टीपू सुलतान से मेरा आशय न तो मैसूर के उस प्रसिद्ध सुलतान से है, जिसने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे किए थे और न किसी रईसज़ादे के रईस कुत्ते से है। लेकिन फिर भी उसमें इन दोनों का व्यक्तित्व मौजूद था। टीपू सुलतान की तरह मुसलमान होकर भी वह हिंदुओं का मित्र था तथा एक दिन कुछ धर्मांध युवकों ने उसे कुत्ते की तरह गोली मार कर कुएँ में डाल दिया था। मैं नहीं जानता, उसका असली नाम कुछ और था या नहीं। था भी, तो मैंने उसे कभी नहीं सुना। सब लोग उसे सदा ‘टीपू’ कहकर पुकारते थे। बहुत दिनों बाद जब वह कुछ दिन फ़ौज में नौकरी करके लौटा था और उसने लंबी दाढ़ी रखवाली थी, तब कुछ लोग उसे टीपू ख़ाँ कहने लगे थे। वैसे वह कुछ दिन की ही बात थी, शीघ्र ही वह फिर ‘ख़ाँ’ रहित केवल ‘टीपू’ रह गया था। वह मुझ से पहली बार कब मिला, मुझे ठीक याद नहीं; परंतु उन बातों को आज कम-से-कम 25 वर्ष तो हो ही चुके हैं। मुलाक़ात से पहले भी मैंने उसे बहुत दिनों तक प्रायः रोज़ ही देखा होगा; क्योंकि घर से दुकान जाने के लिए उसे मेरे घर के आगे से गुज़रना होता था। यद्यपि उस शहर में हिंदू-मुसलमानों की बस्तियाँ प्रायः अलग-अलग थीं, फिर भी मरुस्थल की शाद्वल भूमि की तरह कुछ हिंदू-मुस्लिम बस्ती में और कुछ मुसलमान हिंदू बस्ती में रहते थे। टीपू का घर ठेट हिंदुओं के मोहल्ले में था। मेरे मोहल्ले में भी, जो टीपू के मोहल्ले के बिल्कुल बराबर था, कई मुसलमान कुटुंब बसते थे। यद्यपि उनमें कुछ लोग काफ़ी कट्टर थे, फिर भी उनके लड़के हमारे साथ चौक में तरह-तरह के खेल खेला करते थे। इस चौकड़ी में कहार, बनिए, ब्राह्मण, जैनी, आर्यसमाजी और मुसलमान सभी के लड़के होते थे। टीपू उस दल का सक्रिय सदस्य था। वह यद्यपि दूसरी गली में रहता था तो भी खेलने के वक़्त पर अक्सर हमारे घर के बाहर पड़ी कुर्सियों पर आ बैठता था। मुझे याद है, बहुत दिन तक उसे शर्म चढ़ी रही थी। वह एक ग़रीब बढ़ई का लड़का था और शायद अपने बड़े भाई के पास रहता था। कुछ भी हो, खेल में उसे दिलचस्पी थी—विशेषकर चाँदनी रातों में कबड्डी खेलने में उसे विशेष रस आता था। उस खेल में उसकी छटा देखते ही बनती थी। वह तनिक टाँगों को चौड़ा करके दौड़ा करता था और अपने कंधे पर एक गंदा-सा अंगोछा डाले रखता था। उसे चिढ़ाने में हमें बड़ा मज़ा आता था। दूसरे के दल में घुसते समय ‘कबड्डी तीन तारा, सुलतान बेग मारा’ के स्थान पर हम ‘कबड्डी तीन तारा, सुलतान टीपू मारा’ पुकारते थे। याद नहीं पड़ता, वह कभी सचमुच नाराज़ हुआ था। वैसे झूठ-मूठ नाराज़ हो जाना और फिर पेट पकड़ कर हँस देना उसका स्वभाव था।
उसका शरीर कुछ चौड़ा और क़द मझोला था। टाँगें कुछ पतली भी और चलते समय तिरछे कोण बनाया करती थीं। उसकी आँखें बड़ी और माथा ऊँचा था। उसके मुख पर सदा एक विचित्र प्रकार को अल्हड़ता खेलती रहती थी और हँसी के कारण अक्सर उसे सीधा खड़ा रहना दूभर हो जाता था। उसे आगे-पीछे देखकर साथियों का अट्टहास और भी गहरा हो उठता था। वह कुरता और तहमद पहनता था तथा उसके सिर पर एक सस्ती मैली झरोखेदार तुर्की टोपी रहती थी। उसके पैर में शायद ही मैंने साबुत जूते देखे होंगे, अक्सर वह फटफटिया ही पहनता था। आजकल की चप्पलों का उन्हें पूर्व रूप कह सकते हैं। पुराने जूतों की एड़ी काट कर वे तैयार की जाती थीं।
