प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
उस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुँचाकर मैं लौट रही थी कि चिड़ियों और ख़रगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया।
बड़े मियाँ चिड़ियावाले की दुकान के निकट पहुँचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया। मेरे कोई प्रश्न करने के पहले ही उन्होंने कहना आरंभ किया, “सलाम गुरु जी! पिछली बार आने पर आपने मोर के बच्चों के लिए पूछा था। शंकरगढ़ से एक चिड़ीमार दो मोर के बच्चे पकड़ लाया है, एक मोर है , एक मोरनी। आप पाल लें। मोर के पंजों से दवा बनती है, सो ऐसे ही लोग ख़रीदने आए थे। आख़िर मेरे सीने में भी तो इंसान का दिल है। मारने के लिए ऐसी मासूम चिड़ियों को कैसे दूँ! टालने के लिए मैंने कह दिया—‘गुरु जी ने मँगवाए हैं।’ वैसे यह कमबख़्त रोज़गार ही ख़राब है। बस, पकड़ो-पकड़ो, मारो-मारो।”
बड़े मियाँ के भाषण की तूफ़ानमेल के लिए कोई निश्चित स्टेशन नहीं है। सुननेवाला थककर जहाँ रोक दे वहीं स्टेशन मान लिया जाता है। इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही मैंने बीच में उन्हें रोककर पूछा, “मोर के बच्चे हैं कहाँ?” बड़े मियाँ के हाथ के संकेत का अनुसरण करते हुए मेरी दृष्टि एक तार के छोटे-से पिंजड़े तक पहुँची जिसमें तीतरों के समान दो बच्चे बैठे थे। पिंजड़ा इतना संकीर्ण था कि वे पक्षी-शावक जाली के गोल फ़्रेम में किसी जड़े चित्र जैसे लग रहे थे।
मेरे निरीक्षण के साथ-साथ बड़े मियाँ की भाषण-मेल चली जा रही थी, “ईमान क़सम, गुरु जी—चिड़ीमार ने मुझसे इस मोर के जोड़े के नक़द तीस रुपए लिए हैं। बारहा कहा, भई ज़रा सोच तो, अभी इसमें मोर की कोई ख़ासियत भी है कि तू इतनी बड़ी क़ीमत ही माँगने चला! पर वह मूँजी क्यों सुनने लगा। आपका ख़याल करके अछता-पछताकर देना ही पड़ा। अब आप जो मुनासिब समझें।” अस्तु, तीस चिड़ीमार के नाम के और पाँच बड़े मियाँ के ईमान के देकर जब मैंने वह छोटा पिंजड़ा कार में रखा तब मानो वह जाली के चौखटे का चित्र जीवित हो गया। दोनों पक्षी-शावकों के छटपटाने से लगता था मानो पिंजड़ा ही सजीव और उड़ने योग्य हो गया है।
घर पहुँचने पर सब कहने लगे, “तीतर हैं, मोर कहकर ठग लिया है।” कदाचित अनेक बार ठगे जाने के कारण ही ठगे जाने की बात मेरे चिढ़ जाने की दुर्बलता बन गई है। अप्रसन्न होकर मैंने कहा, “मोर के क्या सुरख़ाब के पर लगे हैं। है तो पक्षी ही।” चिढ़ा दिया जाने के कारण ही संभवतः उन दोनों पक्षियों के प्रति मेरे व्यवहार और यत्न में कुछ विशेषता आ गई।
पहले अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में उनका पिंजड़ा रखकर उसका दरवाज़ा खोला, फिर दो कटोरों में सत्तू की छोटी-छोटी गोलियाँ और पानी रखा। वे दोनों चूहेदानी जैसे पिंजड़े से निकलकर कमरे में मानो खो गए, कभी मेज़ के नीचे घुस गए, कभी अलमारी के पीछे। अंत में इस लुकाछिपी से थककर उन्होंने मेरे रद्दी काग़ज़ों की टोकरी को अपने नए बसेरे का गौरव प्रदान किया। दो-चार दिन वे इसी प्रकार दिन में इधर-उधर गुप्तवास करते और रात में रद्दी की टोकरी में प्रकट होते रहे। फिर आश्वस्त हो जाने पर कभी मेरी मेज़ पर, कभी कुर्सी पर और कभी मेरे सिर पर अचानक आविर्भूत होने लगे। खिड़कियों में तो जाली लगी थी, पर दरवाज़ा मुझे निरंतर बंद रखना पड़ता था। खुला रहने पर चित्रा (मेरी बिल्ली) इन नवागंतुको का पता लगा सकती थी और तब उसके शोध का क्या परिणाम होता, यह अनुमान करना कठिन नहीं है। वैसे वह चूहों पर भी आक्रमण नहीं करती, परंतु यहाँ तो दो सर्वथा अपरिचित पक्षियों की अनधिकार चेष्टा का प्रश्न था। उसके लिए दरवाज़ा बंद रहे और ये दोनों (उसकी दृष्टि में) ऐरे-गैरे मेरी मेज़ को अपना सिंहासन बना लें, यह स्थिति चित्रा जैसी अभिमानिनी मार्जारी के लिए असह्या की कही जाएगी।
