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केशवदास

1555 - 1617 | ओरछा, मध्य प्रदेश

भक्तिकाल और रीतिकाल के संधि कवि। काव्यांग निरूपण, उक्ति-वैचित्र्य और अलंकारप्रियता के लिए स्मरणीय। काव्य- संसार में ‘कठिन काव्य के प्रेत’ के रूप में प्रसिद्ध।

भक्तिकाल और रीतिकाल के संधि कवि। काव्यांग निरूपण, उक्ति-वैचित्र्य और अलंकारप्रियता के लिए स्मरणीय। काव्य- संसार में ‘कठिन काव्य के प्रेत’ के रूप में प्रसिद्ध।

केशवदास का परिचय

केशवदास का समय भक्ति-काल के अन्तर्गत पड़ता है, पर इनके अपनी रचनाओं में पूर्णत: शास्त्रीय तथा रीतिबद्ध होने के कारण हिंदी कविता के आचार्य कवि माने जाते हैं। शिवसिंह सेंगर तथा ग्रियर्सन द्वारा उल्लिखित क्रमशः सन् 1567 ई. तथा 1580 ई. इनका कविताकाल है, जन्मकाल नहीं। 'मिश्रबन्धुविनोद' प्रथम भाग में 1555 ई. तथा 'हिन्दी नवरत्न' में 1551 ई. में अनुमानित जन्मकाल रामचन्द्र शुक्ल ने 1555 ई. जन्मकाल माना है। लाला भगवानदीन इनकी वंशपरंपरा में मान्य जन्मतिथि 1559 ई. के चैत्र मास की रामनवमी की पुष्टि करते हैं। ओरछा में इनका जन्म हुआ था। मिश्रबन्धु और रामचन्द्र शुक्ल 1617 ई. में तथा लाला भगवानदीन और 1623 ई. में इनका निधन मानते हैं। तुलसीदास द्वारा केशव के प्रेत-योनि से उद्धार किये जाने की किंवन्दती के आधार पर इनका निधन सन् 1623 ई. के पूर्व ठहरता है। इनकी अन्तिम रचना 'जहाँगीरजसचन्द्रिका' का रचनाकाल 1612 ई. है। जिसमें इन्होंने वृद्धावस्था का मार्मिक वर्णन किया है। अतः 1561 ई. में इनका जन्म हुआ तो मृत्यु सन् 1621 ई. के निकट तक जा सकती हैं। केशवदास ने 'कविप्रिया में अपना वंशपरिचय विस्तार से दिया है।

ओरछा के राजा इन्द्रजीत सिंह इनके प्रधान आश्रयदाता थे। वीरसिंहदेव का आश्रय भी इन्हें प्राप्त था। तत्कालीन जिन विशिष्ट जनों से इनका घनिष्ट परिचय था, उनमें अकबर, बीरबल, टोडरमल और उदयपुर के राणा अमरसिंह का भी नाम लिया जाता है। तुलसीदासजी से इनका साक्षात्कार महाराज इन्द्रजीत के साथ काशी यात्रा के समय सम्भव है। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी ये पूरे आस्तिक थे। ये व्यवहारकुशल, वाग्विदग्ध और विनोदी थे। अपने पाण्डित्य का इन्हें अभिमान था। नीति-निपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। साहित्य और संगीत, धर्मशास्त्र और राजनीति, ज्योतिष और वैद्यक सभी विषयों का इन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था। केशवदास की प्राप्य प्रमाणिक रचनाएँ रचनाक्रम के अनुसार ये हैं-'रसिकप्रिया' (1591 ई.), 'कविप्रिया' और 'रामचन्द्रिका' (1601 ई.), 'वीरचरित्र' या 'वीरसिंहदेव चरित्र' (1606 ई.), "विज्ञानगीता' (1610 ई.) और जहाँगीरजसचन्द्रिका' (1612 ई.)

