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मध्यकालीन भक्ति-साहित्य की निर्गुण धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) के अत्यंत महत्त्वपूर्ण और विद्रोही संत-कवि।

मध्यकालीन भक्ति-साहित्य की निर्गुण धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) के अत्यंत महत्त्वपूर्ण और विद्रोही संत-कवि।

कबीर का परिचय

 

उत्तर भारत में भक्ति-आंदोलन का सूत्रपात वैष्णव आचार्यों की प्रेरणा से हुआ। यह भक्ति आंदोलन केवल सिद्धांतों की मंजूषा में ही बंद रह जाता यदि इसे जनकवियों की वाणी प्राप्त न होती। इन कवियों ने तत्कालीन जन-भाषाओं में भक्ति की किरणों का आलोक विकीर्ण कर जन-जन के मानस को पवित्र कर दिया। ऐसे जन-कवियों में पहला नाम कबीर का ही है। कबीर का आविर्भाव विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। उनका जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार सम्वत् 1455 (सन् 1398 ई.) को सिद्ध होता है। अनंतदास रचित 'श्री कबीर साहबजी की परचई’ का समय विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध संवत् 1657 (सन् 1600 ई.) ही माना जाता है। कबीर के बारे में इसका सार है कि “कबीर जुलाहे थे और वे काशी में निवास करते थे। वे गुरु रामानंद के शिष्य थे। बघेल राजा वीरसिंह देव कबीर के समकालीन थे। सिकन्दरशाह का काशी में आगमन हुआ था और उन्होंने कबीर पर अत्याचार किये थे। कबीर ने 120 वर्ष की आयु पायी थी।“ इनमें कुछ संकेतों के सम्बन्ध में शकाएँ हो सकती हैं। अनंतदासजी ने कबीर की जन्मतिथि नहीं दी है किंतु 'पीपाजीकी वाणी' में कबीर की प्रशंसा में एक पद आता है :

"जो कलि माँझ कबीर न होते।
तो ले वेद अरु कलियुग मिलि करि भगति रसातल देते।“

पीपा का जन्म सन् 1425 (संवत् 1482) में हुआ था। पीपा ने कबीर की प्रशंसा मुक्तकंठ से की है। इससे यह सिद्ध होता है कि या तो कबीर पीपा से पहले हो चुके होंगे अथवा कबीर ने पीपा के जन्म-काल में ही यथेष्ट ख्याति प्राप्त कर ली होगी।

‘भक्तमाल’ के अनुसार पीपा रामानंद के शिष्य थे अतः कबीर भी रामानंद के संपर्क में आ सकते हैं। इतना तो स्पष्ट ही है कि कबीर सन् 1425 के पूर्व ही हुए होंगे। अतः यह कहा जा सकता है कि कबीर का जन्म 'कबीर चरित्र बोध' के अनुसार संवत् 1455 में होना अधिक संभव है जो गणना के अनुसार भी ठीक बैठता है। बील, फर्कुहर, हण्टर, ब्रिग्स, मेकालिफ, स्मिथ, भण्डारकर और ईश्वरी प्रसाद आदि इतिहास-लेखक कबीर और सिकंदर लोदी को समकालीन ही मानते हैं। सिकंदर लोदी कट्टर मुसलमान था जिसका इतिहास मंदिर गिराने और मूर्ति तोड़ने की घटनाओं से परिपूर्ण है। कबीर की वाणी में हिंदू विचारधारा का प्राधान्य होने के कारण लोदी ने कबीर को अनेक प्रकार के दंड दिए होंगे जिनका संकेत अंतःसाक्ष्य से भी मिलता है। जनश्रुति से वे 1575 में मगहर गए और वहाँ उनकी मृत्यु हुई होगी। मगहर जाने पर भी कबीर उसकी क्रूर दृष्टि से न बच सके होंगे। सिकंदर लोदी का पूर्वी प्रदेशों पर आक्रमण सं. 1551 में हुआ है। उसी समय उनकी मृत्यु हुई होगी।

कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्रांतियाँ अपने चरम शिखर पर थीं। राजनीतिक परिस्थितियों में कोई स्थिरता नहीं थी। न तो राजवंशों में कोई स्थिरता थी और न उनकी नीति ही निश्चित थी। किसी समय भी राज-परिवर्तन की संभावना हो सकती थी और जनता पर उसका मनमाना अत्याचार चल सकता था। यही कारण है कि सामान्य जनता में राजवंश और राजनीति के प्रति कोई आस्था नहीं थी। उस समय तो लोदी वंश की कट्टर राजनीति थी, जिससे जनता में भय और आतंक था। धार्मिक परिस्थितियों में अनेक मतवाद थे। पूर्ववर्ती नाथ संप्रदाय की धारा तो हिंदू और मुसलमानों में समान रूप से चल रही थी। इसी प्रकार मुसलमानों का सूफ़ी धर्म भी समान रूप से गृहीत था। वेदान्त के अद्वैत का पर्याप्त प्रचार था। इसके साथ रामानंद का भक्ति आंदोलन राम और कृष्ण के अनंत नामों के साथ जन-जन के मानस में बसने जा रहा था। दक्षिण के संतों ने अपने पर्यटन के साथ निर्गुण ब्रह्म की सेवा विट्ठल के नाम से प्रचारित की थी। इस प्रकार धार्मिक परिस्थितियाँ अपने विविध प्रकार के विश्वासों के साथ बल संग्रह कर रही थी। सामाजिक परिस्थितियाँ वर्णाश्रम धर्म के कारण धीरे-धीरे विच्छिन्न हो रही थीं। ब्राह्मण और शुद्रों में मनोमालिन्य बढ़ रहा था। इसी के साथ मुसलमान शासकों के शासन में मुसलमानों की महत्-ग्रंथि बढ़ रही थी जिससे हिन्दू और मुसलमानों मे दिनों-दिन विद्वेष बढ़ रहा था। जाति का आधार प्रत्येक स्थल में कर्मकांड बनता जा रहा था और बाहरी वेश और आचार की विविधा ही सामाजिक स्तर का मूल्यांकन कर रही थी। कबीर का आविर्भाव जैसे इन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों का एक आग्रहपूर्ण आमंत्रण था और कबीर ने धर्म और समाज के संघटन के लिए समस्त बाह्याचारों का अंत करने और प्रेम से समान धरातल पर रहने का एक सर्वमान्य सिद्धांत प्रतिपादित किया।

परंपराओं के उचित संचयन तथा परिस्थितियों की प्रेरणा में कबीर ने ऐसे विश्व-धर्म की स्थापना की जो जन-जीवन की व्यावहारिकता में उतर सके और अन्य धर्मों के प्रसार में समानांतर बहते हुए अपना रूप सुरक्षित रख सके। वह रूप सहज और स्वाभाविक हो तथा अपनी विचारधारा में सत्य से इतना प्रखर हो कि विविध वर्ग और विचारवाले व्यक्ति अधिक-से-अधिक संख्या में उसे स्वीकार कर सकें और अपने जीवन का अंग बना लें। कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था। उन्होंने अद्वैत से तो इतना ग्रहण किया कि ब्रह्म एक है, द्वितीय नहीं। जो कुछ भी दृश्यमान है, वह माया है, मिथ्या है और उन्होंने माया का मानवीकरण कर उसे कंचन और कामिनी का पर्याय माना और सूफ़ीमत के शैतान की भाँति पथभ्रष्ट करनेवाली समझा। उनका ईश्वर एक है जो निर्गुण और सगुण के भी परे है, वह निर्विकार है, अरूप है। उसे मूर्ति और अवतार में सीमित करना ब्रह्म की सर्वव्यापकता का निषेध करना है। इस निराकार ब्रह्म की उपासना योग और भक्ति से की जा सकती है। इनमें भी भक्ति महत्तर है। भक्ति के लिए किसी व्यक्तित्व की अपेक्षा है। इस व्यक्तित्व को अवतार में प्रतिष्ठित न कर कबीर ने प्रतीकों में स्थापित किया। उन्होंने ब्रह्म से अपना मानसिक संबंध जोड़ा। ब्रह्म गुरु, राजा, पिता, माता, स्वामी, मित्र और पति के रूप में है। पति का रूप मानने पर आत्मा उसकी प्रेयसी बन जाती है। इसी प्रियतम और प्रेयसी के संबंध में जो दांपत्य प्रेम लक्षित हुआ है, उसी में कबीर के रहस्यवाद की सृष्टि हुई। उनकी मानसिक भक्ति में न तो किसी कर्मकांड की आवश्यकता है न मूर्ति और अवतार की। यह बात दूसरी है कि कबीर ने अपने ब्रह्म के लिए अवतारवादी नाम भी स्वीकार किए हैं, क्योंकि ब्रह्म के नाम अनंत हैं :