जब मेरे कमरे का कायाकल्प चिड़ियाख़ाने के रूप में होने लगा, तब मैंने बड़ी कठिनाई से दोनों चिड़ियों को पकड़कर जाली के बड़े घर में पहुँचाया जो मेरे जीव-जंतुओ का सामान्य निवास है।
दोनों नवागंतुकों ने पहले से रहनेवालों में वैसा ही कुतूहल जगाया जैसा नववधू के आगमन पर परिवार में स्वाभाविक है। लक्का कबूतर नाचना छोड़कर दौड़ पड़े और उनके चारों ओर घूम-घूमकर गुटरगूँ-गुटरगूँ की रागिनी अलापने लगे। बड़े ख़रगोश सभ्य सभासदों के समान क्रम से बैठकर गंभीर भाव से उनका परीक्षण करने लगे। उस दिन मेरे चिड़ियाघर में मानो भूचाल आ गया।
धीरे-धीरे दोनों मोर के बच्चे बढ़ने लगे। उनका कायाकल्प वैसा ही क्रमश: और रंगमय था जैसा इल्ली से तितली का बनना।
मोर के सिर की कलग़ी और सघन, ऊँची तथा चमकीली हो गई। चोंच अधिक बंकिम और पैनी हो गई, गोल आँखों में इंद्रनी की नीलाभ द्युति झलकने लगी। लंबी नील-हरित ग्रीवा की हर भंगिमा में धूपछाँही तरंगे उठने-गिरने लगीं। दक्षिण-वाम दोनों पंखों में सलेटी और सफ़ेद आलेखन स्पष्ट होने लगे। पूँछ लंबी हुई और उसके पंखों पर चंद्रिकाओं के इंद्रधनुषी रंग उद्यीपत हो उठे। रंग-सहित पैरों को गरवीली गति ने एक नई गरिमा से रंजित कर दिया। उसका गर्दन ऊँची कर देखना, विशेष भंगिमा के साथ उसे नीची कर दाना चुगना, पानी पीना, टेढ़ी कर शब्द सुनना आदि क्रियाओं में जो सुकुमारता और सौंदर्य था, उसका अनुभव देखकर ही किया जा सकता है। गति का चित्र नहीं आँका जा सकता।
मोरनी का विकास मोर के समान चमत्कारिक तो नहीं हुआ—परंतु अपनी लंबी धूपछाँही गर्दन, हवा में चंचल कलगी, पंखों की श्याम-श्वेत पत्रलेखा, मंथर गति आदि से वह भी मोर की उपयुक्त सहचारिणी होने का प्रमाण देने लगी।
नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकंठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नामकरण हुआ राधा।
मुझे स्वयं ज्ञात नहीं कि कब नीलकंठ ने अपने आपको चिड़ियाघर के निवासी जीव-जंतुओं का सेनापति और संरक्षण नियुक्त कर लिया। सवेरे ही वह सब ख़रगोश, कबूतर आदि की सेना एकत्र कर उस ओर ले जाता जहाँ दाना दिया जाता है और घूम-घूमकर मानो सबकी रखवाली करता रहता। किसी ने कुछ गड़बड़ की और वह अपने तीखे चंचु-प्रहार से दंड देने दौड़ा।
ख़रगोश के छोटे बच्चों को वह चोंच से उनके कान पकड़कर ऊपर उठा लेता था और जब तक वे आर्तक्रंदन न करने लगते उन्हें अधर में लटकाए रखता। कभी-कभी उसकी पैनी चोंच से ख़रगोश के बच्चों का कर्णवेध संस्कार हो जाता था, पर वे फिर कभी क्रोधित होने का अवसर न देते थे। दंडविधान के समान ही उन जीव-जंतुओं के प्रति उसका प्रेम भी असाधारण था। प्राय: वह मिट्टी में पंख फैलाकर बैठ जाता और वे सब उसकी लंबी पूँछ और सघन पंखों में छुआ-छुऔअल-सा खेलते रहते थे।
ऐसी ही किसी स्थिति में एक साँप जाली के भीतर पहुँच गया। सब जीव-जंतु भागकर इधर-उधर छिप गए, केवल एक शिशु ख़रगोश साँप की पकड़ में आ गया। निगलने के प्रयास में साँप ने उसका आधा पिछला शरीर तो मुँह में दबा रखा था, शेष आधा जो बाहर था, उससे चीं-चीं का स्वर भी इतना तीव्र नहीं निकल सकता था कि किसी को स्पष्ट सुनाई दे सके। नीलकंठ दूर ऊपर झूले में सो रहा था। उसी के चौकन्ने कानों ने उस मंद स्वर की व्यथा पहचानी और पूँछ-पंख समेटकर सर से एक झपट्टे में नीचे आ गया। संभवत: अपनी सहज चेतना से ही उसने समझ लिया होगा कि साँप के फन पर चोंच मारने से ख़रगोश भी घायल हो सकता है।
उसने साँप को फन के पास पंजों से दबाया और फिर चोंच से इतने प्रहार किए कि वह अधमरा हो गया। पकड़ ढीली पड़ते ही ख़रगोश का बच्चा मुख से निकल तो आया, परंतु निश्चेष्ट-सा वहीं पड़ा रहा।
