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अम्माजी

ammaji

कैलाशनाथ काटजू

और अधिककैलाशनाथ काटजू

    मेरी माताजी अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। उनके पिता पंडित नंदलाल कश्मीरी पंडित थे। वे पंजाब में पहले ज़िला हिसार और बाद में बहुत वर्षों तक होशियारपुर में सरकारी अधिकारी रहे। मेरी माताजी का जन्म संवत् 1915 में सिरसा (ज़िला हिसार) में हुआ। माँ-बाप ने उनका नाम रामप्यारी रखा; पर विवाह के बाद ससुराल में वे सुहागरानी कहलाई। वास्तव में दोनों नाम सुंदर और शुभ घड़ी में रखे गए थे। वे निस्संदेह राम की प्यारी थीं और अंत समय—अपने विवाह के 71 वर्ष पश्चात्—अपना सुहाग अपने साथ ही ले गईं।

    नंदलालजी अपनी बेटी को बहुत चाहते थ। घर में रामप्यारी की माँ और दादी दोनों मौजूद थीं। प्यार-दुलार तो बच्ची का बहुत था; लेकिन वह ज़माना कुछ और ही था। महिलाओं में शिक्षा इत्यादि की कुछ चर्चा ही नहीं थी। मेरी माता कहा करती थीं कि उनकी दादी के मन में तो यह बात जम गई थी कि रूस के रहने वाले सब घुड़मुँहे होते हैं। धुएँ की गाड़ी, यानी रेल, उन दिनों नई-नई निकली थी, मगर हमारी दादीजी को मरते दम तक यह विश्वास नहीं हुआ कि इंजन भाप से चल सकता है। रेल पर तो वे कभी बैठी ही नहीं थीं। घर में औरतों का यह हाल था; परंतु पिताजी को विद्या से बड़ा प्रेम था। अपनी पत्नी के मना करने पर भी उन्होंने बहुत उमंग से बेटी को ख़ुद पढ़ाया-लिखाया। माताजी ने अपने बाप से हिंदी और फ़ारसी सीखी। ईश्वर ने दिमाग़ बहुत अच्छा दिया था। उन्होंने संस्कृत ख़ूब पढ़ी और गणित भी। भूगोल, नक्षत्र-विज्ञान आदि भी वे थोड़ा-बहुत जानती थीं और ज्योतिष में तो इतना कमाल हासिल था कि बड़े-बड़े पंडितों और ज्योतिषियों तक से में बेधड़क वार्तालाप करती थीं। फ़ारसी के गुलिस्ताँ-बोस्ताँ और दीवान-ए-हाफिज़ मरते दम तक उन्हें ख़ूब याद थे। उनकी विचार-शक्ति बहुत ऊँची थी। जो कुछ एक दफ़ा पढ़तीं या सुनती थीं, वह सदा के लिए याद हो जाता था। उन्होंने सब धर्मशास्त्र अपने-आप पढ़े थे। गीता तो उन्हें कंठस्थ सी थी।

    नौ वर्ष की अवस्था में, संवत् 1925 में, उनका विवाह पंडित त्रिभुवननाथ काटजू के साथ हुआ। हमारा घर जावरा (मालवा) में है—शहरों से दूर, एक कोने में। संवत् 1925 में जावरा में रेल भी नहीं थी। छोटी जगह, पुराने विचार, पुराने चलन और रस्म-ओ-रिवाज़। मेरी माताजी यहाँ 50 वर्ष की आयु तक पर्दे में बंद रहीं। उनका विवाह छोटी आयु में हुआ था और थोड़े अरसे के बाद ही उनपर गृहस्थी का बोझ पड़ा था। देवर-जेठ सब अलग रहते थे। घर का कुल काम-धंधा, रोटी पानी, बच्चों का पालना-पोसना, कपड़ों की सिलाई आदि सब-कुछ वे अपने आप करती थीं। पढ़ने-लिखने से उन्हें काफ़ी रुचि थी और दूसरों को भी पढ़ाती थीं। दोपहर को 1-2 बजे जब घर के धंधे से कुछ सुभीता मिलता तो मोहल्ले की लड़कियाँ उनके पास पढ़ने जातीं और घर में एक छोटी-सी पाठशाला लग जाती। मेरी माताजी लड़कियों को लिखना पढ़ना सिखाती थीं।

