श्रीधर पाठक के दोहे
चरन-चपल-धरनी-धरनि, फिरनि चारु-दृग-कोर।
सुगढ़ गठनि बैठनि उठनि, त्यों चितवनि चित चोर॥
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अनियारे आयत बड़े, कजरारे दोउ नैन।
अचक आय जिय में गड़े, काढ़ैं ढीठ कढ़ैं न॥
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सहज बंक-भ्रकुटी-फुरनि, बात करन की बेर।
मृदु निशंक बोलनि हँसनि, बसी आय जिय फेर॥
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रसना को रस ना मिलै, अनत अहो रसखान।
कान सुनैं नहिं आन गुन, नैन लखैं नहिं आन॥
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निहचै या संसार में, दुर्लभ साँचौ नेह।
नेह जहाँ साँचौ तहाँ, कहाँ प्रान कहाँ देह॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere