नरपति नाल्ह का परिचय
नरपति नाल्ह पुरानी पश्चिमी राजस्थानी की एक सुप्रसिद्ध रचना 'बीसलदेव रासो' के कवि हैं। इनके वास्तविक नाम, जन्मस्थान और जन्मतिथि को लेकर स्पष्ट नहीं कहा जा सकता क्योंकि अपनी रचना में इन्होंने 'नरपति' और 'नाल्ह' दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। हो सकता है कि 'नरपति' इनकी उपाधि रही हो, और नाम 'नाल्ह'। नरपति नाम के तीन कवियों की चर्चा साहित्य के इतिहास में की गई है। एक जैन कवि सोलहवीं शताब्दी में हुआ है। अगरचंद नाहटा ने अनुमान किया है कि यह जैन नरपति ‘बीसलदेव रासो’ का कवि नहीं है, यह कवि नरपति नाल्ह के बाद का है। एक दूसरे नरपति का विवरण संवत् 1538 में भाण कवि रचित ‘हम्मीर दे चउपई' में आता है, जो हम्मीर देव का समकालीन है। इसके बारे में भी निश्चयात्मक रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि बीसलदेव रासो का रचयिता यही रहा है।
अस्तु, बीसलदेव रासो प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में लिखा गया शृंगार रस का एक गेय काव्य है। यह रचना केदार राग में गाये जाने के लिए एक भिन्न मात्रिक छंद में लिखी गयी है, जिसमें प्रायः छः चरण आये हैं। माताप्रसाद गुप्त ने इसका संपादन किया है। उनके अनुसार बीसलदेव रासो की कथा यह है—
राजा भोज की कन्या राजमती से बीसलदेव का विवाह होता है। बीसल को अपने राज्य की समृद्धि पर अभिमान है जिसे वह राजमती के सामने बार-बार प्रकट करता रहता है। एक दिन राजमती कहती है कि उसे अभिमान न करना चाहिए क्योंकि इस धरती पर एक से बढ़कर एक राजा और वैभवशील राज्य हैं, जिनमें से एक तो उड़ीसा का ही राजा है, जिसके राज्य में उसी प्रकार खानों से हीरे निकलते हैं, जिस प्रकार सांभर की झील से नमक निकलता है। बीसलदेव के अभिमान को चोट पहुँचती है और वह हीरे लाने के लिए उड़ीसा चला जाता है और वहाँ के राजा की नौकरी करने लगता है। बारह वर्ष बीत जाने पर व्यथित राजमती एक ब्राह्मण को उड़ीसा भेजती है। राजा बीसल बहुत सी रत्नराशि लेकर घर आता है और राजमती से मिलता है। यहीं पर कथा समाप्त होती है। कथा में ऐतिहासिकता की रक्षा बिलकुल नहीं हुई है। अजमेर के राजाओं में चार बीसलदेव (विग्रह राज) हुए हैं। तीसरे बीसलदेव की रानी का नाम राजदेवी था। इनका समय 1093 ई. के लगभग पड़ता है, और भोज सन् 1055 ई. लगभग वर्तमान थे; किंतु राजमती भोज की कन्या थी, इस विषय में कोई अन्य साक्ष्य हमें प्राप्त नहीं है। बीसलदेव तृतीय की पूर्व-यात्रा के भी कोई साक्ष्य नहीं हैं। वह अपने समय का एक प्रतापी शासक था, ऐसे में किसी की नौकरी करना किसी भी इतिहास लेखक को असंभव जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में यह मानना अधिक सरल है कि कथा के पात्र ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, जबकि कथा काल्पनिक है। माताप्रसाद गुप्त ने इस रचना का समय सन् 1343 ई. के आस-पास स्थिर किया है। रचना की भाषा-शैली भी इसका समर्थन करती है।
इस रचना में अन्य रासो काव्य की तरह छंद वैविध्य नहीं है बल्कि इसमें प्रयुक्त छंद मात्र तीन प्रकार की कड़ियों से बना है। पूरी रचना गेय है, जबकि अन्य रासो ग्रंथ प्रायः पाठ्य हैं, केवल बीच-बीच में कुछ गान आ जाते हैं। काव्य की दृष्टि से लोककाव्य के तत्त्व इसमें प्रचुर परिमाण में हैं। रचना शृंगार-रस की है, जिसमें विरह का पक्ष अधिक विकसित हुआ है। विरह-दशा में राजमती का जो बारहमासा है, वह ललित है साथ ही मिलन की स्थिति का भी कवि ने सरस वर्णन किया है।