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मेरी माताजी

Meri Mataji

जैनेंद्र कुमार

जैनेंद्र कुमार

मेरी माताजी

जैनेंद्र कुमार

और अधिकजैनेंद्र कुमार

    अपनी माताजी के बारे में कुछ कहते मुझे झिझक होती है। पिता को तो मैंने जाना ही नहीं। चार महीने का था, तभी सुनते हैं उनका देहांत हो गया। पिता की ओर के किन्हीं संबंधी होने का मुझे पता नहीं। घर की हालत नक़द या जाएदाद की तरफ़ से एक दम सिफ़र थी। इससे छुटपन से ही हमारे परिवार का बोझ माताजी के मायके वालों पर आया। लेकिन मेरे जन्म के बाद नाना और नानी अधिक काल नहीं रहे। मामा (महात्मा भगवानदीनजी) की उम्र छोटी थी और उसी अवस्था में उन्हें नौकरी पर जाना पड़ा। हम उन्हीं के आश्रय में पले।

    पर मामा के मन में धर्म-श्रद्धा का बीज था। स्वाध्याय से वह अंकुरित हो रहा था। तभी ला० गैंदनलालजी का साथ उन्हें मिला। लालाजी भी फ़तहपुर में थे और धर्म की उन्हें गाढ़ी अभिरुचि थी। आचरण को अपने विश्वास के बराबर लाने की लगन में दोनों ने घर छोड़ व्रती और ब्रह्मचारी होने की ठानी। नौकरी उस यज्ञ में स्वाहा हुई और हम भाई-बहनों को लेकर माताजी अपनी मायके के घर अतरौली गईं।

    महात्माजी और ला० गैंदनलालजी भारत-भर की तीर्थ-यात्रा पर निकले। माताजी साथ थीं, अर्जुन लाल जी सेठी और बा० अजित प्रसाद जी आदि भी साथ रहे। महात्मा जी ने तो कुछ विज़न वन-यात्रा भी की। अंत में घर छोड़ने के कोई एक डेढ़ वर्ष के अनन्तर, हस्तिनापुर में ब्रह्मचर्याश्रम क़ायम हुआ और हम बालक उसके पहले ब्रह्मचारी हुए। बालकों की समस्या ऐसे हल हुई। बालिकाओं का भार माताजी पर आया। दो मेरी बहनें थीं, दो कन्याएँ ला० गेंदनलालजी की थीं। घर के बड़े जब व्रती हुए तो हम बालक तो गुरुकुल में आगए; पर दोनों परिवारों में के शेष व्यक्तियों को संभालने के लिए माताजी के सिवाए और कोई था। मामी (महात्माजी की पत्नी) भी उस दल में थीं। तय हुआ कि माताजी सबको लेकर बंबई मगनबाईजी के श्राविकाश्रम में चली जावें। चल-संपत्ति में जितना जो था राई-रत्ती महात्माजी ने हस्तिनापुर-आश्रम की नींव में होम दिया।

    आगे कैसे हुआ और क्या हुआ, यह माताजी ही जानती हैं। महात्माजी भी जानते होंगे तो शायद पूरा नहीं। महात्माजी ने अपने और अपनों के प्रति दया को कमज़ोरी समझा। बस अचल संपत्ति अतरौली में नाना की कुछ बची रह गई थी। महात्माजी उधर से उदासीन हुए तो वह भार भी माताजी पर आया। अतरौली मामूली क़स्बा है और संपत्ति में दो-तीन मकान ही कहिए, जिनकी आय विशेष क्या हो सकती थी। आधार के लिए सिर्फ़ वह, पालने को ख़ासा कुनबा, और इस बारे में सोचने और करने-धरने को अकेली मेरी एक माँ!

