रसखान के दोहे
प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम की फाँस।
प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस॥
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प्रेम हरी को रूप है, त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।
एक होइ द्वै यो लसै, ज्यौं सूरज अरु धूप॥
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अति सूक्षम कोमल अतिहि, अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥
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पै मिठास या मार के, रोम-रोम भरपूर।
मरत जियै झुकतौ थिरै, बनै सु चकनाचूर॥
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इक अगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।
गनै प्रियहि सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान॥
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मन लीनो प्यारे चितै, पै छटाँक नहिं देत।
यहै कहा पाटी पढ़ी, दल को पीछो लेत॥
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प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तौ, परै जगत क्यौं रोइ॥
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जोहन नंदकुमार कों, गई नंद के गेह।
मोहि देखि मुसिकाइ कै, बरस्यो मेह सनेह॥
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सास्रन पढि पंडित भए, कै मौलवी क़ुरान।
जुपै प्रेम जान्यौ नही, कहा कियौ रसखान॥
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मो मन मानिक लै गयो, चितै चोर नँदनंद।
अब बेमन मैं का करूँ, परी फेर के फंद॥
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स्याम सघन घन घेरि कै, रस बरस्यौ रसखानि।
भई दिवानी पान करि, प्रेम मद्य मनमानि॥
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मोहनछबि रसखानि लखि, अब दृग अपने नाहिं।
अँचे आवत धनुष से, छूटे सर से जाहिं॥
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ए सजनी लोनो लला, लह्यो नंद के गेह।
चितयो मृदु मुसिकाइ के, हरी सबै सुधि गेह॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere