प्रकाशचंद्र गुप्त के रेखाचित्र
नए स्केच
ताई उस विशाल सामंती खंडहर के एक कोने में हमारी ताई रहती थी—एक टूटे-फूटे कमरे में जिसकी लगातार मरहम-पट्टी होती थी और फिर भी जो मानो धरती की आकर्षण शक्ति से खिसका ही पड़ता हो। हमारे पुरखों ने दिल्ली त्याग कर यह मकान बनाया था, किसी ज़माने में इसके बाहर
गाँव की साँझ
कुँए की जगत पर औरतों की भीड़ लगी थी—मलिन-वसना, जर्जरित-यौवना, श्रम-व्यस्त। ये औरतें किसी और सामाजिक व्यवस्था में जवान होतीं। लेकिन बीस-पच्चीस वर्ष की रहते भी दोपहरी उनकी ढल-सी चुकी थी—घोर श्रम और जीवन में कोई अन्य रस न होने से लगातार कमज़ोर, अल्पायु
बंगाल का अकाल
बंगाल की 'शस्य-श्यामला', 'सुजला' और 'सुफला' भूमि; सोने की धरती, जहाँ इतिहास की शाहकार का निरंतर संघर्ष हुआ है। आर्य, मंगोल... और फिर..., अंत में फ़िरंगी और मराठे, सभी...। प्रकृति का रूप मानो यहाँ पृथ्वी और आकाश फोड़कर निकला हो! धान के हरे खेत, ताल तलैये,
नल
हमारी बस्ती में एक ही नल था जिसका पानी रुक-रुक कर, यूँ कहिए, रो-रोकर निकलता था। सुबह-शाम इस नल के इर्द-गिर्द एक भारी भीड़ मक्खियों की भाँति टूट पड़ती थी, लेकिन नल की धार किसी दुर्लभ चीज़ की तरह मुश्किल से निकलती। दोपहर को पानी एकदम बंद रहता, क्योंकि
रानीखेत की रात
रानीखेत का सदर बाज़ार शाम होते ही गुलज़ार हो उठता है। दुकानों में गैस की बत्तियाँ जगमग करने लगती हैं और सड़कों पर एक अजब चमक-दमक छा जाती है। दिन भर के अलसाए सिनेमा घर में चहल-पहल हो उठती है और सजधज के साथ एक आमोद-रत भीड बाज़ार में आ पहुँचती है—रंगे मुँह
एक डायरी के पन्ने
4 अगस्त 1939। पानी मूसलाधार बरस रहा है। बाहर चरवाहे गला खोलकर बिरहा गा रहे हैं। एक अजब सुरूर मेरी आत्मा पर छा गया है। मैं झूम-झूमकर गुनगुनाता हूँ, एकाकिनी बरसातें। मेरे मकान के बाहर ताल मे बटु-समुदाय वेद-पाठ करता है। वह जेठ की विकट गर्मी; वह आषाढ़ का
क़ुली
हमारे चारों ओर विशाल गगन-चुंबी पर्वत चुपचाप खड़े थे। तलहटी में एक नीरव सौंदर्य बिखरा था। तीव्रगामी जल-धारा, घने वन, एकाध नर-नारी किसी धुन में मस्त इधर-उधर आते-जाते। हमारा हृदय शांति से भर गया। एक क़ुली पहाड़ी का सहारा लिए एक पल विश्राम कर रहा था। उसकी
सीमांत पूर्व
आसाम, भारत की पूर्वी सीमांत देश! जहाँ इतिहास की अगणित जातियाँ छन-छन कर आई, किंतु किसी बरसाती नदी की बाढ़-सी, उन्माद-भरी ब्रह्मपुत्र-सी, कोई आतताई विदेशी जाति कभी न आ सकी। भारत का पूर्वीय सिंहद्वार जो कभी किसी आक्रमणकारी के लिए पश्चिमी सीमांत की भाँति
इक्केवाला
उस दिन ख़ूब लू चली थी। दिन भर बदन झुलसा था। शाम को हम लोग इक्के पर बैठकर कुछ सामान ख़रीदने और चाट खाने के लिए चौक चले गए। यूनिवर्सिटी बंद थी, इसलिए मनमानी कर सकते थे। सोचा, किसी तरह तो गर्मी और लू को भूल सके। चौक गुलज़ार था। घंटाघर में साढ़े सात बजा
नया नगर
उस प्राचीन नगर के पार्श्व में उजड़े बीहड़ देश में एक नए नगर का जन्म हुमा है! क्रमशः एक-एक करके खंड-खंड पत्थरों से फूट कर तरु-लताओं से लहलहाते अनेक भव्य भवन उठे, और आकाश में उनके उन्नत मस्तक छा गए। यह नई नगरी काँच और लकड़ी से बनी है। पत्थर इसमें नाम