राधा ने सहायता देने की आवश्यकता नहीं समझी, परंतु अपनी मंद केका से किसी असामान्य घटना की सूचना सब ओर प्रसारित कर दी माली पहुँचा, फिर हम सब पहुँचे। नीलकंठ जब साँप के दो खंड कर चुका, तब उस शिशु ख़रगोश के पास गया और रातभर उसे पंखों के नीचे रखे उष्णता देता रहा। कार्तिकेय ने अपने युद्ध-वाहन के लिए मयूर को क्यों चुना होगा, यह उस पक्षी का रूप और स्वभाव देखकर समझ में आ जाता है।
मयूर कलाप्रिय वीर पक्षी, हिंसक मात्र नहीं। इसी से उसे बाज़, चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिनका जीवन ही क्रूर कर्म है।
नीलकंठ में उसकी जातिगत विशेषताएँ तो थीं ही, उनका मानवीकरण भी हो गया था। मेघों की साँवली छाया में अपने इंद्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखों को मंडलाकार बनाकर जब वह नाचता था, तब उस नृत्य में एक सहजात लय-ताल रहता था। आगे-पीछे, दाहिने-बाएँ क्रम से घूमकर वह किसी अलक्ष्य सम पर ठहर-ठहर जाता था।
राधा नीलकंठ के समान नहीं नाच सकती थी, परंतु उसकी गति में भी एक छंद रहता था। वह नृत्यमग्न नीलकंठ की दाहिनी ओर के पंख को छूती हुई बाईं ओर निकल आती थी और बाएँ पंख को स्पर्श कर दाहिनी ओर। इस प्रकार उसकी परिक्रमा में भी एक पूरक ताल-परिचय मिलता था। नीलकंठ ने कैसे समझ लिया कि उसका नृत्य मुझे बहुत भाता है, यह तो नहीं बताया जा सकता, परंतु अचानक एक दिन वह मेरे जालीघर के पास पहुँचते ही अपने झूले से उतरकर नीचे आ गया और पंखों का सतरंगी मंडलाकार छाता तानकर नृत्य की भंगिमा में खड़ा हो गया। तब से यह नृत्य-भंगिमा नित्य का क्रम बन गई। प्राय: मेरे साथ कोई-न-कोई देशी-विदेशी अतिथि भी पहुँच जाता था और नीलकंठ की मुद्रा को अपने प्रति सम्मानपूर्वक समझकर विस्मयाभिभूत हो उठता था। कई विदेशी महिलाओं ने उसे ‘परफ़ैक्ट जेंटिलमैन’ की उपाधि दे डाली। जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विषधर को खंड-खंड कर सकता था, उसी से मेरी हथेली पर रखे हुए भुने चने ऐसी कोमलता से हौले-हौले उठाकर खाता था कि हँसी भी आती थी और विस्मय भी होता था। फलों के वृक्षों से अधिक उसे पुष्पित और पल्लवित वृक्ष भाते थे।
वसंत में जब आम के वृक्ष सुनहली मंजरियों से लद जाते थे, अशोक नए लाल पल्लवों से ढँक जाता था, तब जालीघर में वह इतना अस्थिर हो उठता कि उसे बाहर छोड़ देना पड़ता।
नीलकंठ और राधा की सबसे प्रिय ऋतु तो वर्षा ही थी। मेघों के उमड़ आने से पहले ही वे हवा में उसकी सजल आहट पा लेते थे और तब उनकी मंद केका की गूँज-अनुगूँज तीव्र से तीव्रतर होती हुई मानो बूँदों के उतरने के लिए सोपान-पंक्ति बनने लगती थी। मेघ के गर्जन के ताल पर ही उसके तन्मय नृत्य का आरंभ होता। और फिर मेघ जितना अधिक गरजता, बिजली जितनी अधिक चमकती बूँदों की रिमझिमाहट जितनी तीव्र होती जाती, नीलकंठ के नृत्य का वेग उतना ही अधिक बढ़ता जाता और उसकी केका का स्वर उतना ही मंद्र से मंद्रतर होता जाता। वर्षा के थम जाने पर वह दाहिने पंजे पर दाहिना पंख और बाएँ पर बायाँ पंख फैलाकर सुखाता। कभी-कभी वे दोनों एक-दूसरे के पंखों से टपकनेवाली बूँदों को चोंच से पी-पीकर पंखों का गीलापन दूर करते रहते। इस आनंदोत्सव की रागिनी में बेमेल स्वर कैसे बज उठा, यह भी एक करुण कथा है।
एक दिन मुझे किसी कार्य से नख़ासकोने से निकलना पड़ा और बड़े मियाँ ने पहले के समान कार को रोक लिया। इस बार किसी पिंजड़े की ओर नहीं देखूँगी, यह संकल्प करके मैंने बड़े मियाँ की विरल दाढ़ी और सफ़ेद डोरे से कान में बंधी ऐनक को ही अपने ध्यान का केंद्र बनाया। पर बड़े मियाँ के पैरों के पास जो मोरनी पड़ी थी उसे अनदेखा करना कठिन था। मोरनी राधा के समान ही थी। उसके मूँज से बँधे दोनों पंजों की उँगलियाँ टूटकर इस प्रकार एकत्रित हो गई थीं कि वह खड़ी ही नहीं हो सकती थी।
बड़े मियाँ की भाषण—मेल फिर दौड़ने लगी—देखिए गुरु जी, कमबख़्त चिड़ीमार ने बेचारी का क्या हाल किया है। ऐसे कभी चिड़िया पकड़ी जाती है! आप न आई होतीं तो मैं उसी के सिर पर इसे पटक देता। पर आपसे भी यह अधमरी मोरनी ले जाने को कैसे कहूँ!
सारांश यह कि सात रुपए देकर मैं उसे अगली सीट पर रखवाकर घर ले आई और एक बार फिर मेरे पढ़ने-लिखने का कमरा अस्पताल बना। पंजों की मरहमपट्टी और देखभाल करने पर वह महीनेभर में अच्छी हो गई। उँगलियाँ वैसी ही टेढ़ी-मेढ़ी रहीं, परंतु वह ठूँठ जैसे पंजों पर डगमगाती हुई चलने लगी। तब उसे जालीघर में पहुँचाया गया और नाम रखा गया—कुब्जा नाम के अनुरूप वह स्वभाव से भी कुब्जा ही प्रमाणित हुई। अब तक नीलकंठ और राधा साथ रहते थे। अब कुब्जा उन्हें साथ देखते ही मारने दौड़ती। चोंच से मार-मारकर उसने राधा की कलग़ी नोच डाली, पंख नोच डाले। कठिनाई यह थी कि नीलकंठ उससे दूर भागता था और वह उसके साथ रहना चाहती थी। न किसी जीव-जंतु से उसकी मित्रता थी, न वह किसी को नीलकंठ के समीप आने देना चाहती थी। उसी बीच राधा ने दो अंडे दिए, जिनको वह पंखों में छिपाए बैठी रहती थी। पता चलते ही कुब्जा ने चोंच मार-मारकर राधा को ढकेल दिया और फिर अंडे फोड़कर ठूँठ जैसे पैरों से सब ओर छितरा दिए।
इस कलह-कोलाहल से और उससे भी अधिक राधा की नीलकंठ की प्रसन्नता का अंत हो गया।
कई बार वह जाली के घर से निकल भागा। एक बार कई दिन भूखा-प्यासा आम की शाखाओं में छिपा बैठा रहा, जहाँ से बहुत पुचकारकर मैंने उतारा। एक बार मेरी खिड़की के शेड पर छिपा रहा।
मेरे दाना देने जाने पर वह सदा की भाँति पंखों को मंडलाकार बनाकर खड़ा हो जाता था, पर उसकी चाल में थकावट और आँखों में एक शून्यता रहती थी। अपनी अनुभवहीनता के कारण ही मैं आशा करती रही कि थोड़े दिन बाद सबमें मेल हो जाएगा। अंत में तीन-चार मास के उपरांत एक दिन सवेरे जाकर देखा कि नीलकंठ पूँछ-पंख फैलाए धरती पर उसी प्रकार बैठा हुआ है, जैसे ख़रगोश के बच्चों को पंखों में छिपाकर बैठता था। मेरे पुकारने पर भी उसके न उठने पर संदेह हुआ।
वास्तव में नीलकंठ मर गया था। 'क्यों' का उत्तर तो अब तक नहीं मिल सका है। न उसे कोई बीमारी हुई, न उसके रंग-बिरंगे फूलों के स्तबक जैसे शरीर पर किसी चोट का चिह्न मिला। मैं अपने शाल में लपेटकर उसे संगम ले गई। जब गंगा की बीच धार में उसे प्रवाहित किया गया, तब उसके पंखों की चंद्रिकाओं से बिंबित-प्रतिबिंबित होकर गंगा का चौड़ा पाट एक विशाल मयूर के समान तरंगित हो उठा। नीलकंठ के न रहने पर राधा तो निश्चेष्ट-सी कई दिन कोने में बैठी रही। वह कई बार भागकर लौट आया था, अतः वह प्रतीक्षा के भाव से द्वार पर दृष्टि लगाए रहती थी। पर कुब्जा ने कोलाहल के साथ खोज-ढूँढ़ आरंभ की। खोज के क्रम में वह प्रायः जाली का दरवाज़ा खुलते ही बाहर निकल आती थी और आम, अशोक, कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढ़ती रहती थी। एक दिन आम से उतरी ही थी कि कजली (अल्सेशियन कुत्ती) सामने पड़ गई। स्वभाव के अनुसार उसने कजली पर भी चोंच से प्रहार किया। परिणामतः कजली के दो दाँत उसकी गर्दन पर लग गए। इस बार उसका कलह-कोलाहल और द्वेष प्रेम भरा जीवन बचाया न जा सका। परंतु इन तीन पक्षियों ने मुझे पक्षी-प्रकृति की विभिन्नता का जो परिचय दिया है, वह मेरे लिए विशेष महत्त्व रखता है।
राधा अब प्रतीक्षा में ही दुकेली है। आषाढ़ में जब आकाश मेघाच्छन्न हो जाता है तब वह कभी ऊँचे झूले पर और कभी अशोक की डाल पर अपनी केका को तीव्रतर करके नीलकंठ को बुलाती रहती है।
us din ek atithi ko steshan pahunchakar main laut rahi thi ki chiDiyon aur khargoshon ki dukan ka dhyaan aa gaya aur mainne Draivar ko usi or chalne ka adesh diya.
baDe miyan chiDiyavale ki dukan ke nikat pahunchte hi unhonne saDak par aakar Draivar ko rukne ka sanket diya. mere koi parashn karne ke pahle hi unhonne kahna arambh kiya, “salam guru jee! pichhli baar aane par aapne mor ke bachchon ke liye puchha tha. shankargaDh se ek chiDimar do mor ke bachche pakaD laya hai, ek mor hai , ek morni. aap paal len. mor ke panjon se dava banti hai, so aise hi log kharidne aaye the. akhir mere sine mein bhi to insaan ka dil hai. marne ke liye aisi masum chiDiyon ko kaise doon! talne ke liye mainne kah diya—‘guru ji ne mangvaye hain. ’ vaise ye kambakht rozgar hi kharab hai. bas, pakDo pakDo, maro maro. ”
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radha nilkanth ke saman nahin naach sakti thi, parantu uski gati mein bhi ek chhand rahta tha. wo nritymagn nilkanth ki dahini or ke pankh ko chhuti hui bain or nikal aati thi aur bayen pankh ko sparsh kar dahini or. is prakar uski parikrama mein bhi ek purak taal parichay milta tha. nilkanth ne kaise samajh liya ki uska nritya mujhe bahut bhata hai, ye to nahin bataya ja sakta, parantu achanak ek din wo mere jalighar ke paas pahunchte hi apne jhule se utarkar niche aa gaya aur pankhon ka satrangi manDlakar chhata tankar nritya ki bhangima mein khaDa ho gaya. tab se ye nritya bhangima nitya ka kram ban gai. prayah mere saath koi na koi deshi videshi atithi bhi pahunch jata tha aur nilkanth ki mudra ko apne prati sammanpurvak samajhkar vismyabhibhut ho uthta tha. kai videshi mahilaon ne use ‘parfaikt jentilmain’ ki upadhi de Dali. jis nukili paini chonch se wo bhayankar vishadhar ko khanD khanD kar sakta tha, usi se meri hatheli par rakhe hue bhune chane aisi komalta se haule haule uthakar khata tha ki hansi bhi aati thi aur vismay bhi hota tha. phalon ke vrikshon se adhik use pushpit aur pallavit vriksh bhate the.
vasant mein jab aam ke vriksh sunahli manjariyon se lad jate the, ashok ne laal pallvon se Dhank jata tha, tab jalighar mein wo itna asthir ho uthta ki use bahar chhoD dena paDta.
