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प्रेमचंदजी के साथ दो दिन

premchandji ke sath do din

बनारसीदास चतुर्वेदी

बनारसीदास चतुर्वेदी

प्रेमचंदजी के साथ दो दिन

बनारसीदास चतुर्वेदी

और अधिकबनारसीदास चतुर्वेदी

    “आप रहे हैं, बड़ी ख़ुशी हुई। अवश्य आइए। आपसे जाने कितनी बातें करनी है।

    मेरे मकान का पता है—

    बेनिया-बाग़ में तालाब के किनारे लाल मकान। किसी इक्केवाले से कहिए, वह आपको बेनया-पार्क पहुँचा देगा। पार्क में एक तालाब है। जो अब सूख रहा है। उसी के किनारे मेरा मकान है, लाल रंग का, छज्जा लगा हुआ। द्वार पर लोहे की Fencing है। अवश्य आइए।

    --धनपतराय।”

    प्रेमचंदजी की सेवा में उपस्थित होने की इच्छा बहुत दिनों से थी। यद्यपि आठ वर्ष पहले लखनऊ में एक बार उनके दर्शन किए थे, पर उस समय अधिक बातचीत करने का मौक़ा नहीं मिला था। इन आठ वर्षों में कई बार काशी जाना हुआ, पर प्रेमचंदजी उन दिनों काशी में नहीं थे। इसलिए ऊपर की चिट्ठी मिलते ही मैंने बनारस कैंट का टिकट कटाया और इक्का लेकर बेनिया-पार्क पहुँच ही गया। प्रेमचंद जी का मकान खुली जगह में सुंदर स्थान पर है और कलकत्ते का कोई भी हिंदी पत्रकार इस विषय में उनसे ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता। लखनऊ के आठ वर्ष पुराने प्रेमचंदजी और काशी के प्रेमचंदजी की रूपरेखा में विशेष अंतर नहीं पड़ा। हाँ, मूँछों के बाल जरूर 53 फीसदी सफ़ेद हो गए हैं। उम्र भी क़रीब-क़रीब इतनी ही है। परमात्मा उन्हें शतायु करे, क्योंकि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूँछों पर ताव दे सकते हैं। यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंद्रजी हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे, जितने कविवर मैथिलीशरण जी हैं, पर प्रेमचंदजी के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं। लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि प्रेमचंदजी में साम्राज्यवादिता का नामो-निशान नहीं। कद के छोटे हैं, शरीर निर्बल-सा है। चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी जी हमें क्षमा करें, यदि हम कहें कि जिस समय ईश्वर के यहाँ शारीरिक सौंदर्य बँट रहा था, प्रेमचंदजी ज़रा देर से पहुँचे थे। पर उनकी उन्मुक्त हँसी की ज्योति पर, जो एक सीधे-सादे, सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है,कोई भी सहृदया सुकुमारी पतंगवत् अपना जीवन निछावर कर सकती है। प्रेमचंदजी ने बहुत से कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया। वे शुष्क बनियापन से कोसों दूर हैं और बेनिया पार्क का तालाब भले ही सूख जाए, उनके हृदय सरोवर से सरसता कदापि नहीं जा सकती। प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि उन्हें धोखा दिया जा सकता है। जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं, प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है। उनमें दिखावट नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारतव्यापी कीर्ति उनकी सहज विनम्रता को उनसे छीन नहीं पाई।

    प्रेमचंदजी से अबकी बार घंटों बातचीत हुई। एक दिन तो प्रातःकाल ग्यारह बजे से रात के दस बजे तक और दूसरे दिन सवेरे से शाम तक। प्रेमचंदजी गल्प लेखक हैं, इसलिए गप लड़ाने में आनंद आना उनके लिए स्वाभाविक ही है। (भाषा तत्त्वविद बतलावें कि गप शब्द की व्युत्पत्ति गल्प से हुई है या नहीं?)

