi lambi bate hoti theen. ghante do ghante kaise nikal jate the, pata hi nahin chalta tha. kaulej se lautne ke baad shaam ko bhi ve dadaji ke paas baithte the. baten karte the. hamari dadi ko paDhne ka bahut shauq tha. pitaji kaulej ki layabreri se unke liye upanyas kahani sangrah lekar aate the. mujhe paDhne ka chaska dadiji ki vajah se hua. kitaben aati thi, main bhi dekhta parakhta tha. kuch kuch paDhta bhi tha. bankim chatarji, sharatchandr, premchand, kanhaiyalal manik laal munshi, acharya chatursen, vrindavan laal varma aur yashpal bhi mere priy lekhak the.
basantpur ke tulna mein digvijay kaulej ke din aur bhi behtar the. mitron ke saath sahityik charchaon ka silsila tez ho gaya tha. dusre shahron se aane valon mein pramukh the shamsher bahadur sinh, shrikant varma, harishankar parsai, agneshka kolavaska soni va vijay soni. praayः roj aane valon mein ye pramukh the Da. paarth sarthi, angrezi sahitya ke pradhyapak. kaulej mein ekmaatr ve hi the jinse praayः angrezi mein vaicharik bahs hua karti thi. Da. padumlal punnalal bakhshi va unka parivar bhi paas hi mein rahta tha par ve shayad hi kabhi aaye. albatta pitaji kabhi kabhi unke yahan jaya karte the. ve bhi hindi paDhate the. sharad kothari, ramesh yagnik, jasraj jain, vinod kumar shukl, niranjan mahavar, kanhaiyalal agarval, atal bihari dube, kaumreD qism ke kuch aur log, jinke naam yaad nahin, aaya jaya karte the. kaulej ke prinsipal kishorilal shukl bhi ghar aate the. mahfil jamti thi, baten khoob hoti thi. praayः shaam ke baad. pitaji dharmik karmkanD par kitna vishvas rakhte the, mujhe nahin malum. unhen mandir jate na mainne dekha na suna. albatta dadaji ki ghairhaziri mein ya asvasth hone par ve ghar mein puja zarur karte the, pure mantrochchar ke saath. holika dahan ke din holi ghar ke bahar sajakar holi puja bhi ve karte the, baqayda dhaval vastra yani dhoti pahankar. isliye ve nastik to nahin the, kitne astik wo the, ye ab kaun tay kar sakta hai? itna zarur kaha ja sakta hai ki vampanthi vicharadhara se sahmat hone ka arth nastik hona nahin hai. iishvar mein astha sabki hoti hai, bhale hi koi kuch bhi kahe.
baharhal rajnandganv mein jitna samay bhi bita tha, sukhad tha, bahut sukhad. abhavagrastta kabhi itni vikat nahin thi ki phake karne ki naubat aaye. varan ye kahna zyada theek hoga ki rajnandganv mein arthabhav chintatmak nahin tha. kaam chal raha tha, maze se chal raha tha. pitaji khush the aur hum sabhi bhi. chhote the, paDhte the, khelte kudte the. sara din khushi khushi beet jata tha. hamare ghar ke aaju baju mein do baDe talab the, hain, jo ab aur bhi khubsurat ho ge hain. pitaji hamein subah talab mein nahane tairne le jate the. tairna hamne unhin se sikha. khud achchhe tairak the, door tak jate the. lautne ke baad ek ek karke hum bhai bahnon ko tairna sikhate the. kabhi kabhi saath mein maan bhi hua karti thi. ghante do ghante kaise nikal jate the, pata hi nahin chalta tha.
chaay aur biDi ke baad pitaji ko bhojan mein yadi sabse adhik priy koi cheez thi to wo thi daal. tuvar daal. daal ke bina unka bhojan poorn nahin hota tha. ve daal khoob khate the. anDe ko kachche nigal lete the kyonki saval doodh ki uplabdhata ka tha.
unhen jab kabhi samay milta, likhne baith jate the. ek baithak ke baad jab ve uthte the, niche pharsh par kate pite kaghzon ka Dher paDa rahta tha jinhen ve sahejkar raddi ki tokari mein Daal dete the. meri likhavat kuch behtar thi isliye kai baar apni kavitaon ki kaupi karne dete the. lambi lambi kavitayen. karban kafi taiyar ki ja sakti thi lekin iske liye paise ki zarurat hoti hai. lihaja patr patrikaon ko hastalikhit kavitayen bhejne ke baad shayad koi dusra Draaft nahin rahta hoga. ye bhi sambhav hai prakashan ke liye svikar na kiye jane ki sthiti mein kavitayen lautkar na aati hon. prakashak ne vapas na bheji hon. nagpur mein unke ekmaatr upanyas ka Draaft, jaisa ki maine suna, khone ka sambhvatः ye bhi ek karan raha hoga.
baharhal unhin dinon 1962 63 mein mujhe dame ki shikayat ho gai. pitaji ke samne nai chinta. mera ilaaj shuru ho gaya. pitaji ki aadat thi, jab kabhi unhen zor shor se apni kavitaon ka paath karna hota tha, ve hum mein se kisi ek ko god mein baitha lete the. chunki main bimar rahta tha atः ve praayः mujhe god mein litakar kavitayen paDhte the. aage pichhe Dolte hue. hamein neend lag jati thi, uthte the to dekhte the hum bistar par hain.