'रतनबावनी' का रचनाकाल अज्ञात है, पर यह इनकी सर्वप्रथम रचना है। नखशिख, शिखनख और बारहमासा पहले 'कविप्रिया' के ही अन्तर्गत थे। आगे चलकर ये प्रथक प्रचारित हुए। सम्भव है इनकी रचना 'कविप्रिया' के पूर्व ही हुई हो और बाद में इन सबका या किसी का उसमें समावेश किया गया हो! 'छन्दमाला' का रचनाकाल भी अज्ञात है। 'रामअलंकृतमंजरी' ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। लाला भगवानदीन इसे अलंकार का तथा अन्य कुछ विद्वानों ने छन्दशास्त्र का ग्रन्थ अनुमित किया है। 'जैमुनि की कथा', 'बालचरित्र', 'हनुमानजन्मलीला', 'रसललित' और 'अमीघूँट' नामक रचनाएँ प्रसिद्ध कवि केशव द्वारा प्रणीत नहीं हैं। 'रसिकप्रिया' में नायिकाभेद और रस का निरूपण है। रसास्वादियों के लिए निर्मित होने के कारण इसमें उदाहरणों पर विशेष दृष्टि है। 'कविप्रिया' कविशिक्षा की पुस्तक है, इसलिए इसमे शास्त्रप्रवाह और जनप्रवाह के अतिरिक्त विदेशी साहित्यप्रवाह का भी नियोजन है। 'रामचन्द्रिका' में रामकथा वर्णित है। 'छन्दमाला' में दो खण्ड हैं । पहले में वर्णवृत्तों का और दूसरे में मात्रावृत्तों का विचार किया गया है तथा उदाहरण अधिकतर 'रामचन्द्रिका' से ही रखे गये हैं। 'वीरचरित्र' में वीरसिंह देव का चरित्र चित्रित है। संस्कृत के 'प्रबोधचन्द्रोदय नाटक' के आधार पर 'विज्ञानगीता' निर्मित हुई। 'जहाँगीरजसचन्द्रिका में जहाँगीर के दरबार का वर्णन है। 'रतनबावनी' में रत्नसेन के वीरोत्साह का वर्णन है। ‘केशव ग्रन्थावली’ के रूप में केशव के सभी प्रामाणिक ग्रन्थ विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित होकर हिन्दुस्तानी अकादमी, प्रयाग से सन् 1959 में प्रकाशित कर दिये गये हैं।

केशवदास ने लक्षण-ग्रन्थ ही नहीं, लक्ष्य-ग्रन्थ भी लिखे हैं। शृंगार की ही नहीं, अन्य रसों की भी रचनाएँ की हैं। मुक्तक ही नहीं, प्रबन्ध भी प्रणीत किये हैं। इनके लक्षण-ग्रन्थ तीन हैं-'रसिकप्रिया', 'कविप्रिया', और 'छंदमाला'। 'रसिकप्रिया' का आधार ग्रन्थ रूद्रभट्ट का 'शृंगारतिलक' है। इन्होंने उसमें कुछ बातें 'कामतन्त्र' की भी जोड़ दी हैं। केशव ने 'काव्यकल्पलतावृत्ति', 'काव्यादर्श' आदि के आधार पर कविशिक्षा की पुस्तक 'कविप्रिया' प्रस्तुत की। 'छन्दमाला' का आधार संस्कृत के 'वृत्तरत्नाकर' आदि पिंगलग्रन्थ ही हैं। इसमें लक्षण देने की प्रणाली केशव ने अपनी रखी है। वस्तुतः इस क्षेत्र में केशव ने कोई नयी उद्भावना नहीं की है।

