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शबरपा

780

आदि कवि। जन्म : 780 ई. के आस-पास। सरहपा के शिष्य। माया-मोह के विरोधी और सहज जीवन के साधक।

आदि कवि। जन्म : 780 ई. के आस-पास। सरहपा के शिष्य। माया-मोह के विरोधी और सहज जीवन के साधक।

शबरपा का परिचय

उपनाम : 'शबरपाद'

शबरपा सिद्ध साहित्य की रचना करने वाले चौरासी सिद्धों में से एक हैं। इनका जन्म 780 ई. में क्षत्रिय कुल में हुआ था। ये सरहपा के शिष्य थे। शबरों की तरह जीवन व्यतीत करने के कारण इन्हें शबरपा कहा जाने लगा। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चर्यापद’ है। ‘चर्या’ सिद्धों के धार्मिक अनुष्ठान में गाए जाने वाले गीतों को कहते हैं। ‘चर्यापद’ संधा भाषा-शैली के द्रष्टकूट में लिखे जाते हैं जिनके अर्थ दुहरे होते हैं। कुछ विद्वानों ने संध्या भाषा का अर्थ यह बताया है कि यह ऐसी भाषा है, जिसमें संध्या के समान प्रकाश तथा अंधकार का मिश्रण है, लेकिन ज्ञान के आलोक से उसकी सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। वहीं कुछ विद्वानों ने संध्या भाषा का अर्थ अभिसंधि या अभिप्राययुक्त वाणी बताया है। पंडित विधुशेखर शास्त्री ने बताया कि "मूल शब्द संध्या भाषा नहीं, बल्कि संधा भाषा रहा होगा।" सिद्धों के दोहों में मतों का खंडन-मंडन होता है और चर्यापदों में सिद्धों की अनुभूति और रहस्य-भावना प्रकट हुई है। सिद्धों का दोहा और चर्यापद संत-साहित्य में साखी और सबद में रूपांतरित हो गया। सिद्धों के चर्यापदों की भाषा उनके दोहों की तुलना में अपभ्रंश की रूढ़ियों से अधिक मुक्त होती हुई दिखायी पड़ती है।

शबरपा ने माया-मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल दिया तथा उसी को महासुख की प्राप्ति का मार्ग बताया। शबरपा वज्रयोगिनी साधना के प्रवर्तक भी बताये गये हैं। डॉ. धर्मवीर भारती ने अपने ग्रंथ ‘सिद्ध-साहित्य’ में इनके विषय में लिखा है कि “शबरपा को तारानाथ ने ‘नव-सरह’ नाम भी दिया है। ये सरह की शिष्य-परंपरा में तीसरे सिद्ध थे। सुम्प म्खन पो के अनुसार वे (भागल या) बंगाल देश के शबर थे। किंतु तारानाथ उन्हें पूर्वी भारत की किसी शबरपा नर्तक जाति का बताते हैं। नागार्जुन से दीक्षा लेकर वे श्रीपर्वत पर साधना करने चले गये थे। उनकी दो महामुद्राएँ थीं लोकी और गुनी, और वे दोनों के साथ रहते थे। दोनों बहनें थीं और उनका चर्यानाम डाकिनी पद्मावती तथा ज्ञानावती था। तारानाथ के वर्णन से यह भी संकेत मिलता है कि दोनों ही इनकी बहनें थीं और उन्हीं से महामुद्रा-साधना कर बाह्य रूप से शबरपा पापमय जीवन बिताते थे।”

एक अन्य स्थान पर यह भी उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अद्वनेत्र को शिक्षा दी थी जिसके कारण राहुल जी शबरपा नाम के दो सिद्ध मानते हैं। शबरपा के 16 ग्रंथ तजूर में प्राप्य हैं जिनमें से छह अपभ्रंश से अनूदित हैं।

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