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मलिक मोहम्मद जायसी

1467 - 1542

भक्ति-काव्य की निर्गुण धारा के अंतर्गत समाहित सूफ़ी काव्य के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि। ‘पद्मावत’ कीर्ति का आधार-ग्रंथ।

भक्ति-काव्य की निर्गुण धारा के अंतर्गत समाहित सूफ़ी काव्य के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि। ‘पद्मावत’ कीर्ति का आधार-ग्रंथ।

मलिक मोहम्मद जायसी का परिचय

मूल नाम : मलिक मोहम्मद जायसी

ये जायस नगर के निवासी थे—“जायस नगर मोर अस्थानू।" जायसी की किसी उपलब्ध रचना के अन्तर्गत उसकी निश्चित जन्म तिथि अथवा जन्म-संवत का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं पाया जाता। 'पद्मावत' का रचनाकाल उन्होंने 947 हिजरी (सन् नौ से सैंतालीस अहै, पद्मावत) अर्थात् 1540 ई. बतलाया है। 'पद्मावत' में उन्होंने सुलतान शेरशाह सूरी (सन् 1540-45 ई.) तथा ‘आख़िरी कलाम' में मुग़ल बादशाह बाबर (सन् 1526-30 ई.) के नाम शाहे वक़्त के रूप में अवश्य लिए हैं और उनकी प्रशंसा भी की है, जिससे सूचित होता है कि वे उनके समकालीन थे।

जायसी ने 'पद्मावत' में अपने चार मित्रों की चर्चा की है, जिनमें से युसुफ़ मलिक को 'पण्डित और ज्ञानी' कहा है, सालार एवं मियां सलोने की युद्ध-प्रियता एवं वीरता का उल्लेख किया है तथा बड़े शेख को भारी सिद्ध कहकर स्मरण किया है और कहा है कि ये चारों मित्र उनसे मिलकर एक चिह्न हो गये थे, परन्तु उनके पूर्वजों एवं वंशजों की भांति इन लोगों का भी कोई प्रामाणिक परिचय उपलब्ध नहीं है।

जायसी ने अपनी कुछ रचनाओं में अपनी गुरु-परम्परा का भी उल्लेख किया है। उनका कहना है, "सैयद अशरफ़, जो एक प्रिय सन्त थे; मेरे लिए उज्जवल पंथ के प्रदर्शक बने और उन्होंने प्रेम का दीपक जलाकर मेरा हृदय निर्मल कर दिया।" ‘आख़िरी कलाम’ नामक रचना में भी उन्होंने सैयद अशरफ़ का नाम लगभग इसी प्रकार लिया है तथा अपने को उनके घर का मुरीद बतलाया है। 'अखरावट’ से भी सूचित होता है कि इन्हीं गुरु के द्वारा निर्दिष्ट 'शरीअत' की शिक्षा ग्रहण कर वे 'नाव पर चढ़े' थे; परन्तु सैयद अशरफ़ जहाँगीर चिश्ती, जो 'शिमनानी' नाम से भी प्रसिद्ध हैं और जिनका निवास स्थान फैजाबाद बताया जाता है, सम्भवतः सन् 1401 ई. में ही मर चुके थे। अतः उनके द्वारा जायसी का 'चेला' बनाया जाना सम्भव नहीं जान पड़ता। जायसी ने अपने 'मोहदी' या महदी गुरु शेख बुरहान का भी उल्लेख किया है और कहा है कि ‘वे ही मेरे गुरु हैं और मैं उनका चेला हूँ। उन्होंने अपना हाथ मेरे सिर पर रखकर मेरा पाप धो दिया है और प्रेम के प्याले को स्वयं चखकर उसकी बूँद मुझे भी चखा दी है।‘ अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ये अमेठी के ही निकट किसी मैंगरा नाम के घने जंगल में रहकर अपनी साधना किया करते थे और कहा जाता है कि वहीं रहते समय इन्हें किसी ने शेर की आवाज के धोखे में आकर गोली मार दी और इस प्रकार इनका देहान्त हो गया।

जायसी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं: (1) 'पद्मावत', (2) 'अखरावट', (3) 'आख़िरी कलाम', (4) 'महरी बाईसी', (5) चित्रावत', (6) ‘कन्हावत’ और (7) 'पोस्तीनामा'। इनमें से प्रथम तीन पहले प्रकाशित हो चुकी थीं। 'चित्रावत' किसी लोकगाथा पर आधृत है। 'अखरावट' में कतिपय सूफ़ी सिद्धान्तों का वर्णन पाया जाता है और 'अखिरी कलाम' द्वारा उस पुनरुत्थान के समय का एक चित्रण प्रस्तुत करने की चेष्टा की गयी है, जो इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार सृष्टि के अन्त में होने वाला है। ‘कन्हावत’ में कृष्णकथा है। इसी प्रकार 'महरी बाईसी' के अन्तर्गत चेतावनी और उपदेश आते हैं तथा अप्रकाशित रचनाओं में से 'पोस्तीनामा' में अफ़ीमचियों का खाका खींचा गया है।

