यारी साहब के दोहे
आठ पहर निरखत रहौ, सन्मुख सदा हज़ूर।
कह यारी घरहीं मिलै, काहे जाते दूर॥
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बाजत अनहद बाँसुरी, तिरबेनी के तीर।
राग छतीसो होइ रहे, गरजत गगन गंभीर॥
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दछिन दिसा मोर नइहरो, उत्तर पंथ ससुराल।
मानसरोवर ताल है, तहँ कामिनि करत सिंगार॥
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नैन आगे देखिये, तेज पुंज जगदीस।
बाहर भीतर रमि रह्यो, सो घरि राखो सीस॥
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रूप रेख बरनौं कहा, कोटि सूर परगास।
अगम अगोचर रूप है, पावै हरि को दास॥
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