    कश्मीरी पंडितों में पर्दा बाहर वालों से होता है, घर में ससुर माँ जेठ से नहीं होता। कुटुंब के जितने लोग थे—उनकी गिनती काफ़ी थी वे सब माताजी को घेरे रहते थे। घर के सब मर्द और लड़के, उनसे बीसियों विषयों पर वार्तालाप किया करते थे। कभी समाचारपत्र सुनना, कभी दुनिया की चर्चा, राजनीतिक बातें, रियासत के मामले आदि ये सब वे सुनती समझाती थीं।

    मेरी माताजी घर में साधारण स्त्रियों की तरह सभी काम-धंधा करती थीं; परंतु उनके विचार उस समय को और जिस वातावरण में उनका जीवन बीत रहा था, उसे देखते हुए बिल्कुल निराले और बहुत ऊँचे थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि मर्दों ने स्त्रियों को दबा रखा है। वे कहा करती थीं कि मर्द औरतों को पशुओं की तरह अपनी जाएदाद समझते हैं। उन्होंने हमको चूल्हे के सुपुर्द कर दिया है। औरतों को मर्द रोटी-कपड़ा देकर यह समझते हैं कि वे उनके घर की दासी हैं। मैं जब बड़ा हुआ और इन बातों को कुछ समझने लगा तो हँसी में उनसे कहता था कि अम्माजी, तुम रसोईघर में चूल्हे के पास बैठकर अन्नपूर्णा देवी मालूम होती हो तो बहुत बिगड़ती थीं और कहती थीं कि तुम लोगों ने यही कह-कह कर और मीठी-मीठी बातों से लुभाकर हमको अपाहिज बना रखा है। उनकी ज़बरदस्त इच्छा थी कि हर एक स्त्री इतना पढ़-लिख ले और हुनर-दस्तकारी सीख ले कि वह अपना पेट ख़ुद पाल सके और मर्दों का मुँह देखना पड़े। वे कहती थीं कि मैं शादी-विवाह के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। घर गृहस्थी करना तो स्त्रियों का धर्म है, मगर मैं नहीं चाहती कि स्त्रियाँ दबैल बन कर रहें। स्त्री और पुरुषों में पूरी बराबरी की वे दावेदार थीं। उनका अपना विचार यह था कि बराबरी की ही बुनियाद पर पति और पत्नी अपना घर चलावें। इस दृष्टि से वे स्त्री-शिक्षा की बड़ी ज़बरदस्त हामी थीं और जब कभी सुनतीं या समाचार पत्रों में पढ़ती कि देश की किसी स्त्री ने बी०ए०, एम०ए० पास किया या पढ़ाई अथवा हुनर में नाम हासिल किया तो बाग़-बाग़ हो जाती थीं। यह चर्चा मैं आज की नहीं, बल्कि 50-60 वर्ष पहले की कर रहा हूँ, जबकि गाँव क़स्बे में तो क्या बड़े-बड़े नगरों में भी स्त्री-शिक्षा का प्रचार नहीं था।

    संतानोत्पत्ति के बारे में भी उनके विचार सदा से ही ऐसे थे कि जिनकी चर्चा अब कुछ फल रही है। ब्रह्मचर्य और उसके द्वारा संतान विग्रह की वे बड़ी पक्षपातिनी थीं। वे कहती थीं कि बच्चों के बीच में कम-से-कम चार-चार वर्षों का अंतर होना चाहिए, ताकि एक बच्चा माँ का दूध पीकर बड़ा हो जाए, माँ उसकी पूरी-पूरी देख-भाल, पालन-पोषण कर ले तब दूसरा बच्चा उत्पन्न हो। यदि वे किसी स्त्री के जल्दी-जल्दी संतान होते देखतीं या सुनतीं तो उनको बड़ी घृणा होती। वे अपने कुटुंब की और संपर्क में आने वाली सभी स्त्रियों में इसके ख़िलाफ़ प्रचार करती थीं। विवाह के संबंध में भी उनके विचार बड़े स्वतंत्र थे। छोटी आयु की शादी उन्हें बड़ी नापसंद थी और बिरादरी में ही शादी होना वे आवश्यक नहीं समझती थीं। सब ब्राह्मणों को एक ही मानती थीं। प्रत्येक वर्ग में जो सहस्रों लड़ें पड़ गई हैं और एक दूसरे में व्यावहारिक मतभेद हो गया है, इस क़ैद को वे बुरी समझती थीं।