nilkanth aur radha ki sabse priy ritu to varsha hi thi. meghon ke umaD aane se pahle hi ve hava mein uski sajal aahat pa lete the aur tab unki mand keka ki goonj anugunj teevr se tivrtar hoti hui mano bundon ke utarne ke liye sopan pankti banne lagti thi. megh ke garjan ke taal par hi uske tanmay nritya ka arambh hota. aur phir megh jitna adhik garajta, bijli jitni adhik chamakti bundon ki rimajhimahat jitni teevr hoti jati, nilkanth ke nritya ka veg utna hi adhik baDhta jata aur uski keka ka svar utna hi mandr se mandrtar hota jata. varsha ke tham jane par wo dahine panje par dahina pankh aur bayen par bayan pankh phailakar sukhata. kabhi kabhi ve donon ek dusre ke pankhon se tapaknevali bundon ko chonch se pi pikar pankhon ka gilapan door karte rahte. is anandotsav ki ragini mein bemel svar kaise baj utha, ye bhi ek karun katha hai.
ek din mujhe kisi karya se nakhaskone se nikalna paDa aur baDe miyan ne pahle ke saman kaar ko rok liya. is baar kisi pinjDe ki or nahin dekhungi, ye sankalp karke mainne baDe miyan ki viral daDhi aur safed Dore se kaan mein bandhi ainak ko hi apne dhyaan ka kendr banaya. par baDe miyan ke pairon ke paas jo morni paDi thi use andekha karna kathin tha. morni radha ke saman hi thi. uske moonj se bandhe donon panjon ki ungliyan tutkar is prakar ekatrit ho gai theen ki wo khaDi hi nahin ho sakti thi.
baDe miyan ki bhashan—mel phir dauDne lagi—dekhiye guru ji, kambakht chiDimar ne bechari ka kya haal kiya hai. aise kabhi chiDiya pakDi jati hai! aap na aai hotin to main usi ke sir par ise patak deta. par aapse bhi ye adhamri morni le jane ko kaise kahun!
saransh ye ki saat rupe dekar main use agli seet par rakhvakar ghar le aai aur ek baar phir mere paDhne likhne ka kamra aspatal bana. panjon ki marhampatti aur dekhbhal karne par wo mahinebhar mein achchhi ho gai. ungliyan vaisi hi teDhi meDhi rahin, parantu wo thoonth jaise panjon par Dagmagati hui chalne lagi. tab use jalighar mein pahunchaya gaya aur naam rakha gaya— kubja naam ke anurup wo svbhaav se bhi kubja hi prmanit hui. ab tak nilkanth aur radha saath rahte the. ab kubja unhen saath dekhte hi marne dauDti. chonch se maar markar usne radha ki kalgi noch Dali, pankh noch Dale. kathinai ye thi ki nilkanth usse door bhagta tha aur wo uske saath rahna chahti thi. na kisi jeev jantu se uski mitrata thi, na wo kisi ko nilkanth ke samip aane dena chahti thi. usi beech radha ne do anDe diye, jinko wo pankhon mein chhipaye baithi rahti thi. pata chalte hi kubja ne chonch maar markar radha ko Dhakel diya aur phir anDe phoDkar thoonth jaise pairon se sab or chhitra diye.
is kalah kolahal se aur usse bhi adhik radha ki nilkanth ki prasannata ka ant ho gaya.
kai baar wo jali ke ghar se nikal bhaga. ek baar kai din bhukha pyasa aam ki shakhaon mein chhipa baitha raha, jahan se bahut puchkarkar mainne utara. ek baar meri khiDki ke sheD par chhipa raha.
mere dana dene jane par wo sada ki bhanti pankhon ko manDlakar banakar khaDa ho jata tha, par uski chaal mein thakavat aur ankhon mein ek shunyata rahti thi. apni anubhavhinata ke karan hi main aasha karti rahi ki thoDe din baad sabmen mel ho jayega. ant mein teen chaar maas ke upraant ek din savere jakar dekha ki nilkanth poonchh pankh phailaye dharti par usi prakar baitha hua hai, jaise khargosh ke bachchon ko pankhon mein chhipakar baithta tha. mere pukarne par bhi uske na uthne par sandeh hua.
vastav mein nilkanth mar gaya tha. kyon ka uttar to ab tak nahin mil saka hai. na use koi bimari hui, na uske rang birange phulon ke stbak jaise sharir par kisi chot ka chihn mila. main apne shaal mein lapetkar use sangam le gai. jab ganga ki beech dhaar mein use prvahit kiya gaya, tab uske pankhon ki chandrikaon se bimbit pratibimbit hokar ganga ka chauDa paat ek vishal mayur ke saman tarangit ho utha. nilkanth ke na rahne par radha to nishchesht si kai din kone mein baithi rahi. wo kai baar bhagkar laut aaya tha, atः wo prtiksha ke bhaav se dvaar par drishti lagaye rahti thi. par kubja ne kolahal ke saath khoj DhoonDh arambh ki. khoj ke kram mein wo praayः jali ka darvaza khulte hi bahar nikal aati thi aur aam, ashok, kachnar aadi ki shakhaon mein nilkanth ko DhunDhati rahti thi. ek din aam se utri hi thi ki kajli (alseshiyan kutti) samne paD gai. svbhaav ke anusar usne kajli par bhi chonch se prahar kiya. parinamatः kajli ke do daant uski gardan par lag ge. is baar uska kalah kolahal aur dvesh prem bhara jivan bachaya na ja saka. parantu in teen pakshiyon ne mujhe pakshi prkriti ki vibhinnata ka jo parichay diya hai, wo mere liye vishesh mahattv rakhta hai.
radha ab prtiksha mein hi dukeli hai. ashaDh mein jab akash meghachchhann ho jata hai tab wo kabhi uunche jhule par aur kabhi ashok ki Daal par apni keka ko tivrtar karke nilkanth ko bulati rahti hai.