    यदि प्रेमचंदजी को अपनी डिक्टेटर श्रीमती शिवरानी देवी का डर रहे, तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं। एक दिन बात करते-करते काफ़ी देर हो गई। घड़ी देखी तो पता लगा कि पौने दो बजे हैं। रोटी का वक्त निकल चुका था। प्रेमचंदजी ने कहा—“ख़ैरियत यह है कि घर में ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी ख़ासी डाँट सुननी पड़ती!” घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास, बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक बन सकता है और प्रेमचंदजी में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप में तो विद्यमान है ही।

    प्रेमचंदजी स्वर्गीय कविवर शंकरजी की तरह प्रवास भीरु हैं। जब पिछली बार आप दिल्ली गए थे, तो हमारे एक मित्र ने लिखा था—“पचास वर्ष की उम्र में प्रेमचंदजी पहली बार दिल्ली आए हैं!” इससे हमें आश्चर्य नहीं हुआ। आख़िर सम्राट पंचम जॉर्ज भी जीवन में एक बार ही दिल्ली पधारे हैं और प्रेमचंदजी भी तो उपन्यास सम्राट ठहरे! इसके सिवा यदि प्रेमचंदजी इतने दिन बाद दिल्ली गए तो इसमें दिल्ली का कसूर है, उनका नहीं।

    प्रेमचंदजी में गुण ही गुण विद्यमान हों, सो बात नहीं। दोष हैं और संभवतः अनेक दोष हैं। एक बार महात्माजी से किसी ने पूछा था—“आप किसी पर ज़ुल्म भी करते हैं।” उन्होंने जवाब दिया—“यह सवाल आप बा (श्रीमती कस्तूरबा गांधी) से पूछिए।” श्रीमती शिवरानी देवी से हम प्रार्थना करेंगे कि वे उनके दोषों पर प्रकाश डालें। एक बात तो उन्होंने हमें बतला भी दी कि उनमें प्रबंधशक्ति का बिल्कुल अभाव है। “हमीं-सी हैं जो इनके घर का इंतिज़ाम कर सकी हैं।” पर इस विषय में श्रीमती सुदर्शन उनसे कहीं आगे बढ़ी हुई हैं। वे सुदर्शनजी के घर का ही प्रबंध नहीं करतीं, स्वयं सुदर्शनजी का भी प्रबंध करती हैं और कुछ लोगों का तो— जिनमें सम्मिलति होने की इच्छा इन पंक्तियों के लेखक की भी है— यह दृढ़ विश्वास है कि श्रीमती सुदर्शन गल्प लिखती हैं और नाम श्रीमान सुदर्शनजी का होता है।

    प्रेमचंदजी में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों हो, शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है। यदि कोई भला आदमी प्रेमचंदजी तथा सुदर्शनजी को एक मकान में बंद कर दे, तो सुदर्शनजी तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंदजी वहीं बैठे रहेंगे। यह दूसरी बात है कि प्रेमचंदजी वहाँ बैठै-बैठै कोई गल्प लिख डालें।

    जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंदजी की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है। प्रेमचंद्रजी ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफ़ाइन कैमरे से वहाँ के चित्र-विचित्र जीवन का फ़िल्म ले लिया। सुना है इटली की एक लेखिका श्रीमती ग्रेज़िया दलिद्दा ने अपने देश के एक प्रांत-विशेष के निवासियों की मनोवृत्ति का ऐसा बढ़िया अध्ययन किया और उसे अपनी पुस्तक में इतनी ख़ूबी के साथ चित्रित कर दिया कि उन्हें “नोबेल प्राइज़” मिल गया। प्रेमचंद्रजी का युक्त प्रांतीय ग्राम्य-जीवन का अध्ययन अत्यंत गंभीर है, और ग्रामवासियों के मनोभावों का विश्लेषण इतने ऊँचे दर्ज़े का है कि इस विषय में अन्य भाषाओं के अच्छे से अच्छे लेखक उनसे ईर्ष्या कर सकते हैं।

    कहानी-लेखकों तथा कहानी-लेखन कला के विषय में प्रेमचंदजी से बहुत देर तक बातचीत हुई। उनसे पूछने के लिए मैं कुछ सवाल लिखकर ले गया था। पहला सवाल यह था— “कहानी लेखन कला के विषय में क्या बतलाऊँ? हम कहानी लिखते हैं, दूसरे लोग पढ़ते हैं। दूसरे लिखते हैं, हम पढ़ते हैं और क्या कहूँ?” इतना कहकर खिलखिलाकर हँस पड़े और मेरा प्रश्न धारा-प्रवाह अट्टहास में विलीन हो गया। दरअसल बात यह थी कि प्रेमचंदजी की सम्मति में वे सवाल ऐसे थे, जिन पर अलग-अलग निबंध लिखे जा सकते हैं।

    प्रश्न : हिंदी कहानी लेखन की वर्तमान प्रगति कैसी है? क्या वह स्वस्थ तथा उन्नतिशील मार्ग पर है?