    उस समय की बातों का ठीक ब्यौरा मुझे ज्ञात नहीं, अनुमान भर कर सकता हूँ। शायद अतरौली में परिवार के भरण-पोषण के लिए माताजी ने अरहर की दाल का व्यवसाय किया था। बहुत छुटपन की मुझे धीमी-धीमी सुध है कि घर में चक्कियाँ चल रही हैं और दाल दली जा रही है। माताजी पीसती थीं, मामी और दूसरे जन भी पीसते थे। शायद उस काम में ख़ास नफ़ा नहीं रहा; बल्कि कुछ टोटा ही पड़ा; क्योंकि बाहर का काम जिनके सुपुर्द था वे मर्द थे और अपने थे, वेतन के थे। उसके बाद, याद पड़ता है, अतरौली और अलीगढ़ के बीच इक्के चलाने का काम उन्होंने शुरू किया था। खुले हुए इक्कों और दाना खाते और रह-रह कर हिनहिनाते हुए घोड़ों से भरे बाहर के चौक की तस्वीर मेरे मन में अब भी कभी-कभी धुंधली-सी झलक आती है। यह काम भी फला-फूला, ऐसा नहीं जान पड़ता। फिर तो माताजी शायद मामाजी और चारों बहनों को लेकर बंबई जा पहुँचीं। इससे पहले साधारण अक्षर-ज्ञान ही उन्हें रहा होगा। बंबई में एक वर्ष के भीतर धर्म का अच्छा परिचय और अपनी व्यवहार कुशलता के कारण लोक-संग्रह और सार्वजनिक कार्य में उन्होंने अच्छी दक्षता प्राप्त करली। बहुत जल्दी धार्मिक जनों में उनकी माँग होने लगी और वह इंदौर, दिल्ली आदि स्थानों पर धार्मिक पर्वो और समारोहों के उपलक्ष्य में बुलाई जाने लगीं। धर्म-निष्ठा मूल से उनमें थी और मृत्यु-समय तक वह उसमें अडिग और तत्पर रहीं।

    स्थापना के समय से ही हस्तिनापुर आश्रम को त्यागी भाई मोतीलालजी का सहयोग मिला। उनका एक मकान दिल्ली के सतघरे में था। भाईजी का आग्रह हुआ और माताजी ने उस मकान में शायद एक संस्था का आरंभ किया।। इससे पहले सेठ हुकमचंद और कंचनबाईजी के अनुरोध पर कदाचित एक वर्ष के लिए उनकी एक महिला-संस्था का संचालन माताजी पर आया था। बंबई में मगनबाईजी के अलावा श्रीमती कंकुबाई और ललिताबहन आदि से उनका मंत्री-संबंध हो गया था और इंदौर में कंचनबाईजी, पंडिता भूरीबाईजी आदि से उनका अत्यंत स्नेह का संबंध बन आया।

    इस अरसे में दिल्ली के धर्मवत्सल बंधु-भगिनियों के प्रेम के कारण उनका दिल्ली आना-जाना होता ही रहता था। अंत में यहाँ के भाई बहनों के उत्साह और अनुरोध पर सन् '18 में पहाड़ी धीरज पर जैन-महिलाश्रम की स्थापना हुई और माताजी उसकी संचलिका हुई।

    इतना कुछ करते-धरते हुए भी अतरौली के मकानों की देखभाल भी उनसे छूटी थी। मामले-मुक़दमे भी लगे ही रहा करते थे। इंदौर श्राविकाश्रम-संचालन का काम और समय ही ऐसा था जिसमें उनपर अपने व्यय का भार नहीं पड़ा। शायद रहने-सहने के ख़र्च के अतिरिक्त साठ रुपया उन्हें वहाँ मिलता था। शेष में तो अतरौली की संपत्ति की व्यवस्था के आधार पर ही उन्हें चलना था। इस तरह अपने पिता (हमारे नाना) के निजी रहने के मकान को छोड़ कर शेष जाएदाद धीरे-धीरे करके उन्हें बेच देनी पड़ी।

    इधर सन् '18 में हस्तिनापुर से में निकल आया था। सांप्रदायिकता, दलगत और व्यक्तिगत स्पर्धा-वैमनस्य जो कराए थोड़ा! परिणाम यह हुआ कि सन् '17 में महात्माजी वहाँ से अलग हो चुके थे। और सन् '18 तक बड़ी श्रेणियों के बालक ज़्यादातर वहाँ से जा चुके थे। निकल कर आया तब माताजी दिल्ली महिलाश्रम की संचालिका थीं।

    सन् '18 से सन् '35 तक के उनके जीवन का में थोड़ा-बहुत साक्षी रहा हूँ। वह इतिहास एक दृष्टि से मेरे लिए विस्मयकर है तो दूसरी तरफ़ से वह मेरे लिए दुःख और चिंता का कारण है। एक गहरी भीति, संकोच और उदासीनता उससे मेरे भीतर समा गई है। सन् '19 में छ: वर्ष की अवस्था में उनसे छूटकर तेरह वर्ष का होकर सन् '18 में मैं उनके पास आया था और इकतीस वर्ष की आयु तक उनके संपर्क में रहा। आख़िर सन् '35 में महायात्रा के प्रयाण पर उन्हें अकेला छोड़कर उनसे अलग मैं संसार में बचा रह गया। तेरह से तीस वर्ष तक की आयु के साल बनने और बिगड़ने के होते हैं। जो मैं बना बिगड़ा हूँ, उसमें इन्हीं वर्षों का हाथ रहा होगा।