us din ek atithi ko steshan pahunchakar main laut rahi thi ki chiDiyon aur khargoshon ki dukan ka dhyaan aa gaya aur mainne Draivar ko usi or chalne ka adesh diya.
baDe miyan chiDiyavale ki dukan ke nikat pahunchte hi unhonne saDak par aakar Draivar ko rukne ka sanket diya. mere koi parashn karne ke pahle hi unhonne kahna arambh kiya, “salam guru jee! pichhli baar aane par aapne mor ke bachchon ke liye puchha tha. shankargaDh se ek chiDimar do mor ke bachche pakaD laya hai, ek mor hai , ek morni. aap paal len. mor ke panjon se dava banti hai, so aise hi log kharidne aaye the. akhir mere sine mein bhi to insaan ka dil hai. marne ke liye aisi masum chiDiyon ko kaise doon! talne ke liye mainne kah diya—‘guru ji ne mangvaye hain. ’ vaise ye kambakht rozgar hi kharab hai. bas, pakDo pakDo, maro maro. ”
baDe miyan ke bhashan ki tufanmel ke liye koi nishchit steshan nahin hai. sunnevala thakkar jahan rok de vahin steshan maan liya jata hai. is tathya se parichit hone ke karan hi mainne beech mein unhen rokkar puchha, “mor ke bachche hain kahan?” baDe miyan ke haath ke sanket ka anusran karte hue meri drishti ek taar ke chhote se pinjDe tak pahunchi jismen titron ke saman do bachche baithe the. pinjDa itna sankirn tha ki ve pakshi shavak jali ke gol frem mein kisi jaDe chitr jaise lag rahe the.
mere nirikshan ke saath saath baDe miyan ki bhashan mel chali ja rahi thi, “iiman qasam, guru ji—chiDimar ne mujhse is mor ke joDe ke naqad tees rupe liye hain. barha kaha, bhai zara soch to, abhi ismen mor ki koi khasiyat bhi hai ki tu itni baDi qimat hi mangne chala! par wo munji kyon sunne laga. aapka khayal karke achhta pachhtakar dena hi paDa. ab aap jo munasib samjhen. ” astu, tees chiDimar ke naam ke aur paanch baDe miyan ke iiman ke dekar jab mainne wo chhota pinjDa kaar mein rakha tab mano wo jali ke chaukhate ka chitr jivit ho gaya. donon pakshi shavkon ke chhataptane se lagta tha mano pinjDa hi sajiv aur uDne yogya ho gaya hai.
ghar pahunchne par sab kahne lage, “titar hain, mor kahkar thag liya hai. ” kadachit anek baar thage jane ke karan hi thage jane ki baat mere chiDh jane ki durbalta ban gai hai. aprasann hokar mainne kaha, “mor ke kya surkhab ke par lage hain. hai to pakshi hi. ” chiDha diya jane ke karan hi sambhvatः un donon pakshiyon ke prati mere vyvahar aur yatn mein kuch visheshata aa gai.
pahle apne baar paDhne likhne ke kamre mein unka pinjDa rakhkar uska darvaza khola, phir do katoron mein sattu ki chhoti chhoti goliyan aur pani rakha. ve donon chuhedani jaise pinjDe se nikalkar kamre mein mano kho ge, kabhi mez ke niche ghus ge, kabhi almari ke pichhe. ant mein is lukachhipi se thakkar unhonne mere raddi kagzon ki tokari ko apne ne basere ka gaurav pradan kiya. do chaar din veisi prakar din mein idhar udhar guptvas karteaur raat mein raddi ki tokari mein prakat hote rahe. phir ashvast ho jane par kabhi meri mez par, kabhi kursi par aur kabhi mere sir par achanak avirbhut hone lage. khiDakiyon mein to jali lagi thi, par darvaza mujhe nirantar band rakhna paDta tha. khula rahne par chitra (meri billi) in navagantuko ka pata laga sakti thi aur tab uske shodh ka kya parinam hota, ye anuman karna kathin nahin hai. vaise wo chuhon par bhi akrman nahin karti, parantu yahan to do sarvatha aprichit pakshiyon ki andhikar cheshta ka parashn tha. uske liye darvaza band rahe aur ye donon (uski drishti men) aire gaire meri mez ko apna sinhasan bana len, ye sthiti chitra jaisi abhimanini marjari ke liye asahya ki kahi jayegi.
jab mere kamre ka kayakalp chiDiyakhane ke roop mein hone laga, tab mainne baDi kathinai se donon chiDiyon ko pakaDkar jali ke baDe ghar mein pahunchaya jo mere jeev jantuo ka samanya nivas hai.
donon navagantukon ne pahle se rahnevalon mein vaisa hi kutuhal jagaya jaisa navavdhu ke agaman par parivar mein svabhavik hai. lakka kabutar nachna chhoDkar dauD paDe aur unke charon or ghoom ghumkar gutargun gutargun ki ragini alapne lage. baDe khargosh sabhya sabhasdon ke saman kram se baithkar gambhir bhaav se unka parikshan karne lage. us din mere chiDiyaghar mein mano bhuchal aa gaya.
dhire dhire donon mor ke bachche baDhne lage. unka kayakalp vaisa hi kramshah aur rangmay tha jaisa illi se titli ka banna.
mor ke sir ki kalghi aur saghan, uunchi tatha chamkili ho gai. chonch adhik bankim aur paini ho gai, gol ankhon mein indrni ki nilabh dyuti jhalakne lagi. lambi neel harit griva ki har bhangima mein dhupchhanhi tarange uthne girne lagin. dakshin vaam donon pankhon mein saleti aur safed alekhan aspasht hone lage. poonchh lambi hui aur uske pankhon par chandrikaon ke indradhanushi rang udyipat ho uthe. rang sahit pairon ko garvili gati ne ek nai garima se ranjit kar diya. uska gardan uunchi kar dekhana, vishesh bhangima ke saath use nichi kar dana chugna, pani pina, teDhi kar shabd sunna aadi kriyaon mein jo sukumarta aur saundarya tha, uska anubhav dekhkar hi kiya ja sakta hai. gati ka chitr nahin anka ja sakta.