'पद्मावत' के समय तक इस प्रकार के काव्य-साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हो पाया था और इसके आदर्श केवल इने-गिने ही थे। जायसी ने इस रचना शैली की नवीन धारा को अपनाकर बहुत बड़ी सफलता दिखलायी और एक ऐसी सुन्दर कृति प्रस्तुत की, जो आगे के लिए नमूना बन गयी। 'पद्मावत' की सर्वप्रथम उल्लेखनीय चर्चा फ्रेंच लेखक 'गार्सां द तासी' ने अपनी पुस्तक 'इस्त्वार द लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐ ऐन्दुस्तानी' के द्वितीय भाग में की थी। 'पदमावत' ठेठ अवधी में लिखी गयी है और उसमें उसके रचनाकाल के स्वाभाविक बोल-चाल के उदाहरण मिलते हैं। उसकी भाषा में न तो तत्समों के प्रति कोई आग्रह दीख पड़ता है और न इसके अलंकरण का ही कोई प्रयास लक्षित होता है। सारी बातें सीधे-सादे ढंग से कही गयी प्रतीत होती हैं और गूढ़ से गूढ़ विषयों का प्रतिपादन सरलता के साथ किया गया मिलता है। इसकी भाषा की एक विशेषता यह भी कही जा सकती है कि इसमें प्रचलित सूक्तियों, लोकोक्तियों, मुहावरों तथा कहावतों तक के प्रयोग यथास्थल बड़े सुन्दर ढंग से किये गये दीख पड़ते हैं और इनके कारण वह पूर्णरूप से समृद्ध और सशक्त बन गयी है। पूरी रचना दोहों-चौपाइयों में लिखी गयी है और उसमें प्रायः सर्वत्र सात अर्धालियों के अनन्तर दोहे का प्रयोग किया गया है। यह फ़ारसी की मसनवी शैली से भी बहुत कुछ मिलती-जुलती है, जिस कारण इसे अधिकतर अन्य अनेक सूफी प्रेमाख्यानों के रचयिताओं ने भी अपनाया है। 'पद्मावत' के प्रत्येक शीर्षक को 'खण्ड' का नाम दिया है। ये खण्ड 'स्तुति खण्ड' से आरम्भ होकर 'उपसंहार खण्ड' तक समाप्त होते हैं और इनकी कुल संख्या 58 तक पहुँचती है। प्रेमाख्यान की कथा केवल 25 वें से लेकर 651 वें अंशों तक चलती है और प्रथम 24 अंशों तक, जो उक्त 'स्तुति खण्ड' के अन्तर्गत आते हैं जो क्रमशः परमात्मा की स्तुति, मुहम्मद और उनके चार 'मीत' की प्रशंसा, शाहे वक्त शेरशाह की महत्ता तथा कवि के पीर एवं गुरु का परिचयात्मक संकेत भी मिलता है, जो संक्षिप्त होता हुआ भी अपना विशेष महत्व रखता है। 24 वें अंश में 'पद्मावत' का रचनाकाल दिया गया है तथा इसी प्रकार आगे आने वाली कथा का सूत्र-रूप में निर्देश भी कर दिया गया है और उसके दो अन्तिम अंशों द्वारा कवि ने पूरी कहानी एवं अपनी वृद्धावस्थाजन्य दयनीय दशा पर भी प्रकाश डाला है। 'उपसंहार खण्ड' में कहानी की आध्यात्मिक ढंग से की गयी व्याख्या है किन्तु इसके प्रामाणिक संस्करणों में उसे निकाल दिया गया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनके विषय में चर्चा करते हुए ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में लिखा है कि ”कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया वह अधिकतर चिढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम-कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन-दशाओं का सामने रखा जिनका मनुष्य मात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिंदू-हृदय और मुसलमान-हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियाँ हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।“ आचार्य शुक्ल ने नागमती के वियोग-वर्णन की भी बहुत प्रशंसा की है। जायसी के सूफ़ी होने को लेकर विवाद है। इस संबंध में विजयदेव नारायण साही की स्थापनाएँ ख़ासा चर्चित हुईं। उन्होंने जायसी को शुद्ध कवि माना है, सूफ़ी नहीं।

बच्चन सिंह ने इनकी भाषा के बारे में लिखा है कि “जायसी की अवधी ‘अवधी की अरघान’ है। जायसी का जो भी कुछ पढ़िए,अवधी की रस-गंध ज़रूर मिलेगी। जायसी की भाषा ठेठ अवधी है तो तुलसी की संस्कृतनिष्ठ। यह अंतर दोनों की विषय वस्तु में भी है। एक में लोककथा है इसलिए लोकभाषा, दूसरे में क्लासिकल कथा है इसलिए संस्कृतनिष्ठ भाषा।”

जायसी के कृतित्व से प्रभावित होकर डॉ. बच्चनसिंह ने यहाँ तक कह दिया है कि “सूफ़ी काव्य में एक ही कवि है जायसी, शेष लकीर के फकीर हैं।”

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