पर ये सब बचपन की बातें हैं। जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ी उसका संतुलन ठीक होता गया। वह एक अच्छा बढ़ई था और अपने भाई की दुकान में बड़ी मुस्तैदी से काम किया करता था। तब कबड्डी का खेल ख़त्म हो चुका था और हमारा मिलना पहले-जैसा नहीं रहा था। हमने मकान बदल दिया था और साथ हो सन् 1925-26 का बचपन 1933-34 को ज़हरीली जवानी में पलट चुका था। 1937 तक तो सांप्रदायिकता का वह ज़हर हिंदू-मुसलमानों की नस-नस में रम गया था। यह सब हुआ, परंतु टीपू की हँसी में कोई अंतर नहीं पड़ा। यद्यपि वह कभी गंभीर और कभी तेज़ होने का प्रयत्न करने लगा था तो भी वह हँसी उसे सदा धोखा दे जाती थी। वह मेरे मुँह की ओर देखता-देखता दोहरा होकर खिलखिला पड़ता था।
मुझे याद है, द्वितीय महायुद्ध के प्रारंभिक दिनों में वह अचानक कहीं चला गया था। बहुत दिनों के बाद मैंने उसे दाढ़ी सहित देखा, तो कुछ अजीब-अजीब-सा लगा। मैं मान लूँ, मुझे हाजी-सरीखा उसका वह रूप अच्छा नहीं लगा था, फिर भी उसे देख कर ख़ुशी होना स्वाभाविक था। मैंने हँसकर कहा—”क्यों भाई टीपू, कहाँ ग़ायब हो गए थे?”
उसने सदा की तरह हाथ उठाकर सलाम किया और हँसता हुआ बोला—“ऐसे ही चला गया था।”
“ऐसे ही कहाँ?”
“नौकरी करने।”
“कहाँ?”
“फ़ौज में।”
“ओहो, तो टीपू सुलतान फ़ौज में भरती हो गए थे! क्या हिंदुस्तान के फ़तह करने का इरादा था?”
वह तेज़ी से हँसने लगा। बोला—“अजी, मुझे क्या फ़तह करना था, मैं तो लकड़ी छीलता हूँ।”
“लेकिन चले क्यों आए?”
“ऐसे ही, जी नहीं लगा, आगे भेजते थे।”
“तो यूँ कहो, डर गए थे। वाह जी टीपू सुलतान, तुम ने तो अपने नामरासी की बिल्कुल लाज नहीं रखी!”
इस बार वह नहीं हँसा। बस, दोनों हाथों की उँगलियों को चटकाते हुए बोला—“अब बाबू...कुछ काम दिलवाइए, गुज़ारा नहीं होता।”
कहने में कुछ ऐसी बात थी, जिससे मुझे चोट लगी। जीवन की ये चिंताएँ उल्लास को कैसे समाप्त कर देती हैं? मैंने भी हँसी छोड़ कर गंभीर होने की चेष्टा की। फिर भी मुझे याद नहीं पड़ता, उसने मेरे दफ़्तर में बहुत काम किया हो। वह एक ग़रीब आदमी था और ठेके में पैसे की ज़रूरत होती है। फिर दुकान का मालिक उसका बड़ा भाई था। मेरा ऐसा अनुभव है कि उसका सलूक टीपू से बहुत अच्छा नहीं रहा होगा। मुझे एक घटना की याद आती है। मैंने उसकी दुकान पर अपनी दो कुर्सियाँ ठीक करने के लिए भेजी थीं। उसके भाई ने लापरवाही से एक कुर्सी की गद्दी खो दी थी। खो देना अपने आप में कोई बड़ा अपराध नहीं था; पर उसके बाद जिस ढंग का व्यवहार किया, उससे बड़ा खेद हुआ। टीपू उन दिनों बाहर गया हुआ था। उसके लौटने पर जब मैंने उसे बताया तो उसे भी दुःख हुआ। पर वह कर क्या सकता था। मैं कुछ करवाना भी नहीं चाहता था।
लेकिन देखता क्या हूँ कि उसके कुछ दिन बाद टीपू सुलतान मेरे घर में पलंग के पास रखने वाली एक छोटी मेज़ लिए चले आ रहे हैं। वैसे ऐसी मेज़ बनाने के लिए मैंने पहले कभी उससे कहा था, पर उस समय ऐसी कोई बात नहीं थी। फिर भी मैं मेज़ देख कर प्रसन्न हुआ और उसे धन्यवाद देकर कहा— “अच्छा, तो कितने पैसे दूँ?”