morni ka vikas mor ke saman chamatkarik to nahin hua—parantu apni lambi dhupchhanhi gardan, hava mein chanchal kalgi, pankhon ki shyaam shvet patrlekha, manthar gati aadi se wo bhi mor ki upyukt sahcharini hone ka prmaan dene lagi.
nilabh griva ke karan mor ka naam rakha gaya nilkanth aur uski chhaya ke saman rahne ke karan morni ka namakran hua radha.
mujhe svayan gyaat nahin ki kab nilkanth ne apne aapko chiDiyaghar ke nivasi jeev jantuon ka senapati aur sanrakshan niyukt kar liya. savere hi wo sab khargosh, kabutar aadi ki sena ekatr kar us or le jata jahan dana diya jata hai aur ghoom ghumkar mano sabki rakhvali karta rahta. kisi ne kuch gaDbaD ki aur wo apne tikhe chanchu prahar se danD dene dauDa.
khargosh ke chhote bachchon ko wo chonch se unke kaan pakaDkar uupar utha leta tha aur jab tak ve artakrandan na karne lagte unhen adhar mein latkaye rakhta. kabhi kabhi uski paini chonch se khargosh ke bachchon ka karnvedh sanskar ho jata tha, par ve phir kabhi krodhit hone ka avsar na dete the. danDavidhan ke saman hi un jeev jantuon ke prati uska prem bhi asadharan tha. prayah wo mitti mein pankh phailakar baith jata aur ve sab uski lambi poonchh aur saghan pankhon mein chhua chhuaual sa khelte rahte the.
aisi hi kisi sthiti mein ek saanp jali ke bhitar pahunch gaya. sab jeev jantu bhagkar idhar udhar chhip ge, keval ek shishu khargosh saanp ki pakaD mein aa gaya. nigalne ke prayas mein saanp ne uska aadha pichhla sharir to munh mein daba rakha tha, shesh aadha jo bahar tha, usse cheen cheen ka svar bhi itna teevr nahin nikal sakta tha ki kisi ko aspasht sunai de sake. nilkanth door uupar jhule mein so raha tha. usi ke chaukanne kanon ne us mand svar ki vyatha pahchani aur poonchh pankh sametkar sar se ek jhapatte mein niche aa gaya. sambhavtah apni sahj chetna se hi usne samajh liya hoga ki saanp ke phan par chonch marne se khargosh bhi ghayal ho sakta hai.
usne saanp ko phan ke paas panjon se dabaya aur phir chonch se itne prahar kiye ki wo adhamra ho gaya. pakaD Dhili paDte hi khargosh ka bachcha mukh se nikal to aaya, parantu nishchesht sa vahin paDa raha.
radha ne sahayata dene ki avashyakta nahin samjhi, parantu apni mand keka se kisi asamanya ghatna ki suchana sab or prasarit kar di. mali pahuncha, phir hum sab pahunche. nilkanth jab saanp ke do khanD kar chuka, tab us shishu khargosh ke paas gaya aur ratbhar use pankhon ke niche rakhe ushnta deta raha. kartikey ne apne yuddh vahan ke liye mayur ko kyon chuna hoga, ye us pakshi ka roop aur svbhaav dekhkar samajh mein aa jata hai.
mayur kalapriy veer pakshi, hinsak maatr nahin. isi se use baaz, cheel aadi ki shreni mein nahin rakha ja sakta, jinka jivan hi kroor karm hai.
nilkanth mein uski jatigat visheshtayen to theen hi, unka manvikran bhi ho gaya tha. meghon ki sanvli chhaya mein apne indradhnush ke guchchhe jaise pankhon ko manDlakar banakar jab wo nachta tha, tab us nritya mein ek sahjat lay taal rahta tha. aage pichhe, dahine bayen kram se ghumkar wo kisi alakshya sam par thahar thahar jata tha.
radha nilkanth ke saman nahin naach sakti thi, parantu uski gati mein bhi ek chhand rahta tha. wo nritymagn nilkanth ki dahini or ke pankh ko chhuti hui bain or nikal aati thi aur bayen pankh ko sparsh kar dahini or. is prakar uski parikrama mein bhi ek purak taal parichay milta tha. nilkanth ne kaise samajh liya ki uska nritya mujhe bahut bhata hai, ye to nahin bataya ja sakta, parantu achanak ek din wo mere jalighar ke paas pahunchte hi apne jhule se utarkar niche aa gaya aur pankhon ka satrangi manDlakar chhata tankar nritya ki bhangima mein khaDa ho gaya. tab se ye nritya bhangima nitya ka kram ban gai. prayah mere saath koi na koi deshi videshi atithi bhi pahunch jata tha aur nilkanth ki mudra ko apne prati sammanpurvak samajhkar vismyabhibhut ho uthta tha. kai videshi mahilaon ne use ‘parfaikt jentilmain’ ki upadhi de Dali. jis nukili paini chonch se wo bhayankar vishadhar ko khanD khanD kar sakta tha, usi se meri hatheli par rakhe hue bhune chane aisi komalta se haule haule uthakar khata tha ki hansi bhi aati thi aur vismay bhi hota tha. phalon ke vrikshon se adhik use pushpit aur pallavit vriksh bhate the.
vasant mein jab aam ke vriksh sunahli manjariyon se lad jate the, ashok ne laal pallvon se Dhank jata tha, tab jalighar mein wo itna asthir ho uthta ki use bahar chhoD dena paDta.