    उनका जीवन एक सच्चा धार्मिक जीवन था। शिवजी की वे बड़ी भक्त थीं और नियम के साथ रोज़ उपासना करती थीं। इसी कारण उन्होंने मेरा और मेरे भाई का कैलासनाथ और अमरनाथ नाम रखा था। धार्मिक पुस्तकें उन्होंने बहुत पढ़ी थीं। खाने-पीने में छूत-छात का विचार तो करना ही पड़ता था; लेकिन उसमें भी वे बहुत कट्टर नहीं थीं। अक्सर कहा करती थीं कि शास्त्रों में जितनी खाने-पीने की मनाइयाँ लिखी हुई हैं, उनका धर्म से और ईश्वर की भक्ति से कोई वास्ता नहीं है। यह तो सब अपने शरीर के रक्षार्थ हैं। छूतछात से बहुत-सी बीमारियाँ हो जाती है, इसीलिए उनके रोक-थाम के लिए हमारे ऋषियों ने ये सब क़ायदे बनाए। लोग उनको मानें, इस वास्ते उन्हें धार्मिक रूप दे दिया गया, वरना यह तो सब डाक्टरी शिक्षा है।

    संवत् 1962 में मैंने अपनी वकालत का काम कानपुर में आरंभ किया। 1 वर्ष वहाँ रहकर संवत् 1971 से प्रयाग हाईकोर्ट में वकालत करने लगा। हम लोगों का इससे पहले संयुक्त-प्रांत से कोई वास्ता नहीं था; परंतु अब तो प्रयाग में अपना घर-द्वार बना लिया है। मेरी वकालत तो गोया मेरी माताजी के लिए आज़ादी का कारण हो गई। वे संवत् 1966 से मेरे साथ कानपुर और बाद में प्रयाग में आने-जाने लगीं। कहाँ तो जावरा की मुसलमानी रियासत में पर्दे का ज़ोर—कहीं बाहर निकलना नहीं होता था, मंदिर में आने-जाने का भी दस्तूर था—और कहाँ कानपुर और प्रयाग में गंगाजी का तट और वहाँ आने-जाने की कोई मुसीबत नहीं! घर का काम-धंधा कानपुर में तो सब वैसा ही था, जैसा जावरा में। मेरी नई वकालत थी, नई जगह, सब तरह की कठिनाइयाँ थीं। परंतु वे सदा मगन ही रहती थीं। बेटे की घर-गृहस्थी ज़माना, इस में ही उन्हें क्या कम आनंद था और उस पर पर्दे की कोई ज़्यादा रोक टोक नहीं! वे रोज़ गंगाजी जाती, स्नान करतीं, कैलास-मंदिर में दर्शन करतीं और तब घर आती थीं। बिरादरी के और ग़ैर-बिरादरी के जिन बहुत-से घरों से हमारा मेल-जोल हुआ, उन सब से मिलना-जुलना माताजी को बहुत अच्छा लगता था। यहाँ भी दुनिया की ख़ूब चर्चा रहती थी और वे अपनी जमात को बराबर बढ़ाती जाती थीं। प्रयाग में 7-8 वर्ष तक तो में किराए के मकान में ही रहा, फिर संवत् 1979 में अपना बंगला ख़रीद लिया। अब तो माताजी को पूर्ण अवसर मिला कि अपनी इच्छानुसार काम करें। प्रयाग में प्रायः साल-साल, दो-दो साल आकर वे रहती थीं। त्रिवेणी, गंगा, यमुना आदि के स्नान बराबर करती थीं। शिवकुटी और पंचमुखी महादेव के शिवालों में जा कर उनके दर्शन करने का उन्हें बहुत प्रेम था। वे सदा वहाँ जाती थीं। झूसी और दारागंज के साधु-संतों की सेवा करना भी उनका एक ख़ास काम था। घर में भी सदा पूजा-पाठ, कथा-हवन इत्यादि होते ही रहते थे। पंडितों-पुजारियों से वार्तालाप होता था। परंतु किसी पंडित जी महाराज की क्या मजाल कि जो पूजा करने की विधि में कोई कमी करें या किसी मंत्र का उच्चारण अशुद्ध करें। उनको मंत्र सब याद थे और सबके अर्थ भी वे समझती थीं। अतः वे देखती रहती थीं कि पूरा कार्य शुद्ध रूप से यथाविधि समाप्त हो। वे दानी भी थीं और गुप्त दान देने की उन्हें बड़ी रुचि थी। किसी को मालूम भी नहीं होता था कि माताजी किस-किस की क्या सहायता कर रही हैं। चलने-फिरने और हवा खाने को वे बड़ी उत्सुक रहती थीं। बाहर जाकर रहना तो उनको बेहद पसंद था। इसलिए मैंने गंगा-किनारे एक बग़ीचा ले लिया। वहीं मुझे मालूम हुआ कि उनका बाग़बानी में कितना दख़ल था। मालियों को वे अपने सामने, खड़े होकर, हिदायतें देतीं और फूलों के पौधे तथा फलों के पेड़ लगवातीं। उनके हाथ के बहुत-से आम-अमरूद इत्यादि के पेड़, चमेली-गुलाब की बेलें आदि उनकी मधुर स्मृति-स्वरूप मेरे बंगले और बाग़ में आज भी मौजूद हैं।