वह हँसा—“तुमसे पैसे लूँगा?”
“क्यों?”
“अच्छा, रहने दो।”
“पर सुनो तो।”
“अजी बाबू...रहने दो।”
और वह चलने को उठा। मैंने विद्रूप से हँस कर कहा—“तो यूँ कहो मुझे रिश्वत देने आए थे।”
उसने जवाब में इतना ही कहा—“नहीं-नहीं, तुम्हें रिश्वत दूँगा?”
बात कुछ इस स्वर में कही गई थी कि में आगे कुछ न बोल सका और वह बिना पैसे लिए चला गया। मुझे ठीक याद नहीं पड़ता, मैंने उसे कुछ खिलाया था या नहीं; पर उसकी निर्दोष और सरल हँसी मुझे आज भी ठीक-ठीक याद है। मैं चाहे उसका चित्र न खींच सकू, पर हृदय में उसकी ध्वनि बराबर अनुभव करता हूँ।
उसके बाद जो समय ने करवट ली तो परिस्थिति और भी बदल गई। वह फिर कहीं चला गया। मैं भी बीमार रहा और छुट्टियों-पर-छुट्टियाँ लेता रहा। आख़िर एक दिन मैंने नौकरी छोड़ दी और साथ ही वह शहर भी। बीस साल का वह जीवन, बचपन के खेल, दफ़्तर की चख-चख, सार्वजनिक जीवन की व्यस्तता, मित्रों का स्नेह—सब एक याद बनकर रह गए—वह याद, जो अब रह-रहकर बिजली की तरह छाती में तड़प उठती है और मैं चौंक उठता हूँ। धीरे-धीरे तीन साल बीत गए। इन तीन सालों मैं जो कुछ हुआ, उसकी याद युग-युग तक संसार को चौंकाती रहेगी। आने वाले युग का मानव सदा इस दुविधा में फँसा रहेगा कि ईसा की बीसवीं सदी में भारत में आदमी रहते थे या भेड़िए? उन दिनों हत्या और रक्तपात साधारण बातें थीं। शिशु और नारी की कोई मर्यादा नहीं रह गई थी। उस नगर में भी आग लग चुकी थी। कुछ दिन तक तो हमें वहाँ की कोई ख़बर नहीं मिली और जब मिली तो टीपू का उसमें कोई ज़िक्र नहीं था। मैं स्वीकार कर लूँ, मुझे स्वयं उसकी याद धुँधली पड़ गई थी। मैं अपने नातेदारों के लिए चिंतित था और यह जानता था कि वहाँ के सब मुसलमान पाकिस्तान चले गए हैं। लेकिन बहुत शीघ्र ही मुझे उन मुसलमानों की याद आने लगी, जिनकी कड़वी, मीठी स्मृतियाँ मेरे हृदय में मौजूद थीं। कुछ शांति हो जाने पर एक दिन एक मित्र बोल उठे—“टीपू को तुम नहीं भूले होगे।”
“नहीं, नहीं, उसे कैसे भूल सकता हूँ? उसका क्या हुआ? वह कहाँ गया?”
“उसे मार कर लोगों ने मेरे घर के बाहर कुँए में डाल दिया।”
“क्या?”—मेरा हृदय तूफ़ान की गति से धक-धक कर उठा।
“हाँ।”
“पर कैसे? वह तो ऐसा नहीं था। उसने क्या किया था?”
मित्र ने जो कुछ बताया, उसका आशय स्पष्ट था। उसने अपना काम उसी तरह जारी रखा था। वह अब भी हिंदुओं के मोहल्ले में रहता था और निःसंकोच हिंदुओं के घर काम करने जाता था। उन रक्तरंजित दिनों में भी उसने अपना क्रम नहीं छोड़ा। उन्हीं दिनों एक दिन वह एक हिंदू सेठ के घर से काम करके लौट रहा था। रास्ता एक बड़े बाज़ार से होकर जाता था। लोगों ने उसे देखा और रोका— “अरे, तू इधर कहाँ जा रहा है?”
