तोई राणी निज धरम अधिकार है
toi rani nij dharam adhikar hai
रोचक तथ्य
'निजधर्म' का अर्थ स्वधर्म, नियत कर्म, स्वाभाविक कर्म और सहज कर्म है।
तोई राणी निज धरम अधिकार है।
भाइड़ां सूं भाव राखो गुरां सूं प्रतीत, बोले रांमदे कुंवर है॥
पृथ्वी कोस पचास दीजौ, दान कनक सुमेर कीजौ।
चिंतामणि कल्पबिरख, पारस कामधेनु समापौ॥
लाख हीरा लाख माणक, पन्ना किरोड़ पचास है।
गंगा तट दान करे, तोई निज धरम अधिकार है॥
किरोड़ कुंजर कनक भरिया, गउ किरोड़ पचास है।
किरोड़ मण गउ-घास आपी, तोई निज धरम अधिकार है॥
भोम गऊ दान तुरी, लाख अठारै हजार है।
पुष्कर दांन आपी, तोई निज धरम अधिकार है॥
किरोड़ कन्या धर्म परणाव, देवे दान अपार है।
पृथ्वी री परकमा कीजै, तोई निज धरम अधिकार है॥
करै जग अश्वमेघ कोटि, गंग तट निज सार है।
विप्र किरोड़ अठियासी जीमै, तोई निज धरम अधिकार है॥
हेम तुल में भेंट देवै, गऊ लख चार है।
रतन चवदह दान देवै, निज धरम अधिकार है॥
तप करै ले काशी, करवत धरै।
गंगा सागर छाप ले, तोई निज धरम अधिकार है॥
जुग चारों सेवा साजै, ऊंधै शीश सार है।
एक मन विश्वास राखै, तोई निज धरम अधिकार है॥
पदम नागण नेम झेलिया, इंद्र कहिजे अवतार है।
मिले प्याले भ्रांत राखै, सोई भगति अनादर विचार है॥
सेंस धारा इंद्र बरसै, अखंड इमरत धार है।
उण धर्म सूं बासक थापियो, जमीं हंदा भार है॥
जुगां पै'ली अमर जोगी, परमांण रै पार है।
ओस रा अलील राणी, पूजे धर्म निज या सार है॥
शंकर रै घर अटळ भगति, इंद्रनेम आधार है।
शक्ति शंकर विष्णु ब्रह्मा, वे ही पूजै धर्म निज सार है॥
वेद विरला ग्यान गीता, ध्यान तपस्या सार है।
तेज तुरीया विणज करिया, वे साधु सुचियार है॥
हरष मन सत धर्म अपणाओ, सोई तेतीसां लार है।
सो नर पूगसी प्रमांण, बोल्या रांमदे कुंवार है॥
अपनी रानी को संबोधित करते हुए रामदेवजी कहते हैं कि अपने भाई-बंधुओं के प्रति स्नेह भाव रखो, सद्गुरु के प्रति विश्वास रखो। चाहे पचासों कोस भूमि दान करो, चाहे बहुत सा सोना; यहाँ तक कि सुमेरु पर्वत ही दान में दे दो। चाहे चिंतामणि और कल्पवृक्ष ही दान में दे दो, या पारसमणि और कामधेनु दान में समर्पित कर दो। चाहे गंगा स्नान करके लाखों हीरे, माणक तथा पचास करोड़ पन्नों का दान कर दो तो भी आत्म-ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता। सोने से लदे हुए करोड़ों हाथी तथा पचासों करोड़ गायों का दान कर दो, करोड़ों मन घास गायों के लिए दान कर दो, तो भी मोक्ष का अधिकार तो आत्म-ज्ञान से ही मिलेगा। चाहे पुष्कर पर स्नान करके भू-दान, गो-दान, गज-दान, अश्वदान कितना ही क्यों न कर दिया जाए, किंतु स्वधर्म के बिना मोक्ष संभव नहीं है। चाहे करोड़ों कन्याओं का धर्म-विवाह कर दो तथा अपरिमित दान दे दो। भले ही धर्म-यात्रा के रूप में पृथ्वी की परिक्रमा कर लो, तो भी मोक्ष तो स्वधर्म से ही होगा। चाहे करोड़ों अश्वमेध यज्ञ कर लो गंगा के तट पर कितने ही करोड़ ब्राह्मणों को भोजन करा दो तो भी निज धर्म के बिना मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। चाहे अपने बराबर तौल कर स्वर्ण दान दे दो और चार लाख गायें दान कर दो, तो भी आत्म-ज्ञान (स्वधर्म) की बराबरी नहीं हो सकती, यहाँ तक कि चौदह रत्नों का दान भी स्वधर्म के बराबर नहीं है। चाहे कैसी भी तपस्या कर लो, काशी में जाकर आरे से कट जाओ (करवत ले लो) अथवा गंगा या द्वारिका जा कर तिलक करवा लो तो भी मुक्ति तो आत्म-ज्ञान से ही होगी। शीर्षासन करते हुए चारों युग तक तपस्या कर लो किंतु जब तक आत्म-ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। पूर्ण विश्वास और मनोयोग से जब आत्म-ज्ञान की प्राप्ति की जाएगी तभी मोक्ष के अधिकारी बनोगे। चाहे पद्म-नागिन जैसा नियम पालन कर लो, सुरपति इंद्र का पद प्राप्त कर लो या अवतारी पुरुष कहलाओ। मानव-मानव के बीच भेद-भ्रांति की धारणा रखोगे तब तक यही समझो कि आत्म-ज्ञान नहीं मिला है। भेद भ्रांति आत्म-ज्ञान नहीं अपितु भक्ति का अनादर है। आत्म-ज्ञान तो अखंड अमृत धारा है, पृथ्वी का भार सहन करने वाला सर्पराज वासुकि इसी आत्म-ज्ञान के आधार पर इतना समर्थ बना है। आत्म-ज्ञान से ही उस परम योगी-परब्रह्म के दर्शन संभव है जो असंख्य युगों से विद्यमान है तथा जो समस्त प्रमाणों से भी परे है। योगी लोग उर्ध्वरेता बनकर सार-तत्त्व रूपी इसी आत्म-ज्ञान की साधना करते हैं। शंकर के हृदय में इसी आत्म-ज्ञान की भक्ति का अटल साम्राज्य है, सुर इंद्र के धर्म नियम का आधार भी यही आत्म तत्त्व है। शक्ति और शंकर, विष्णु और लक्ष्मी, ब्रह्मा और सावित्री भी इसी सार तत्त्व की पूजा करते हैं। चारों वेद तथा गीता का सार तत्त्व भी यही आत्म-ज्ञान है। तुरिय समाधि लगाकर उर्ध्वरेता होकर जो साधु इस आत्म-ज्ञान प्राप्ति का योगाभ्यास करते हैं, वे ही साधु विवेकशील हैं। हर्षित मन से इसी धर्म को अपनाओ तो तैंतीस करोड़ मोक्षात्माओं में मिल जाओगे। रामदेवजी कहते हैं कि आत्म-ज्ञान को प्राप्त करने वाले ही मोक्ष प्राप्ति के परमपद पर पहुँचेंगे।
- पुस्तक : बाबै की वांणी (पृष्ठ 83)
- संपादक : सोनाराम बिश्नोई
- रचनाकार : बाबा रामदेव
- प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार
- संस्करण : 2015
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