    गो-सेवा वे सदा तन-मन से करती थीं और हमारे घर में गाय के बच्चा होना तो ऐसा ही था, जैसे किसी बहू-बेटी का जापा हो। हफ़्तों पहले से गाय घर में जाती थी। उसकी देखभाल माताजी स्वयं करती थीं और बच्चा पैदा होने के बाद गाय की सेवा, उसकी खिलाई-पिलाई महीनों बड़े ध्यान से की जाती थी। कहीं बछिया पैदा हुई तो माताजी निहाल हो गई। वह बछिया फिर घर में ही गाय बनती थी। ऐसी कई बेटी और नवासी गायें अभी तक मौजूद हैं। जब तक बछवा बड़ा नहीं हो जाता था तब तक माताजी का आदेश था कि एक थन का दूध बचाकर छोड़ा जाए। जानवरों की चिकित्सा में भी उनका काफ़ी दख़ल था। कुत्ते बिल्ली से उन्हें बड़ी नफ़रत थी। वे कहा करती थीं कि कुत्ता गंदा होता है और बिल्ली विश्वासघातिनी; लेकिन रंग-बिरंगी चिड़ियाँ, तोते, मैना आदि उन्हें बहुत पसंद आते थे और वे उनको बड़े चाव से पाला करती थीं।

    डाक्टरी की तरफ़ भी माताजी का काफ़ी रुझान था। बग़ैर कोई परीक्षा पास किए ही उन्हें डाक्टरी का अच्छा ख़ासा अभ्यास और जानकारी हो गई थी। मनुष्य का ढाँचा और उसकी बनावट तथा दिमाग़, कान, आँख आदि सब रोगों की क्रियाएँ वे अच्छी तरह जानती थीं। हमारे कुटुंब में कई डॉक्टर है। वे उनके साथ घंटों बातचीत करतीं। वे भी माताजी को हर तरह योग्य जानकर प्रेम और आदर के साथ उनके प्रश्नों का उत्तर दिया करते थे और गंभीर से गंभीर बातें उनको समझाते थे। स्त्री-जाति की बीमारियाँ और प्रसूति इत्यादि के मामले में तो वे अच्छी ख़ासी लेडी डाक्टर हो गई थीं। घर में बहू-बेटियों का ही नहीं, बल्कि मोहल्ले के रहने वाले और प्रयाग मे हाते के नौकर-चाकरों में औरतों-बच्चों का इलाज माताजी का ही हुआ करता था। हिकमत और आयुर्वेदिक दवाओं की भी उन्हें जानकारी थी। मरीज़ की देख-भाल, सेवा और नसिंग वे बड़ी रुचि तथा लगन से करती थीं।

    यह सब गुण तो उनमें थे ही; परंतु जो बात सब से अधिक उनकी तरफ़ हर एक को खींचती थी, वह था उनका स्वभाव। बड़े, बूढ़े, जवान और बच्चे सब उनसे ख़ुश रहते थे। पुराने ख़याल की बड़ी-बूढ़ी औरतों में माताजी की बड़ी क़दर थी। शादी-ब्याह के अवसर पर बिरादरी के सब रस्म-ओ-रिवाज़, लेना-देना, विधिपूर्वक पूजा-पाठ इत्यादि सभी मामलों में माताजी की राय माँगी जाती थी और उसी पर अमल होता था। घर में स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले बालक और बालिकाएँ अम्माजी के पास रुचि से बैठा करते थे। भारत का इतिहास उनको ख़ूब याद था। गाना बजाना उन्होंने कभी सीखा नहीं था और जानती ही थीं, मगर उसे सुनने का उन्हें बड़ा शौक़ था। मेरी लड़की लीला का गला बहुत अच्छा था। वह मीरा के भजन बड़े प्रेम से गाती थी और माताजी घंटों बैठकर उन को सुनतीं और उन्हीं में लीन हो जाया करती थीं। मगर उनकी सबसे अधिक पूछताछ तो थी कुटुंब के पुरुषों में। हमारे घर में ईश्वर की दया से सब ही है—जज, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, कारबारी और हर तरह के सरकारी ओहदेदार और बराबर सबका आना-जाना लगा रहता था। जब में नौकर से पूछता कि फ़लाँ साहब कहाँ हैं तो उत्तर मिलता कि बहूजी के पास बैठे हैं। जो आता सीधा सुहागानी चाची के पास जाता और उनसे अपना दुःख-दर्द बयान करता। वे बड़े प्रेम से सब कथा सुनतीं और नेक सलाह देतीं। हर एक के साथ उनके कार्य के बारे में बातचीत करने का माताजी का ख़ास ढंग था। इंजीनियर के साथ इंजीनियरी के मामलों पर बहस करतीं और डॉक्टरों के साथ डाक्टरी के बाबत। मैं तो अक्सर रात को भोजन करके उनकी गोद में अपना सिर रखकर लेट जाता और उनसे अपने मुक़दमों का हाल बयान करता था। वे वाक़ियात के मामलों को ख़ूब समझती थीं और अपने तजरबे तथा बुद्धिमत्ता से ऐसे-ऐसे नुकते निकालतीं कि मुझे उनसे ख़ासी मदद मिलती थी।

    दुःख-दर्द में माताजी के समान तसल्ली देने और संतोष करने वाला शायद ही कोई होगा। जहाँ वे ऐसे मौक़ों पर जाती थीं तो ग़मज़दों को उन्हें देखकर तथा उनके शांतिपूर्ण उपदेशों से बड़ा संतोष मिलता था। मुझे याद है, एक बार श्रीमती उमा नेहरू का लड़का चिरंजीव आनंद कुमार बिना माँ-बाप की अनुमति के जहाज़ से अफ़्रीक़ा की सैर करने को चला गया। उमा मामी बहुत व्याकुल हुई। उन दिनों वे बार-बार मेरी माताजी के पास आया करती थीं। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा “सुहागरानी चाची के पास आकर मुझे जो संतोष मिलता है, वह बयान के बाहर है।” स्वर्गीया सरूपरानीजी नेहरू के साथ मेरी माताजी का घनिष्ट संबंध हो गया था। वे मेरी माताजी को अपनी बड़ी बहन मानने लगी थीं और उसी नाते मुझको भी अपना बेटा कहती थीं। वे कहा करती थीं कि सुहागरानीजी की बातचीत, उनके धार्मिक विचार और उपदेश मुझको बहुत भाते हैं और मेरे जो कष्ट हैं, उनको हल्का करते हैं।”

    राजनीतिक मामलों में उनकी ख़ूब दिलचस्पी थी और बराबर उनकी ख़बरगीरी रखती थीं। हिंदू-मुस्लिम सवाल पर उनकी मज़बूत राय थी और वह राय कुछ-कुछ श्री सावरकर से मिलती है। पिताजी के साथ उन्होंने पूरे भारतवर्ष की यात्रा की थी। मेरे विचार से मुसलमानों के ज़माने में भारतवर्ष के मंदिरों और शिवालों की जो बरबादी हुई, उसका गहरा ज़ख़्म माताजी के हृदय पर लगा था, जो उस समय की बातें करते हुए सदा हरा हो जाता था।

