सन् 1930 मे नमक-सत्याग्रह करना था। प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने मझे पहला डिक्टेटर बनाया था। एक ओर स्वयंसेवकों की भर्ती हो रही थी, दूसरी ओर धन-संग्रह करना था। एक दिन सब स्वयंसेवकों की मीटिंग मैंने बुलाई। उनमें एक बहुत दुबला-पतला भद्दी-सी शक्ल का स्वयंसेवक मुझे दिखाई दिया। मुझे कुछ अरुचि-सी हुई।
पूछा—“ये भाई कहाँ से आए हैं?”
“बंगाली हैं, बड़े मेहनती हैं।”
मुझे कुछ संतोष नहीं हुआ।
सन् 1931 में जब सत्याग्रह स्थगित हुआ तो स्वयंसेवकों में से जो अच्छे और उपयोगी थे उन्हें छाँटकर काम में लगाने या अधिक शिक्षण देकर योग्य बनाने के सुझाव आए। उसमें सेवादास का नाम आया। मैंने जेल-जीवन की रिपोर्ट माँगी। उनके साथ वालों ने कहा—“दा साहब, यह बंगाली पूरा ‘सेवादास’ है। इन्हें ज़रूर रक्खें।” सेवादास कांग्रेस के विश्वसनीय स्वयंसेवकों में हो गए। कांग्रेस के जो ख़ास-ख़ास लोग उस समय थे उनके ‘स्व-जन’ जैसे बन गए। कुछ ही समय बाद मेरे परिवार में उनका प्रवेश हो गया। अब वे हमारे घर में व संस्थाओं में ‘बाबा’ के नाम से मशहूर हो गए हैं। उनकी ‘सेवा’ तो ज्यों-की-त्यों चालू है; पर उनका नाम ‘सेवादास’ लोगों को भूलता जा रहा है। ‘बाबा’ ही उनका सार्वजनिक नाम हो गया है।
कई सालों के बाद एक रोज़ मैंने ‘बाबा’ से उनके पूर्व जीवन का हाल पूछा। वे क्रांतिकारियों में थे, बाद को साधु हो गए और स्वराज्य के लिए जब महात्माजी ने सत्याग्रह का शंख फूँका तो कहीं से अजमेर आ गए। बंगाल में दुकानदारी करते थे—शायद मिठाइयों की दुकान थी।
‘बाबा’ बोलते कम हैं, काम ज़्यादा करते हैं। जब बोलने या व्याख्यान देने का मौक़ा आता है तो नपा-तुला बोलते हैं। पढ़े नाम-मात्र को हैं; परंतु घटनाओं व व्यक्तियों का अध्ययन अच्छा रखते व कर लेते हैं। हमारे कुटुंब का व संस्थाओं का भी कोई काम ऐसा नहीं, जिसके लिए ‘बाबा’ की ओर विश्वास की निगाह से हम न देखते हों। चाहे घर के बच्चों को संभालना हो, चाहे गाय-बछड़े को, चाहे खेती बाड़ी का काम हो, चाहे सौदा-सुलफ, चाहे आदमी जुटाना हो या गाँवों में प्रचार करना हो, बाबा सदा तैयार। खाने-पीने को जो भी मिल जाए, कभी शिकायत नहीं, वक़्त-बेवक़्त हो जाए तो परवा नहीं। सवारी हो या पैदल, दिन हो या रात—बाबा ‘ना’ कहना नहीं जानते। अपने लिए न कभी पैसे के लिए कहते हैं, न चीज़-वस्त्र को। उनकी ‘जीजी’ (मेरी धर्मपत्नी) उनका ध्यान रखके जो कुछ उनके लिए करे-धरे; पर उन्हें किसी बात की चाह-परवाह नहीं। ‘भजन’ का अलबत्ते शौक़ है। रात को सोते वक़्त जब काम-काज से थके होते हैं, हारमोनियम पर ज़ोर-ज़ोर से बंगाली ढंग से भजन गाकर अपनी थकान मिटा लेते है और आध्यात्मिक पोषण भी पा लेते हैं। कई बार सुबह भी उनके भजन सुने जाते हैं। लेकिन दूसरों की नींद में ख़लल पड़ने के डर से सुबह का कार्यक्रम प्रायः बंद रहता है। ज़रूरी काम के सिवा बाबा सुबह शाम की सामूहिक प्रार्थना में आना नहीं चूकते।
बाबा रोज़ अख़बार पढ़ते हैं, प्रधान-प्रधान घटनाओं पर दृष्टि रखते हैं। योग का अध्ययन व अभ्यास का शौक़ है। सादगी व तप के जीवन में आनंद मनाते हैं। जब किसी को सादगी, त्याग, तप से दूर या दूर जाते हुए देखते हैं तो उनकी आलोचना करके उन्हें चेताया भी करते हैं। व्यवहार-बुद्धि भी काफ़ी है। कांग्रेस में रहते हुए भी कांग्रेस की दलबंदियाँ उन्हें छू नहीं गईं। सभी दल के लोग जो उन्हें जानते हैं, समभाव से देखते हैं।
अपने आस-पास कुछ मित्र मैंने ऐसे चुन लिए हैं, जिनमें मैं देवत्व के दर्शन करना चाहता हूँ। सेवादास उनमें एक हैं। ‘विभूति’ को सब कोई प्रणाम करते हैं, ‘विभूति’ का दूसरा नाम है ‘विकसित अहंता’। परंतु जो अहंता को छोड़ देता है, अपने आपको भूल जाता है, अपने को सेवा या भगवान् में लीन कर देता है, उसकी प्रायः हम अवगणना करते हैं। ‘न-कुछ’, ‘निर्बल’ कहकर उसकी हँसी भी उड़ाते हैं। काम की विशालता की हम पूजा करते हैं, काम की शुद्धि व शुद्धता की कम क़द्र करते हैं। यही कारण है कि बड़े विद्वानों व कर्मवीरों की यशगाथाएँ सब गाते हैं; परंतु ‘सेवादासों’ की ओर स्नेह से देखने की भी फ़ुरसत हमें नहीं मिलती। हमारे इस मूल्यांकन का दोष हमें समझना चाहिए।
संत एकनाथ की कथा में आता है कि भगवान् ने श्रीखंडया बन कर बहुत दिनों तक एकनाथ की सेवा की। बाद को एक घटना से नाथजी को इसकी प्रतीति हुई। तबतक वे उसे अपना नौकर ही समझते रहे। मेरा भावुक मन भी कभी-कभी अपनी मूर्खता में यह ख़याल करने लगता है कि कहीं भगवान् ही तो ‘सेवादास’ के रूप में अपने यहाँ न रह रहा हो। ऐसा हो या न हो, इसमें कोई शक नहीं कि जहाँ शुद्धसेवा, सादगी, आत्मार्पण, निस्स्वार्थता है, वहाँ भगवान् का निवास अवश्य होता है।
हमारा यह आश्रम—गाँधी-आश्रम—ब्रिटिश सरकार की कृपा से कई बार उजड़ा व बसा। इन तमाम उतार-चढ़ावों में हमारा ‘बाबा नदी-किनारे के वृक्ष की तरह आश्रम का ‘साक्षी’ रहा। जब यह ‘श्मशान’ की तरह लगता था तब भी बाबा अकेला यहाँ धूनी रमाए बैठा रहा। अब जो आश्रम फिर से लहलहा रहा है, उसमें बाबा की तपस्या कम नहीं है।
- पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 181)
- संपादक : सत्यवती मलिक
- रचनाकार : हरिभाऊ उपाध्याय
- प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
- संस्करण : 1955
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