वह पक्की भारी सड़क जो शेरशाह ने उत्तर भारत में बनवाई थी, सीमांत प्रदेश से चक्कर खाती हई उत्तरापथ के बड़े-बड़े नगरों को एक श्रृंखला में बाँधती थी। उसके किनारे पेड़ लगे थे, जो राहगीरों को फल और छाया देते थे; प्याऊ थे, जो उनकी प्यास मिटाते थे। अनेक वन, नदी, ग्राम, नगर, पार करती हुई वह विशाल सड़क भारत के दो छोर जोड़ती थी। उत्तर पश्चिम की पर्वतमालाओं और उपत्यकाओं को पार करती वह पचनद के नगरों से गुज़रती थी, अनेक ग्राम और नदी लाँघती थी, गंगा और यमुना के प्रदेश में घुसती थी, मगध और मिथिला के भग्न विहारों की शांति भंग करती हुई बंग और अंग के वन-प्रांत में खो जाती थी। इतिहास की कितनी कड़ियों का यह सड़क जोड़ती थी। कपिशा, वक्षु, गांधार, तक्षशिला, वितस्ता, और शिप्रा, उदयन और कोशाम्बी, पाटलिपुत्र, वैशाली, लिच्छवि और शाक्य जातियाँ उजड़े साम्राज्य उत्तरापथ पर टीड़ी दल से वर्वर आक्रमणकारियों की भीड़ अशोक के शिलालेख और प्रशस्तियों, पठानों और मुग़लों के साम्राज्य, भयंकर संग्राम, लूटमार और फिर किसी गहरे गंभीर प्रशांत नद के समान भारतीय जीवन और संस्कृति का विकास-क्रम। पुरानी ऐतिहासिक स्मृतियों को पीछे छोड़कर बहते पानी के समान देश की संस्कृति आगे बढ़ती है। पानी बीच-बीच में रेत और बालू में, भाड़-झखाड़ में फँसकर बँध जाता है, थम जाता है, किंतु फिर भी उसकी अविराम गति में कोई अंतर नहीं पड़ता।
मौर्य और गुप्त सम्राटों के पद-चिन्हों का यह सड़क अनुसरण करती है। प्राचीन मार्ग और पथ एक तार में इसने बाँध दिए हैं। इसी रास्ते आर्य और यवन भारत में घुसे थे, और दूरस्थ नगर और जातियों में अपनी विजयपताका ले गए थे। अब किसी विशद, भीमकाय अजगर के समान यह भारी भरकम, बलखाती सड़क उत्तराखंड के हृदय पर लेटी है। इस रास्ते कितनी सेनाएँ, कितनी रथ, अश्व, हाथी, पदातिक गुज़रे हैं। कितने यात्री, अर्थ और मोक्ष के भूखे प्राणी मेगस्थनीज, युआनच्चाँग, इत्सिग, अल्बरूनी, इब्नेबतूता, मार्को पोलो, सिकंदर, सेल्यूकस, तैमूर, बाबर।
इस सड़क का हृदय बार-बार उन असंख्य पदाघातों से जर्जर हुआ है, किंतु भारतीय संस्कृति के ही समान वह फिर-फिर मरकर भी जी उठती है। उसी के समान वह मृत्युंजय है, वीतराग और अशोक है।
वह खंड में इसने ऋषियों के यज्ञ देखें, होम का धुआँ सूँघा, धनधान्य से समृद्ध खेत और ग्राम देखे, चक्रवर्ती सम्राटों की विजय-यात्राएँ देखी, तपोवन और वैभवशाली नगर देखे, रक्तपिपासु आक्रमणकारी और जीवनमुक्त श्रमण देखे, अन्याय और क्रूर-शासन की कथाएँ सुनीं; त्याग और वैराग्य के दृश्य देखे। अनेक संस्कृतियों का उत्थान और पतन देखा। मोहनजोदड़ो की द्रविड़ सभ्यता, आर्यों का विजय-अभियान, उनकी महान् संस्कृति का विकास, वेद, उपनिषद् और ब्राह्मणों की सृष्टि, रामायण और महाभारत का काल, नंद-मौर्य और शुंग वंशों का इतिहास, वर्ग-भेद के विरोध में बौद्ध-मत का प्रसार, कालिदास और भवभूति, बाण भट्ट कौटिल्य और