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जमाल

1545 - 1605

भक्तिकाल और रीतिकाल के संधि कवि। शब्द-क्रीड़ा में निपुण। भावों में मार्मिक व्यंजना और सहृदयता। दृष्टकूट दोहों के लिए स्मरणीय।

भक्तिकाल और रीतिकाल के संधि कवि। शब्द-क्रीड़ा में निपुण। भावों में मार्मिक व्यंजना और सहृदयता। दृष्टकूट दोहों के लिए स्मरणीय।

जमाल का परिचय

उपनाम : 'जमालउद्दीन'

कूट-दोहाकार जमाल हिन्दी के प्रसिद्ध कवि हो गए हैं। किंतु कुछ दोहों के अतिरिक्त अभी तक उनकी जीवनी या किसी अन्य रचना का ठीक-ठीक पता नहीं लगा है। हिन्दी में जमालुद्दीन नाम के कई कवि मिलते हैं। स्व. राधाकृष्णदास ने सूरसागर की भूमिका में सूरदास के समकालीन कवियों में जमाल और जमालुद्दीन नामक दो कवियों का उल्लेख अलग-अलग किया है। उनमें जमाल तो कूट-दोहाकार जमाल ही हैं किन्तु दूसरे जमालुद्दीन संभव है शिवकानपुर के काजी जमालुद्दीन हों जो अकबर काल के हिन्दी कवि हैं।

‘शिवसिंह सरोज’ में जमाल का जन्मकाल सं. 1602 वि. दिया है, और यही संवत् मिश्रबंधुओं को भी मान्य है। इनके अतिरिक्त स्वयं कवि का भी एक दोहा है, जो उसके अकबरकालीन होने का प्रमाण है। रीतिकालीन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् विश्वनाथप्रसाद मिश्र को दीनदयाल गिरि के प्रशिष्य से ज्ञात हुआ कि जमाल रहीम के पुत्र हैं। जो हो, इन दंतकथाओं से इतना तो प्रकट है कि जमाल मुसलमान थे और बादशाह अकबर के समकालीन थे। कवि एक दोहे में अपनी 'गोर' (कब्र) बनाने की चर्चा करता है–

'करज्यो गोर जमाल की, नगर कूप के माँय।
मृग-नैनी चपला फिरें, पड़ें कुचन की छाँय॥'

जमाल के दोहों का पहला संस्करण राजस्थान से निकला। फिर प्रो. नरोत्तमदास स्वामी एम. ए (बीकानेर निवासी) ने कुछ दोहों का संग्रह प्रकाशित किया। इस प्रकार जमाल के राजस्थान में अधिक लोकप्रिय होने तथा उनके दोहों में राजस्थानी भाषा का पुट होने से सहज में ही धारणा बन सकती है कि जमाल राजस्थानी थे। ऐसा अनुमान प्रो. स्वामी ने किया भी है- "राजस्थान में इस कवि के 'दूहों' का इतना अधिक प्रचार है कि उसका राजस्थानी होना बहुत सम्भव है।" कुछ विद्वानों ने इन्हें पिहानी का निवासी माना है।

इनके नाम से 'जमाल पचीसी तथा 'भक्तमाल की टिप्पणी' नाम के दो ग्रंथ कहे जाते हैं। आज इनके लगभग पौने चार सौ फुटकल दोहे तथा छप्पय मिलते हैं। छप्पय तथा कुछ दोहों के बारे में विद्वानों को संदेह है। चलती हुई परंपरा में जमाल के नाम से प्रक्षिप्त दोहे भी बहुत जुड़ गए हैं।

नरोत्तमदास स्वामी एम. ए. ने ‘हिंदुस्तानी पत्रिका’ में गहन शोध के बाद 72 दोहे प्रकाशित किए। इसकी बड़ी विशेषता यह है कि नीति, भक्ति, विरह संबंधी दोहों का विभाजन कर आपने उनका अर्थ भी दे दिया है, साथ ही कहीं-कहीं कूट दोहों को स्पष्ट करने का प्रयत्न भी किया है।

जमाल उच्चश्रेणी का एक कुशल कवि हैं। उनका काव्य रीतिबद्ध है। रीति-काव्य की रूढ़ियों को खोलने के लिए उनका अध्ययन अनिवार्य है। यदि जमाल के कुछ दोहे और मिल जायें तो कूट- परंपरा और कूट की विभिन्न शैलियों का मार्ग खुल जायगा। इनके कूट दोहों का विषय शृंगार है। इनके अधिकांश छंद प्रेम, नीति तथा कृष्ण-भक्ति-विषयक हैं। भाव-व्यंजना बहुत मार्मिक है और उसे बहुत सरल भाषा में अभिव्यक्त किया गया है। कूटों में इनकी बौद्धिक उड़ान दिखायी पड़ती है, तो अन्य छंदों में ये समर्थ कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। भाव की दृष्टि से इनकी देन परंपरागत है। राजस्थान में इनके नीति और शृंगार के दोहे ख़ूब प्रचलित है। इनके दोहों में शब्दक्रीड़ा और कूटार्थ की व्यंजना हुई है। कुछ दोहों में पहेलियों का बनाव भी देखा जा सकता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है :

‘बालपणे धौला भया तरुणपणे भया लाल।
वृद्ध पणे काला भया कारण कोण जमाल।’

जमाल ने कृष्ण संबंधी दोहे भी रचे हैं किंतु स्थान-स्थान पर नीति तथा भक्ति के दोहों में भी उन्होंने प्रेम को ही प्रमुख स्थान दिया है, जिससे सिद्ध होता है कि वे प्रेम की पीर के पुजारी कोई सूफ़ी कवि थे। उनकी अंतिम अभिलाषा उनकी सौंदर्य-भावना को व्यक्त करती है। कवि मानव शरीर को काठ का लट्टू भर मानता है जो प्रेम की डोरी से चारों ओर घुमाया जा रहा है, उसे प्रिय की प्राप्ति के लिए वन-वन मारा फिरना ठीक नहीं लगता, वह तो हृदय में ही उसे ढूँढ़ना चाहता है। काव्य-मकरंद के लोभी मधुव्रतों को जमाल अवश्य ही प्रिय होगा। अब वे उसे भूल नहीं सकते : "कारण कवन जमाल"!

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