तिल्लोपा का परिचय
जन्म :चटगाँव
तिल्लोपा का जन्म बिहार प्रांत में हुआ था। ये ब्राह्मण थे। समय इनका दसवीं शताब्दी माना गया है। इनके शिष्य सिद्धाचार्य नारोपा राजा महीपाल (974-1026 ई.) के समकालीन थे। सिद्ध तिल्लोपा या तिलोपाद का भिक्षुन्नाम प्रज्ञाभद्र था। कहते हैं, सिद्धचर्या में तिल कूटने के कारण इनका नाम तिलोपा पड गया था। इनके गुरु का नाम विजयपाद था जो कृष्णपा, कण्हपा या कृष्णापाद के शिष्य थे। वज्रयानी चौरासी सिद्धों मे तिल्लोपा एक ऊँचे सिद्ध माने जाते हैं। मगही हिन्दी में सिद्ध तिल्लोपा के चार ग्रंथ मिले हैं।
‘दोहाकोश’ में इनके 34 दोहे संकलित हैं, जिसका संपादन डॉ. प्रबोधचंद्र बागची ने किया है। इन दोहों की भाषा प्राचीन मगही हिन्दी है। सहज साधना को तिल्लोपाद की बानी में बड़ा महत्त्व दिया गया है। उन्होंने कहा है कि चित्त-शुद्वि का एकमात्र साधन सहज साधना ही है। अद्वैतवादियों की भाँति इन्होंने कहा भी है— “मैं जगत् हूँ, मैं बुद्ध हूँ और मैं ही निरंजन हूँ।" तीर्थ सेवन तथा तपोवन-वास को अन्य सिद्धों और संतों की तरह तिल्लोपा ने भी मोक्ष-लाभ का साधन नहीं माना है। देव-प्रतिमा के पूजन को भी इन्होंने निरर्थक बतलाया है। शून्य भावना का आनंद लेते हुए सिद्ध तिल्लोपा कहते हैं—
"हउ सुण जगु सुण तिहुअण सुण।
णिम्मल सहजे ण पाप ण पुण॥"
अर्थात् मैं भी शून्य हूँ, जगत् भी शून्य है, त्रिभुवन भी शून्य है। महासुख निर्मल सहज स्वरूप है, न वहाँ पाप है, न पुण्य।