    विस्मय होता है मुझे माताजी के अदम्य उत्साह पर। उनका साहस कभी टूटा। कर्मठता एक क्षण भी उनके जीवन में कोई मूर्छित नहीं कर पाया। मैंने कभी उन्हें अपने लिए रहते नहीं पाया। दो धोतियाँ उनके पास रहती थीं और संकल्पपूर्वक चार धोतियों से अधिक वस्त्र उन्होंने अपने पास नहीं रखे। इसके अतिरिक्त चादर और फतुही। अपने में वह व्यस्त और ग्रस्त थीं, जैसा अक्सर बुद्धिमानों का हाल होता है। अपने संपर्क में आने वालों में वह हिल मिल कर उनके सुख-दुःख में मानो एक हो जाती थीं। परिवार का कोई व्यक्ति और किसी का विचार उनके स्नेह और चिंता से बचता था।

    आचार में वह कठोर थीं। मैं सदा का शिथिलाचारी, रात्रि-भोजन के संबंध में असावधान। लेकिन उनका इकलौता बेटा था तो क्या, मुझे याद है, शुरू में देर से लौटने पर कई दिन रात को मुझे खाना नहीं दिया गया है। कुल-मर्यादा और सामाजिक व्यवहार के शील-संभ्रम का उन्हें पूरा अवधान था। महिलाश्रम का सम्पूर्ण भार उनपर था। अर्थ संग्रह, आंतरिक व्यवस्था, उसके अतिरिक्त जन-संग्रह भी। इस अति दुर्वह कर्म-चक्र के व्यूह में कभी हत-बुद्धि हो जाते मैंने उन्हें देखा है, ऐसा याद नहीं पड़ता। पैसा नहीं है, व्यवस्था समिति ने धन रोक लिया है, मकान का कई महीनों का किराया चढ़ गया है। आश्रम में चालीस पैंतालीस आश्रित जन है। माताजी कल ही अमुक उत्सव या कार्य से लौटी हैं। मकान-मालिक का उन्हें नोटिस बताया गया। सब ओर की निराशा उन तक आई, व्यवस्था समिति का विद्रोही और विक्षुब्ध रुख़ उनपर प्रकट हुआ। अभी ठीक तरह वृद्ध शरीर की थकान भी नहीं उतार पाई है कि सब सुनकर उन्होंने कहा, “शिवकुमारी ट्रंक में दो धोती तो रख देना बेटा! कुछ मठरी-बठरी बना देनी होगी, रिपोर्ट और रसीदें रख देना। और क्यों, तू चलेगी? जाने दे, मैं अकेली ही चली जाऊँगी। सबेरे जाना होगा। ठीक करदे, बेटा!” देखा है कि इस तरह सदा ही वह निकल पड़ी हैं, इस फैले विश्व के विश्वास के बल पर। अपना भरोसा उन्होंने कभी नहीं खोया है और भविष्य के प्रति किसी संशय को कभी मन में स्थान नहीं दिया है।

    उनके प्रति विस्मय और श्रद्धा मुझमें बढ़ती ही गई है तो दूसरी ओर गहरा अवसाद भी मेरे मन में बैठ गया है। जगत् के प्रति घोर उपेक्षा का-सा जो भाव भीतर समा गया है, मुझे हमेशा डसता रहता है। माताजी जैन समाज की सदस्या थीं और सत्य की साक्षी से जानता हूँ कि जीवन के अंत के पच्चीस वर्ष उनके उस समाज की सेवा और चिंता में बीते। इस लगन में उन्होंने अपने को दया या क्षमा नहीं दी। लेकिन उनको जो पुरस्कार मिला, मेरी आँखों के सामने है। मंदिर में, घर में, खुली सड़क पर उनका अपमान हुआ। वह मरी तो समाज की अपदृष्टि उनपर थी। इसपर कभी तो घोर नास्तिकता मेरे मन में छा जाती है। फिर सोचता हूँ कि शायद सेवा-धर्म की यही परीक्षा है। जो हो, एक गहरा शोक सदा ही मन को डसे रहता है, जो जैन-समाज से मुझे कुछ भयभीत और उसकी सेवा से कुछ दूर बनाए रखता है। जीवन में इस गंभीर अकृतार्थता को लेकर मुझे जीना पड़ रहा है। माताजी पर सोचता हूँ तो जान पड़ता है कि वह एक नारी थीं जिनको प्रश्रय नहीं मिला, बल्कि जिनसे प्रश्रय माँगा गया। लता बनकर दूसरे के सहारे उठने और हरे-भरे होने की सुविधा उन्हें नहीं मिली। वृक्ष की भाँति अपनी निजता के बल पर उन्हें इस तरह उठना और फैलना पड़ा कि अनेकों को उनके तले छाँह और रक्षा मिली। बाहर के आतप, वर्षा और शीत को अपने ऊपर ही उन्होंने सहा, मगर आश्रितों को हर तरह सुरक्षा दी। वह जीवन से जूझती रहीं, इकली बनकर नहीं, स्वयं में एक संस्था बनाकर। अपने डैनों के नीचे अनेकों को समेटे इस अपार शून्यता में मानो हठपूर्वक वह ऊँचाई की ओर ही देखती गईं। समय आया तो शरीर गिर गया; लेकिन प्राण तब भी उसमें से ऊपर ही की ओर उठे।