"हरि मोरा पीव भाई हरि मोरा पीव।
हरि बिन रहि न सके मोरा जीव।“

कबीर का व्यक्तित्व और निर्द्वन्द्व दृष्टिकोण इतना प्रभावशाली था कि उनके विचारों के आधार पर एक संप्रदाय चल पड़ा जिसे संत संप्रदाय की संज्ञा मिली। इस संप्रदाय में अनेक कवि हुए—दादू, सुन्दरदास, गरीबदास, चरनदास आदि। कबीर की भाषा पूरबी जनपद की भाषा थी। यह भाषा यद्यपि अत्यंत साधारण थी तथापि इसमें भावों की अभिव्यंजना की बड़ी शक्ति है। इसे सधुक्कड़ी भाषा का नाम भी दिया गया किंतु हमारे विचार से इनमें जो रूपक और प्रतीक प्रयुक्त हुए, उनसे इस भाषा का साहित्यक महत्त्व भी है। इसमें सामान्य रूप से उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, यमक आदि अलंकार सरलता से आ गए हैं। कबीर का प्रमुख दृष्टिकोण भावना और अनुभूति को व्यक्त करना था, उन्होंने भाषा के सौष्ठव की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया तथापि उनकी भाषा सरस और सुबोध है। रूपक और प्रतीकों के साथ उन्होंने 'उलटबाँसी' का प्रयोग किया जिससे कार्यव्यापार की स्थिति में विपर्यय ज्ञात होता है। यह अध्यात्मवाद का मर्म समझाने का उनके पास बड़ा प्रभावशाली साधन है। पहले पूत पिछै भई माई' कहकर उन्होंने जीव के उत्पन्न होने पर माया के प्रभाव को लक्षित किया है। अध्यात्मवाद का विषय इस शैली में अभिव्यक्त करने के कारण उनके काव्य में शान्त और अद्भुत रस बिना प्रयास के ही आ गए हैं।

कबीर के काव्य का प्रभाव इतना व्यापक रहा है कि वह देश-काल की सीमाओं को पार कर अनेक भाषाओं मे अनुवादित हुआ। उन्होंने जाति, वर्ग एवं संप्रदायों की सीमाओं का अतिक्रमण कर एक ऐसे मानव-समाज की स्थापना की जिसमें विभिन्न दृष्टिकोण रखनेवाले व्यक्ति भी निस्संकोच होकर सम्मिलित हुए। यही कारण है कि कबीर पंथ में हिन्दू और मुसलमानों का प्रवेश समान रूप से देखा जाता है। कबीर वास्तव में एक ऐसे महाकवि थे जिन्होंने जीवनगत सत्य का संदेश सौन्दर्य के दृष्टिकोण से रखा। जीवन की स्वाभाविक और सात्त्विक क्रियाशीलता में ही उनके धर्म की व्यवस्था है जिसका प्रसार उन्होंने 'सबदों' और 'साखियों' में किया।

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