भर्तृहरि, कुमारिल और शंकर, क्रमश कृषि समाज के धरातल पर खड़े इन साम्राज्यों के पिरामिड का ध्वंस और सामंतों का उत्थान, जयचंद और पृथ्वीराज, यवनों के आक्रमण, नए साम्राज्यों का उत्थान और पतन, असंख्य बुभुक्षु जनता और राजसी विलास-वैभव, भुखमरी और सहसराम के मक़बरे, न्याय का ढोंग, मद और आसब की सरिताएँ जो अभी तक साम्राज्यों के हिमाचल से निकलकर गंगा और पंचनद के प्रदेशों में बहती हुई सागर से जा मिलती हैं।
अनेक साम्राज्यों का ठाट-बाट और जनता का दैन्यरोदन यह देख सुन चुकी है और अपने हृदय पर पत्थर रखकर अब बैठी है। शेरशाह का नाम सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा। उसने शासन की बागडोर दृढ़ हाथों में ली और न्यायदंड को आत्म-विश्वास से घुमाया। उसकी सड़क पर पथिकों, व्यापारियों, यात्रियों और सैनिकों के हजूम निकलते थे और उसे छाया, जल और फलों के वरदान के लिए मन ही मन धन्य कहते थे। किंतु एक बार फिर मुग़लों की भाग्य-लक्ष्मी चमकी कृपालु अफ़ीमी दुर्बल हुमायूँ फिर काँपते, डगमग पैरों से सिंहासन पर चढ़ा। पठानों का भाग्य-नक्षत्र अस्ताचल पर डूबने लगा और मुग़लों का सितारा सिंध की मंचभूमि में उदित हुआ। मुग़लों के वैभव की दुंदुभी सात समुंदर पार देशों में बज उठी। जवाहरात के प्यालों में मुग़ल सम्राट् मदिरा पीते थे, काश्मीर और पंचनद में सुंदर उद्यान और मक़बरे बनवाते थे, ललित कलाओं को बढ़ावा देते थे। तानसेन, अबुलफ़ज़ल, फ़तहपुर सीकरी, मोती मस्जिद, ताजमहल, अनुपम चित्रकला भव्य प्रासाद, हम्माम, लाल पत्थर के क़िले, साम्राज्य का मद, वैभव, क्रूर बर्बर पाशविक अनाचार। मानसिंह की सेनाएँ इसी सड़क के हृदय को रोंदती हुई ग़ज़नी से बंगाल तक बढ़ी और अकबर की विजय-पताका भारत की दो सीमाओं को लाँघकर दूर प्रांतों में गाड़ आर्इ। शेर अफ़गन और नूरजहाँ, सर टामस रो, ख़ुसरो और ख़ुर्रम, दाराशिकोह और शुजा, भारत का अंतिम बड़ा सम्राट् औरंगज़ेब, सभी के पदचिन्ह इतिहास के इस पथ पर अंकित हैं। डूबते लाल सूर्य की आभा में उनके उमरावो, भृत्त्य, हाथियों और छात्रों की परछाई लंबी होकर इसी घूल में लोटी थी।
अंत में मुग़लों की विजय लक्ष्मी भी अंतर्हित हुई। सामंतों ने दूर प्रदेशों में विद्रोही सिर उठाए। मराठों ने साम्राज्य की सीमाएँ अपने लोहे समान दाँतों से कुतरनी शुरू की और दिल्ली पहुँचकर ही रुके। नादिरशाह और फिर हमद शाह अब्दाली हिंसक लुटेरों का आतंक और अनाचार इस सड़क ने राजनगरों में देखा। शासन और पराजय की अव्यवस्था देखी। जनता का अनंत दुख देखा और सहा। अनेक बार इस राजमार्ग का हृदय टूटा है, और द्रवित हुआ है, किंतु फिर मन भर के पत्थर इस ने छाती पर रखकर निःश्वास लिया है। आदिम सम्यताएँ, कृषि-युग, चक्रवर्ती सम्राटों के अश्वमेध, सामंतों के गृह युद्ध, अनेक विदेशी जातियों का भारत में समागम, नई दुर्व्यवस्था, नए साम्राज्य, युद्ध, शासन-सूत्र का पूर्ण रूप से टूटना, लुटेरों का स्वच्छंद राज्य, सभी कुछ यह सड़क देख चुकी है। अंत में एक नई शासन व्यवस्था का प्रवाह भी, जो दूर से देश आए श्वेत व्यापारियों ने यहाँ घोषित की।