    हिंदुस्तान की ग़रीब जनता की भलाई हर वक़्त उनकी नज़रों के सामने रहती थी। इस विषय में वे गाँधीजी को बराबर सराहा करती थीं। इसी दृष्टि से कांग्रेस-मंत्रिमंडल की शराब के बहिष्कार के बारे में जो नीति शी, उसका वे ज़ोरों से समर्थन करती थीं। चाय पीने के वे बहुत ही ख़िलाफ़ थीं। एक बार प्रयाग माघ-मेले के अवसर पर वे त्रिवेणी-स्नान करने गई। वहाँ से लौटने पर मुझ से बड़ी नाराज़ हुईं, और कहने लगीं—“तुम लोग प्रबंध नहीं करते हो। ग़रीबों का नाश हो जाएगा।” मैंने पूछा—“अम्माजी, आख़िर मामला क्या है?” मालूम हुआ कि चाय का प्रचार करने के लिए चाय के बग़ीचों के मालिकों की तरफ़ से गंगा के तट पर कैंप लगा है। वहाँ चाय मुफ़्त बाँटी जा रही है। उनका तो काम ही चाय का प्रचार करना था। इसलिए लोगों को मुफ़्त चाय पिलाते थे, ताकि उनको आदत पड़ जाए। माताजी चाय के सख़्त ख़िलाफ़ थीं। उनका विचार था कि देश में दूध-दही खाने की ज़्यादा आवश्यकता है। चाय से स्वास्थ्य ख़राब हो जाता है और भूख बंद हो जाती है। मुझ से कहने लगीं “तुम गवर्मेंट वाले थोड़ी आमदनी के लिए भारत का सत्यानाश करते हो।”

    माताजी की बोलचाल मीठी और गंभीर हाती थी। व्यर्थ वार्तालाप और कोरी बकवास से उनको घृणा थी। वे एक शाँत मूर्ति थीं। मैंने कभी उन्हें क्रोधित होते नहीं देखा। उन्हें कभी विशेष हर्ष होता था और वे किसी से द्वेष ही करती थीं। वे सुख-दुःख में समतावान् थीं। जाहिल औरतों की तरह उनमें रोने-धोने की आदत नहीं थी। घर में बहुत शादियाँ हुई, लड़कियों के विदा होते समय घर-भर रोता और आँसू गिराता; परंतु माताजी वैसी-की-वैसी ही शाँत बनी रहतीं। मैंने उन्हें कभी भी एक आँसू गिराते नहीं देखा और अगर कोई बेटी-पोती माताजी से जुदा होते हुए रोती तो माताजी मना करतीं—“रो मत बेटी, मुझे शंका होती है। यह तो बड़ी ख़ुशी का दिन है कि तू अपने घर जा रही है।” माताजी ने दुःख भी काफ़ी उठाए। कई बड़ी प्यारी पाली-पोसी, ब्याहता बेटी-पोतियाँ उनके सामने गुज़र गईं; लेकिन उन सदमों को भी उन्होंने बहुत सब्र और शक्ति के साथ झेला और कभी हिम्मत नहीं हारी।

    हर एक के साथ उनका बर्ताव मिलनसारी का और अच्छा होता था। उनके मैके में एक भाई गोद आया था। ननद-भौजाई में मैंने ऐसा मेल कहीं नहीं देखा, जैसा कि उनमें था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे दो सगी बहनें हों। इसी कारण मेरी मामी मुझे बेटा समझती थीं और मैं उनको माता के समान मानता था। उन्हींके घर जाकर मैंने लाहौर में 5 वर्ष रहकर बी० ए० पास किया। मेरे मामूजी की संतान और उनके जमाई दीवान बहादुर ब्रजमोहन नाथ जुत्शी को मेरी माताजी का जैसा प्रेम प्राप्त था, उसका मैं बयान नहीं कर सकता। इसे वही जानते हैं। अपने घर में माताजी अपनी बेटियों से ज़्यादा बहुओं को प्यार-दुलार करती थीं। कहती थीं—“बेटियाँ तो दूसरों के घर जाएँगी। मेरे घर की आबादी तो बहुओं से ही है।” नतीजा यह था कि घर में कभी कोई खटपट नहीं होती थी। हमेशा शांति और हर एक ख़ुश और मगन रहता था। बहुओं की नज़र में माताजी सास नहीं थीं; बल्कि उनकी माता के समान ही थीं। सारे कुटुंब में ईश्वर की कृपा से बहुत सी बहू-बेटियाँ हैं। सब माताजी को ऐसा आदर-प्यार करती थीं कि मैं कह नहीं सकता। हर एक उनके पास जाकर बैठती और कुछ-न-कुछ उपयोगी बात सीख कर ही जाती। नए ज़माने की बी० ए०, एम० ए० पास लड़कियाँ और पुराने समय की खूसट स्त्रियाँ दोनों ही माताजी को बुद्धिमान् और तजरबेकार समझती थीं और उनसे लाभ उठाती थीं। आजकल की कॉलेज की पढ़ी लिखी महिलाएँ भी उनको देखकर और उनकी बातें सुनकर मुग्ध हो जाती थीं। माताजी का विज्ञान, इतिहास, भूगोल, नक्षत्र-विज्ञान, डॉक्टरी इत्यादि का ज्ञान और चर्चा उनको आश्चर्य में डाल देते थे कि यह बड़ी-बूढ़ी औरत अंग्रज़ी से अनभिज्ञ होकर भी ये सब बातें कहाँ से जान गई और उस पर उनके-जैसे स्वतंत्र विचारों का तो कहना ही क्या? प्रयाग में हमारे यहाँ एक पारसी लेडी डॉक्टर आया करती थीं। उनका नाम था मिस कमसरिएट— आलादिमाग़, सुशिक्षित, विलायत-अमरीका गई हुई, बहुत योग्य वे माताजी से ऐसी प्रसन्न थीं कि उन्हींको अपनी माता बना लिया।

