साधो भाई संगत शरण आवै।
तन मन वचन तीनां सूं सेवा, गुण गोविंद रा गावै॥
भगति करै ज्यांरी भव दुख भागे, जो कोई करतब जांणै।
नवधा भगति निरंजण दरसे, पांचूं परचे आंणै॥
भगति करै भेद नई जांणै, वै कांई अभे पद पावै।
देखा देखी सब कोई करै, स्वारथ सूत लगावै॥
भगति कर ब्रह्म में मिळिया, वै चौथा पद पावै।
गुरु गम ग्यान ध्यान जप करणी, अपणी अणभव पावै॥
खण पांचूं छवूं परचै लैणा, निरंजण धावै।
काम किरोध कानै कर देवै, भगति पूरण पद पावै॥
पद सेवा संतां री भगति, निज मन शीश निवावै।
कर सिंवरण माला कोई फेरै, निवण डंडोत करावै॥
दरसण जावै देव उपासी, धूप अर दीप चढ़ावै।
आ रीत जांणै कोई साधु, भव जळ सूं तिर जावै॥
सब कोई रीत गुरां सूं पावै, बिन गुरु विरथा जावै।
मन रै मतै कहो कुण सीधै, मूरख मूळ गमावै॥
भगवत गत भगति सूं पावै, आठू जाम नेम निभावै।
धुर लग पूरौ धणीं यूं धावै, कोई शंका नई लावै॥
समझै सैन बेण में पूरा, जग बंधन नहीं आवै।
संत समागम नित जाय कीजौ, श्रवण मगन करावै॥
द्वारका सूं आया रूणीचे, अजमल भगति भारी।
भणत रांमदेव सरणै रइजौ, भगति कठण करारी॥
भाइयो! साधुजनों की संगत का आश्रय ग्रहण करो। मन, वचन और तन से सद्गुरु की सेवा करते हुए भगवान का गुणगान करो। यदि कोई विधान से भक्ति करेगा तो उसके सांसारिक कष्ट दूर हो जाएँगे। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके नवधा भक्ति करने से परब्रह्म के दर्शन होते हैं। जो व्यक्ति भक्ति का रहस्य जाने बिना तथाकथित भक्ति करते हैं, वे मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकते। स्वार्थ के सूत्र में बंधकर दिखावटी भक्ति का अनुकरण तो अनेक लोग करते हैं; जो निरर्थक हैं। गुरु द्वारा अनुभव-सिद्ध ज्ञान, ध्यान और जप की क्रिया सीख कर, स्वयं उसकी अनुभूति करके उसे आत्मानुभव का विषय बनाए, इस प्रकार से भक्ति करते हुए जो साधना के अंतिम पद तक पहुँचते हैं, वे भक्त परब्रह्म में मिल जाते हैं। जो व्यक्ति काम क्रोधादि रिपुओं को दूर भगाकर पाँच तत्त्व और षट्चक्र भेद कर ब्रह्मरंध्र में निराकार, निरंजन परब्रह्म का ध्यान करता है, वह भक्ति के पूर्ण पद की प्राप्ति करता है। नवधा भक्ति के रूप में यदि कोई व्यक्ति चरण स्पर्श,संतों की सेवा-शुश्रूषा, शुद्ध चित्त से (गुरु चरणों में) शीश झुकाना, दंडवत प्रणाम आदि क्रियाएँ करता हो, तथा भगवद्- स्मरण करता हुआ भगवान् का मंत्र जपता हो, देवोपासना करता हुआ, उसकी मूर्ति के दर्शन करके धूप-दीप, नैवेद्य चढ़ाता हो- नवधा भक्ति की इस रीति को जो अपनाता है वह संसार-सागर से पार हो जाता है। भक्ति की विधि सद्गुरु से प्राप्त करनी चाहिए, गुरु के बिना की हुई मनमुखी भक्ति व्यर्थ हो जाती है। मन के अनुसार की हुई भक्ति से कौन पार हो सकता है? मन के मतानुसार भक्ति करने वाले मूर्ख तो अपने जीवन की कमाई व्यर्थ ही खो देते हैं। अष्ट पहर नियम निभाते हुए गुरुमुखी भक्ति करते रहने से भगवत-स्वरूप की प्राप्ति संभव है। मन के समस्त संशय दूर करके, सच्ची श्रद्धा और पूर्ण विश्वास से जो व्यक्ति पूर्वोक्त प्रकार से नवधा भक्ति के माध्यम से अपने स्वामी की साधना करते हैं वे अपने परम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। गुरु मंत्र को समझकर नित्य प्रति सत्संगत करो और भगवान् का गुणगान करो, सुनो तथा उसका मनन करो जिससे सांसारिक बंधनों से छूट कर मोक्ष प्राप्त करोगे,अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होगा। रामदेवजी कहते हैं कि भक्ति का मार्ग तो अति कठिन है किंतु शरणागत की भावना से भगवद्प्राप्ति सहज सुलभ है। इसी भावना से अजमालजी ने द्वारिका जाकर द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के दर्शन किए और उन्हें रूणीचे में पुत्र रूप में प्राप्त किया।
- पुस्तक : बाबै की वांणी (पृष्ठ 104)
- संपादक : सोनाराम बिश्नोई
- रचनाकार : बाबा रामदेव
- प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार
- संस्करण : 2015
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