माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई।
बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई॥
हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई।
नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई॥
मनु मानिआ नामु सखाई।
पाड़ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई॥ रहाउ॥
जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई।
माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई॥
गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई।
रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई॥
साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई।
मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की ख़बर न पाई॥
अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई।
जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना की कमाई॥
नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई।
कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अमृतु रिदै वसाई॥
निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई।
नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई॥
माँ-बाप को बेटा तथा ससुर को चतुर प्यारा होता है। बच्चों और कन्याओको बाप प्यारा होता है और भाई को भाई अति प्रिय होता है। (किंतु जब परमात्मा का) हुक्म होता है, (तो जीव) घर-बाहर दोनों को छोड़ देता है और क्षण मात्र में (उसकी सारी सम्पति) पराये की हो जाती है। जो मनमुख ‘नाम, दान और स्नान’ (में निष्ठा नहीं रखता) उसके शरीर में धूल उड़ उड़कर पड़ती है (अर्थात वह बरबाद होता हैं)।
(जब मैंने) नाम को (अपना) सहायक बनाया, तो (मेरा) मन मान गया (शांत हो गया)। (मैं) गुरु के पाँव पड़ता हूँ, (उन पर) बलिहारी होता हूँ, जिन्होंने सच्चा ज्ञान समझा दिया है।
(मनुष्य का) मन जगत की झूठी प्रीति से बिधा हुआ है (और वह हरी के) दासो के साथ झगड़ा मचाता रहता है। (वह) माया में निमग्र हुआ अहनिंश (माया का) रास्ता देखता है। (वह) नाम नहीं लेता (और विषय रूपी) विष खाकर मरता रहता है। (वह) गंदे वचन (बात ) रत रहता है और उसका प्रेमी हो गया है, (परमात्मा अथवा गुरु के) शब्द का उसे ध्यान नहीं आता। (वह हरी के प्रेम में नहीं अनुरक्त होता है और न (उसक) रस में ही उसका मन बेधता है (द्रवीभूत होता है), (इस प्रकार) मनुष्य (अपनी) प्रतिष्ठा गँवा देता है।
(उस मनुष्य ने) सत्सगति से सहजावस्था का रसास्वादन नहीं किया। (उसकी) जीभ में राई भर भी (नाम-उच्चारण का) रस नहीं आया। (वह अहंता वश) तन, मन, धन को अपना मान बैठा, (उसे) (परमात्मा के) दरवाजे की (जरा भी) ख़बर नहीं मिली। (अंत में वह अपनी) आँखे बंद कर अंधकार में चला पड़ा, (उस समय उसे) घर बार तथा भाई-बंधु कुछ भी नहीं दिखाई पड़ते (अथवा है भाई, उस समय उसे अपना घर और दरवाजा कुछ भी नहीं सूझ पड़ता)। अपनी ही की हुई कमाई के कारण, (वह) यमराज के दरवाजे पर बाँधा जाता है (और उसे कोई बचने का) स्थान नहीं मिलता।
यदि (परमात्मा) कृपादृष्टि करे, तभी (वह) आँखों से देखा जा सकता है (अन्यथा नहीं); (उसके संबंध में) कुछ कथन नहीं किया जा सकता। कानों से सुन सुनकर शब्द द्वारा (प्रभु का) गुणगान करना चाहिए, (जिससे नाम रूपी) अमृत हृदय में समा जाए। (प्रभु) निर्भय, निरकार और निर्वेर है, (उसकी) पूर्ण ज्योति (सर्वत्र) समाई हुई है। हे नानक, गुरु के बिना भ्रम नहीं भागता), (भ्रम नहीं निवृत्त होता), सच्चे नाम की (बहुत बड़ी) महत्ता है।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 218)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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