केशव के लक्ष्य-ग्रन्थों में पूर्ण अवधानता नहीं दिखायी देती। इनके प्रसिद्ध महाकाव्य 'रामचन्द्रिका' में कथा के क्रमबद्ध रूप और अवसर के अनुकूल विस्तार-संकोच का अपेक्षित ध्यान नहीं रखा गया है। ये वस्तुतः दरबारी जीव थे इसलिए इसमें दरबार के अनुकूल बातों का ही वर्णन विस्तार से किया गया है। 'रामचन्द्रिका' के छन्दों का परिवर्तन इतना शीघ्र और इतने अधिक रूपों में किया गया है कि प्रवाह आ ही नहीं पाता। केशव ने इसमें नाटयतत्त्व का अच्छा नियोजन किया है, जिससे यह लीला के उपयुक्त हो गयी है। 'वीरचरित्र' प्रबन्ध होते हुए भी इसमें प्रबन्ध के गुण नहीं पाये जाते। 'जहाँगीरजसचन्द्रिका' प्रशस्ति-काव्य है। चमत्कार के चक्कर में अधिक रहने से इनकी रचनाओं में भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष प्रधान हो गया है। केशव ने अपने ग्रन्थ ब्रज में लिखे हैं। कुछ शब्द और प्रयोग बुन्देली के भी आ गये हैं। 'रामचन्द्रिका' और 'विज्ञानगीता' में, संस्कृत प्रभाव अधिक है। केशव की दुरूहता का कारण संस्कृत के प्रयोगों या शब्दों का हिन्दी में रखना है। 'रसिकप्रिया' में इन्होंने हिन्दी-काव्य-प्रवाह के अनुरूप सशक्त, समर्थ और प्रांजल भाषा रखी है। उसमें ब्रज का पूर्ण वैभव दिखाई देता है। 'रतनबावनी' की भाषा में पुरानापन अधिक है।

केशव की रचना में इनके तीन रूप दिखाई देते हैं- आचार्य का, महाकवि का और इतिहासकार का। ये परमार्थतः हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं। आचार्य का आसन् ग्रहण करने पर इन्हें संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिन्दी में प्रचलित करने की चिन्ता हुई जो जीवन के अन्त तक बनी रही। इन्होंने ही हिन्दी में संस्कृत की परम्परा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी। आधुनिक युग के पूर्व तक उसका अनुगमन होता आया है। इनके पहले भी रीतिग्रन्थ लिखे गये, पर व्यवस्थित और सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ सबसे पहले इन्होंने ही प्रस्तुत किये। ‘कविप्रिया’ से हिन्दी की सारी परम्परा प्रभावित हुई। बिहारी ने इनसे भाव, रूपक आदि ग्रहण किये तथा देव ने उपमा और उक्ति तक लेने में संकोच नहीं किया। रचनाकार-व्यक्तित्व की समृद्धि की दृष्टि से डॉ. नगेन्द्र ने केशवदास को रीतिकाल का प्रस्तोता स्वीकार किया है। संवादों में इनकी उक्तियाँ विशेष मार्मिक हैं, पर प्रबन्ध के बीच अनावश्यक उपदेशात्मक प्रसंगों का नियोजन उसके वैशिष्ट्य में व्यवधान उपस्थित करता है। इनके प्रशस्ति काव्यों में इतिहास की प्रचुर सामग्री भरी है। ओड़छा राज्य का विस्तृत इतिहास प्रस्तुत करने में वे बड़े सहायक सिद्ध हो सकते हैं। सुरति मिश्र और सरदार कवि ने इनकी कृतियों की टीकाएँ लिखीं। यह इस बात का प्रमाण है कि इनके काव्य का मनन करनेवालों की संख्या पर्याप्त थी।

'कवि को देन चहै बिदाई, पूछे केसव की कविताई’ उक्ति इसका प्रमाण है। इनकी रचनाओं के अर्थ की कठिनाई का अर्थ लगाया गया कि इनकी कविता में 'रस' नहीं, सहृदयता नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने केशव की कविता के संबंध में विचार करते हुए कहा है कि ‘केशव को कवि-हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता भी न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचना कौशल की धाक जमाना चाहते थे पर इस कार्य में में सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए वैसा उन्हें प्राप्त न था।’ इनके हृदय में प्रकृति के प्रति उतना राग नहीं था जितना कवि के लिये अपेक्षित है। प्रसंग-कल्पनाशक्ति-सम्पन्न तथा काव्य-भाषा-प्रवीण होने पर भी केशव पाण्डित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण नहीं कर सके, अन्यथा ये 'कठिन काव्य के प्रेत' होने से बच जाते।

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