chunki ghar ke aaju baju talab tha rani sagar aur buDhasagar. lihaja thanD ke dinon mein thanDi havayen khoob chalti thi. vatavran mein hamesha ardrata rahti thi. ye samjha gaya ki mere dame ki ek vajah hava mein pasri hui thanDak ho sakti hai. phalatः shahr se door jain skool mein mere rahne ka prbandh kiya gaya. garmi ke din the, skool mein chhuttiyan thi. main kuch din maan ke saath vahin raha. baad mein lebar kauloni mein mere liye alag se chhota sa makan kiraye par liya gaya jahan main aur baDe bhaiyya rahne lage. kaulej chhutne ke baad pitaji roz apne kisi na kisi mitr ko lekar mujhe dekhne aate the. dhire dhire meri tabiyat theek hoti gai aur shayad janavri 1964 mein main phir se kaulej vale ghar mein aa gaya. lekin pitaji bimar paD ge. un par akasmat pairalisis ka ataik hua. shayad kaulej se lautte hue ve gir ge. unka aadha sharir nirjiv ho gaya, albatta chehra achhuta tha. lekin shabd tutne lage the. bahut dhime bol pate the.
ve bimar paD ge. main theek hota gaya. itihas ka wo qissa mujhe yaad aane laga ki kaise badashah babar ne apne bimar bete humayun ki zindagi bachane ke liye prarthnayen ki jo qabul hui. humayun theek ho ge. badashah bimar paD ge aur antatः chal base.
kya mere saath bhi aisa hi kuch hone vala tha? ye baat tarksangat ye bhale na lage par main itihas ke us kisse ko apne saath joD hi sakta hoon. darasal ek din main ghar ki baDi si khiDki par baitha hua tha. ghar ki khiDkiyan kamre ke bhitar se itni chauDi rahti thi ki koi bhi us par aram se baith sakta tha. raat ho chali thi, pitaji aaye. ve apne saath pasport saij ki jaiket se vali tasvir lekar aaye the. foto unhonne kab aur kisse khinchvai thi mujhe yaad nahin. wo foto unhonne mujhe dekhne ke liye di. kintu unka foto dekhkar na jane kyon mera man ruansa ho gaya. kya ye koi sanket tha?
dusri ghatna—bhopal relve steshan ki. hamidiya aspatal mein unki sehat sudharti na dekhkar unhen nai dilli ke akhil bharatiy ayurvigyan sansthan (ems) mein bharti karane ki vyavastha ki gai thi. hum relve steshan par the. ek kampartment mein barth par pitaji ardhchetnavastha mein lete hue the. asapas ke vatavran se ekdam be khabar. maan saath mein thi aur pitaji ke mitrgan parsai ji, pramod varma ji aur bhi kai. pitaji ki aisi avastha dekhkar man phir bheeg gaya. laga jaise ki ye unka antim darshan hai. vaqii mere liye wo antim darshan hi tha. unse milne hum dilli ja nahin pae. pitaji 11 sitambar 1964 ko vida ho ge. humayun ka qissa mujhe lagta hai, mere liye haqiqat ban gaya. mere liye, mere jivan ka ye sabse baDa satya hain.
mujhe yaad nahin pitaji kabhi bimar paDe ho. uunche pure, svasth aur sudarshan vyaktitv. hamesha prasann rahne vale. mainne unhen ghusse mein kabhi nahin dekha. albatta kabhi kabhi vishad aur chintayen unki bechaini bhari chahalaqadmi se mahsus ki ja sakti theen. svami krishnanand sokhta ke roD eksiDent mein mare jane ki khabar jab unhen mili to ve behad dukhi hue. isi tarah bhopal ke hamidiya aspatal mein bistar par paDe paDe jivan ke prati unki nirasha ko chehre par dekha paDha ja sakta tha. halanki ilaaj ke chalte unki tabiyat mein kuch sudhar hua tha. sahara lekar ve kuch qadam chalne phirne lage the lekin ilaaj ka prabhav simit hi raha. mujhe lagta hai do baDi ghatnaon ne unhen tagDa manasik aghat diya jiska asar unki sehat par paDa. pahli ghatna jab tatkalin madhyaprdesh sarkar ke pathypustak ke roop mein svikar ki gai unki kitab bharat itihas aur sanskriti par pratibandh laga, sangh samarthkon ne jagah jagah kitab ki holi jalai aur dusri ghatna bimari ke dauran unke liye ki gai arthik sahayata ki apil. dharmyug mein prabhakar machveji ka lekh aur madad ki apil ne unhen bahut vichlit kiya. svabhiman par aisi chot unke jaisa sanvedanshil kavi kaise bardasht kar sakta tha? unhonne is abhiyan ko pasand nahin kiya kintu use rok nahin pae. sharirik avastha aisi nahin thi ki pratikar kiya jaye. par ve bahut dukhi the.
pitaji ko guzre 52 varsh ho ge. aadhi shatabdi beet gai. hum, umradraj ho ge, ek ko chhoD tinon bhai 60 ke paar. is beech maan nahin rahi, vivahita bahan nahin rahi, bhabhi nahin. kitna kuch badal gaya lekin nahin badla to ghar ka vatavran. wo abhi bhi vaisa hi hai jaisa hamare nagpur mein nai shukrvari, ganesh peth, rajnandganv mein basantpur va digvijay kaulej parisar vale makan mein tha. pitaji ki sashrir maujudgi vahan thi aur ab raypur mein hamare ghar mein unki adrishya upasthiti, hamari aatma mein upasthiti maujud hain. isliye hamesha ye mahsus hota hain, ve kahin ge hain, bas aate hi honge.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।