सो पुरुष निरंजनु हरि पुरुखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा।
समि धिआवहि सभि धिआवहि तुधु जी हरि सच्चे सिरजणहारा॥
सभि जीअ तुमारे जी तूं जीआ का दतारा।
हरि धिआवहु संतहु जी सभि दुःख विसारणहारा॥
हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा।
तू घट-घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा॥
इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा।
तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा॥
तूं पारब्रहमु बेअंतु-बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि बखाणा।
जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन कुरबाणा॥
हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु दी से जन जुग महिं सुखवासी।
से मुकतु से मुकतु भये जिन हरि धिआइआ जी तिन तूटी जम की फासी॥
जिन निरभउ हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभु गवासी।
जिन सेविआ जिन सेविआ मेरा हरि जी ते हरि-हरि रूपि समासी॥
से धन्नु से धन्नु जिन हरि धिआइआ जी जनु नानकु तिन बलि जासी।
तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बेअंत बेअंता॥
तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता।
तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता॥
तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिमृति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता।
से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भवाहि मेरे हरि भगवंता॥
तूं आदि पुरखु अपरंपारु करता जी तुधु जे वडु अवरु न कोई।
तूं जुगु-जुगु एको सदा-सदा तूं एको जी तूं आपे करहि सु होई॥
तुधु आपे सृसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई।
जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई॥
- पुस्तक : संत-सुधा-सार (पृष्ठ 317)
- संपादक : वियोगी हरि
- रचनाकार : गुरु रामदास
- प्रकाशन : सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन
- संस्करण : 1953
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