पहले फ़िरंगी आपस में लड़े, फिर उन्होंने मराठों, सिक्खों, और पठानों से लड़ाई मोल ली और संपूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। फिर लूट-मार, नोच खसोट उन्होंने शुरू की। कंपनी के बाबू मोटे आसामी बनकर विलायत पहुँचने लगे। क्लाइव और बारेन हेस्टिंग्ज, चेतसिंह और अवध की बेगमें, अमीचंद और नंद कुमार−क्या क्या इस राजमार्ग ने नहीं देखा? लूट का इतना सामान देख कर वारेन हेस्टिग्ज़ को स्वयं अपनी नर्माई पर आश्चर्य होता था।
इस पृष्ठभूमि में भारत का नव-जागरण शुरू हुआ। क्रमश: देश के मुख पर भाव-परिवर्तन हुआ। रेल और बिजली के तारों का जाल फैला; जीवन में नई स्फूर्ति आई। पुराने विचार-आचार काल के गाल में खोने लगे। नए जीवन ने उनका स्थान लिया। उत्तरापथ के विशाल वक्ष पर सोई इस सड़क ने अर्द्ध-निमीलित नेत्रों से यह सब व्यापार देखा। किंतु आज फिर गणित सेनाओं की अगणित से उसका हृदय स्पंदित है; आज फिर राष्ट्रों की युद्ध-यात्रा वह देख रही है।
इस सड़क की मरम्मत हई। तारकोल से वह रंगी गई। उसका कायाकल्प हुआ। वृद्धा से वह युवती बनी। अब अनेक मोटरें और लारियाँ भारी हुँकार करके उस पर निकलते हैं। पूर्व से पश्चिम तक दिन रात इस सड़क पर कारवाँ चलते हैं, पश्चिम के पर्वत-देश से पूर्व की शस्य-श्यामला भूमि तक। फल और मेवों के बोझ लादकर वे पर्वत-मालाओं को पार करते हैं और पंचनद के ऐतिहासिक नगरों में विश्राम लेते हैं। यहाँ का गेहूँ वे पूर्व-प्रदेशों में ले जाते है, और वहाँ से चावल, सन और मिट्टी का तेल वापस लाते हैं। सीमा-प्रांत से, नेपाल की तराई से, गंगा के प्रदेश से सैनिकों का ताँता ब्रह्मपुत्र और ब्रह्मप्रदेश तक लगा रहता है। युद्ध का अंत हो गया है, किंतु युद्ध के बादल आज भी आकाश में मंडरा रहे हैं।
नई जाग्रति एशिया के देशों में हुई है। चीन में, श्याम में, सुदूर यव और स्वर्ण द्वीपों में, फ़्रांस के चंगुल से खिसकते इंडोचीन में जनता ने सिर उठाया है। भारतीय जागरण की हलचल इस सड़क ने ख़ूब देखी और सुनी है। बुद्ध के समान पैरों ही देश की ध्रुव-यात्रा करते बापू, दिन और रात एक करने वाले नेहरू का दौरा, अनेक जुलूस, गोली, लाठियों की मार, किंतु अडिग पैरो पर लक्ष्य की ओर अनवरत बढ़ता भारतीय स्वाधीनता का जुलूस। किसानों और मज़दूरों में, जातियों और राष्ट्रों में, पद-दलित मुस्लिम जनता में स्वाधीनता का जयघोष गूँज उठा है। और यह ऐतिहासिक राज-मार्ग, जिसके अनेक कायाकल्प हुए है, जिसने अनेक युग-परिवर्तन देखे हैं अनेक जातियों और साम्राज्यों का उत्थान और पतन देखा है, स्वाधीन भारत के भविष्य का सुवर्ण स्वप्न देख रहा है, भारतीय स्वाधीनता के विशाल प्रासाद का, जहाँ कल की शोपित जातियाँ मिल-जुलकर स्वतंत्र जीवन बिताएगी।
