एको सरवरु कमल अनूप। सदा बिगासै परमल रूप॥
ऊजल मोती चूगहि हंस। सरब कला जगदीसै अंस॥
जो दीसै सो उपजै बिनसै। बिनु जल सरवरि कमलु न दीसै॥ ॥रहाउ॥
बिरला बूझै पावै भेदु। साखा तीनि कहै नित बेदु॥
नाद बिंद की सुरति समाइ। सतिगुरु सेवि परमपदु पाइ॥
मुकतो रातउ रंगि रवांतउ। राजन राजि सदा बिगसांतउ।
जिसे तूं राखहि किरपा धारि। बूडत पाहन तारहि तारि॥
त्रिभवण महि जोति त्रिभवण महि जाणिआ। उलट भई घरु घर महि आणिआ॥
अहिनिसि भगति करे लिव लाइ। नानकु तिनकै लागै पाइ॥
एक (सत्संग रूपी) सरोवर है, (जिसमें गुरुमुख रूपो) सुंदर कमल (खिले हैं)। (यह सरोवर कमलों) को विकसित करता है (और उन्हें सुगंधि तथा रूप (प्रदान करता है)। (गुरुमुख रूपी) हंस (नाम रूपी) उज्जवल मोती चुगते हैं। (वे गुरुमुख रूपी हंस) सर्व शक्तिमान जगदीश के अंश (भाग) हो गए है।
जो कुछ भी (इस संसार में) दिखाई देता है, (वह सब) उत्पन्न होता और नष्ट होता है। (शक्ति रूपी) जल के बिना (सत्संग रूपी) सरोवर में (गुरुमुख रूपी) कमल नहीं रह सकता।
(इस सत्संग के रहस्य को) कोई विरला ही समझता है। वेद तो सदैव तीन शाखाओं का वर्णन करते है [तीन शाखाओं से तात्पर्य तीन गुणों से है—सत्तव, रज, तम (त्रैगुण्य विषया वेदा...श्रीमद्भगवद्गीता) अथवा—ज्ञान, कर्म, उपासना; अथवा त्रिदेव—ब्रह्मा, विष्णु, महेश]। (साधक) नाद-विंदु के एकनिष्ठ ध्यान में समाहित हो जाता है [नाद=शब्द रूप, वह अवस्था जब सृष्टि नहीं थी और निरंजन परमात्मा शब्द रूप में ही विराजमान था फिर बिंदु=फिर उसने सगुण रूप में समस्त सृष्टि-रचना का विस्तार किया। नाद-बिंदु के ज्ञान को जो साधक एक कर देता है, एक समझ लेता है, वह तीनों अवस्थाओं से पार होकर चतुर्थ अवस्था—सहजावस्था में समा जाता है।] सद्गुरु की सेवा करने से ही वह परम पद को प्राप्त करता है।
(जो मनुष्य) मुक्त होने के लिए प्रेम करता है, (वह हरी को) प्रेम के साथ स्मरण करता है। वह राजाओं का राजा है, (अतएव) सदा प्रसन्न रहता है। (हे प्रभु), जिसकी तू कृपा धारण कर के रक्षा करता है, उसे (तू) डूबनेवाली पत्थर की नाव (में भी) तार देता है।
(जो) त्रिभुवन में व्याप्त (परमात्मा) की ज्योति को त्रिभुवन में परिपूर्ण जानता है, जो (माया की ओर से वृत्तियों को) उलट कर (मन रूपी) पर को (आत्म स्वरूप रूपी) घर में ले आता है, नानक उनके चरणों में लगता है (पड़ता है)।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 185)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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