मन तुम छोड़हु सकल उदासी।
राम के नाम तीर्थ घट ही में, दिल द्वारिका औ काया कासी॥
करते जग अपने कर बाँधेा, तिरगुन डोरि की फाँसी।
भिन्न-भिन्न निज गुन बरतावहिं, काहू कै कछु न सिरासी॥
तेहि तें कनक कामनी अरुझो, हरि सों सदा निरासी।
अंतै नैन स्रवन अंतै है, रसना अंतै साँसी॥
ब्रह्म सरूप अनूप भूप बर, सोभा सुख को रासी।
केवल आतम दाम बिराजत, परमातम अबिनासी॥
अपरंपार अखंडित बानी, अकथ कथी नहिं जासी।
सो परभाव प्रगट सतसंगति, जेाग जुगत अभ्यासी॥
सतगुरु ज्ञान बान जेहिं मार्यो, लगी मरम उर गाँसी।
घायल घुरमित उलटि गयो त्यों, चेतन उदित प्रकासी॥
जग समुद्र नवका नर देही, कनिहर गुरु बिस्वासी।
अमृत हरि को नाम सजीवन, चाखत छकि न अघासी॥
बेद बेदांत संत मुख भाखहिं, धन्य जो नाम उपासी।
मन क्रम बचन जु हरि रंग राते, तजे जगत उपहाँसी॥
जे एकै ब्यापक आतम तौ, को ठाकुर को दासी।
ब्रह्म सरूप है साहब सेवक, दिब्य दृष्टि है खासी॥
अलख राम को लखै सोई जन, जो भ्रम भीति को ढासी।
सोइ जोगी जोगेसुर ध्यानी, जा की रहनि अकासी॥
हरि सों प्रीति निरंतर दिन दिन, छुट्टी भूख पियासी।
सुरति मिली अवलोकि निरति महँ, कहँ आवे कहँ जासी॥
त्यागि सकल परपंच बिषै हरि, ताहि मिलै अन्यासी।
निरमोही निर्बान निरंजन, निरममता सन्यासी॥
मोहनभेाग सेख लै बैठो, सुन्न में आसन डासी।
भीखा पावत मगन रैन दिन, टाटक हात न बासी॥
- पुस्तक : भीखा साहब की बानी (पृष्ठ 9)
- रचनाकार : भीखा साहब
- प्रकाशन : बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद
- संस्करण : 1919
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.