    अभ्यास करते-करते माताजी का ज्योतिष में भी काफ़ी दख़ल हो गया था। जब वे प्रयाग में होती तो हाते के नौकर-चाकरों में जहाँ बच्चा पैदा हुआ, सबकी जन्मकुंडली बनाती थीं। मेरे पास जब कोई ज्योतिषी आते तो मैं उनकी सीधी माताजी से भेंट करा देता और कहता—“महाराज, मुझे तो कुछ आता-जाता नहीं। कृपया माताजी से वार्तालाप कीजिए।” नतीजा यह होता था कि मुझे तो छुटकारा मिल जाता और उनकी कलई खुल जाती। मेरी जानकारी में माताजी की बताई हुई बातें बहुत सच निकलती थीं। कोई चालीस वर्ष हुए—जब मैं कालेज में पढ़ता था—मुझे उन्होंने मेरे कुल जीवन का नक़्शा खींच दिया था। इन चालीस वर्षों के बारे में उनकी बताई हुई बातें सब सही निकली हैं। वे तो उम्र का पैमाना भी कब छलकेगा, यहाँ तक बतला गई हैं।

    खाने-पीने में वे बड़ी पाबंद थीं। मेरे हाथ का छुआ हुआ कच्चा खाना भी नहीं खाती थीं। मगर अछूत प्रथा वे बिल्कुल नहीं मानती थीं। मैंने उनको चमार भंगी औरतों और बच्चों को अपने पास प्रेम से बिठाते, उनकी दवा करते और बच्चों को गोद में लेते देखा है। उनका रहन-सहन बहुत ही सादा हो गया था। वे पूर्ण संयम के साथ रहती थीं। माँस-मछली खाने का काश्मीरी पंडितों में रिवाज़-सा है और हमारे घर की तो इष्ट देवी ही शारदा भगवती हैं, परंतु बहुत सालों से माताजी ने आमिष खाना छोड़ दिया था। भोजन भी वे अपने हाथ से या कुकर में बनाकर एक वक़्त दोपहर को ही करती थीं और शाम को केवल एक प्याला दूध पीती थीं। उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था; पर आँख में एक क़िस्म का मोतियाबिंद हो गया था, जिसके कारण आँखों की ज्योति मृत्यु से तीन वर्ष पहले से ही जाती रही थी। तब भी माताजी का स्वभाव वही था और अपनी जानकारी बराबर बढ़ाने की उनकी वैसी ही इच्छा थी।

    हम कुल पाँच बहन-भाई थे और सबको ही वे प्यार करती थीं, मगर सब कहते थे कि मेरे प्रति उनका स्नेह अधिक था। वे कहा करती थीं—“मेरे 24 वर्ष तक कोई संतान नहीं हुई। पर मुझे इसका कुछ अधिक दुःख नहीं था। मुझे संतान की ज़ियादा अभिलाषा नहीं थी। मैं उसे झंझट ही समझती थी। उस उमर में जब पहली संतान लड़की हुई तो मुझे ज़रूर कामना हुई कि ईश्वर ने जब औलाद दी तो पुत्र भी दे और मैंने शिवजी से ऐसी ही प्रार्थना की। चार वर्ष बाद जब पुत्र उत्पन्न हुआ तो मेरी सास कहने लगीं—‘काटजू-ख़ानदान में दो पुश्तों से कोई लड़का पैदा नहीं हुआ, गोद माँगकर ही यह ख़ानदन चला है। मेरे भाग्य में कहाँ कि मैं इस लड़के का सुख पाऊँ!’ उनका कहना सच ही निकला और आठ महीने ही में वे परलोक सिधार गईं। मैं भी बीमार पड़ गई। जापे के बाद से ही दो वर्ष तक ज्वर आया, मानो क्षय हो गया। मरते-मरते बची। अक्सर रात में व्याकुल हो जाती थी, आँसू निकल आते थे और सोचती थी कि यह बच्चा इतनी कामनाओं और प्रार्थनाओं से माँगा हुआ मालूम किसके हाथों पड़ेगा? कौन स्त्री इसकी विमाता बनेगी, कौन इसको पालेगी? और शिव भगवान् से बार-बार माँगती कि तुमने मुझे बच्चा दान दिया तो मुझ को आयु भी दो, ताकि उसकी रक्षा कर सकूँ। भगवान् ने विनती सुनी और ऐसी सुनी कि तुमको ही नहीं पाला-पोसा, बल्कि तेरी संतान और उनकी औलाद का भी सुख भोग रही हूँ। तू भी मेरे से चिपटा ही रहता था। चार वर्ष तक तूने भी मेरा दूध पिया है।” ऐसी माता का ऋण भला कौन उतार सकता है और कैसे उतारे?