nilkanth aur radha ki sabse priy ritu to varsha hi thi. meghon ke umaD aane se pahle hi ve hava mein uski sajal aahat pa lete the aur tab unki mand keka ki goonj anugunj teevr se tivrtar hoti hui mano bundon ke utarne ke liye sopan pankti banne lagti thi. megh ke garjan ke taal par hi uske tanmay nritya ka arambh hota. aur phir megh jitna adhik garajta, bijli jitni adhik chamakti bundon ki rimajhimahat jitni teevr hoti jati, nilkanth ke nritya ka veg utna hi adhik baDhta jata aur uski keka ka svar utna hi mandr se mandrtar hota jata. varsha ke tham jane par wo dahine panje par dahina pankh aur bayen par bayan pankh phailakar sukhata. kabhi kabhi ve donon ek dusre ke pankhon se tapaknevali bundon ko chonch se pi pikar pankhon ka gilapan door karte rahte. is anandotsav ki ragini mein bemel svar kaise baj utha, ye bhi ek karun katha hai.
ek din mujhe kisi karya se nakhaskone se nikalna paDa aur baDe miyan ne pahle ke saman kaar ko rok liya. is baar kisi pinjDe ki or nahin dekhungi, ye sankalp karke mainne baDe miyan ki viral daDhi aur safed Dore se kaan mein bandhi ainak ko hi apne dhyaan ka kendr banaya. par baDe miyan ke pairon ke paas jo morni paDi thi use andekha karna kathin tha. morni radha ke saman hi thi. uske moonj se bandhe donon panjon ki ungliyan tutkar is prakar ekatrit ho gai theen ki wo khaDi hi nahin ho sakti thi.
baDe miyan ki bhashan—mel phir dauDne lagi—dekhiye guru ji, kambakht chiDimar ne bechari ka kya haal kiya hai. aise kabhi chiDiya pakDi jati hai! aap na aai hotin to main usi ke sir par ise patak deta. par aapse bhi ye adhamri morni le jane ko kaise kahun!
saransh ye ki saat rupe dekar main use agli seet par rakhvakar ghar le aai aur ek baar phir mere paDhne likhne ka kamra aspatal bana. panjon ki marhampatti aur dekhbhal karne par wo mahinebhar mein achchhi ho gai. ungliyan vaisi hi teDhi meDhi rahin, parantu wo thoonth jaise panjon par Dagmagati hui chalne lagi. tab use jalighar mein pahunchaya gaya aur naam rakha gaya— kubja naam ke anurup wo svbhaav se bhi kubja hi prmanit hui. ab tak nilkanth aur radha saath rahte the. ab kubja unhen saath dekhte hi marne dauDti. chonch se maar markar usne radha ki kalgi noch Dali, pankh noch Dale. kathinai ye thi ki nilkanth usse door bhagta tha aur wo uske saath rahna chahti thi. na kisi jeev jantu se uski mitrata thi, na wo kisi ko nilkanth ke samip aane dena chahti thi. usi beech radha ne do anDe diye, jinko wo pankhon mein chhipaye baithi rahti thi. pata chalte hi kubja ne chonch maar markar radha ko Dhakel diya aur phir anDe phoDkar thoonth jaise pairon se sab or chhitra diye.
is kalah kolahal se aur usse bhi adhik radha ki nilkanth ki prasannata ka ant ho gaya.
kai baar wo jali ke ghar se nikal bhaga. ek baar kai din bhukha pyasa aam ki shakhaon mein chhipa baitha raha, jahan se bahut puchkarkar mainne utara. ek baar meri khiDki ke sheD par chhipa raha.
mere dana dene jane par wo sada ki bhanti pankhon ko manDlakar banakar khaDa ho jata tha, par uski chaal mein thakavat aur ankhon mein ek shunyata rahti thi. apni anubhavhinata ke karan hi main aasha karti rahi ki thoDe din baad sabmen mel ho jayega. ant mein teen chaar maas ke upraant ek din savere jakar dekha ki nilkanth poonchh pankh phailaye dharti par usi prakar baitha hua hai, jaise khargosh ke bachchon ko pankhon mein chhipakar baithta tha. mere pukarne par bhi uske na uthne par sandeh hua.
vastav mein nilkanth mar gaya tha. kyon ka uttar to ab tak nahin mil saka hai. na use koi bimari hui, na uske rang birange phulon ke stbak jaise sharir par kisi chot ka chihn mila. main apne shaal mein lapetkar use sangam le gai. jab ganga ki beech dhaar mein use prvahit kiya gaya, tab uske pankhon ki chandrikaon se bimbit pratibimbit hokar ganga ka chauDa paat ek vishal mayur ke saman tarangit ho utha. nilkanth ke na rahne par radha to nishchesht si kai din kone mein baithi rahi. wo kai baar bhagkar laut aaya tha, atः wo prtiksha ke bhaav se dvaar par drishti lagaye rahti thi. par kubja ne kolahal ke saath khoj DhoonDh arambh ki. khoj ke kram mein wo praayः jali ka darvaza khulte hi bahar nikal aati thi aur aam, ashok, kachnar aadi ki shakhaon mein nilkanth ko DhunDhati rahti thi. ek din aam se utri hi thi ki kajli (alseshiyan kutti) samne paD gai. svbhaav ke anusar usne kajli par bhi chonch se prahar kiya. parinamatः kajli ke do daant uski gardan par lag ge. is baar uska kalah kolahal aur dvesh prem bhara jivan bachaya na ja saka. parantu in teen pakshiyon ne mujhe pakshi prkriti ki vibhinnata ka jo parichay diya hai, wo mere liye vishesh mahattv rakhta hai.
radha ab prtiksha mein hi dukeli hai. ashaDh mein jab akash meghachchhann ho jata hai tab wo kabhi uunche jhule par aur kabhi ashok ki Daal par apni keka ko tivrtar karke nilkanth ko bulati rahti hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।