सुण रे काजी सुण रे मुल्लां
sun re kaji sun re mullan
सुण रे काजी सुण रे मुल्लां, सुण रे बकर कसाई।
किणरी थरपी छाली रोसो, किणरी गाडर गाई॥
सूल चुभीजै करक दुहेली, तो है जायो जीव न घाई।
थे तुर्की छुर्की भिस्ती दावो, खायबा खाज अखाजूं॥
चर फिर आवै सहज दुहावै, तिसका खीर हलाली।
जिसके गले करद क्यों सारो, थे पढ़ गुण रहिया ख़ाली॥
हे क़ाज़ी सुनो! हे मुल्ला सुनो! बकरों को मारने वाले क़साई तुम भी सुनो! तुम किसकी स्थापना के बल पर बकरी, भेड़ तथा गाय का वध करते हो? अपने शरीर में काँटा चुभने पर भी जब तुम्हें असह्य पीड़ा होती है तब क्या जीवित प्राणियों पर घात करने से उन्हें वैसी पीड़ा नहीं होती? तुम जीवों पर छुरी चलाने वाले तुर्क उन जीवों के अभक्ष्य मांस को खाकर भी बिहिश्त में जाने का दावा करते हो, उस पशु का दूध ही ग्रहण करने योग्य है मांस नहीं। ऐसे उपयोगी पशु के गले पर तुम 'करद' क्यों चलाते हो? तुम पढ़-लिख कर भी शिक्षित नहीं हुए, ख़ाली ही रह गए।
- पुस्तक : जाम्भोजी की वाणी (पृष्ठ 189)
- रचनाकार : जाम्भोजी
- प्रकाशन : Vikas Prakashan
- संस्करण : 2001
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