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चहुँ दिस निरखूँ एक सरूप

chahun dis nirkhun ek sarup

सैन भगत

सैन भगत

चहुँ दिस निरखूँ एक सरूप

सैन भगत

और अधिकसैन भगत

    चहुँ दिस निरखूँ एक सरूप।

    सगुण-निगुण के भरम भटकूँ, मंदिर मसजिद बीच अटकूँ।

    नी रेहूँ अंध के कूप। चहुँ दिस निरखूँ एक सरूप॥

    एक सरूप राम को जाणू, पूरन परमानंद पिछाणू।

    सद्गुरु दरस्यो सोइ परमाणू, अणगण नामा एकहि रूप॥

    चहुँदिस निरखूँ एक सरूप॥

    ना वो सोवे ना जो जागे, ना वो ढबे ना वो भागे।

    ना वो पाछे ना वो आगे, ना अनुरागे ना वीरागे॥

    सैन भगत को छाया-धूप, चहुँदिस निरखूँ एक सरूप॥

    मैं चारों ओर राम का ही स्वरूप देखता हूँ। मैं सगुण और निर्गुण के भ्रम-भटकाव में नहीं पड़ता। मैं मंदिर और मस्जिद के फ़र्क़ में भी नहीं भटकता। मैं अँधकार, अज्ञान या रूढ़ियों के अंधकूप में भी नहीं रहता। मैं तो चारों दिशाओं में एक ही स्वरूप के दर्शन करता हूँ। मैं राम का एक स्वरूप जानता हूँ। एक पूर्ण परमानंद को मैं पहचानता हूँ। मैं दुई के भ्रम में नहीं भटकता। मुझे जैसा सद्गुरू ने दरसाया है, उसे ही प्रमाण जानता हूँ। अनगिनत नामों का रूप एक ही है। नाम अनंत हैं, प्रभु एक ही है। मैं चारों ओर एक ही स्वरूप के दर्शन करता हूँ। वह प्रभु तो सोता है, जागता है, रुकता है, भागता है, ना वह पीछे है, आगे है। वह तो सब तरफ़ है। वह तो अनुरक्त होता है और ही विरक्त होता है। सैन भगत कहते हैं—वह तो धूप और छाया की भाँति सर्वत्र व्याप्त है, मैं उसे सब तरफ़ देखता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 296)
    • संपादक : अशोेक मिश्र
    • रचनाकार : संत सैन भगत
    • प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
    • संस्करण : 2013

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