    अंत में आँखें चली जाने से उनका चलना-फिरना कम हो गया था तो भी नौकर का हाथ पकड़ कर वे प्रातःकाल बाग़ में टहला करती थीं, ताकि स्वास्थ्य ठीक रहे। जब उनकी 70 वर्ष की अवस्था हो गई तो एक दिन गौतम बुद्ध के समान कहने लगी कि यह शरीर अब काम का नहीं रहा, अब तो इसको त्यागना ही उचित है। उनका स्वास्थ्य ढीला हो गया था और उन्होंने इस लोक को त्यागने की सब तैयारी भी कर ली थी। अपने सामने अपने हाथ से जो गहना उनका था, वह बहू-बेटियों और उन की संतान को बाँट दिया और जितना दान करना चाहती थीं, सब दान कर दिया। एक ट्रंक में अपने लिए एक जोड़ा साड़ी रखवा दी कि मरने के बाद पहनाई जाए।

    वे गीता का पाठ बराबर ख़ुद करती और सुनती थीं। आठवें अध्याय से उनकी विशेष रुचि थी। और वैसा ही हुआ भी। संवत् 1996 माह आषाढ़ शुक्ल पक्ष में प्रदोष के दिन 10 बजे दोपहर को, जबकि दिन की ज्वाला भरपूर थी, माताजी ने प्रयागराज महात्याग-भूमि में, जैसी कि उन की इच्छा थी, अपना शरीर त्यागा। बातें करते-करते, करवट लेकर वे परलोक सिधार गई। हम सब उनके पास मौजूद थे; परंतु मेरी स्त्री बीमारी के कारण नैनीताल में थी। उसको बुलाया था, मगर आने में ज़रा देरी हुई। बस, उसीको बार-बार याद करती थीं और कई दफ़े पूछा भी— “लक्ष्मीरानी नहीं आई? कब आयगी?” इसके सिवा बहुत इत्मीनान के साथ जैसा कि भगवान ने बताया है—

    वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

    तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

    मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को छोड़ कर जैसे नए बदलता है, वैसे ही माताजी ने अपना शरीर त्यागा।

    उसी दिन मुझे ज्ञान हुआ कि हिंदू-स्त्रियों को क्यों अभिलाषा होती है कि वे अपना सुहाग साथ लेकर जाएँ? माताजी बहुत वर्षों से रंगीन किनारे की सफ़ेद साड़ी पहनती थीं। यदि कोई उनको रंगीन रेशमी वस्त्र लाकर पहनने को कहता तो जवाब मिलता कि बुढ़ापे में क्या यह मुझको शोभा देगा? परंतु जो साड़ी उन्होंने पहले से ही अंतिम यात्रा के लिए निकाल कर ट्रंक में रखी थी, वह एक सुंदर लाल रेशमी साड़ी थी। नहला धुला कर जब उनको वे वस्त्र पहनाए गए और माथे पर सिंदूर का टीका लगाया गया तो मैं सच कहता हूँ, ऐसी सुंदर मालूम होती थीं, जैसे कोई दुलहन हों। कुछ ऐसी ईश्वर की करनी हुई कि उनके चेहरे से बुढ़ापे के सारे चिह्न मिट गए और सुहागरानी अपना सुहाग साथ लेकर हँसी-ख़ुशी चली गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 38)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : कैलाशनाथ काटजू
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1952
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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