“दुकान पर।”
“इधर से मत जा, भाई।”
“क्यों, इधर क्या है?”
“जैसे तू जानता नहीं। आजकल कोई किसी को नहीं सुनता।”
वह हँस पड़ा। वही अल्हड़ हँसी। बोला—“मुझे कोई क्या कहेगा?”
और वह आगे बढ़ गया। इस विश्वासी को वे लोग न रोक सके। कुछ दूर बढ़ा होगा कि एक शुभचिंतक ने फिर टोका—“टीपू, इधर से न जा, भाई।”
टीपू ने अचरज से उन्हें देखा और लापरवाही से जवाब दिया— “मुझे कोई कुछ नहीं कहेगा।” वह और आगे बढ़ा। कुछ धर्मांध नवयुवक उसी मार्ग से जा रहे थे। उन्होंने आँखों-ही-आँखों में मंत्रणा की और पीछे हो लिए। वह चौराहे के पास पहुँच गया था। बस, दो क़दम और...वह बांई ओर मुड़ जाएगा। वहीं कुछ आगे उसकी दुकान है। वह शायद सोच रहा था—“देखा, मुझे कोई क्या कह सकता है?”
और ठीक इसी समय एक ज़ोर का ठहाका हुआ। एक ओर से पिस्तौल की गोली आई और टीपू के सिर को फोड़ती हुई निकल गई। वह वहीं चौराहे पर गिर पड़ा। वह शायद तड़पा होगा, उसने शायद हाथ पाँव पटके हों!...
मुझे पसीना आने लगा। मेरी आँखें कड़वे धुएँ से भर गई। ओह, वह मुख, जो सदा एक अल्हड़ हँसी से चमकता रहता था, उस क्षण कैसा लगता होगा, कैसा...! मुझे विश्वास है, वह तब भी हँसा होगा—वही अल्हड़ और शर्मीली हँसी!
मित्र कह रहे थे—“धर्मांधों ने उसे मार तो डाला; पर जैसे इस दुष्कृत्य से वे काँप उठे। उन्होंने अपने पाप को छिपाने के लिए उसे मेरे घर के बाहर कुएँ में डाल दिया। मैं तब घर में था। एक ज़ोर का धमाका हुआ और मैंने समझा, कुछ गिरा है। पर वह आदमी की लाश होगी, इसकी में कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह रात-भर वहीं पड़ी रही और उसका भाई बेचैनी से पुकारता रहा—“टीपू नहीं आया, टीपू नहीं आया!”
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पूरे पाँच वर्ष बाद फिर में उस नगर में गया। उसका रूप बिल्कुल पलट चुका था। पुराने चेहरे ग़ायब हो चुके थे और नई-नई मूर्तियाँ दिखाई दे रही थीं। मुसलमान नाम के जीव का वहाँ अस्तित्व भी नहीं था। टीपू अगर जीता रहता तो भी मैं उसे न देख पाता; लेकिन जब में उस चौक में गया, जहाँ हम चाँदनी रातों में कबड्डी खेला करते थे, उस दुकान के पास से गुज़रा, जहाँ बैठकर टीपू काम किया करता था, उस स्थान को देखा जहाँ उसके गोली मारी गई थी और उस कुएँ पर पहुँचा, जिसमें उसकी लाश डाली गई थी तो में बराबर उसकी वह अल्हड़ हँसी सुनता रहा और काँपता रहा। एक तो मुझे ऐसा लगा, जैसे वह मेरे कान में कह रहा हो—“मुझे कोई क्या कहेगा?”
तब मेरी आँखें, भर आई और में फुसफुसा उठा—टीपू, मैसूर का वह टीपू सुलतान तुम्हारे सामने कुछ नहीं है। तुमने अपने प्राण देकर विश्वास की रक्षा की है। इसी विश्वास के बल पर एक दिन मानवता फिर जी उठेगी, निस्संदेह जी उठेगी। उस दिन तुम्हारे-जैसे हिंदू-मुसलमानों को— नहीं-नहीं मानवों को—सारा संसार सिर झुकावेगा।
- पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 220)
- संपादक : सत्यवती मलिक
- रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
- प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
- संस्करण : 1955
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