    मृत्यु-शैया पर थीं। गिनती के दिन ही अब उन्हें जीना था। मैंने कहा, “पीने को अंग्रेज़ी दवा ले लो।” लेकिन जो नहीं हो सकता था, नहीं हुआ। रात में उलटियाँ होती थीं, प्यास लगती थी, मैं कहता था, “क्या है, पानी पीलो न?” कहने से वमन के बाद कुल्ला तो उन्होंने किया; लेकिन कुछ भी हो, गले के नीचे एक घूँट पानी उतारने के लिए मैं उन्हें राज़ी कर सका। अपने नेम को रखकर ज़िंदगी को चुनौती देते जाने और उससे जूझते रहने की बात सुनता था, समझता भी था; लेकिन माताजी में उसे देखकर मैं सहमा रह गया हूँ। उस आग्रह में गर्व भी तो था एक निष्कपट सहजता थी। वह आग्रह विनम्र था, कट्टर तनिक भी था और मेरे-जैसा तब का बुद्धिवादी भी उसे मूढ़ता कहकर टाल नहीं पाता था; बल्कि उसकी सत्यता के आगे बरबस उसे झुक जाना होता था।

    एक कसक वह मन में लेकर ही गई। वह थी मुझको लेकर। इस दुनिया में मैं कैसे जिऊँगा, जी भी पाऊँगा या नहीं, इस बारे में वह चारों ओर से आश्वासन खोजती थीं। पर किसी ओर से इतना भी आश्वासन मरते दम तक उनको नहीं मिल सका। कोई अभिभावक था। महात्माजी थे और उनकी गोद में लुढ़ककर तो उन्होंने प्राण ही दिए। पर उनके जैसे विरागी जन से सांसारिक अपेक्षा रखने का दोष माँ से हो ही कैसे सकता था? उनकी सगी और अकेली बहन थीं; पर भाई को भाई से भी अधिक इतना मानती थीं कि उनकी आत्मलीन सांसारिक उदासीनता पर वह भूले भी कोई भार या आभार नहीं डाल सकती थीं। तब उनके इस अक्षम और निरीह इकलौते बेटे को अपनी छाँह बढ़ाकर उसके तले ले लेनेवाला इस जगत में कौन था? फिर जगत के पास सहानुभूति का इतना अतिरेक भी कहाँ है कि उसकी आशा और अपेक्षा की जा सके? बल्कि उसे स्वयं सहानुभूति की भूख है। ऐसे में हे भगवान्, उनके इस इकलौते जैनेंद्र का क्या होगा? मानो वह पूछती थीं और कहीं से इसका कुछ उत्तर पाकर मरने के लिए वह अनुद्यत हो जाती थीं।

    मुझसे उन्हें कुछ सांत्वना थी। अपने पेट लायक़ रोटी भी मैं कैसे जुटाऊँगा। और उस वक़्त तक तो दो बच्चों का पिता भी मैं हो चुका था। सच है कि साहित्य में थोड़ा-बहुत अख़बारी नाम मेरा हो जाने के कारण कुछ तो उन्हें धीरज बंधा था; पर आर्थिक तल पर वह तनिक भी उनकी सांत्वना का निमित्त हो सका था, ऐसा मानने की भूल का बहाना मेरे पास नहीं है।

    लेकिन महात्माजी का मानना है— और हम दोनों ही उनकी मृत्यु-मुहूर्त के साक्षी थे— कि मरने से काफ़ी पहले उनके धार्मिक संस्कारों ने उन्हें संसार के रागादिक बंधनों से उत्तीर्णता दे दी थी और चिंता बाँध कर नहीं, अंदर के विश्वास का संबल लेकर अपनी अनंत यात्रा पर उन्होंने इस धराधाम से कूच किया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 52)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : जैनेन्द्र कुमार
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1952
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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