    उत्तर : प्रगति बहुत अच्छी है। यह सवाल ऐसा नहीं कि इसका जवाब आफहैंड दिया जा सके।

    प्रश्न : नवयुवक कहानी लेखकों में सबसे अधिक होनहार कौन है?

    उत्तर : जैनेंद्र तो हैं ही और उनके विषय में पूछना ही क्या है? इधर श्री वीरेश्वर सिंह ने कई अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। बहुत ऊँचे दर्ज़े की कला तो उनमें अभी विकसित नहीं हो पाई, पर तब भी अच्छा लिख लेते हैं। बाज-बाज कहानियाँ तो बहुत अच्छी हैं। हिंदू विश्वविद्यालय के ललित किशोर सिंह भी अच्छा लिखते हैं। श्री जनार्दन झा द्विज में भी प्रतिभा है।

    प्रश्न : विदेशी कहानियों का हमारे लेखकों पर कहाँ तक प्रभाव पड़ा है?

    उत्तर : हम लोगों ने जितनी कहानियाँ पढ़ी हैं, उनमें रसियन कहानियों का ही सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है। अभी तक हमारे यहाँ “Adventure” (साहसिकता) की कहानियाँ हैं ही नहीं और जासूसी कहानियाँ भी बहुत कम हैं। जो हैं भी, वे मौलिक नहीं हैं, कैनन डायल की अथवा अन्य कहानी लेखकों की छायामत्र है। Crime detection की science का हमारे यहाँ विकास ही नहीं हुआ है।

    प्रश्न : सार का सर्वश्रेष्ठ कहानी लेखक कौन है?

    उत्तर : चेखव।

    प्रश्न : आपको सर्वोत्तम कहानी कौन जँची?

    उत्तर : यह बतलाना बहुत मुश्किल है। मुझे याद नहीं रहता। मैं भूल जाता हूँ। टाल्सटॉय की वह कहानी, जिसमें दो यात्री तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं, मुझे बहुत पसंद आई। नाम उसका याद नहीं रहा। चेखव की वह कहानी भी जिसमें एक स्त्री बड़े मनोयोगपूर्वक अपनी लड़की के लिए जिसका विवाह होने वाला है कपड़े सी रही है, मुझे बहुत अच्छी जँची। वह स्त्री आगे चलकर उतने ही मनोयोगपूर्वक अपनी मृत पुत्री के कफ़न के लिए कपड़ा सीती हुई दिखलाई गई है। कवींद्र रवींद्रनाथ की “दृष्टि-दान” नामक कहानी भी इतनी अच्छी है कि वह संसार की अच्छी से अच्छी कहानियों से टक्कर ले सकती है।

    इस पर मैंने पूछा कि “काबुलीवाला” के विषय में आपकी क्या राय है? प्रेमचंद्रजी ने कहा कि “निस्संदेह वह अत्युत्तम कहानी है। उसकी अपील universal है, पर भारतीय स्त्री का भाव जैसे उत्तम ढंग से “दृष्टिदान” में दिखलाया गया है, वैसा अन्यत्र शायद ही कहीं मिले। मपासां की कोई-कोई कहानी बहुत अच्छी है, पर मुश्किल यह है कि वह sex से ग्रस्त है।”

    प्रेमचंदजी टाल्सटॉय के उतने ही बड़े भक्त हैं जितना मैं तुर्गनेव का। उन्होंने सिफ़ारिश की कि टाल्सटॉय के ‘अन्ना कैरेनिना और’ ‘वार एंड पीस’ शीर्षक पढ़ो। पर प्रेमचंद्रजी की एक बात से मेरे हृय को एक बड़ा धक्का लगा। जब उन्होंने कहा—टाल्सटॉय के मुक़ाबले में तुर्गनेव अत्यंत क्षुद्र हैं तो मेरे मन में यह भावना उत्पन्न हुए बिना रही कि प्रेमचंद्रजी उच्चकोटि के आलोचक नहीं। संसार के श्रेष्ठ आलोचकों की सम्मति में कला की दृष्टि से तुर्गनेव उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वोत्तम कलाकार था। मैंने प्रेमचंदजी से यही निवेदन किया कि तुर्गनेव को एक बार फिर पढ़िए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विशाल भारती
    • रचनाकार : बनारसीदास चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1932

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