कितने बीते दृश्य उसकी स्मृति में हरे हो उठते हैं। जातियों का आवागमन, परस्पर संघर्ष, अशोक और हर्ष के दान, सामंतों की कलह, ग़ज़नी और गोरी की लूट, राजपूती जौहर, मुग़लों का वैभव, फ़िरंगियों का रक्तसंचय, स्वाधीनता का यज्ञ। अनेक भीड़ के हुजूम इस सड़क पर निकले हैं और निकल रहे हैं।
सुबह का झुटपुटा; पेड़ अभी निंदासे है। गुरुदेव शेरशाह की सड़क पर हवाई अड्डे की ओर जाते है। उनकी ईरान यात्रा शुरू हो गई है। अनेक ऐतिहासिक स्मृतियाँ उनके मन में हरी हो जाती हैं। इस प्रकार एक और श्रमण इतिहास के इस सजीव स्मारक से गुज़रता है, और अपने पद-चिन्ह इस पर छोड़ जाता है।
अनेक बार इस सड़क का हृदय खंड-खंड हुआ है, और फिर फिर उसकी मरहमपट्टी हुई है। अनेक बार वह मरकर जी उठी है। शताब्दियों पर्यंत उसने विकट ग्रीष्म का ताप, वर्षा और तूफ़ान, सीत के थपेड़े सहन किए हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त की आकाश में होली देखी है। तारी का नम और अंधकार का गहन सागर देखा है। प्रकृति का नित-नूतन साज देखा है। पुरानी स्मृतियाँ उसके हृदय को मथ डालती हैं, किंतु आज भविष्य में प्रभात का आलोक देखकर उसके हृदय में नव आशा फिर अंकुरित हुई है।
रेल और तारों के जाल ने उसकी महत्ता कम नहीं की। चील और गिद्धों के समान वायु में मँडराते अथवा चाँदी की मछलियों के समान आकाश में उरते हवाई जहाज़ भी इसके महत्व को नहीं घटा सकते। निरंतर भारी 'ट्रक' और लारी हुँकार करते, धूल उड़ाते इसके ऊपर से निकलते हैं यात्रियों, व्यापारियों सरकारी अफ़सरों, सैनिकों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं का ताँता बँधा ही रहता है। सदियों से पलक मारने का अवकाश शेरशाह की सड़क को नहीं मिला।
अब देश में जनता की विजय-दुंदुभी बज उठी है। स्वाधीनता और समाजवाद की शक्ति संगठित हो रही है और भी भारी बोझ इस सड़क को ढोना होगा, क्योंकि जनता की समृद्धि के साथ-साथ व्यापार के नए पथ खुलेंगे, संस्कृतियों का परस्पर आदान-प्रदान बढ़ेगा इस सड़क का संबंध मध्य एशिया के प्राचीन व्यापार मार्गों से फिर जुड़ेगा। दूर साइबेरिया के नगरी, चीन के बहुसंख्यक प्रांती और सागर पार के देशों से फिर भारत की संस्कृति का संबंध होगा। विश्व के कोने कोने में भारत के प्रतिनिधि फैल जाएँगे दुनिया से फिर हमारा सजीव संपर्क बनेगा। इस भविष्य का भार यह प्राचीन मार्ग न उठाएगा तो कौन उठाएगा?
स्टीम, बिजली, रेडियो, ऐटम की शक्ति विज्ञान के नित नए आविष्कार मनुष्य की बढ़ती गरिमा इस सड़क के महत्व को कम नहीं करते, बढ़ाते हैं। यूरोप और एशिया के भूख को यह सड़क जोड़ती है। युगों और कृतियों के सागर पार उतरने का यह पुल है इतिहास निरंतर इस मार्ग पर अपने चरण-चिन्ह छोड़ रहा है।
- पुस्तक : रेखाचित्र
- रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
- प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग
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